Thursday, June 30, 2011

लाय सजीवन लखन जिवाये । श्री रघुबीर हरषि उर लाये ।।  (11)
अर्थ : आपने संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मणजी को जीवाया जिससे श्रीरघुवीरने हर्षित होकर आपको अपने हृदय से लगा लिया ।
गुढार्थ : लक्ष्मण राम के बहिचर प्राण थे ।  लक्ष्मण को यदि राम का दाहिना हाथ कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी ।  दोनों की जोडी थी ।  राम है और लक्ष्मण नहीं, यह कभी संभव ही नहीं हो सकता है ।  रामायणमें राम अकेले थे ही नहीं ।  जिस प्रकार मनुष्य के साथ उसकी छाया का होना निश्चित है, उसी प्रकार राम के आते ही लक्ष्मण का आना अनिवार्य ही है ।

विश्वामित्र दशरथ के पास केवल राम को ही मांगते हैं ।  राम का जाना निश्चित हुआ कि लक्ष्मण तो चलेंगे ही, उन्हे अलग से निमंत्रण देने की आवश्यकता ही नहीं थी ।  राम को आमंत्रित करने का अर्थ है साथ लक्ष्मण को आमंत्रित करना ।  माँ को बुलाया कि उसके साथ तीन वर्ष के बालक को बुलाया ही समझो ।  ‘बालक को साथ लेती आना’ ऐसा कहना जिस प्रकार माँ का अपमान है, ठीक उसी प्रकार राम को बुलाने के पश्चात् लक्ष्मण को निमंत्रण देने का अर्थ यही समझा जाएगा कि इन दोनों के पारस्परिक संबंध का यथार्थ ज्ञान हमें नहीं है ।  यदि आदमी को बुलाने के बाद उसकी छाया को उसके साथ जानेसे रोका जा सकता है तो लक्ष्मण को भी राम के साथ जाने से रोका जा सकता है ।  दोनों में इतनी अभिन्नता थी ।  कोई भी कार्य करवाना हो तो राम को ही कहते और उनका बोलना लक्ष्मण को भी कहने के समान होता ।  इस प्रकार भाई-भाई का अभिन्न संबंध केवल रामायण ही संसार को दिखा सकती है ।

राम का लक्ष्मण पर असीम प्रेम था, राम के राज्याभिषेक के समय राम लक्ष्मण के लिए जो कहते हैं वह विचार करने योग्य है ।  राम यह नहीं कहते कि ‘मैं राजा बनने चला हूँ’ ।  ‘लक्ष्मण! मया सार्धं प्रशाधि त्वं वसुंधराम्’ लक्ष्मण तुझे ही राज्य करना है ऐसा राम कह रहें हैं ।  कितनी उच्च भावना है ।  दोनोंका जीवन अभिन्न है ।

यदि राम कीर्तिका पताका है तो लक्ष्मण पताका का दण्ड है ।  ध्वजकी पूजा करते समय काष्ठनिर्मित दंड को ही चांवल चंदन चढता है ।  तुलसीदासजी ने तथा महर्षि वाल्मीकि ने रामचन्द्र का चरित्र-चित्रण करके मानव जाति के समक्ष संस्.ति का उच्च ध्येय रखा और इस ध्येय के समीप पंहूँचने के लिए लक्ष्मण के जैसी उग्र साधना करने का इशारा किया है ।

साधक की कठोर उग्र साधना का ऐसा महान आदर्श लक्ष्मण ने उपस्थित किया है कि जिसकी रजकण तक पहुँचने के लिए अनेक जन्मों का परिश्रम करना पडेगा ।    

राम ने जिस समय लक्ष्मण को वन में साथ चलने को मना किया तो लक्ष्मण ने कहा, ‘जिस प्रकार जल के बिना मछली नहीं रह सकती उसी प्रकार लक्ष्मण भी राम के बिना नहीं रह सकता है ।  यह शब्द केवल श्षि्टाचार के नाते अथवा राम को भला लगने के लिए नहीं बोले गये थे ।  लक्ष्मण के विशुद्ध अन्त:करण से निकले हुए ये उद्गार थे ।  तभी तो जब लक्ष्मण को रामका वियोग हुआ है उसी स्थल पर रामायण की इतिश्री करनी पडी है ।  लक्ष्मण का संपूर्ण जीवन राम की सेवा में बिता है ।  वे राम के साथ इतना घुलमिल गये थे कि राम शब्द का उच्चारण करते ही लक्ष्मण साथ में आता ही है। लक्ष्मण जब मूर्छित होते हैं तो राम कहते हैं :-
न हि मे जीवितेनार्थ: सीतया च जयेन वा । को हि मे जीवितेनार्थ: त्वयि पंचत्वमागते ।।
देशे देशे कलत्राणि देशे देशे च बांधवा: । तं तु देशे पश्यामि यत्र भ्राता सहोदर: ।।
ये दोनों श्लोक बतलाते हैं कि राम लक्ष्मण की ओर किस दृष्टि से देखते थे। राम शब्द है और लक्ष्मण अर्थ ।  राम शब्द का अर्थ लक्ष्मण के कारण था । लक्ष्मण के बिना राम शब्द अर्थ रहित हो जाए ।  तभी तो राम विलाप करते हुए कहते हैं ‘‘ सीता न मिले तो कोई बात नहीं, परन्तु यदि लक्ष्मण चला जाएगा तो मेरे प्राण निकल जायेंगे ।’’ राम जैसे सत्यवादी पुरुष इन शब्दों का उच्चारण करते हैं ।  वास्तव में देखा जाए तो राम कौशल्या के पुत्र और लक्ष्मण सुमित्रा के पुत्र, फिर भी राम ‘सहोदर:’ (एक माँ के पेट से जन्मे हुए भाई) शब्द का प्रयोग करते हैं ।  यही बात दोनोंके संबंध की विशिष्टता समझाती है । 

कर्तव्य और प्रेम के बीच झगडा उत्पन्न होते ही राम बुद्धि का आश्रय लेते हुए भावना को गौन समझकर कर्तव्य पथपर अग्रेसर होते थे, परन्तु लक्ष्मण का धर्म- कर्तव्य सब कुछ राम ही थे ।  लक्ष्मण के लिए प्रेम और कर्तव्य का प्रश्न ही नहीं ।  राम ही उनके सर्वस्व थे ।  राम स्वयं एक उत्.ष्ट नैतिक मूल्य हैं, अत: विचार करने की जरुरत ही नहीं ।  जब राम के साथ वन गमन के लिए निकले तो अपनी पत्नी उर्मिला को केवल ‘मैं जाता हूँ ’  इतना ही कहकर चल पडे ।  ‘ मैं जाऊँ या न जाऊँ ’ यह पूछा तक नहीं ।  पत्नी की राय तो लेनी चाहिए, परन्तु नहीं ली, पति कर्तव्य का विचार ही नहीं किया ।  जहाँ राम का संबंध आ गया वहाँ उन्हे दूसरी कोई बात सूझती ही नहीं थी । 

उनके मन मे कभी भी धर्म और कर्तव्य के विचारोंका संघर्ष राम के प्रेम के साथ नही हुआ, क्योेंकि उनका कर्तव्य एक मात्र राम ही थे । उनके मनमें राम के सिवाय दूसरा कर्तव्य नहीं, राम के सिवाय अन्य विचार नहीं । धन्य उर्मिला और धन्य है लक्ष्मण । धन्य है वह उर्मिला जिसने अपना व्यक्तित्व पति में एकरस कर डाला और धन्य है वह लक्ष्मण जिसने अपना समस्त जीवन राम की छायारुप बना डाला । लक्ष्मण को राम के कीर्तिध्वज की लाठी ही समझो, क्योंकि लक्ष्मण के ही कारण रामरुपी ध्वज फहराता है ।

मेघनाथ की शक्ति बाण से लक्ष्मण जब मूर्छित होते हैं तो सभी चिन्तित हो जाते है । उसी समय विभीषण के परामर्श से महाबुद्धिमान जाम्बवान् ने कहा भैया हनुमान । तुम तुरंत लंका जाओ । पहले तुमने उस नगरी को अच्छी प्रकार से देख ही लिया है । वहाँ सुषेन नामक योग्यतम चिकित्सक है । तुम उसे ले आओ । उसके बताये हुए उपचार से निश्चित ही लक्ष्मण के घाव तुरंत भर जायेंगे, और ये पूर्ववत् शक्ति सम्पन्न हो जायेंगे ।

विभीषन ने हनुमानजी को सुषेन के घर का पता ठीक-ठीक बता दिया था । बस, हनुमानजी अत्यंत छोटा रुप धारणकर लंका में तुरंत प्रविष्ठ हो गये । सुषेन के द्वारपर पहुँचकर उन्होने सोंचा-‘सुषेन शत्रुपक्ष के वैध है, कहीं ये चलना अस्वीकार न कर दें । बस, पवनकुमार ने अधिक समय नष्ट करना उचित नही समझा । उन्होने उनका सम्पूर्ण भवन समूल ही उखाड लिया और उसे आकाश मार्ग से लाकर श्रीराम के समीम कुछ दूरीपर रखकर खडे हो गये । विभीषणने सुषेन को स्थिति समझा दी । सुषेन ने तुरंत नाडी, हृदय एवं घावकी परीक्षा की और बोले -‘घाव गम्भीर है, किंतु यदि संजीवनी बुटी यहाँ सुर्योदय के पूर्व आ जाय तो ये जीवित हो जायेंगे और इनकी शक्ति भी पूर्ववत लौट आयेगी ।

‘जय श्रीराम!’ का घोष करके श्री रघुनन्दन के चरणों मे प्रणाम कर पवनकुमार वायुवेग से उडे । उन्हे हिमालय के समीप पहुँचते देर न लगी । तथा रास्ते में कालनेमी ने बाधा डालने का प्रयत्न किया उसे समाप्त कर तुरंत द्रोणागिरी पहुँचे वहाँ उन्होने देखा अनेक औषधियाँ प्रकाशित हो रही थी वे सुषेन द्वारा बताई हुयी औषधी पहचान न कर सके, इस का कारण उन्होने औषधियों सहित पर्वत को ही उखाड लिया और गरुड के समान वेग से आकाश में उड चले ।
द्रोणाचल सहित आकाश में उडते हुए हनुमानजी आयोध्या के ऊपर से जा रहे थे कि भरतजी ने देखा, उन्होने सोंचा ‘विशाल पर्वत लिये सम्भवत: यह कोई असुर जा रहा है । उन्होने अपना धनुष उठाया और बाण छोड दिया ।‘ श्रीराम! जय राम।। जय सीताराम!!! कहते हुए हनुमानजी मूच्‍र्छित होकर धरतीपर गिर पडे । उनकी मूच्‍र्छितावस्था मे भी पर्वत सुरक्षित था।

‘अरे! यह तो कोई श्रीराम भक्त है । भरतजी का हृदय कांप उठा! वे दौडे उन्होने श्रीराम भक्त हनुमान को देखा उनके मुख से श्रीराम का स्वर सुनाई दे रहा था । भरतजी के नेत्र बहने लगे। उन्होने हनुमानजी को सचेत करने के अनेक प्रयत्न किये, किंतु सब कुछ विफल होते देख, उन्होने कहा -‘‘जिस निर्मम विधिने मुझे अपने प्रभु श्रीराम से पृथक् किया, उसीने मुझे आज यह दु:ख का दिन भी दिखाया है। किंतु यदि भगवान श्रीराम के अमल चरण कमलोंमे मेरी विशुद्ध प्रीति है और श्री रघुनाथजी मुझपर प्रसन्न हों तो यह वानर पीडामुक्त होकर पूर्ववत् सचेत और सशक्त हो जाय ।’’

‘भगवान श्रीराम की जय!’-हनुमानजी बोले-‘हनुमानजी तुरंत उठकर बैठ गये । उन्हे जैसे कुछ हुआ ही नहीं । वे पूर्णतया स्वस्थ एवं सशक्त थे । उन्होने अपने सन्मुख भरतजी को देखकर पूछा-‘प्रभो मैं कहाँ हुँ?’ ‘यह तो अयोध्या है।’ आँसू पोंछते हुए भरतजीने कहा ‘तुम अपना परिचय दो।’
‘यह आयोध्या है? ‘हनुमानजी बोले-‘तब तो मै अपने स्वामीकी पवित्र पुरी मे पहुँच गया हूँ और मेरे प्रभु प्राय: गुण-गान किया करते है, लगता है कि आप भरतजी हैं ।

हनुमानजीने भरतजी के चरणों मे प्रणाम किया और कहा प्रभो! देवी अंजना मेरी माता है और मैं वायुदेव का पुत्र श्रीरामदूत हनुमान हूँ। लंकाधिपति रावण ने माता जानकी का हरण कर उन्हे अशोक वाटिकामें रख दिया है । प्रभुने समुद्रपर सेतु निर्माण करवाया और फिर अपने वीर वानर-भालुओं की असीम सेना के साथ समुद्र के पार उतर गये । युद्ध हो रहा है । आज मेघनाथ की शक्ति से लक्ष्मण मुर्छित हो गये हैं । उन्ही के लिये मै संजीवनी बूटी लेने द्रोणाचल गया था । बुटी न पहचानने के कारण पूरा पर्वत-शिखर लिये जा रहा हूँ । अत्यन्त सौभाग्य की बात है कि मार्ग में आपका दर्शन हो गया । प्रभु श्रीराम सदा ही आपका गुण-गान किया करते हैं । आज आपके दर्शन कर मैं कृतार्थ हो गया ।

‘‘भैया हनुमान! ‘रोते हुए भरतजीने उन्हे अपने वक्ष से लगा लिया और रोते-रोते ही उन्होने हनुमानजी से कहा-‘ भाई पवनकुमार! मैं प्रभु के एक भी काम न आ सका । मुझ पातकी के कारण प्रभुको ये समस्त विपदायें झोलनी पड रही है । और जब भाई लक्ष्मण मुच्‍र्छित पडे हैं, तब मैने और व्यवधान उत्पन्न कर दिया।
उधर रात्रि बीत जानेकी आशंका थी । इस कारण भरतजी ने कहा-भाई हनुमान ! तुम मेरे बाण पर बैठ जाओ । मेरा यह बाण तुम्हे तुरंत प्रभु के समीप पहुँचा देगा । कहीं देर न हो जाय? हनुमानजी ने हाथ जोडकर भरतजी से कहा - प्रभो! स्वामी के प्रताप से आपका स्मरण करता हुआ मैं शीघ््रा ही पहुँच जाऊँगा । हनुमानजीने भरतजी के चरणों मे प्रणाम किया और पूर्ववत वायुवेगसे आकाश मे उड चले ।

उधर रात्रि अधिक व्यतीत होते देख भगवान श्रीराम अत्यंत दु:ख से अधीर हो गये और विलाप करते हुए कहने लगे -‘ जिस भाई लक्ष्मण ने मेरे लिये माता-पिता, पत्नी ही नही, सम्पूर्ण राज्य-सुख को त्याग दिया, उसके बिना मैं अयोध्या में कौन-सा मुँह लेकर जाऊँगा । सीता मिल गयी तो अब लक्ष्मण के बिना मेरा क्या होगा? अपने प्राण प्रिय भाई के बिना मैं निश्चय ही अपना प्राण त्याग दूँगा।

लीलावपु भगवान श्रीराघवेन्द्र के नेत्रों से अश्रुपात हो रहा था । उन्हे बिलखते और करुण विलाप करते देखकर वानर-भालू अत्यंन्त व्याकुल हो गये । सब के नेत्रों से अश्रु प्रवाहित होने लगे । रोते हुए वे रह-रहकर आकाश की और देखते जाते थे । उनके मन में महावीर हनुमान के आ जाने की आशा लगी थी और वह आशा भी क्षण भर में पुरी भी हो गयी ं।

‘जय श्रीराम!’ का घोष करते हुए हनुमानजी द्रोणाचल को श्री रघुनाथजी के कुछ ही समीप एक ओर रख दिया और चरणों पर गिर पडे । वानरों की प्रसन्नता की सीमा नहीं थी । हर्षावेग में वानर हनुमानजी के चरण दबाते तो केाई हाथ और कोई उनकी पूँछ सहला रहा था ।
इधर वानर-भालू प्रसन्नता व्यक्त कर रहे थे, उधर सुषेण ने बूटी लेकर लक्ष्मणजी को सुँघा दी। लक्ष्मणजी जैसे नींद से जाग पडे हो । उठते ही उन्होने कहा -‘ मेघनाथ कहाँ है।’ कुछ देर के बाद उन्हे वास्तविक परिस्थिति का ज्ञान हुआ ।

भक्तवत्सल श्री रघुनाथजी ने अत्यंत प्रसन्न होकर हनुमानजी को गले लगाते हुए कहा- हे वत्स! आज तुम्हारी कृपा से ही मैं अपने भाई लक्ष्मण को स्वस्थ निरामय देख रहा हूँ।

हनुमानजी के इस महान कार्य की स्वयं भगवान श्रीराम प्रशंसा तो करते ही थे, समस्त वानर-भालू सर्वत्र उन्हींका गुण-गान कर रहे थे; किंतु अभिमान शून्य आंजनेय  के हृदय में इसका तनिक भी विचार नहीं था, जैसे उन्होने कुछ किया ही नही था । उनके हृदय में यही भाव था मानो यह सब करनेवाले कोई अन्य ही थे।

तुलसीदासजी द्वारा लिखीत इस चौपाई को यदि हम सांकेतिक अर्थ में लें तो ‘लक्ष्मण’ यह हमारी भारतीय संस्.ती का प्रतीक है । लक्ष्मणकी तरह आज हमारी भारतीय संस्.ति मुच्‍र्छित हुयी है, सुप्त अवस्था में चली गयी है । मानव-मानव में स्थित राम आज सुप्तावस्था में है, वह क्षुद्र, और मृतवत् बना हुआ है । मनु की संतान-मनुष्य को ऐसा क्षुद्र और मृतवत्् बना हुआ देखकर सृष्टि-सर्जक को कितनी व्यथा होती होगी !

सोते हुए के कानों में सांस्.तिक शंखध्वनि फूँकने और मृत मानव के शरीर में जीवन संचार करने के लिए आज भी ऐसे हनुमान के उपासना की जरुरत है । आवश्यकता है मात्र उन्हे जगाने की । समुद लान्घने के समय सिरपर हाथ रखकर बैठे हुए हनुमान को जरुरत है पीठपर हाथ फेरकर विश्वास देनेवाले जाबुवंत की । शस्त्र त्यागकर बैठे हुए युद्ध पराड़्मुख अर्जुन को जरुरत है उत्साह प्रेरक मार्गदर्शक .ष्ण की । आज हमें जरुरत है हनुमानजी की तरह पुरुषार्थी और पराक्रमी सांस्कृतिक वीर बनने की ।

विश्व में भव्य ऐसी भारतीय संस्.ति है , परन्तु उसकी आज विडम्बना हो रही है । मानवके समृद्ध भौतिक जीवन के साथ उसका परलौकिक और अध्यात्मिक जीवन को मार्गदर्शन करनेवाली वैदिक संस्कृति आज रो रही है । हजारों वर्षोंसे विश्व को मार्गदर्शन करती आयी हुयी संस्.ति खडी  करने के लिये हमारे अवतार - राम.ष्णादि महापुरुष निरंतर कर्मप्रवृत्त रहे । ऋषियोंने अविरत अपने रक्त की धारा उंडेलकर उसको बनाये रखा, सन्तोंने अथक प्रयत्नों द्वारा प्रेरणा का पीयूष पिलाकर हममें संस्कारों को जीवित रखा, इन सबसे उऋण होनेे का कभी कोई विचार करता है क्या? हमारा हृदय अहर्निश गतिमान रखकर प्रभु हमारी सेवा करते है । प्रभु के इस ऋण से मुक्त होने का कोई कभी विचार करता है क्या?

आज सर्वत्र अशान्ति फैली हुयी है । सर्वत्र असंतोष व्याप्त है । भोगलालसा अमर्यादित बढ गयी है । परिणाम स्वरुप दु:ख से त्रस्त और ग्रस्त समाज आज के बुद्धिमानोंको और जागृत अन्त:करण के व्यक्तियोंको आव्हान कर रहा है । आज का युग ही आव्हाण का युग है । सहृदयी, विचारशील और शिक्षित मानव आज व्यथित हुआ है । वेदनाओं का अनुभव कर रहा है । धर्म को, संस्.ति को जो विनाश से बचाता है, वही क्षत्रीय है ऐसा कहा जाता है । आज ऐसे ही .तिशील हनुमान की जरुरत है। इसलिये समय के इस आव्हान को प्रभु के प्रति प्रेम होने के कारण कृतज्ञतासे स्वीकार करना चाहिये और ‘संघेशक्ति: कलौयुगे’ यह उक्ति ध्यान में लेकर यथाशक्ति, यथामति संस्.ति की सेवा करने के लिये कटिबद्ध होना चाहिये, तो ही हम हनुमानजी की तरह सांस्.तिक कार्य करके प्रभु को प्रसन्न कर सकते हैं ।
भीम रुप धरि असुर संहारे । रामचंद्र के काज संवारे ।।  (10)
अर्थ : आपने विकराल रुप धारण करके राक्षसोंको मारा और श्रीरामचन्द्रके उद्धेश्यों को सफल बनाने में सहयोग दिया ।
गुढार्थ : यहाँपर तुलसीदासजी का लिखने का अभिप्राय यह है कि हनुमानजी भगवान का कार्य करते थे, तथा कार्य करते समय उसमें आसुरी वृत्ति के लोग बाधा उत्पन्न करते थे तो उनका उन्होने संहार किया।
राम और रावण का जब युद्ध चल रहा था । मेघनाथ के शक्ति बाण से लक्ष्मणजी मूर्छित हो गये थे।  उनके लिए हिमालय से रातों रात संजीवनी बूंटी लानी थी ।  श्री हनुमानजी ही यह कार्य कर सकते थे ।  हनुमानजी बूंटी लाने निकल पडे ।  उधर रावण को पता लगा । श्री हनुमानजी का श्रीराम कथा अनुराग लंका में भी विख्यात था । शत्रुपक्ष को उससे लाभ उठाने की युक्ति सुझी ।  रावणने कालनेमी को प्रेरित किया वह किसी प्रकार श्री हनुमानजी को रात भर बिलमा ले ।  कालनेमी को जाना पडा, श्री हनुमानजी को बिलमाने के लिए ।  कालनेमी ने माया से मार्ग में एक मंदिर बनाकर स्वयं मुनि बनकर बैठ गया । श्री हनुमानजी वहाँ पहुँचे ।  उस सुन्दर आश्रम को देखने के पश्चात् वहाँ उनकी जल पीकर दिन भर की लढाई की थकावट दूर करने की ईच्छा हुयी । तब उन्होने मुनि को जल का पता पूछने का विचार किया ।
मारुतसुत देखा सुभ आश्रम । मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम ।। (मानस 6-56-1)
श्री हनुमानजी उस मायामय आश्रम में गये और मुनिवेशधारीष्कालनेमी को उन्होने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया-‘जाइ पवन सुत नायउ माथा ।’ प्रत्युत्तरमें कालनेमी राम कथा कहने लगा । ‘लाग सो कहै राम गुण गाथा।’ कालनेमी जानता था श्रीवायुनन्दन राम कथा अनुरागी हैं।ष्उनको उलझाने का कोई अन्य अचूक उपाय न देखकर उसने श्रीराम कथा का सहारा लिया ।  वह जानता था कि हनुमानजी श्रीराम कार्य और रामकथा में प्राथमिकता श्रीराम कथा को ही देते हैं।  कुयोजना को सफल बनाने की आशा से अन्य उपाय किए बिना श्रीराम कथा कहने लगा ।  इसका फल यह हुआ कि उसकी आशा के अनुकूल ही श्री हनुमानजी रामकथा सुनने लगे ।  वे अपनी प्यास भी भूल गये ।  श्री हनुमानजी कथा श्रवणमें ऐसे तल्लीन हो गये कि प्यास ही नहीं बूटि लाने जाना भी भूल गये । देर होने लगी ।
सुषेन ने संजीवनी और समय दोनों का समान महत्व बतलाया था । ‘जियै कुँवर, निसि मिलै मूलिका कीन्ही बिनय सुषेन ।’ (गीतावली 6-9-2) श्री लक्ष्मणजी के लिए सूर्योदय प्राणघातक है, उसके पूर्व जडी का पहुँचना अत्यंत आवश्यक है। बादमें वह प्रभावहीन हो जाएगी। ये सारी बातें हनुमानजी की स्मृति से उतर गयी, क्योंकि श्रीराम कथा कानोंमें पडी, इससे उनके मन, चित्त, सब उसीमें लग गये ।  अन्य बातों को कौन याद रखें?  इधर विलम्ब होने लगा, उधर भगवान श्रीराम की व्याकुलता बढने लगी -
उहाँ  राम लक्ष्मणहि  निहारी । बोले  बचन  मनुज अनुसारी ।।
     अर्ध रात गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायउ ।।
                                             (मानस 6-60-1)
पर श्री हनुमानजी तो कथा सुनने में तन्मय थे। कालनेमी ने जो युद्ध लीला देखी थी, उसने कहना प्ररंभ किया-
होत महारन रावन रामहिं । जितिहहिं राम न संशय नाहि ।। (मानस 6-56-2)
जब देखी हुई लीला का वर्णन हो चुका, कुछ कहने को शेष न रहा,  तब वह अपनी प्रशंसा की कथा सुनाने लगा -
इहाँ भएँ मैं देखऊँ भाई ।  ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई ।।
                                     (मानस 6-56-3)
उस समय कानों से केवल श्रीराम कथा सुनने वाले हनुमानजी के चित्त में विक्षेप हुआ उन्हे प्यास मालूम हुई और आगे चलकर मकरी-युत अप्सरासे सारा भेद खुला ।  वे कालनेमी को मार कर आगे बढे और द्रोणाचल को ही उठाकर लंका ले गये ।  वैद्य ने जडी पाकर तुरंत उपचार किया और लक्ष्मणजी स्वस्थ होकर उठ बैठे ।
इस प्रकार हनुमानजी के चरित्र में हमें यह दिखाई देता है कि भगवान के कार्य में जो बाधक बनता था हनुमानजी ने भीमरुप धरकर उसका संहार किया ।
तुलसीदासजी का यहाँ लिखने का यह अभिप्राय है कि जो लोग भगवान के विरोध में खडे रहते हैं, भगवद् विचारों का विरोध करतें हैं, वे कितने ही बडे हों उनको मोह के प्रवाहमें नहीे बहना चाहिए, उनका त्याग कर देना चाहिए।
तुलसीदासजी ने विनय प्रत्रिका में लिखा है-
जाके प्रिय न राम बैदेहि ।
सों छाँडिये कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ।।
तज्यो पिता प्रलहाद, विभीषण बंधु, भरत महतारी ।
बलि गुरु तज्यो, कंत ब्रज-बिनितनि, भये-मुद मंगलकारी ।। 1।।
(जिसे श्रीराम-जानकी प्यारे नहीं, उसे करोडों शत्रुओं के समान त्याग देना चाहिए, चाहे वह अपना अत्यंत ही प्यारा क्यों न हो ।  उदाहरण स्वरुप -  प्रल्हाद ने अपने पिता (हिरण्यकशिपु) को, विभीषण ने अपने भाई (रावण) को, भरत ने अपनी माता (कैकयी) को और ब्रज-गोपियोंने अपने-अपने पतियों को (भगत्प्राप्ति में बाधक समझकर) त्याग दिया, और ये सभी आनन्द और कल्याण करने वाले हुए )
कृष्ण भगवान ने अपने जीवन में यह करके दिखाया है ।  कंस मामा होते हुए भी ‘वह मेरा नहीं है’ ऐसा कहकर उन्हाने उसको मार दिया ।
अर्जुन जब कुरुक्षेत्र के मैदान में गुरु, पितामह, भाइयोंको देखकर कहता है - ‘गुरुन हत्वा हि महानुभावान....’ इन सबको मैं कैसे मारुँ ?   भगवानने कहा ‘जैसे मैने पूतना मासी व कंस मामा को मारा’, वैसे तुम भी इनका वध करो ।  वे असत् विचार फैलाते थे इसलिए उनको मारा है ।  ष्    
‘भीम रुप धरि असुर संहारे’ याने यहाँ तुलसीदासजी सह समझाना चाहते हैं कि जिस प्रकार हनुमानजी ने प्रभु कार्य में बाधक असुर कालनेमी इत्यादि राक्षसों का वध किया इसी प्रकार मानव में भी विकासात्मक क्रोध होना चाहिए।
विकासात्मक क्रोध, स्वयं तक ही मर्यादित रहता है ऐसा नहीं है । समाज में विशिष्ट प्रकार के मुल्य क्यों नहीं टिकते, समाज में राक्षसी विचार क्यों निर्माण होते हैं, इसके लिए क्रोध आना चाहिए ।  मनुष्य ऐसा विचार करता है कि ईश्वर को अमान्य व्यवहार करने की हिम्मत ही समाज क्यों करता है ?   मनुष्य को इसकी चिढ आनी चाहिए ।  आज किसी को इसकी चिढ नहीं आती ।   रामायणमें वर्णन है कि वानरों को चिढ नहीे आती थी तो भगवान रामचन्द्र ने उनको चिढाया ।  उन्होने कहा, हम इस जगत में बैठे हुए भी रावणी विचारों का प्रचार यहाँ होता ही कैसे है ?  हमसे यह सहन नहीं होता है । रावणी विचारों को नष्ट करने के लिए हम अपनी सम्पूर्ण शक्ति प्रयुक्त करेंगे ।  रावणी विचारों के प्रति राम को कितनी चिढ थी ।
क्रोध दो प्रकार का होता है - पहला विकारात्मक और दूसरा विकासात्मक ।  विकारात्मक क्रोध जब हमारा स्वार्थ बिगडता है तब आता है ।  हमारा अहम दुखाने पर जो क्रोध आता है वह विकारात्मक क्रोध है ।  मनुष्य को ऐसा लगता है कि ‘मुझ जैसा मनुष्य कहता है, फिर भी यह नहीं मानता’ इस प्रकार स्वार्थ के कारण अथवा अहम् को दुखाने पर आनेवाला क्रोध विकारात्मक क्रोध है। 
दूसरा विकासात्मक क्रोध है ।  क्रोध का रुप रंग बदलने पर वह विकासात्मक क्रोध कहलाता है ।  तुकाराम महाराज कहते हैं, ‘क्रोध असावा इन्द्रियदमनी’ इन्द्रियदमन में क्रोध रखो ।  अरे ! मेरी इन्द्रियाँ बुरे मार्ग से, प्रभु को अमान्य मार्ग से क्यों जाती है ?  नहीं जाने दूँगा ।  तुकाराम महाराज को अपनी इन्द्रियाँ उल्टे मार्ग से आचरण करें, इस बात का क्रोध था ।  विकारात्मक क्रोध छोड देना चाहिए तथा विकासात्मक क्रोध की भूमिका समझ लेनी चाहिए ।
महाभारत में श्री.ष्ण के भाषणों में उनका प्रखर गुस्सा प्रकट होता है ।   क्यों?  समाज में विपरीत मूल्य स्थापन नहीं होने चाहिए ।  ऐसे राक्षसी विचारों की निर्मिति में मेरी एक भी ईंट नहीं होनी चाहिए ।  समाज में दैवी विचार स्थिर होने चाहिए और दैवी मूल्य स्थिर करने में अपनी शक्ति प्रयुक्त करने की जिनकी तैयारी है वे ही मेरे हैं, दूसरे मेरे नहीं है ऐसी उनकी दृढ धारना थी। दुर्योधन मेरा भाई नहीं है !  दुर्योधनने भोजन का निमंत्रण दिया तो इन्कार कर दिया ।  वह भी करारा जबाब देकर ।  दुर्योधन पर उनको कितना गुस्सा था ।   उसको जबाब देते समय उनकी भाषा अत्यंत तीक्ष्ण थी ।
दुर्योधन के घर भोजन का इन्कार करने पर उसने पूछा, ‘आप मेरे घर भोजन करने क्यों नहीं आते ?  आप आयेंगे तो मुझे आनन्द होगा ।  पूरी सभा में श्रीकृष्णने दुर्योधन को जबाब दिया है ।  तुम्हे आनन्द होगा, परन्तु मुझे उसमें आनन्द नहीं है ।  प्रस्थापित मूल्योंको नष्ट करने का तुम प्रयत्न कर रहे हो ।  ऐसे मनुष्य के प्रति मेरे अन्त:करणमें प्रेम हो ही नहीं सकता ।  दूसरी बात,  दो प्रसंगों में मनुष्य दूसरे मनुष्य के घर जीमने जाता है ।  जब उसको खाने को नहीं मिलता है ऐसी मेरी स्थित नहीं है और दूसरा तुम पर मेरा प्रेम नहीं है ।  इसलिए मैं तुम्हारे यहाँ जीमने के लिए नहीं आया ।  ऐसा जबाब श्री.ष्ण ने दिया है ।  उसके श्लोक आपको महाभारत में पढने को मिलेंगे ।  ‘न मे द्वेष्योस्ति न प्रिय:’ ऐसा गीता में कहने वाले श्रीकृष्ण ‘योगं योगेवरात् कृष्णात्’ श्रीकृष्ण स्थितप्रज्ञ की भूमिका में श्री.ष्ण का जो गुस्सा है वह विकासात्मक गुस्सा है । 
जगत् में दैवी विचार, भगवान के विचार, प्रभु का प्रेम सबको समझाओ ।  उसके लिए जगत् में प्रेम दो ।  श्री.ष्ण भगवानने गोपीयोंको प्रेम दिया ।  मथुरावासीयोंको प्रेम दिया ।  और गोपोंको भी प्रेम दिया । जो लोग भगवान के प्रेम की भाषा नहीं समझे, जो भगवान को मानने को तैयार नहीं हुए, जिनको भगवान के नामपर ऐशो आराम करना था, भगवान का नाम लेकर असत् मूल्योंको समाज में स्थिर करना था, ऐसे बदमाश लोगों को भगवान श्री.ष्णने शिक्षा की है, उन्हे दण्ड दिया है ।  जिसको भूमि समतल करनी है उसको ऐसा गुस्सा करना ही पडता है । बीचमें एकाध वृक्ष बाधाजनक हो तो उसको काटना ही पडता है ।  भगवानके विचारोंके विरोध में खडा रहने वाला, भगवान की उपेक्षा करने वाला मनुष्य कितना ही बडा धनवान, अधिकारी अथवा जगत की दृष्टि में महापुरुष होगा, तो भी वह मेरा नहीं है ऐसा कहने की हिम्मत .ष्णभक्त तथा रामभक्त में होनी चाहिए ।
द्रोपदी धर्मराज से कहती है, ‘इतना अन्याय होता है’, राक्षसी विचारोंका इतना प्रचार हो रहा है, फिर भी तुमको चिढ नहीं आती ?  जगत्में भगवान है ही नहीं, ऐसा कहने वालोंकी संख्या प्रति दिन बढती जाती है, फिर भी तुम खामोश बैठे हो ?  तुम्हे नींद कैसे आती है?  क्षत्रिय कुलमें पैदा हुए हो फिर भी इस परिस्थिति में तुमको गुस्सा नहीं आता ?  तुम जटाओं को बढाकर ‘स्वाहा स्वाहा’ करते बैठो हो ।  तुम्हारे जैसों की जगत्में आवश्यकता नहीं है ।
संस्कृति को गर्तमें ले जाने वाले लोगों को देखकर जिनको चिढ नहीं आती, ऐसे लोगोंकी मित्रता से किसी को आनन्द नहीं होता ।  विकासात्मक क्रोध की भूमिका समझ लेनी चाहिए ।  विकासात्मक क्रोध आता है और झट से शांत हो जाता है ।  विकासात्मक क्रोध से उसको आत्मानन्द में विक्षेप नहीं आता ।  उसका आत्मशक्ति पर, प्रभु पर पूर्ण प्रेम होता है । उसके कारण निर्माण हुआ क्रोध बाधाजनक नहीं होता ।  इस प्रकार हमें भी हनुमानजी की तरह विकासात्मक क्रोध को जीवन में लाना चाहिए ।

सूक्ष्म रुप धरि सियहिं देखावा । बिकट रुप धरि लंक जरावा ।। (9)
अर्थ :  आपने अपना बहुत छोटा रुप धारण करके सीता मां को दिखाया तथा भयंकर रुप धारण करके लंका को जलाया ।
गुढार्थ : तुलसीदासजी लिखते है हनुमानजी ने सीता माता को अपना छोटा रुप दिखाया इसका तात्पर्य यह है कि जीव कितना ही बडा क्यों न हो परन्तु माता (भगवान) के सामने उसे छोटा ही होना चाहिए । तथा उन्होने आगे लिखा है ‘बिकट रुप धरि लंक जरावा‘’ अर्थात जीव भले ही सूक्ष्म हो परंतु उसमें अपार शक्ति होती है तथा उस शक्ति का उपयोग भगवान का साधन बनकर बडे से बडा काम कर सकता है । यहाँ तुलसीदासजी का यह संकेत है कि जीव को सुक्ष्म बनना चाहिए। अहम (Ego) को सूक्ष्म करना है । अहम ( Ego) कम करते जाओ । इसका अर्थ है कि सूक्ष्म बनो । अहम शूण्य ( Egoless) बनकर कैसे रहना यह प्रश्न है । भगवान का साधन (Instrument) बनकर काम करो तो अहम-शुण्य बन जायेगा । यह उसका उपाय है । फिर अहम नही सतायेगा । जो जीवन में छोटा बनता है, वही बडा बन सकता है । जिस प्रकार हनुमानजी भगवान के साधन बनकर लंका मे सीता की खोज करने गये तथा अकेले ही अपनी शक्ति से समस्त लंकापुरी को जला दिया। लंका दहन के पश्चात् वहाँ से वापस आने पर श्रीरामने प्रशंसा करते हुए उनसे पूछा-
कहु कपि रावन पालित लंका। के बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ।। (मानस 5-32-2-1/2)

रामने पुछा हे हनुमान! बताओ तो रावण के द्वारा सुरक्षित लंका और उसके बडे बांके किले तुमने किस तरह जलाया । भला अपने स्वामी द्वारा की हुई प्रशंसा निराभिमान सेवक हनुमानजी को कैसे अच्छी लगती? अपनी प्रशंसा का श्रवण ही तो अभिमान उत्पन्न करा देता है । अत: हनुमानजी ने उत्तर दिया-
सो सब तव प्रताप रघुराई । नाथ न कछु मोरि प्रभुताई ।। (मानस 5-32-5)

हनुमानजी नम्र होकर कहते  है प्रभो इसमें मेरी कुछ भी बढाई नही है । यह सब आपका ही प्रताप है । यदि हनुमानजी की जगह हमारे जैसा कोई स्वार्थी जीव होता तो वह स्वयं भी उसीके साथ अपनी प्रशंसा के गीत गाने लगता।

हम जब कोई अच्छा काम करते हैं और यदि हमारी कोई बढाई करदे तो तुरंत हम कहना शुरु कर देते है हाँ मैने ऐसा किया, वैसा किया आदि, किन्तु हनुमानजी जानते ही थे कि ‘इन्द्रे्रपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैगुणै:’। स्वयं (प्रशंसा सुननेसे या) अपने ही मुख से अपनी प्रशंसा करने से स्वर्गाधिपति इन्द्र भी लघुता को प्राप्त हो जाते है । अत: वे बोले-
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं  जा पर तुम्ह अनुकूल ।
तब प्रभावँ बडवानलहि जारि सकइ खलु तूल ।। (मानस 5-33)

हे प्रभो! जिस पर आप प्रसन्न हो, उसके लिए कुछ भी कठीन नही है । आपके प्रभाव से रुई (जो स्वयं जल्दी जलनेवाली वस्तु है) बडवानल को निश्चय ही जला सकती है । (अर्थात असम्भव भी सम्भव हो सकता है ।)

सर्व प्रथम भक्त को सूक्ष्म बनना चाहिये । कितने ही भक्त कहते है, हम अब सूक्ष्म में पहूँच गये। लोग उनका उपहास करते है । इसका कारण उनको इसका अर्थ मालूम नही है । उनको लगता है, ये दिखने मे तो तगडे लगते है, और सूक्ष्म मे कैसे गये? अस्सी किलो तो इनका वजन है, तो फिर सूक्ष्म मे किस प्रकार गये? सूक्ष्म में जाना है, और उसके लिये सूक्ष्म बनना आवश्यक है । व्यक्ति के जीवन में दो शोभास्पद बातें है । एक गुण, दूसरी क्रिया-कर्म ! ये दोनाें उसकी शोभा है । इस स्थितिमे पहूँचे हुए मनुष्य के जीवन में अनेक गुण है । परन्तु उसकी भूमिका और समझ ऐसे है कि, ये गुण मैने नहीं कमाये है, ये गुण मुझमें आये हैं । गुण कमाना भिन्न बात है और गुण आना भिन्न बात है। भगवान मुठ्ठि खोल खोलकर किसी को नहीं देते । भगवान यदि इस प्रकार देते होंगे तो उनके दरबार मे यह पक्षपात है । ऐसा होना संभव ही नही है । गुण कमाने पडते है ।

गुण उठाने के लिये साधना करनी पडती है । साधना किये बिना गुण नही आते । वास्तवमें, साधक गुण कमाकर ही भक्त की अतियुच्च स्थिति प्राप्त करता है । उसके विविध गुण लोगों को आकृष्ट करते हैं वह कहता है, ‘ मैं ये गुण नहीं लाया हूँ वे आये हुए हैं। उसका घमण्ड समाप्त हो गया है। वास्तवमें गुण उसने कमाये है, परन्तु वह कहता है, गुण आये है, मैं नही लाया हूँ। फिर से कहता हूँ कि गुण साधना से ही आते है, फिर भी लाये हुए गुण नहीं है, आये हुए गुण है।

इस भक्त की क्रियाएं लोगों को विशिष्ट लगती है । अच्छि लगती है, महान लगती है । फिर भी वह कहता है कि क्रिया मेरी नही है, क्रिया तो भगवान ही करते है । यह भक्त झूठ नही बोलता है । वह उसकी असली भावना है । क्योंकि व्यवहार में लोग वैसा बोलते ही है । किसीसे पूछो, ‘क्यों, व्यापार कैसा चल रहा है? तो वह कहता है, अजी! भगवान अच्छि तरह से चला रहे हैं, उनकी .पासे बहुत अच्छा चल रहा है । परन्तु उसे मनमें शत प्रतिशत विश्वास है कि इसमें मेरा अपना कतृ‍र्त्व है । परन्तु वैसा बोलना अच्छा नहीं लगता, शोभा भी नहीं देता, और डर लगता है, कि ‘सब मै करता हूँ ऐसा कहूँ और कदाचित् कल सब चला गया तो? व्यवहार में मनुष्य वैसा बोलता है यह बात अलग है और भक्त सच्ची भावना से बोलता है कि सभी क्रियायें भगवान की है वह बात अलग है।

लोकेषणारहित जीवन होना चाहिये । लोकेषणारहित और लोक-प्रेम से भरे हुए जीवन को सूक्ष्म जीवन कहते है । हनुमानजी का जीवन ऐसा ही है । यह तुलसीदासजी इस चौपाई द्वारा हमें समझाते है ।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के बारहवे अध्याय में भक्तो के गुणों का वर्णन करते हुए उसमे ‘निर्मम:’ के गुण का भी वर्णन किया है ।
अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् मैत्र: करुण एवच ।
निर्ममो निंहकार सम दु:ख सुख क्षमी ।।  (गीता12-13)
भक्त कहता है कि प्रभु! मुझमें जो गुण दिखाई देते है, वह आपकी .पा का फल है, मेरे कतृ‍र्त्व का नहीं । भगवान कहते है- तुने साधना तो की है न? भक्त कहता है भगवान! साधना तो की है, पर गुणों का बाजार कहाँ है? इसकी मुझे जानकारी नही थी । गुणों के रुप रंग का भी मुझे पता नहीं । उदारता क्या है, मुझे इसका भी ज्ञान नही । तब मै गुण कहाँ से लाया? शायद मेरी दृढता, स्थिरता, बौद्धिक एवं मानसिक तत्परता को देखने के लिये ही आपने मुझसे साधना का नाटक करवाया हो और मेरी थोडी बहुत दृढता देखकर ही आपने मुझे गुण प्रदान किये हैं । इसलिए वे आपके है, मेरे नही- ‘न मम’।

सृष्टि के सर्जनहार के साथ जुडना आना चाहिये । हमको जो वित्त, यश कीर्ति आदि मिलती है, उसको यदि भगवान के साथ जोड देंगे तो उनमें सुगन्ध आएगी और हमारा जीवन भी सुगन्धित हो जाएगा।

उपनिषद में एक सुन्दर कथा है । देव और असुरों की लडाई में विजय प्राप्त करने के पश्चात विजयोत्सव मनाने के लिए देवराज इन्द्र की अध्यक्षता में देवताओं की एक सभा हुई । सभा मे विजय के लिए सब एक दूसरे की प्रशंसा करने लगे ‘अस्माकमेवायं विजय:।’ हमने विजय प्राप्त की । चित्शक्ति को लगा कि देवताओंने क्या मेरे बिना ही विजय प्राप्त की? क्या विजय का श्रेय केवल देवताओं को ही है? ऐसा विचार करके अतीन्द्रिय शक्ति विचित्र रुप धारणकर वहाँ उपस्थित हुई । उसे देखकर सबका ध्यान उधर आकर्षित हुआ । इन्द्र ने अग्नि को आदेश दिया कि वह जाकर देखें कि वह अद्भूत व्यक्ति कौन है?

अग्नि जब उस विचित्र व्यक्ति की ओर बढा तो उसने अग्नि की संपूर्ण शक्ति खींच ली । अग्नि बिलकुल निर्बल हो गया, उसमे बोलने की शक्ति भी नही रही । चित्शक्ति ने उसमें थोडी शक्ति भरकर पूछा-‘तुम कौन हो?’ उत्तर मिला’-‘मै अग्नि हूँ।’

चित्शक्ति ने पूछा - ‘तुममें क्या शक्ति है? तुम क्या करते हो?’ अग्नि को लगा यह कोई नया मालूम पडता है, उसको मेरी शक्ति का पता नहीं है । अग्नि ने कहा ‘अग्निर्वा अहमस्मि जातवेदो वा अहमस्मि’ मैं अग्नि हूँ और जातवेदस (पूर्ण ज्ञानी) मेरा खिताब है ।

चित्शक्ति ने पूछा-‘पर तुम्हारी शक्ति क्या है?’ अग्नि ने कहा तुमको मेरी शक्ति का पता ही नही है? मुझमें इतनी शक्ति है कि मैं एक मिनट में सारी दुनिया को जला सकता हूँ । अतीन्द्रिय शक्ति ने उसका तेज खींचकर कहा-‘सारी दुनिया की बात छोडो लो’ इस तिनके को जलाकर दिखाओ । ‘पूरी शक्ति लगाने पर भी वह घास के एक तिनके को नहीं जला सका । इसलिए लज्जा से सिर झुकाकर वापस लौटा और चुपचाप अपनी जगह पर जा बैठा।

अग्नि कुछ नही बोला, इसलिए इन्द्रदेव ने वायुदेव को भेजा। उसे भी अतीन्द्रिय शक्ति ने पूछा-‘तुम कौन हो तुम्हारा खिताब क्या है?  

वायु ने कहा- ‘वायुर्वा अहमस्मि मातरिश्वा वा अहमस्मि’ मै वायु हूँ और मातरिश्वा मेरा खिताब है । चित्शक्तिने पूछा-तो तुम्हारी शक्ति क्या है? वायु ने कहा-तुम्हे मेरी शक्ति का पता नही? मुझमें इतनी शक्ति है कि मैं एक क्षण में सम्पूर्ण पृथ्वी को उडा सकता हूँ

चित््शक्तिने उसकी शक्ति को खींच कर उसके सामने भी वही तिनका रखा और कहा पृथ्वी की बात रहने दो, इस घांस के तिनके को उडाकर दिखाओ।

वायुने बहुत फूॅँ-फाँ की, पर तिनका हिला भी नही वह भी शर्म से नीचा सिर किए झेंपते हुए अपनी जगह पर वापस जा बैठा इसी प्रकार अन्य देवता भी जा-जा कर वापस लौटे। इन्द्र को लगा कि वह कौन है?

चित्शक्ति ने विचार किया कि अब स्वयं सरदार ही आता है, इसलिए अपमान करना उचित नहीं है । इसलिए अदृश्य होकर उसने कहा-तुम लोग विजय गर्व से उन्मत होकर अपनी प्रशंसा करते हो । तुम इस बात को भूल गये हो कि तुम्हारी विजय के पीछे अतीन्द्रिय शक्ति का हाथ था, इस ओर तुम्हारा ध्यान ही नहीं है । इसलिए इस ओर तुम्हारा ध्यान आकर्षित किया है ।

मुल बात यह है कि यश या सफलता मेरी है, ऐसा कहने में सुगन्ध नहीं है । भगवान! तेरी सहायता से हुआ‘ यह प्रथम ईमानदारी है‘ भगवान तेरी सहायता से मैने किया’ यह दूसरी इमानदारी है और ‘भगवान तुने ही किया’  यह तिसरी इमानदारी है । मानव को इस स्थिति तक पहुचँना चाहिये यही बात तुलसीदासजी इस चौपाई द्वारा समझाने का प्रयास कर रहे है । मनुष्य के पास इतनी कृतज्ञता होनी चाहिये कि वह अपनी सफलता के लिये भगवान की सहायता को स्वीकार कर सके । यही ‘न मम‘ है।

वित्त, स्त्री, संतान, सद्गुण, यश, सद्विचार आदि सभी वस्तुओं के लिए ‘न मम’ बोलोंगे पर शरीर के लिए? मनुष्य इतना तो स्पष्ट समझता है कि मैं घोडे के उपर बैठता हूँ पर घोडा नहीं हूँ, घरमें रहता हूँ, पर घर नही हूँ । इसी प्रकार यह समझ भी दृढ होनी चाहिये कि मैं शरीर का प्रयोग करता हूँ, परन्तु मैं शरीर नहीं हूँ । ऐसी समझ होने पर ही ‘न मम’ पूर्ण होता है। मुझमें गुण है या नहीं, मुझे तो इसका पता नहीं है, पर लोगों को गुण दिखाई देते हैं । और वे मुझे सद्गुणी कहते है। यदि मुझसे कुछ गुण चिपके हो तो यह मेरी कमाई नहीं, भगवान तुम्हारी .पा का फल है । इस प्रकार समझ पैदा कर मनुष्य को हनुमानजी की तरह सूक्ष्म बनना चाहिये । तथा भगवान का साधन बनकर प्रभु कार्य करना चाहिये ।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया । राम लखन सीता मन बसिया ।। (8)
अर्थ : आप श्रीराम के चरित्र सुनने में आनन्द-रस लेते हैं ।  श्रीराम सीता और लक्ष्मण आपके हृदयमें बसते हैं।
गूढार्थ : भगवान की कथा में अनुराग होना भक्ति का एक लक्षण है । हनुमानजी का श्रीराम कथानुराग पराकाष्ठा को प्राप्त है । सच तो यह है कि श्री हनुमानजी ने श्रीराम कथाको जीवनाधार ही बना लिया हैं।
श्री वाल्मीकीय रामायण से विदित होता है कि श्रीमारुतनन्दन ने भगवान श्रीराम से यही वरदान माँग लिया था कि ‘जबतक मंगलमयी भगवान श्रीराम की कथा पृथ्वी तल पर प्रचलित रहे, तभी तक उनके शरीर मे प्राण रहे’-
यावद्रामकथा वीर चरिष्यति महीतले । तावच्छरी रे वत्स्यन्तु प्राणा मम न संशय:।।
                                                          (वा.रा. 7-40-17)
महाभारत के वनपर्व में भी भीमसेन को रामचरित सुनाते समय उन्होने अपने द्वारा भगवान श्रीराम से उपर्युक्त आशय का वरदान माँगने का उल्लेख किया है। -
वरं मया याचितोसौ रामो राजीवलोचन: ।।
यावद्रामकथेयं  ते भवेल्लोकेषु  शत्रुहन् ।
तावज्जीवेयमित्येवं तथास्त्विति च सोब्रवीत्  ।।
                                          (148/16-17)
इस प्रकार स्पष्ट है कि श्री हनुमानजी को राम-कथा की शर्तपर ही जीना स्वीकार है । उन्हे दीर्घ-जीवन प्राप्त है, पर बिना राम कथाके वह उन्हे पसंद नही।

अनेक व्यक्तियोंको श्री हनुमानजी के श्रीराम कथानुराग का प्रत्यक्ष प्रमाण भी मिला है । गोस्वामी तुलसीदासजी के सम्बन्धमे कहा जाता है कि उन्होने एक आम की गुठली बोई थी । वे नित्य शौच से आने के पश्चात् उसे सींचते थे । एक दिन जब वह इस वृक्ष को पानी पीला रहे थे तो एक पिशाच ने प्रकट होकर कहा-‘‘मै तेरी एकनिष्ठा से प्रसन्न हूँ, बोल तुझे क्या दूँ?’
तुलसीदासजी ने कहा ‘‘मुझे जो चाहिये, वह तुम्हारे पास नही !’’ प्रेतने कहा-‘‘ पर कह तो सही तुझे क्या चाहिये?’’ तुलसीदासजीने कहा-‘‘मुझे राम चाहिये, मुझे राम के दर्शन करने है क्या तुम मुझे राम के दर्शन करा सकते हो?’’    

प्रेतने कहा-‘‘यह तो मेरे बस की बात नही है, परन्तु तुझे इसके लिये उपाय बताता हूँ । सामने गाँव के एक राम मन्दिर में जहाँ नित्य राम-कथा होती है । वहाँ नित्य एक वृद्ध कथा सुनने सबसे पहिले आता है और सबसे पीछे जाता है । तू उसे पकड लेना, वह तुझे राम के दर्शन करा सकता है ।’’     
पिशाच भी भगवान के कार्य मे उपयोगी हो सकता है । परंतु आज मानव मात्र भगव्कार्य से निर्लेप रहता है तथा भगवदीय विचारों से दूर भागता है ।

तुलसीदासजी आतुरता से संध्याकाल की प्रतिक्षा करते थे । आज उनकी तपश्चर्या फलने वाली थी । भगवान के दर्शन होंगे, जीवन कृतार्थ होगा । वह क्षण आया, भगवान राम की कथा पूरी हुई और सबके चले जाने के पश्चात् एक वृद्ध व्यक्ति उठकर धीरे धीरे मंदिर के बाहर निकला तुलसीदासजी उसके पीछे पीछे चले और गाँव के बाहर जाने पर उनके पैर पकड लिए । उन्होने गद्गद् कंठ से कहा ‘‘प्रभु मेरी आँखें भगवान राम के दर्शन के लिए तडपती है । मुझे उनका दर्शन कराइए । हनुमानजी (वृद्ध) ने कहा परन्तु तू मेरे पैर किस लिए पकड रहा है?। भगवान ! इस सम्पूर्ण संसार में केवल आप ही मुझे भगवान राम के दर्शन करा सकते हैं । इसलिए मैं आपके पास आया हूँ तुलसीदासजी ने कहा । वृद्ध (हनुमान) ने हँसते हँसते तुलसीदासजी की पीठ थपथपाई और अपना असली स्वरुप प्रकट किया । हनुमानजी के दर्शन करते ही तुलसीदासजी का हृदय भर आया और आँखोसे अश्रुप्रवाह होने लगा । तथा वे हनुमानजी के चरणों मे गिर पडे ।

हनुमानजी के कहने के अनुसार तुलसीदासजी गंगा-तटपर (चित्रकुट के घाटपर) आकर बैठ गये । प्रभु राम आये, तुलसीदासजी ने चंदन घिसा और भगवान को तिलक किया । इस प्रकार हनुमानजी की कृपासे तुलसीदासजी को भगवान श्रीराम के दर्शन हुए ।

चित्रकुट के घाट पर भई संतन की भीर । तुलसीदास चन्दन घिसे तिलक करें रघुवीर।।

जेा व्यक्ति जिस वस्तु विषय से स्वाभाविक अनुराग रखता है, वह उस वस्तु विषय के बिना रह नहीं सकता । वह उसकी प्राप्ति के लिये सतत प्रयत्नशील रहता है । क्योंकि वह उसके रसका रसिक होता है । इसीलिए तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा में हनुमानजी की रामकथा अनुराग को देखते हुए लिखा है ‘‘प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया’’ ।

हनुमानजी रामकथा -रसके आस्वादन का अवसर कभी नही चुकते। जहाँ भी भगवान श्रीराम की कीर्ति, कथा का गायन होता है, वहाँ वे अवश्य पहुँचते है, और हाथ जोडे मस्तक झुकाये नेत्रोमें प्रेमाश्रु भरे विराजमान रहते हैं ।
मनुष्य को सुनने का व्यसन लगना चाहिये । ‘‘विद्याव्यसनं व्यसनं अथवा हरिपादसेवनं व्यसनं’’- ये दो व्यसन रखो ऐसा शास्त्रकार कहते हैं । विद्या का व्यसन अर्थात् श्रवण । मनुष्य को श्रुतिपरायण होना चाहिए । मनुष्य को क्या सुनना है, किस प्रकार सुनना है, उसका भी शास्त्र है । सुननेवाला तथा सुनानेवाला कैसा होना चाहिये उसका सुन्दर वर्णन है वह अलौकिक होना चाहिए। रामकथा अलौकिक है इसीलिए हनुमानजी राम कथा के रसिक है ।

मनुष्य को ऐसा लगता है कि अपने दिमाग में उतरे वही पढना चाहिए ।   कितनी ही बातें ऐसी भी पढो जो दिमाग में न उतरे । जो दिमाग में उतरे वही पढने का आग्रह क्यों है? जो दिमाग में न उतरता हो उसे भी पढो । क्योंकि शब्दोंमे शक्ति होती है । क्या सुनना चाहिये यह हमारे शास्त्रकारोंने गीतामें निश्चित किया है ।
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधै: पथक् ।
ब्रम्हसूत्रपदैचैव:    हेतुमद्भर्विनिचतै: ।। (गीता 13/4)
ऋषियों द्वारा निश्चित किये गये विचार सुनोगे तो तुम मुसीबतमें नही पडोगे, निस्तेज नहीं बनोगे । सुननेवाला कैसा होगा चाहिये वह भी लिखा है-
असंप्रणम्य श्रुण्वान: विषवृक्षा भवन्तीह।तथा शयान: श्रुण्वान: भवन्त्यजगरा हि ते ।।
जो अविनीत हो उसे मत सुनाओ, श्रोता विनीत होना चाहिए । उसके पास विनय और नम्रता होनी चाहिये, जिस प्रकार हनुमानजी में है । जिसे सुनना हो जिसे ज्ञान लेना हो, उसमे नम्रता होनी चाहिये। कई सुननेवाले लोग दो घडी मौज करने के लिये आते है, तो कितने ही लोग वक्ताके दोष निकालने आते हैं । ‘देखें तो सही वक्ता कैसा बोलता है।’ कितने ही लोग सुनने जाते है और वहाँ सो जाते है । वहाँ कोई तुम्हे परेशान नहीं करेगा ।

लोग नाटक सिनेमा देखने जाते है वहाँ नही सोते, परन्तु कथा सुनने जाते हैं और वहाँ नींद आ जाती है। उसके बारेमें सुभाषितकार ने लिखा है -‘निद्रा हते प्रेयसि कुम्भकर्णे’ निद्रा नाम की स्त्री का पति कुम्भकर्ण था । कुभकर्ण ने निद्रा को जितना अपनाया था उतना किसीने नहीं अपनाया था । निद्रा का पति कुम्भकर्ण मर गया इसलिए वह विधवा हो गयी । अब विधवा स्त्री नाटक-सिनेमा देखने जाए या कथा सुनने जाए? वह कथा सुनने ही जाती है और किसीका गला पकडकर बैठ जाती है ।
‘‘श्रोतुं कथा याति कथापुराणं’’ तुम जो भी ग्रंथ पढो उसे श्रद्धा से पढो, जो भी ग्रंथ सुनो उसे श्रद्धा से सुनो । ग्रंथ पर श्रद्धा होनी चाहिये । जो सुनो वह मंत्र लगना चाहिये । गीता-रामायण का पारायण करते समय गीता के श्लोक मंत्र लगने चाहिए । सुनने बैठते समय दिमाग में से दूसरी सारी बाते निकाल देनी चाहिये।

कथा सुनते समय ‘नान्यकार्येषु लालसा’ अन्य कार्यों में लालसा नहीं रहनी चाहिये कितने ही लोग सुनते समय एक तरफ खाते रहते है और दूसरी ओर सुनते रहते है । कितनी ही बहने कथा सुनते समय फुलोंका हार बनाती हैं ।  कितने ही लोग सुनते सुनते तुलसीदल गिनते है । ऐसे लोगों पर सुनने का प्रभाव अशक्य है । (You must be eyes and ears only, It is an art of listening) सुनते समय केवल आँख और कान खुल्ले रहने चाहिए । बाकी सब बन्द । तभी इसे सुनने की कला कहते है । हमारे यहाँ पढने से सुनने को ज्यादा महत्व दीया गया है । सुननेमे एक चैतन्य दूसरे चैतन्य के साथ बोलता है । अंग्रेजी भाषा मे काफी पढा (Well read) शब्द प्रचलित है, जबकि हमारे यहाँ ‘बहुश्रुत’ शब्द प्रचलित है । ‘बहुश्रुत’ यानी जिसने काफी सुना है ।

तुलसीदासजी लिखते है हनुमानजी ऐसे ही ‘बहुश्रुत’ है यानी वे रामकथा सुनने को हरदम आतुर रहते है उसी प्रकार हमें भी बहुश्रुत होना चाहिये । आगे गोस्वामीजी लिखते है ‘राम लखन सीता मन बसिया’ यहाँ यह बात हमें समझनी है वह यह कि ‘राम’ ज्ञान के प्रतीक है, ‘लक्ष्मण’ कर्म के प्रतीक है तथा ‘सीता’ भक्ति की प्रतीक है । इस प्रकार हमारे जीवन में ंज्ञान, कर्म भक्ति इन तीनों का समन्वय होना जरुरी है। हनुमानजी के जीवन में यह त्रिवेणी संगम दिखाई देता है, ‘हम भक्ति माननेवाले लोग है, ज्ञान माननेवाले लोग नहीं है । ’कितने ही लोगों को यदि हम कहे चलो भैय्या मंदिर मे सत्संग में चलो दो शब्द ज्ञान के सुनने को मिलेंगे तो वे झट से कहते है कि नहीं भई हमको तो केवल भगवान के भजन में दिलचस्पी है, ज्ञान के लिये नहीं । क्या बिना ज्ञान के भक्ति हो सकती है?

श्रीमद्आद्यशंकराचार्यजीने भी चर्पटपंजरिकास्तोत्र मे कहा है, ‘ज्ञान विहिनं सर्व मतेन, मुक्तिं न भजती जन्म शतेन’ । ‘यह मेरी माँ है’ जब तक यह ज्ञान नही होता तब तक उस पर प्रेम कैसे होगा? व कैसे बढेगा? जब तक प्रेम नही बढता है तब तक भक्ति कैसे होगी? वैसे ही प्रेम और ज्ञान न हो तो उसके लिये कर्म कैसे हो सकते है । उसके लिए कर्म भी नहीं हो सकता ।   अत: कर्म, भक्ति और ज्ञान यह अलग अलग विभाग नहीं हो सकते।

इसप्रकार हमें भी हनुमानजी की तरह प्रभु चरित्र सुनने के रसिक बनकर ज्ञान प्राप्त करना चाहिये, भगवान के जो दिव्य गुण हैं उनको जीवन में लाने का प्रयत्न करना चाहिये तथा सतत् कर्मशील रहते हुए भगवान की भक्ति करनी चाहिए तथा जीवन में हनुमानजी की तरह ज्ञान, कर्म और भक्ति का समन्वय लाना चाहिए , तभी हम सही अर्थ में हनुमानजी की तरह प्रभु भक्त बन सकते हैं।
विद्यावान गुनी अति चातुर । राम काज करिबे को आतुर ।। (7)

अर्थ :   आप प्रकाण्ड विद्यानिधान हैं, गुणवान और अत्यंत कार्यकुशल होकर श्रीराम-काज करने के लिए उत्सुक रहतें हैं ।

गुढार्थ : तुलसीदासजी हनुमानजी का वर्णन करते हुए लिखते है, हनुमानजी कैसे है? ‘विद्यावान गुनी अति चातुर’ तो लिखते है कि हनुमानजी विद्यावान, तथा गुणवान हैं । हनुमानजीकोे भगवान सूर्यदेव से विद्या प्राप्त हुई थी इसलिए वे विद्यावान तथा गुणवान हुए ।

हनुमानजी की आयु जब विद्याध्ययन के योग्य हो गयी थी, तो माता-पिताने सोचा-‘अब इसे गुरु के पास विद्या-प्राप्तिके लिए भेजना चाहिये । यद्यपि वे अपने ज्ञानमूर्ति पुत्रकी विद्या-बुद्धि एवं बल-पौरुष तथा ब्रम्हादि देवताओं द्वारा प्रदत्त अमोघ वरदान से भी पूर्णतया परिचित थे; किंतु वे यह भी जानते थे कि सामान्यजन महापुरुषोंका अनुकरण करते हैं और समाज में अव्यवस्था उत्पन्न न हो जाय, इस कारण महापुरुष स्वतंत्र आचरण नहीं करते । वे सदा शास्त्रों की मर्यादा का ध्यान रखते हुए नियमानुकूल व्यवहार करते हैं । इसी कारण जब-जब दयाधाम प्रभु भूतलपर अवतरित होते है, वे सर्वज्ञान-सम्पन्न होने पर भी विद्याप्राप्ति के लिये गुरु-गृह जाते है । वहाँ गुरु की सर्वविध सेवा कर अत्यंत श्रध्दापूर्वक उनसे विद्योपार्जन करते हैं । सच तो यह है कि गुरु को सेवासे संतुष्ट कर अत्यंत श्रद्धा और भक्तिपूर्वक प्राप्त की हुई विद्या ही फलवती होती है । अतएव माता अंजना और कपीश्वर केसरी ने हनुमानजी को शिक्षा-प्राप्ती के लिए गुरु-गृह भेजने का निश्चय किया ।

माता-पिताने अत्यंत उल्हासपूर्वक हनुमानजी का उपनयन-संस्कार कराया और फिर विद्या प्राप्ति के लिये गुरु के चरणों मे जाने की आज्ञा प्रदान की ; िेकन्तु वे किस सर्वगुण-सम्पन्न आदर्श गुरु के समीप जाएँ । माता-पिताने अतिषय स्नेह से कहा-‘बेटा! सर्वशास्त्र मर्मज्ञ समस्त लोकों के साक्षी भगवान सूर्यदेव है । वे तुम्हे समयपर विद्याध्ययन कराने का आश्वासन भी दे चुके हैं । अतएव तुम उन्हीं के समीप जाकर श्रध्दा-भक्तिपूर्वक शिक्षा ग्रहण करो।’

कौपीन-कछनी काछे, मूँजका जनेऊ धारण किये, मृगचर्म लिये ब्रम्हचारी हनुमानजीने भगवान सूर्य की ओर देखा और फिर विचार करने लगे । माता अंजना ऋषियोंके श्राप से अवगत थी ही ; उन्होने तुरंत कहा बेटा! तेरे लिये सूर्यदेव कितनी दूर है । तेरी शक्ति की सीमा नहीं है । बेटा! ऐसा कोई कर्म नहीं, जो तू न कर सके । तेरे लिये असंभव कुछ भी नहीं है । तू जा और भगवान सूर्यदेव से सम्यक् ज्ञान प्राप्त कर । तेरा कल्याण सुनिश्चित है ।

फिर क्या था? आंजनेय ने माता-पिताके चरणों मे प्रणाम किया तथा उनका आशीर्वाद प्राप्त किया । दूसरे ही क्षण आकाश में उछले तो सामने सूर्यदेव के सारथी अरुण मिले । हनुमानजीने पिता का नाम लेकर अपना परिचय दिया तथा अत्यंत श्रद्धापूर्वक उन्होने सूर्यदेव के चरणों मे प्रणाम किया। सरलता की मूर्ति, विनम्र पवनकुमार को खडे देखकर सूर्यदेव ने पूछा-‘बेटा! यहाँ कैसे?’

हनुमानजीने अत्यंत नम्र वाणी मे उत्तर दिया-प्रभो! मेरा यज्ञोपवीत संस्कार हो जानेपर माताने मुझे आपके चरणों मे विद्याध्ययन करने के लिये भेजा है । आप .पापूर्वक मुझे विद्यादान प्रदान करने की .पा करें ।

आदित्य बोले-बेटा! देख लो मेरी बडी विचित्र स्थिति है। मुझे अहर्निश रथपर दौडते रहना पडता है । ये अरुणजी रथ का वेग कम करना नहीं जानते । ये क्षुधा पिपासा और निद्राको त्यागकर अनवरत रुपसे रथ हाँकते ही रहते है । रथ से उतरना भी मेरे लिये संभव नही । ऐसी दशामें मै तुम्हे शास्त्र का अध्ययन कैसे कराऊँ? तुम्ही सोंच कर कहो, क्या किया जाय । तुम्हारे जैसे आदर्श बालक को शिष्य के रुपमें स्वीकार करने में मुझे प्रसन्नता ही होगी ।

भगवान दिवाकरने टालने का प्रयत्न किया, किंतु हनुमानजी को इसमे किसी भी प्रकार की कठिनाईकी कल्पना भी नही हुई। उन्होने उसी विनम्रतासे कहा-‘प्रभो! वेगपूर्वक रथके चलने से मेरे अध्ययन मे क्या बाधा पडेगी? हाँ, आपको किसी प्रकार की असुविधा नही होनी चाहिये । मैं आपके सन्मुख बैठ जाऊँगा और रथ के वेग के साथ ही आगे बढता रहूँगा ।’

सुर्यनारायण को इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ । वे हनुमानजी की शक्ति से परिचित थे। वे यह भी अच्छी तरह जानते थे कि ये स्वयं ‘ज्ञनिनामग्रगण्यं’ है ; किंतु शास्त्र की मर्यादा पालन हेतु एवं मुझे यश प्रदान करने के लिये ही मुझसे विद्या प्राप्त करना चाहते है।’

आदित्यनारायण ने हनुमानजीको वर्ष-दो वर्ष या दो-चार मासमें नहीं, अपितु कुछ ही दिनों में समस्त वेदादि शास्त्र, उपशास्त्र एवं समस्त विद्याएँ सिखा दी इसप्रकार हनुमानजीका सविधि विद्याध्ययन हो गया । वे सबमें पारंगत हो गये । इसप्रकार भगवान सूर्यदेव से विद्या प्रात कर वे विद्यावान तथा गुणवान हुए।

तुलसीदासजीने हनुमानजी को विद्यावान कहा है उसका संकेत यह है कि जो विचार आदमी को भगवान का बनाता है वह विद्या है । आज विद्या की तृष्णा बढी नही है । आज लोग बुद्धिनिष्ठ नहीं है , बुद्धिजीवी है । (They live on their wits) बुद्धिनिष्ठ होना चाहिये । मुझे विद्या की तृष्णा, गुण की तृष्णा, जीवन बदलनेकी तृष्णा होनी चाहिए । क्योंकि ये सब पाकर भगवान के चरणोंमे रख कर हनुमान के जैसा भक्त होना है । तभी भगवान हमे आपनायेंगे ।

जो लडका अच्छा लगता है उसी को भगवान अपनाते हैं । भगवान को जो स्वकीय लगता उसे भगवान अपनाते हैं ।  गुण तृष्णा होनी चाहिये । वाल्मीकि रामायण में भगवान रामने हनुमानजी के गुणाें के लिये कहा है -
तेजो धृतिर्यशो दाक्ष्यं सामथ्‍र्यं विनयो नय: । पौरुषं विक्रमो बुद्धिर्यस्मिन्नेतानि नित्यदा ।।
(तेज, धैर्य, यश, दक्षता, शक्ति, विनय, नीति, पुरुषार्थ, पराक्रम और बुद्धि ये गुण हनुमानजी में नित्य स्थित हैं।) धीरता, गम्भीरता, सुशीलता, वीरता, श्रद्धा, नम्रता, निराभिमानिता आदि अनेक गुणोंसे सम्पन्न हनुमानजी को तुलसीदासजीने महर्षि वाल्मीकि के समान सुन्दरकाण्ड मे इनकी ‘ सकलगुणनिधानं ’ के उद्घोष से सादर वन्दना की है ।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं, रघुपतिप्रिय भक्तं वातजातं नमामि
इसप्रकार हनुमानजी में अनेक गुण है, इसलिए तुलसीदासजी ने उन्हे ‘विद्यावान गुनी अति चातुर’ कहा है, तथा आगे कहा है कि ‘राम काज करिबे को आतुर’ । हनुमानजी का संम्पूर्ण जीवन भगवान राम के कार्य के लिये समर्पित था। उनका दास्य भाव भी उत्.ष्ट है ।

तुलसीदासजी लिखते है कि हनुमानजी ज्ञानी तो थे ही तथा प्रभुकार्य के लिये हमेशा तत्पर रहते थे । हमको मानव जीवन मिला है, यह बहुत महत्वपूर्ण बात है । भगवानने हमें अनमोल ऐसा मनुष्य जन्म दिया है । सचमुच हम धन्य है, जो हमें मनुष्य जन्म मिला । मनुष्य जन्म मिलना यह तो बडे भाग्य की बात है ही लेकीन मनुष्य को कैसा जीवन जीना चाहिये यह समझना बहुत बडे भाग्य की बात है ।

यदि हमे कोई वस्तु प्राप्त हो जाए लेकिन जब तक उस वस्तु की उपयोगिता का हमे ज्ञान न होगा तब तक वह वस्तु हमारे लिए उपयोगी न होगी । हमे अनमोल ऐसा मानव जन्म मिला लेकिन उसकी किमत हमे समझी क्या? उसका योग्य उपयोग हम कर रहे हैं क्या?

मानव जीवन ईश्वर ने दी हुई अमूल्य भेंट है । मानव जीवन, प्रभु .पा से और पूर्व जन्म के हमारे द्वारा किये हुए अनेक सु.त्योंका परिणाम है । हमारे ऋषि मुनियों ने और साधु संतोने भी मानव जीवन को अमूल्य रत्न कहा है । ‘‘जन्तुना नर जन्म दुर्लभम्’’ इस श्लोक मे श्रीमद्आद्यशंकराचार्य ने भी मानव जीवन का महत्व समझाया है ।
मानवी जीवन व्यर्थ बिताने के लिये नही है । बुद्धि मिली है तो मै किसका हूँ? किसके लिये हुँ? मुझे कौनसा काम करना है ? इस सम्बंध मे पूर्ण विचार करके मनुष्य को काम करना चाहिये । मनुष्य से इस प्रकार की अपेक्षा है ।

हमको भगवानने बुद्धि दी है, शास्त्र दिये है, वेद, उपनिषद, गीता तथा रामायण जैसे ग्रंथ दिये है । उससे हमे मार्गदर्शन होता है । मानवी जीवनका पूर्ण उपयोग करके उसकी दीपावली करनी चाहिये उसकी होली नही होने देनी है । मानव देह दुलर्भ है । यह मानव देह बार बार नहीं मिलती। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्ममें करुँगा ऐसा विचार करके नहींं चलेगा । अगले जन्ममें मनुष्य ही बनेंगे ऐसा कौन कह सकता है? मैने जो विकास (Development) किया होगा, मानसिक विकास साध्य किया होगा उसके अनुसार मुझे अगला जन्म मिलता है । यदि विकास ही साध्य नहीं किया होगा तो मानवी जीवन कहाँ से मिलेगा? हमारे ऋषियोंने, संतोने जीवन जी कर दिखाया है ।

हनुमानजी के चरित्र पर जब हम चिन्तन करते हैं तो हमें यह दृष्टिगोचर होता है कि हनुमानजी तो प्रभु कार्य के लिए हमेशा तत्पर रहते थे । उसी प्रकार यदि हम हनुमानजी के भक्त हैं तथा हनुमानजी की तरह प्रभु के लाडले भक्त बनना है तो उनकी तरह हमें भी हमेशा प्रभु कार्य के लिये तत्पर रहना चाहिये ।

भगवान राम संस्कृति रक्षण के लिये अवतरित हुए थे, और हनुमानजी उनके इस कार्य मे पूर्ण सहयोगी बने । हमें भी प्रभु कार्य करना है तो क्या करना है? पभु कार्य में दो बाते आती हैं। व्यक्तिगत विकास और सामाजिक सांसस्कृतिक रक्षण । मनुष्य की एक विशिष्ट संस्कृति है । ये दो बातें भगवान के काम में आती है । प्रथम बात है व्यक्तिगत विकास करना । व्यक्तिगत विकास के लिए प्रयत्न करने चाहिये ।  संस्.ति की रक्षा के लिये भी प्रयत्नशील रहना चाहिये । मनुष्य की विशिष्ट संस्.ति का शास्त्रकारोंने चित्रण किया है। वह संस्कृति फिर से खडी करने के लिए कर्म करना है ।
प्रभु कार्य करने के बाद क्या होता है? मनुष्य की चित्त शुद्धि होती है । भगवान दर्ज कर रखेंगे, इस विश्वास से प्रभु कार्य करना है । प्रभु के पास ले जानेवाला प्रभु कार्य करो । मंगलता, पवित्रता खडी करने के लिये कर्म करो। कर्म करना यह प्रथम बात है, उसका फल कितना मिलेगा यह गौण बात है । गीता कहती है ‘‘कर्मण्येवधिकारस्ते माफलेषुकदाचन्’’ । हमें प्रभु कार्य करना है तो कौनसा कर्म करना है? प्रभु के करोंडो पुत्र अपने पिता से बिछुड गये हैं । मानो पिता को पहचानते ही नहीं ऐसा उनके आचरण से प्रतीत होता है । ऐसा मार्ग भूले हुए बेटोंको अपने पिता के पास ले जाना, यही प्रभु कार्य है ।

भगवान के प्रति .तज्ञता जाग्रत होने पर श्रीमदाद्यशंकराचार्य के देव्यपराधक्षमापन स्तोत्र की यह पंक्ति याद आयेगी- ‘‘मत्सम: पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समान हि’’। भगवान ! इस जगतमें मुझ जैसा पातकी कोई नहीं है, जो बैल है वह बैल जैसा आचरण करता है परन्तु मैं बैल न होते हुए भी बैल जैसा आचरण करता हूँ इसलिए मै पातकी हूँ । हम गीता-रामायण का स्वाध्याय नहीं करते, गीता के प्राणवान, तेजस्वी विचारों का चिंतन, मनन नहीं करते है, यह पाप है । गधा, घोडा, कुत्ता, चिडीयाँ कौआ गीता-रामायण नहींं पढते और मैं भी नहीं पढता हूँ । मनुष्य पशु-पक्षी नही है फिर भी वह पशु जैसा रहता है । यह उसका महान पातक है । मेरे पास शक्ति होते हुए भी मैने कुछ नहीं किया । बैल के हाथ नहीं है, परन्तु मेरे हाथ है । मैने हाथों का सदुपयोग नहीं किया । कौए के पास वाणी नही है मेरे पास है । परन्तु इस वाणी से न मालूम मैने कितने घर जलाये है, गधे को बुद्धि नही है, मेरे पास बुद्वि है । परन्तु इस बुघ्दि से मैने दुनियाँ का सत्यानाश ही किया । मैं आपका काम करुँ इसलिये आपने ये शक्तियाँ मुझे दी परन्तु मैने इन सबका गलत मार्ग में प्रयुक्त किया ।

लोगोंकी अस्मिता (आत्मगौरव) को जागृत करना, उनको स्वच्छ बनाकर ईश्वराभिमुख करना शनै: शनै: उनको उन्नति की ओर ले जाना यह सबसे महान भगवद्कार्य है । इसे ही तप कहते है वैदिक विचारधारा ही इतनी सुन्दर है कि उससे जीवन तेजस्वी, प्रेममय और उदार बनता है । कृष्ण और रामके विचाराें को प्रत्येक झोपडी-महलमें ले जाने की प्रबल इच्छा हममें होनी चाहिये । जिस खोखे (शरीर) में साक्षात विश्वंभर आकर विराजमान हुए है, उस खोखे (शरीर) में निराशा, असहायता, दुर्बलता, निस्तेजता, असन्तोष आदि आकर बैठे हैं । ऐसे जीवन का क्या अर्थ है?

भगवान को फूल चढाने में कुछ भी अनुचित नही है । भगवान को फुल तो चढाने ही चाहिये। परन्तु केवल फुल चढाने में ही भक्ति पूर्ण नहीं होती प्रभु से विन्मुख हुए लोगोंका हाथ पकडकर उन्हे प्रभु के सन्मुख लाना और उनका जीवन पुष्प खिलाकर प्रभु चरणोंमे रखना ही सच्ची सेवा है। समाज के अन्तिम व्यक्ति तक पहुँचकर उसके जीवनमें राम व कृष्ण को प्रतिष्ठित को प्रतिष्ठित करना ही प्रभु कार्य है।

जिस तरह हनुमानजी ने सुग्रीव, अंगद, तथा समस्त वानरसेना को प्रभु की ओर उन्मुख कर प्रभुकार्य करने की प्रेरणा दी । उसी प्रकार हमें भी भगवान के कार्य के लिए कटिबद्ध होना चाहिए । तभी हम सच्चे अर्थमें हनुमान भक्त तथा प्रभु के प्रिय बन सकेंगे।