दोहा:- श्रीगुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुरु सुधारी ।
अर्थ : श्रीगुरुजी महाराज के चरण कमलों की धूलि से अपने मन रुपी दर्पण को पवित्र करके श्री रघुवीर के निर्मल यश का वर्णन करता हूं , जो चारों फल ( धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ) देने वाला है ।
गूढार्थ : तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा का प्रारंभ गुरु वंदना से किया है । भारतीय संस्.ति में गुरु को बहुत अधिक महत्व है । निर्जीव वस्तु को उपर फेंकने के लिए जिस तरह सजीव की जरुरत होती है । उसी प्रकार लगभग जीवनहीन और पुशतुल्य बने मानव को देवत्व की ओर ले जाने के लिए तेजस्वी व्यक्ति की आवश्यकता रहती है वह गुरु ही है । गुरु याने जो लघु नहीं है और लघु को गुरु बनाता है । गुरुपूजन अर्थात देवपूजन । अज्ञान के अंधकार को दूर करने के लिए ज्ञान की ज्योत जलानेवाले गुरु होतें है । गुरु के उपकारों से जिसका हृदय भर आया हो ऐसे किसी .तज्ञ मानव ने गाया है कि :
गुरुब्र्रम्हा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर: ।
गुरु: साक्षात् परब्रम्ह तस्मै श्री गुरुवे नम: ।।
ब्रम्हा की तरह सद्गुणोंका सर्जक, विष्णु की तरह सद्वृत्ति के पालक और महादेव की तरह दुर्गूण और दुवृत्ति के संहारक और जीव-शिव का मिलन करानेवाले गुरु साक्षात् परब्रम्ह के समान हैं। ऐसे गुरु का पूजन भारतीय संस्कृति का सुमधुर काव्य है ।
गुरु अनेक प्रकार के होतें है, जैसे कि मार्गदर्शक गुरु, पृच्छक गुरु, दोष विसर्जक गुरु, चंदन गुरु, विचार गुरु, अनुग्रह गुरु, स्पर्श गुरु, वात्सल्य गुरु, कुर्मगुरु, चंद्रगुरु, दर्पण गुरु इत्यादि प्रत्येक गुरु की अपनी विशिष्टता है ।
तुलसीदासजी के श्री नरहरियानंद जी शिक्षा गुरु, तथा हनुमानजीे मार्गदर्शक गुरु थे, जिनके मार्गदर्शन तथा कृपासे ही उन्हे भगवान श्रीराम के दर्शन प्राप्त हुए । जो सामान्य विद्या देता है वह गुरु ही है, परन्तु जो विद्याओंमें श्रेष्ठ विद्या अध्यात्म विद्या देता है वही सच्चा गुरु है ।
गुरु शिक्षक अथवा आचार्य नहीं है । शिक्षक तथा आचार्य तत् तत् विषय हमें समझाते हैं, परन्तु गुरु हमें ज्ञान के गर्भागार में ले जाते हैं । गुरु हमें जीवन के प्रांगण में ले जाते है । हिन्दी में एक कहावत है । ‘पीना पानी छानके और गुरु करना जानके’। गुरु सोच समझकर ही बनाना चाहिए । संस्कृत में एक सुभाषित है ।
बहवो गुरुवो लोके शिष्य वित्तापहारका: ।
क्वचितु तत्र दृशन्ते शिष्यचित्तापहारका: ।।
जगतमें अनेक गुरु शिष्यका वित्त हरण करनेवाले होते हैं, परन्तु शिष्यका चित्त हरण करनेवाले गुरु क्वचित ही दिखायी देते हैं । ‘गुरु’ शब्द का अर्थ क्या है ? ‘गु’ शब्द का अर्थ है ‘अंधकार’ और ‘रु’ शब्द का अर्थ है - निवर्तक - निकालनेवाला । अंधकार का जो निवारण करता है वह गुरु है । जीवन क्या है ? किसलिए है ? इस सम्बन्धमें सब के मन में अंधकार है । अंधकार में प्रकाश कौन देगा ? कोई कहेगा प्रकाश सूर्य देता है । सच बात है । सूर्य ही अंधकार का नाश करता है । वह अंधकार अलग है, परंतु जीवन के सम्बन्ध में जो अंधकार है वही ‘गु’ है । इस अंधकार को हटाकर जीवन का अर्थ समझानेवाला गुरु है । जीवन का लक्ष्य क्या है ? ‘भगवद्प्राप्ती हमारे जीवन का लक्ष्य है । अदृश्य के पास जाना है अदृश्य शक्ति पर प्रेम करना है तो जीवनमें मार्गदर्शक गुरु की आवश्यकता पडेगी ही । तुलसीदासजी को भगवान श्रीराम के दर्शन हनुमानजी की कृपा तथा मार्गदर्शन से ही प्राप्त हुए थे ।
अध्यात्म में गुरु की आवश्यकता होती है । क्योंकि गुरु तथा संतो के चरण रज की महिमा अनंत बतायी गयी है । गुरु तथा संतों की महत्ता, श्रेष्ठता से हम शुध्द होतें है, पवित्र होते हैं । इसीलिए हमारी संस्कृति में संतों के चरणरज की महिमा अनंत गायी गई है।
एक समय भक्त पुंडलिक अपने माता पिता को लेकर उत्तर भारत में तीर्थयात्रा के लिए गये । तीर्थयात्रा करते करते वे एक दिन कुकुट ऋषि के आश्रम पहुँंचे । रात्रि के समय ब्रम्ह मुहूर्तमें चित्त एकाग्र करने पुंडलिक उठे । उस समय उन्होने देखा तीन कुरुप स्त्रियाँ आश्रम की ओर आ रही है । उन्होने सोंचा इस पवित्र जगह यह कुरुप स्त्रियाँ किसलिए आती होगी ? । पुंडलिक ने देखा तीनों स्त्रियोंने समुचा आश्रम झाडकर स्वच्छ कीया और वे अतिशय सुंदर रुपवती बनकर चली गई । ऐसा रोज 2-3 दिन उन्होने देखा, तीसरे दिन वे स्त्रियाँ जब बाहर जाने लगी कि पुंडलिक ने भागते हुए उनके चरण पकड लिये तथा पूछा कि मातायें आप कौन है ? । मैं सतत तीन दिन से देख रहा हूँ आप तीनों कुरुप, मलिन ऐसी स्थितमें आती है और सुन्दर रुपवती बनकर जाती हैं । उन्होने कहा हम गंगा, यमुना और सरस्वती हैं । सब लोग स्वत: के पाप हममें धोतें है इसलिए हम काली, कुरुप और मलिन हो जाती हैं, इन पापों से आयी यह मलिनता हम कहाँ धोयें ? । कुकुट ऋषि के यहाँ नित्य हजारों लोगों को ऋषी भक्ति मार्ग समझाकर कर्मयोग की दीक्षा देते हैं । भगवान का काम करनेवाले, प्रेरणा देनेवाले कुकुट ऋषी के चरण-रज से इस आश्रम की धूलि पवित्र हो गयी है । हम जब झाडू लगाती हैं तो यह पवीत्र रज कण हमारे शरीरपर पडते हैं जिससे हम सुंदर बन जाती है । ऐसी महत्ता है संतोंके चरण रज की । हमारे जैसे लोगों को संतों की चरण-रज पवित्र लगती ही है परन्तु स्वयं परमात्मा को भी संतों की चरण रज पवित्र लगती हैं । इसलिए तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा के प्रारंभ में गुरु के चरण रज से मन रुपी दर्पण को स्वच्छ करने की प्रार्थना की है ।
हमें यदि भगवान का बनना है तो प्रथम हमारे मन को स्वच्छ करना होगा इसलिए तुलसीदासजी ने लिखा है ‘निज मन मुकूरु सुधारि’ मानव जीवन में मन का असाधारण स्थान है । मन को शक्तिशाली, संस्कारी, संवेदनशील और प्रतिकारक्षम बनाना चाहिये । यह केवल स्वाध्याय से हो सकता है । मन प्रभुकी विभूति है, और मानव जीवन का परिवर्तन करनेवाला गुरु है । अत: मन को जितना उँचा ले जायेंगे उतना ही जीवन उच्च बनेगा। मन चाहे तो मनुष्य को भगवान भी बना सकता है और चाहें तो पशु बना सकता है। मनुष्य को कहीं भी ले जाने की शक्ति मन के पास है । मन और बुध्दि शरीर के वाहक हैं अत: उनको स्वाध्याय से शक्तिशाली बनाना चाहिये । जिस प्रकार घुडदौड की स्पर्धा में प्रशिक्षीत घोडा प्रथम आता है और न सिखाया घोडा चाबुक मारने पर भी ठीक नहीं चलता, उसी प्रकार मन और बुध्दिको जितना सुसंस्.त करेंगे जीवन उतना ही उन्नत होगा । जीवन-विकास साधा जायेगा । हमारा मन ही मर गया है । उसमें न जीवन है न ताजगी है । छोटी छोटी बातोंमें हम मन को मार डालते है । यहाँ तक की व्यवहार में भी हम मन को कुचल डालते हैं ।
स्नान से शरीर स्वच्छ बनता है और प्रार्थना से मन । हमारे जीवनमें मन काफी महत्वपूर्ण है । जीवन की प्रत्येक क्रिया में मन आवश्यक है । गीतामें भी भगवानने जीवात्मा से मन ही मांगा है । ‘‘मन्मना भव’’ या ‘‘मय्येव मन आधत्स्व’’ परन्तु हमारा मन तो मलिन और कलुषित है, काला बना हुआ है, ऐसे मन को भगवान को कैसे अर्पण करें इसीलिए ‘निज मन मुकुरु सुधारि’
जीवन विकास के लिए मन का शुध्दिकरण आवश्यक है। तथा भगवान को भी मन देना है तो उसको शुध्द स्वच्छ करके देना होगा । अस्वच्छ, काला कलूटा मन भगवान कैसे स्विकार करेंगे? मन को स्वच्छ कैसे करेंगे ? मन का रंग कैसे बदला जा सकता है ? और यदि हमें कोयले का रंग बदलना हो तो हम कैसे बदलेंगे ? कोयले को साबून और पानी से धोयेंगे तो पानी और साबून दोनों ही समाप्त हो जायेंगे लेकिन कोयला कोयला ही रहेगा । कोयले का रंग नही बदलेगा । कोयले का रंग बदलने का एक ही रास्ता है कि वह जहाँ से उत्पन्न हुआ है उस अग्नि में उसे डाल दो, दो मिनट में उसका रंग बदल जाएगा, लाल हो जाएगा । इसी प्रकार हमारा मन जहाँ से हमें मिला है वहाँ याने परमात्मा में जोड देने से उसका रंग बदल जाएगा । स्वच्छ, निर्मल, तथा पवित्र बन जाएगा । इसीलिए तुलसीदासजी ने मन को स्वच्छ करने के लिए परमात्मा में मन को जोडने के लिये लिखा है, ‘निज मन मुकुरु सुधारि’ तथा भगवान के गुणोंका यशगान करने से मनुष्यको चारों फल की प्राप्ती होती है। चारों फल यानी चार पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) ।
हमारी भारतीय संस्कृति में चार पुरुषार्थ बताये गये है । चार पुरुषार्थ में प्रथम धर्म है, तथा अन्तमें मोक्ष है । अर्थात धर्म और मोक्ष के बीचमें जो अर्थ और काम का विवेकपूर्ण उपभोग करता है वही सबसे बडा बुध्दिमान है । तथा वही मानव जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है । वही सफल जिज्ञासु है । इसके विपरीत जो दिन रात अर्थ एवं काम के पिछे दौड लगाते है, उनका धर्म एवं अंतीम मोक्ष का लक्ष्य भी निष्क्रिय हो जाता है, क्योंकि अर्थ और काम की ऐसी मार है कि आदमी जीवन भर उपभोग करते करते स्वयं को काल के हवाले कर देता है तथा सदा के लिये चौरासी के चक्कर में फंस जाता है ।
भगवान विष्णु को चतुर्भुज बताया गया है । विष्णु भगवान के चार हाथ है । एक-एक हाथ में एक-एक बात पुरुषार्थ देने है । ‘धर्मार्थ काम: सममेव सेव्य:’ यह तत्वज्ञान है । धर्मको ही लेकर बैठेंगे तो आप भक्त नही है, उसी प्रकार केवल अर्थ का ही विचार करेंगे, सुबह से रात्रि तक पैसे का ही विचार, मंदिर में भी पैसे के लिए ही जाना तो भी आप भक्त नही है । धर्म अर्थ और काम सममेव सेव्य: । कितनी सुंदर व्यवस्था दी है हमारे धर्मशास्त्र ने तीनों के लिये समान समय देना चाहिये । और धर्म, अर्थ , काम का मुँंह मोक्ष की ओर रखना चाहिये ।
धर्म शास्त्रों और ऋषियों ने धर्म, अर्थ, काम तथा प्रभुकार्य के लिए समय का समान निर्धारण किया है। अर्थात् दिन-रात के चौबीस घंटों में से प्रत्येक को छ घंटे देने चाहिए । यह मानव जीवन की आदर्श समय-सारिणी है । परन्तु अर्थ और काम के लिए यदि समय कम लगता हो तो धर्म बडा भाई है, इसलिए उसमें से दो घंटे काम के लिए और दो घंटे अर्थ प्रधान कार्याें के लिए ले लेना चाहिए । इस प्रकार आठ घंटे अर्थाेपार्जन के लिए, आठ घंटे सांसारिक सुखोपभोग (काम ) के लिए, छ घंटे सोने के लिए और दो घंटे प्रभूकार्य और स्वाध्याय के लिए निर्धारित होने चाहिए । प्रात: एक घंटा भगवान की सेवा-पूजा और रात को एक घंटा नियमित स्वाध्याय करना चाहिए । शास्त्रकारों की मानव से कम से कम इतनी अपेक्षा है ।
तुलसीदासजी कहते है कि पौरुष हमें भगवान से भेंट रुपमें मिलता है । ‘‘बरनऊं रघुवर बिमल जसु जो दायक फल चारि’’ यहॉँ गोस्वामीजी का लिखने का अभिप्राय यह है कि पौरुष हमें भगवान से मिली हुयी भेंट है, परन्तु हमने पौरुष का उपयोग किया है या नही उसका विचार करना पडेगा । प्रत्येक को उपभोग लेना है । उपभोग के साधन कमाने और संभालने के लिए पौरुष है । जगतमें कुछ भी मुफ्त में नही मिलता सब कमाना पडता है । किये बिना कुछ नहीं मिलता, बोने पर ही अनाज मिलता है, खोदनेपर ही पानी मिलता है अन्न तथा पानी के लिए भी कर्म करने पडते है। मनुष्य को पौरुष का उपयोग करना चाहिये।
जीवन विकास के लिए भी पौरुष चाहिए । मनुष्य को विचार करना चाहिए कि अपने पौरुष का एक दशांश भाग भी क्या मैने अपने विकास के लिए इस्तेमाल किया है ? लोगों के पास कितना पौरुष होता है ? क्या उसमे ंसे थोडा भी उन्होने भगवद्कार्य के लिए उपयोग किया है ? भारतीय संस्कृति ने काम को भी पुरुषार्थ माना है। संस्कृतिमें तीन बातें आती है 1) जीवन प्रणाली (Way of Life) विचार प्रणाली (Way of Thinking), 3) भक्ति प्रणाली (Way of Worship) इन तीनो के संयोग से संस्कृति खडी होती है । भारतीय संस्कृतिमें बौध्दिक, भावनात्मक और लैंगिक इन तिनों स्तरपर विचार करके काम को पुरुषार्थ माना है । आज काम का अर्थ केवल शारिरीक सुख माना जाता है । बुध्दि, भावना और लिंग देह मिलकर वश: होता है । एक दुसरे के लिए परस्पर आकर्षण को वश: कहते हैं, उसे उन्नत करना चाहिए। भगवान ने स्त्री-पुरुष के बीच जो आकर्षण रखा है उसे भगवान तक ले जाना है । उसीको मधुराभक्ति कहते हैं । इससें पता चलता है कि ऋषि मुनियों ने इसका कितना विचार किया होगा तभी उसे पुरुषार्थ माना गया है । सहजीवन से तात्विक जीवन और आध्यात्मिक जीवन श्रेष्ठ बनते हैं । हमारे देशमें एक भी ऐसा ऋषि नही था जिसे ऋषि पत्नि नहीं थी ।
जीवन क्या है, कैसा है, मेरे पास कौन कौनसी बातें है और भगवान ने मुझे क्यों दि है ? इन्हे समझकर उपयोग मे लाना चाहिए, इसलिए आत्म निरिक्षण (Introspection) की जरुरत है । सभी ज्ञानेन्द्रिय, कामेंद्रियोंको पौरुष युक्त बनाना चाहिए । आज ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेंद्रिय भोग से पतित हो गयी है । उनमें से पौरुष चला गया है, किसी के मनमें बुध्दिमें, इन्द्रियोंमें तथा उपभोगमें भी पौरुष नही है । हमने पौरुष का उपयोग नही किया है । समर्थ शरीर तथा समर्थ मन बनाना जरुरी है इसीलिए आगे के दोहे में तुलसीदासजी हनुमानजी से बल, बुध्दि और विद्या प्रदान करने के लिए प्रार्थना करते है ।
read hanuman chalisa everyday
ReplyDeleteJai Hanuman. Nice Job. hanuman chalisa is Great Mantra for help ward off spirits.
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ReplyDeleteThank you for Sharing Hanuman Chalisa Doha...
ReplyDeleteHanuman Chalisa is the powerful Mantra. ..