Thursday, June 30, 2011

विद्यावान गुनी अति चातुर । राम काज करिबे को आतुर ।। (7)

अर्थ :   आप प्रकाण्ड विद्यानिधान हैं, गुणवान और अत्यंत कार्यकुशल होकर श्रीराम-काज करने के लिए उत्सुक रहतें हैं ।

गुढार्थ : तुलसीदासजी हनुमानजी का वर्णन करते हुए लिखते है, हनुमानजी कैसे है? ‘विद्यावान गुनी अति चातुर’ तो लिखते है कि हनुमानजी विद्यावान, तथा गुणवान हैं । हनुमानजीकोे भगवान सूर्यदेव से विद्या प्राप्त हुई थी इसलिए वे विद्यावान तथा गुणवान हुए ।

हनुमानजी की आयु जब विद्याध्ययन के योग्य हो गयी थी, तो माता-पिताने सोचा-‘अब इसे गुरु के पास विद्या-प्राप्तिके लिए भेजना चाहिये । यद्यपि वे अपने ज्ञानमूर्ति पुत्रकी विद्या-बुद्धि एवं बल-पौरुष तथा ब्रम्हादि देवताओं द्वारा प्रदत्त अमोघ वरदान से भी पूर्णतया परिचित थे; किंतु वे यह भी जानते थे कि सामान्यजन महापुरुषोंका अनुकरण करते हैं और समाज में अव्यवस्था उत्पन्न न हो जाय, इस कारण महापुरुष स्वतंत्र आचरण नहीं करते । वे सदा शास्त्रों की मर्यादा का ध्यान रखते हुए नियमानुकूल व्यवहार करते हैं । इसी कारण जब-जब दयाधाम प्रभु भूतलपर अवतरित होते है, वे सर्वज्ञान-सम्पन्न होने पर भी विद्याप्राप्ति के लिये गुरु-गृह जाते है । वहाँ गुरु की सर्वविध सेवा कर अत्यंत श्रध्दापूर्वक उनसे विद्योपार्जन करते हैं । सच तो यह है कि गुरु को सेवासे संतुष्ट कर अत्यंत श्रद्धा और भक्तिपूर्वक प्राप्त की हुई विद्या ही फलवती होती है । अतएव माता अंजना और कपीश्वर केसरी ने हनुमानजी को शिक्षा-प्राप्ती के लिए गुरु-गृह भेजने का निश्चय किया ।

माता-पिताने अत्यंत उल्हासपूर्वक हनुमानजी का उपनयन-संस्कार कराया और फिर विद्या प्राप्ति के लिये गुरु के चरणों मे जाने की आज्ञा प्रदान की ; िेकन्तु वे किस सर्वगुण-सम्पन्न आदर्श गुरु के समीप जाएँ । माता-पिताने अतिषय स्नेह से कहा-‘बेटा! सर्वशास्त्र मर्मज्ञ समस्त लोकों के साक्षी भगवान सूर्यदेव है । वे तुम्हे समयपर विद्याध्ययन कराने का आश्वासन भी दे चुके हैं । अतएव तुम उन्हीं के समीप जाकर श्रध्दा-भक्तिपूर्वक शिक्षा ग्रहण करो।’

कौपीन-कछनी काछे, मूँजका जनेऊ धारण किये, मृगचर्म लिये ब्रम्हचारी हनुमानजीने भगवान सूर्य की ओर देखा और फिर विचार करने लगे । माता अंजना ऋषियोंके श्राप से अवगत थी ही ; उन्होने तुरंत कहा बेटा! तेरे लिये सूर्यदेव कितनी दूर है । तेरी शक्ति की सीमा नहीं है । बेटा! ऐसा कोई कर्म नहीं, जो तू न कर सके । तेरे लिये असंभव कुछ भी नहीं है । तू जा और भगवान सूर्यदेव से सम्यक् ज्ञान प्राप्त कर । तेरा कल्याण सुनिश्चित है ।

फिर क्या था? आंजनेय ने माता-पिताके चरणों मे प्रणाम किया तथा उनका आशीर्वाद प्राप्त किया । दूसरे ही क्षण आकाश में उछले तो सामने सूर्यदेव के सारथी अरुण मिले । हनुमानजीने पिता का नाम लेकर अपना परिचय दिया तथा अत्यंत श्रद्धापूर्वक उन्होने सूर्यदेव के चरणों मे प्रणाम किया। सरलता की मूर्ति, विनम्र पवनकुमार को खडे देखकर सूर्यदेव ने पूछा-‘बेटा! यहाँ कैसे?’

हनुमानजीने अत्यंत नम्र वाणी मे उत्तर दिया-प्रभो! मेरा यज्ञोपवीत संस्कार हो जानेपर माताने मुझे आपके चरणों मे विद्याध्ययन करने के लिये भेजा है । आप .पापूर्वक मुझे विद्यादान प्रदान करने की .पा करें ।

आदित्य बोले-बेटा! देख लो मेरी बडी विचित्र स्थिति है। मुझे अहर्निश रथपर दौडते रहना पडता है । ये अरुणजी रथ का वेग कम करना नहीं जानते । ये क्षुधा पिपासा और निद्राको त्यागकर अनवरत रुपसे रथ हाँकते ही रहते है । रथ से उतरना भी मेरे लिये संभव नही । ऐसी दशामें मै तुम्हे शास्त्र का अध्ययन कैसे कराऊँ? तुम्ही सोंच कर कहो, क्या किया जाय । तुम्हारे जैसे आदर्श बालक को शिष्य के रुपमें स्वीकार करने में मुझे प्रसन्नता ही होगी ।

भगवान दिवाकरने टालने का प्रयत्न किया, किंतु हनुमानजी को इसमे किसी भी प्रकार की कठिनाईकी कल्पना भी नही हुई। उन्होने उसी विनम्रतासे कहा-‘प्रभो! वेगपूर्वक रथके चलने से मेरे अध्ययन मे क्या बाधा पडेगी? हाँ, आपको किसी प्रकार की असुविधा नही होनी चाहिये । मैं आपके सन्मुख बैठ जाऊँगा और रथ के वेग के साथ ही आगे बढता रहूँगा ।’

सुर्यनारायण को इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ । वे हनुमानजी की शक्ति से परिचित थे। वे यह भी अच्छी तरह जानते थे कि ये स्वयं ‘ज्ञनिनामग्रगण्यं’ है ; किंतु शास्त्र की मर्यादा पालन हेतु एवं मुझे यश प्रदान करने के लिये ही मुझसे विद्या प्राप्त करना चाहते है।’

आदित्यनारायण ने हनुमानजीको वर्ष-दो वर्ष या दो-चार मासमें नहीं, अपितु कुछ ही दिनों में समस्त वेदादि शास्त्र, उपशास्त्र एवं समस्त विद्याएँ सिखा दी इसप्रकार हनुमानजीका सविधि विद्याध्ययन हो गया । वे सबमें पारंगत हो गये । इसप्रकार भगवान सूर्यदेव से विद्या प्रात कर वे विद्यावान तथा गुणवान हुए।

तुलसीदासजीने हनुमानजी को विद्यावान कहा है उसका संकेत यह है कि जो विचार आदमी को भगवान का बनाता है वह विद्या है । आज विद्या की तृष्णा बढी नही है । आज लोग बुद्धिनिष्ठ नहीं है , बुद्धिजीवी है । (They live on their wits) बुद्धिनिष्ठ होना चाहिये । मुझे विद्या की तृष्णा, गुण की तृष्णा, जीवन बदलनेकी तृष्णा होनी चाहिए । क्योंकि ये सब पाकर भगवान के चरणोंमे रख कर हनुमान के जैसा भक्त होना है । तभी भगवान हमे आपनायेंगे ।

जो लडका अच्छा लगता है उसी को भगवान अपनाते हैं । भगवान को जो स्वकीय लगता उसे भगवान अपनाते हैं ।  गुण तृष्णा होनी चाहिये । वाल्मीकि रामायण में भगवान रामने हनुमानजी के गुणाें के लिये कहा है -
तेजो धृतिर्यशो दाक्ष्यं सामथ्‍र्यं विनयो नय: । पौरुषं विक्रमो बुद्धिर्यस्मिन्नेतानि नित्यदा ।।
(तेज, धैर्य, यश, दक्षता, शक्ति, विनय, नीति, पुरुषार्थ, पराक्रम और बुद्धि ये गुण हनुमानजी में नित्य स्थित हैं।) धीरता, गम्भीरता, सुशीलता, वीरता, श्रद्धा, नम्रता, निराभिमानिता आदि अनेक गुणोंसे सम्पन्न हनुमानजी को तुलसीदासजीने महर्षि वाल्मीकि के समान सुन्दरकाण्ड मे इनकी ‘ सकलगुणनिधानं ’ के उद्घोष से सादर वन्दना की है ।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं, रघुपतिप्रिय भक्तं वातजातं नमामि
इसप्रकार हनुमानजी में अनेक गुण है, इसलिए तुलसीदासजी ने उन्हे ‘विद्यावान गुनी अति चातुर’ कहा है, तथा आगे कहा है कि ‘राम काज करिबे को आतुर’ । हनुमानजी का संम्पूर्ण जीवन भगवान राम के कार्य के लिये समर्पित था। उनका दास्य भाव भी उत्.ष्ट है ।

तुलसीदासजी लिखते है कि हनुमानजी ज्ञानी तो थे ही तथा प्रभुकार्य के लिये हमेशा तत्पर रहते थे । हमको मानव जीवन मिला है, यह बहुत महत्वपूर्ण बात है । भगवानने हमें अनमोल ऐसा मनुष्य जन्म दिया है । सचमुच हम धन्य है, जो हमें मनुष्य जन्म मिला । मनुष्य जन्म मिलना यह तो बडे भाग्य की बात है ही लेकीन मनुष्य को कैसा जीवन जीना चाहिये यह समझना बहुत बडे भाग्य की बात है ।

यदि हमे कोई वस्तु प्राप्त हो जाए लेकिन जब तक उस वस्तु की उपयोगिता का हमे ज्ञान न होगा तब तक वह वस्तु हमारे लिए उपयोगी न होगी । हमे अनमोल ऐसा मानव जन्म मिला लेकिन उसकी किमत हमे समझी क्या? उसका योग्य उपयोग हम कर रहे हैं क्या?

मानव जीवन ईश्वर ने दी हुई अमूल्य भेंट है । मानव जीवन, प्रभु .पा से और पूर्व जन्म के हमारे द्वारा किये हुए अनेक सु.त्योंका परिणाम है । हमारे ऋषि मुनियों ने और साधु संतोने भी मानव जीवन को अमूल्य रत्न कहा है । ‘‘जन्तुना नर जन्म दुर्लभम्’’ इस श्लोक मे श्रीमद्आद्यशंकराचार्य ने भी मानव जीवन का महत्व समझाया है ।
मानवी जीवन व्यर्थ बिताने के लिये नही है । बुद्धि मिली है तो मै किसका हूँ? किसके लिये हुँ? मुझे कौनसा काम करना है ? इस सम्बंध मे पूर्ण विचार करके मनुष्य को काम करना चाहिये । मनुष्य से इस प्रकार की अपेक्षा है ।

हमको भगवानने बुद्धि दी है, शास्त्र दिये है, वेद, उपनिषद, गीता तथा रामायण जैसे ग्रंथ दिये है । उससे हमे मार्गदर्शन होता है । मानवी जीवनका पूर्ण उपयोग करके उसकी दीपावली करनी चाहिये उसकी होली नही होने देनी है । मानव देह दुलर्भ है । यह मानव देह बार बार नहीं मिलती। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्ममें करुँगा ऐसा विचार करके नहींं चलेगा । अगले जन्ममें मनुष्य ही बनेंगे ऐसा कौन कह सकता है? मैने जो विकास (Development) किया होगा, मानसिक विकास साध्य किया होगा उसके अनुसार मुझे अगला जन्म मिलता है । यदि विकास ही साध्य नहीं किया होगा तो मानवी जीवन कहाँ से मिलेगा? हमारे ऋषियोंने, संतोने जीवन जी कर दिखाया है ।

हनुमानजी के चरित्र पर जब हम चिन्तन करते हैं तो हमें यह दृष्टिगोचर होता है कि हनुमानजी तो प्रभु कार्य के लिए हमेशा तत्पर रहते थे । उसी प्रकार यदि हम हनुमानजी के भक्त हैं तथा हनुमानजी की तरह प्रभु के लाडले भक्त बनना है तो उनकी तरह हमें भी हमेशा प्रभु कार्य के लिये तत्पर रहना चाहिये ।

भगवान राम संस्कृति रक्षण के लिये अवतरित हुए थे, और हनुमानजी उनके इस कार्य मे पूर्ण सहयोगी बने । हमें भी प्रभु कार्य करना है तो क्या करना है? पभु कार्य में दो बाते आती हैं। व्यक्तिगत विकास और सामाजिक सांसस्कृतिक रक्षण । मनुष्य की एक विशिष्ट संस्कृति है । ये दो बातें भगवान के काम में आती है । प्रथम बात है व्यक्तिगत विकास करना । व्यक्तिगत विकास के लिए प्रयत्न करने चाहिये ।  संस्.ति की रक्षा के लिये भी प्रयत्नशील रहना चाहिये । मनुष्य की विशिष्ट संस्.ति का शास्त्रकारोंने चित्रण किया है। वह संस्कृति फिर से खडी करने के लिए कर्म करना है ।
प्रभु कार्य करने के बाद क्या होता है? मनुष्य की चित्त शुद्धि होती है । भगवान दर्ज कर रखेंगे, इस विश्वास से प्रभु कार्य करना है । प्रभु के पास ले जानेवाला प्रभु कार्य करो । मंगलता, पवित्रता खडी करने के लिये कर्म करो। कर्म करना यह प्रथम बात है, उसका फल कितना मिलेगा यह गौण बात है । गीता कहती है ‘‘कर्मण्येवधिकारस्ते माफलेषुकदाचन्’’ । हमें प्रभु कार्य करना है तो कौनसा कर्म करना है? प्रभु के करोंडो पुत्र अपने पिता से बिछुड गये हैं । मानो पिता को पहचानते ही नहीं ऐसा उनके आचरण से प्रतीत होता है । ऐसा मार्ग भूले हुए बेटोंको अपने पिता के पास ले जाना, यही प्रभु कार्य है ।

भगवान के प्रति .तज्ञता जाग्रत होने पर श्रीमदाद्यशंकराचार्य के देव्यपराधक्षमापन स्तोत्र की यह पंक्ति याद आयेगी- ‘‘मत्सम: पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समान हि’’। भगवान ! इस जगतमें मुझ जैसा पातकी कोई नहीं है, जो बैल है वह बैल जैसा आचरण करता है परन्तु मैं बैल न होते हुए भी बैल जैसा आचरण करता हूँ इसलिए मै पातकी हूँ । हम गीता-रामायण का स्वाध्याय नहीं करते, गीता के प्राणवान, तेजस्वी विचारों का चिंतन, मनन नहीं करते है, यह पाप है । गधा, घोडा, कुत्ता, चिडीयाँ कौआ गीता-रामायण नहींं पढते और मैं भी नहीं पढता हूँ । मनुष्य पशु-पक्षी नही है फिर भी वह पशु जैसा रहता है । यह उसका महान पातक है । मेरे पास शक्ति होते हुए भी मैने कुछ नहीं किया । बैल के हाथ नहीं है, परन्तु मेरे हाथ है । मैने हाथों का सदुपयोग नहीं किया । कौए के पास वाणी नही है मेरे पास है । परन्तु इस वाणी से न मालूम मैने कितने घर जलाये है, गधे को बुद्धि नही है, मेरे पास बुद्वि है । परन्तु इस बुघ्दि से मैने दुनियाँ का सत्यानाश ही किया । मैं आपका काम करुँ इसलिये आपने ये शक्तियाँ मुझे दी परन्तु मैने इन सबका गलत मार्ग में प्रयुक्त किया ।

लोगोंकी अस्मिता (आत्मगौरव) को जागृत करना, उनको स्वच्छ बनाकर ईश्वराभिमुख करना शनै: शनै: उनको उन्नति की ओर ले जाना यह सबसे महान भगवद्कार्य है । इसे ही तप कहते है वैदिक विचारधारा ही इतनी सुन्दर है कि उससे जीवन तेजस्वी, प्रेममय और उदार बनता है । कृष्ण और रामके विचाराें को प्रत्येक झोपडी-महलमें ले जाने की प्रबल इच्छा हममें होनी चाहिये । जिस खोखे (शरीर) में साक्षात विश्वंभर आकर विराजमान हुए है, उस खोखे (शरीर) में निराशा, असहायता, दुर्बलता, निस्तेजता, असन्तोष आदि आकर बैठे हैं । ऐसे जीवन का क्या अर्थ है?

भगवान को फूल चढाने में कुछ भी अनुचित नही है । भगवान को फुल तो चढाने ही चाहिये। परन्तु केवल फुल चढाने में ही भक्ति पूर्ण नहीं होती प्रभु से विन्मुख हुए लोगोंका हाथ पकडकर उन्हे प्रभु के सन्मुख लाना और उनका जीवन पुष्प खिलाकर प्रभु चरणोंमे रखना ही सच्ची सेवा है। समाज के अन्तिम व्यक्ति तक पहुँचकर उसके जीवनमें राम व कृष्ण को प्रतिष्ठित को प्रतिष्ठित करना ही प्रभु कार्य है।

जिस तरह हनुमानजी ने सुग्रीव, अंगद, तथा समस्त वानरसेना को प्रभु की ओर उन्मुख कर प्रभुकार्य करने की प्रेरणा दी । उसी प्रकार हमें भी भगवान के कार्य के लिए कटिबद्ध होना चाहिए । तभी हम सच्चे अर्थमें हनुमान भक्त तथा प्रभु के प्रिय बन सकेंगे।

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