भीम रुप धरि असुर संहारे । रामचंद्र के काज संवारे ।। (10)
अर्थ : आपने विकराल रुप धारण करके राक्षसोंको मारा और श्रीरामचन्द्रके उद्धेश्यों को सफल बनाने में सहयोग दिया ।
गुढार्थ : यहाँपर तुलसीदासजी का लिखने का अभिप्राय यह है कि हनुमानजी भगवान का कार्य करते थे, तथा कार्य करते समय उसमें आसुरी वृत्ति के लोग बाधा उत्पन्न करते थे तो उनका उन्होने संहार किया।
राम और रावण का जब युद्ध चल रहा था । मेघनाथ के शक्ति बाण से लक्ष्मणजी मूर्छित हो गये थे। उनके लिए हिमालय से रातों रात संजीवनी बूंटी लानी थी । श्री हनुमानजी ही यह कार्य कर सकते थे । हनुमानजी बूंटी लाने निकल पडे । उधर रावण को पता लगा । श्री हनुमानजी का श्रीराम कथा अनुराग लंका में भी विख्यात था । शत्रुपक्ष को उससे लाभ उठाने की युक्ति सुझी । रावणने कालनेमी को प्रेरित किया वह किसी प्रकार श्री हनुमानजी को रात भर बिलमा ले । कालनेमी को जाना पडा, श्री हनुमानजी को बिलमाने के लिए । कालनेमी ने माया से मार्ग में एक मंदिर बनाकर स्वयं मुनि बनकर बैठ गया । श्री हनुमानजी वहाँ पहुँचे । उस सुन्दर आश्रम को देखने के पश्चात् वहाँ उनकी जल पीकर दिन भर की लढाई की थकावट दूर करने की ईच्छा हुयी । तब उन्होने मुनि को जल का पता पूछने का विचार किया ।
मारुतसुत देखा सुभ आश्रम । मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम ।। (मानस 6-56-1)
श्री हनुमानजी उस मायामय आश्रम में गये और मुनिवेशधारीष्कालनेमी को उन्होने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया-‘जाइ पवन सुत नायउ माथा ।’ प्रत्युत्तरमें कालनेमी राम कथा कहने लगा । ‘लाग सो कहै राम गुण गाथा।’ कालनेमी जानता था श्रीवायुनन्दन राम कथा अनुरागी हैं।ष्उनको उलझाने का कोई अन्य अचूक उपाय न देखकर उसने श्रीराम कथा का सहारा लिया । वह जानता था कि हनुमानजी श्रीराम कार्य और रामकथा में प्राथमिकता श्रीराम कथा को ही देते हैं। कुयोजना को सफल बनाने की आशा से अन्य उपाय किए बिना श्रीराम कथा कहने लगा । इसका फल यह हुआ कि उसकी आशा के अनुकूल ही श्री हनुमानजी रामकथा सुनने लगे । वे अपनी प्यास भी भूल गये । श्री हनुमानजी कथा श्रवणमें ऐसे तल्लीन हो गये कि प्यास ही नहीं बूटि लाने जाना भी भूल गये । देर होने लगी ।
सुषेन ने संजीवनी और समय दोनों का समान महत्व बतलाया था । ‘जियै कुँवर, निसि मिलै मूलिका कीन्ही बिनय सुषेन ।’ (गीतावली 6-9-2) श्री लक्ष्मणजी के लिए सूर्योदय प्राणघातक है, उसके पूर्व जडी का पहुँचना अत्यंत आवश्यक है। बादमें वह प्रभावहीन हो जाएगी। ये सारी बातें हनुमानजी की स्मृति से उतर गयी, क्योंकि श्रीराम कथा कानोंमें पडी, इससे उनके मन, चित्त, सब उसीमें लग गये । अन्य बातों को कौन याद रखें? इधर विलम्ब होने लगा, उधर भगवान श्रीराम की व्याकुलता बढने लगी -
उहाँ राम लक्ष्मणहि निहारी । बोले बचन मनुज अनुसारी ।।
अर्ध रात गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायउ ।।
(मानस 6-60-1)
पर श्री हनुमानजी तो कथा सुनने में तन्मय थे। कालनेमी ने जो युद्ध लीला देखी थी, उसने कहना प्ररंभ किया-
होत महारन रावन रामहिं । जितिहहिं राम न संशय नाहि ।। (मानस 6-56-2)
जब देखी हुई लीला का वर्णन हो चुका, कुछ कहने को शेष न रहा, तब वह अपनी प्रशंसा की कथा सुनाने लगा -
इहाँ भएँ मैं देखऊँ भाई । ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई ।।
(मानस 6-56-3)
उस समय कानों से केवल श्रीराम कथा सुनने वाले हनुमानजी के चित्त में विक्षेप हुआ उन्हे प्यास मालूम हुई और आगे चलकर मकरी-युत अप्सरासे सारा भेद खुला । वे कालनेमी को मार कर आगे बढे और द्रोणाचल को ही उठाकर लंका ले गये । वैद्य ने जडी पाकर तुरंत उपचार किया और लक्ष्मणजी स्वस्थ होकर उठ बैठे ।
इस प्रकार हनुमानजी के चरित्र में हमें यह दिखाई देता है कि भगवान के कार्य में जो बाधक बनता था हनुमानजी ने भीमरुप धरकर उसका संहार किया ।
तुलसीदासजी का यहाँ लिखने का यह अभिप्राय है कि जो लोग भगवान के विरोध में खडे रहते हैं, भगवद् विचारों का विरोध करतें हैं, वे कितने ही बडे हों उनको मोह के प्रवाहमें नहीे बहना चाहिए, उनका त्याग कर देना चाहिए।
तुलसीदासजी ने विनय प्रत्रिका में लिखा है-
जाके प्रिय न राम बैदेहि ।
सों छाँडिये कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ।।
तज्यो पिता प्रलहाद, विभीषण बंधु, भरत महतारी ।
बलि गुरु तज्यो, कंत ब्रज-बिनितनि, भये-मुद मंगलकारी ।। 1।।
(जिसे श्रीराम-जानकी प्यारे नहीं, उसे करोडों शत्रुओं के समान त्याग देना चाहिए, चाहे वह अपना अत्यंत ही प्यारा क्यों न हो । उदाहरण स्वरुप - प्रल्हाद ने अपने पिता (हिरण्यकशिपु) को, विभीषण ने अपने भाई (रावण) को, भरत ने अपनी माता (कैकयी) को और ब्रज-गोपियोंने अपने-अपने पतियों को (भगत्प्राप्ति में बाधक समझकर) त्याग दिया, और ये सभी आनन्द और कल्याण करने वाले हुए )
कृष्ण भगवान ने अपने जीवन में यह करके दिखाया है । कंस मामा होते हुए भी ‘वह मेरा नहीं है’ ऐसा कहकर उन्हाने उसको मार दिया ।
अर्जुन जब कुरुक्षेत्र के मैदान में गुरु, पितामह, भाइयोंको देखकर कहता है - ‘गुरुन हत्वा हि महानुभावान....’ इन सबको मैं कैसे मारुँ ? भगवानने कहा ‘जैसे मैने पूतना मासी व कंस मामा को मारा’, वैसे तुम भी इनका वध करो । वे असत् विचार फैलाते थे इसलिए उनको मारा है । ष्
‘भीम रुप धरि असुर संहारे’ याने यहाँ तुलसीदासजी सह समझाना चाहते हैं कि जिस प्रकार हनुमानजी ने प्रभु कार्य में बाधक असुर कालनेमी इत्यादि राक्षसों का वध किया इसी प्रकार मानव में भी विकासात्मक क्रोध होना चाहिए।
विकासात्मक क्रोध, स्वयं तक ही मर्यादित रहता है ऐसा नहीं है । समाज में विशिष्ट प्रकार के मुल्य क्यों नहीं टिकते, समाज में राक्षसी विचार क्यों निर्माण होते हैं, इसके लिए क्रोध आना चाहिए । मनुष्य ऐसा विचार करता है कि ईश्वर को अमान्य व्यवहार करने की हिम्मत ही समाज क्यों करता है ? मनुष्य को इसकी चिढ आनी चाहिए । आज किसी को इसकी चिढ नहीं आती । रामायणमें वर्णन है कि वानरों को चिढ नहीे आती थी तो भगवान रामचन्द्र ने उनको चिढाया । उन्होने कहा, हम इस जगत में बैठे हुए भी रावणी विचारों का प्रचार यहाँ होता ही कैसे है ? हमसे यह सहन नहीं होता है । रावणी विचारों को नष्ट करने के लिए हम अपनी सम्पूर्ण शक्ति प्रयुक्त करेंगे । रावणी विचारों के प्रति राम को कितनी चिढ थी ।
क्रोध दो प्रकार का होता है - पहला विकारात्मक और दूसरा विकासात्मक । विकारात्मक क्रोध जब हमारा स्वार्थ बिगडता है तब आता है । हमारा अहम दुखाने पर जो क्रोध आता है वह विकारात्मक क्रोध है । मनुष्य को ऐसा लगता है कि ‘मुझ जैसा मनुष्य कहता है, फिर भी यह नहीं मानता’ इस प्रकार स्वार्थ के कारण अथवा अहम् को दुखाने पर आनेवाला क्रोध विकारात्मक क्रोध है।
दूसरा विकासात्मक क्रोध है । क्रोध का रुप रंग बदलने पर वह विकासात्मक क्रोध कहलाता है । तुकाराम महाराज कहते हैं, ‘क्रोध असावा इन्द्रियदमनी’ इन्द्रियदमन में क्रोध रखो । अरे ! मेरी इन्द्रियाँ बुरे मार्ग से, प्रभु को अमान्य मार्ग से क्यों जाती है ? नहीं जाने दूँगा । तुकाराम महाराज को अपनी इन्द्रियाँ उल्टे मार्ग से आचरण करें, इस बात का क्रोध था । विकारात्मक क्रोध छोड देना चाहिए तथा विकासात्मक क्रोध की भूमिका समझ लेनी चाहिए ।
महाभारत में श्री.ष्ण के भाषणों में उनका प्रखर गुस्सा प्रकट होता है । क्यों? समाज में विपरीत मूल्य स्थापन नहीं होने चाहिए । ऐसे राक्षसी विचारों की निर्मिति में मेरी एक भी ईंट नहीं होनी चाहिए । समाज में दैवी विचार स्थिर होने चाहिए और दैवी मूल्य स्थिर करने में अपनी शक्ति प्रयुक्त करने की जिनकी तैयारी है वे ही मेरे हैं, दूसरे मेरे नहीं है ऐसी उनकी दृढ धारना थी। दुर्योधन मेरा भाई नहीं है ! दुर्योधनने भोजन का निमंत्रण दिया तो इन्कार कर दिया । वह भी करारा जबाब देकर । दुर्योधन पर उनको कितना गुस्सा था । उसको जबाब देते समय उनकी भाषा अत्यंत तीक्ष्ण थी ।
दुर्योधन के घर भोजन का इन्कार करने पर उसने पूछा, ‘आप मेरे घर भोजन करने क्यों नहीं आते ? आप आयेंगे तो मुझे आनन्द होगा । पूरी सभा में श्रीकृष्णने दुर्योधन को जबाब दिया है । तुम्हे आनन्द होगा, परन्तु मुझे उसमें आनन्द नहीं है । प्रस्थापित मूल्योंको नष्ट करने का तुम प्रयत्न कर रहे हो । ऐसे मनुष्य के प्रति मेरे अन्त:करणमें प्रेम हो ही नहीं सकता । दूसरी बात, दो प्रसंगों में मनुष्य दूसरे मनुष्य के घर जीमने जाता है । जब उसको खाने को नहीं मिलता है ऐसी मेरी स्थित नहीं है और दूसरा तुम पर मेरा प्रेम नहीं है । इसलिए मैं तुम्हारे यहाँ जीमने के लिए नहीं आया । ऐसा जबाब श्री.ष्ण ने दिया है । उसके श्लोक आपको महाभारत में पढने को मिलेंगे । ‘न मे द्वेष्योस्ति न प्रिय:’ ऐसा गीता में कहने वाले श्रीकृष्ण ‘योगं योगेवरात् कृष्णात्’ श्रीकृष्ण स्थितप्रज्ञ की भूमिका में श्री.ष्ण का जो गुस्सा है वह विकासात्मक गुस्सा है ।
जगत् में दैवी विचार, भगवान के विचार, प्रभु का प्रेम सबको समझाओ । उसके लिए जगत् में प्रेम दो । श्री.ष्ण भगवानने गोपीयोंको प्रेम दिया । मथुरावासीयोंको प्रेम दिया । और गोपोंको भी प्रेम दिया । जो लोग भगवान के प्रेम की भाषा नहीं समझे, जो भगवान को मानने को तैयार नहीं हुए, जिनको भगवान के नामपर ऐशो आराम करना था, भगवान का नाम लेकर असत् मूल्योंको समाज में स्थिर करना था, ऐसे बदमाश लोगों को भगवान श्री.ष्णने शिक्षा की है, उन्हे दण्ड दिया है । जिसको भूमि समतल करनी है उसको ऐसा गुस्सा करना ही पडता है । बीचमें एकाध वृक्ष बाधाजनक हो तो उसको काटना ही पडता है । भगवानके विचारोंके विरोध में खडा रहने वाला, भगवान की उपेक्षा करने वाला मनुष्य कितना ही बडा धनवान, अधिकारी अथवा जगत की दृष्टि में महापुरुष होगा, तो भी वह मेरा नहीं है ऐसा कहने की हिम्मत .ष्णभक्त तथा रामभक्त में होनी चाहिए ।
द्रोपदी धर्मराज से कहती है, ‘इतना अन्याय होता है’, राक्षसी विचारोंका इतना प्रचार हो रहा है, फिर भी तुमको चिढ नहीं आती ? जगत्में भगवान है ही नहीं, ऐसा कहने वालोंकी संख्या प्रति दिन बढती जाती है, फिर भी तुम खामोश बैठे हो ? तुम्हे नींद कैसे आती है? क्षत्रिय कुलमें पैदा हुए हो फिर भी इस परिस्थिति में तुमको गुस्सा नहीं आता ? तुम जटाओं को बढाकर ‘स्वाहा स्वाहा’ करते बैठो हो । तुम्हारे जैसों की जगत्में आवश्यकता नहीं है ।
संस्कृति को गर्तमें ले जाने वाले लोगों को देखकर जिनको चिढ नहीं आती, ऐसे लोगोंकी मित्रता से किसी को आनन्द नहीं होता । विकासात्मक क्रोध की भूमिका समझ लेनी चाहिए । विकासात्मक क्रोध आता है और झट से शांत हो जाता है । विकासात्मक क्रोध से उसको आत्मानन्द में विक्षेप नहीं आता । उसका आत्मशक्ति पर, प्रभु पर पूर्ण प्रेम होता है । उसके कारण निर्माण हुआ क्रोध बाधाजनक नहीं होता । इस प्रकार हमें भी हनुमानजी की तरह विकासात्मक क्रोध को जीवन में लाना चाहिए ।
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