Wednesday, June 29, 2011

राम दूत अतुलित बल-धामा । अंजनि पुत्र पवनसुत नामा ।।  (2)
अर्थ : हे पवनसुत अंजनीनन्दन! श्रीरामदूत! आपके समान दूसरा कोई बलवान नहीं है ।
गूढार्थ : पवनपुत्र श्री हनुमानजी के लिये अनेक भक्तों और कवियों ने अनेक प्रकार के विशेषनों का प्रयोग किया है । उन्हे अतुलित बलधाम, सुमेरु के समान चमचमाते शरीरवाला, राक्षसों के समूह को अग्नि के समान जला डालनेवाला, ज्ञानियों मे अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के अधिश्वर और श्रीराम का श्रेष्ठ दूत कहा गया है। इतना ही नही, उन्हे मन के समान अति तीव्र गतिवाला पवन के समान वेग से चलने वाला, अत्यंत जितेन्द्रिय ब्रम्हचारी, वायु का पुत्र, वानरों की सेना का नायक और श्रीराम का दूत भी कहा गया है । भारतीय नीतिग्रन्थों में दूतके लक्ष्मण बताते हुए कहा गया है –
मेधावी वाक्पटु: प्राज्ञ: परचित्तोपलक्षक: ।
धीरो यथोक्तवादी च एष दूतो विधीयते ।।
गुणी भक्तो शुचिर्दक्ष: प्रगल्भोव्यसनी क्षमी ।
ब्राम्हण: परमर्मज्ञो दूत: स्यात् प्रतिभानवान् ।।
साकारो निस्पृहो वाग्मी नानाशास्त्रविचक्षण: ।
परचित्तावगन्ता    राज्ञो दूत: स इष्यते  ।।
जो व्यक्ति दूत का कार्य करने के लिये भेजा जाय, वह मेधावी (बुध्दिमान, प्रतिभावान और अच्छी स्मरण शक्ति वाला) वाक्पटु (समय के अनुसार उचित बात कहने मे चतुर) प्राज्ञ (किसी भी बात को झट समझने वाला, धीर (धैर्य शाली) और जैसा कहा हो, वैसा ही जाकर कहने वाला होना चाहिये, जो गुणी (अनेक गुणों का भण्डार, आवश्यकता पडने पर समुचित व्यवहार कर सकने वाला), अपने स्वामी का भक्त, पवित्र (किसी भी प्रकार के प्रलोभन से न डिग सकने वाला), दक्ष (आवश्यकतानुसार व्यवहार करने मे चतुर), प्रगल्भ (बातचीत करने मे कुशल), अव्यसनी (जिसमे किसी प्रकार का व्यसन या दुर्गुण न हो) सहिष्णु, ब्राम्हण (पवित्र आचरण वाला), दुसरे के मन की या भेद की बात झट जान सकने वाला और प्रतिभावान (समय के अनुसार व्यवहार कर सकने की बुद्धिवाला हो )

राजा का दूत देखने मे सुन्दर, निर्लोभ, बातचीत मे कुशल, अनेक शास्त्रोंका पंडित और दूसरे की बात झट समझ सकनेवाला होना चाहिये । पवनपुत्र हनुमानजी तो भगवान श्रीराम के दूत थे, उनमे ये सभी गुण प्रचुर मात्रा में विद्यमान थे ।
दूत का कार्य यह है कि जो काम उसे सौपा जाय, उसे वह सावधानी से निरालस होकर करे । जब समुद्र तट से उछलकर हनुमानजी लंका की ओर जा रहे थे, उस समय मैनाक पर्वतने उनसे कहा कि ‘तनिक विश्राम कर लीजिये’ । किंतु श्री हनुमानजी ने कहा ‘नहीं ’,‘राम काजु कीन्हे बिनु मोहि कहाँ विश्राम’’ (रामचरितमानस  5/1) । हमें भी प्रभु भक्त बनने के लिये हनुमानजी का आदर्श सन्मुख रखते हुए प्रभु कार्य के लिये कटिबध्द होना चाहिए । रामदूत के गुणाें में एक गुण है ‘प्रगल्भ:’ अर्थात जो उचित और आवश्यक बात को कहीं भी किसी भी परिस्थितीमें निस्संकोच भाव से कहने में पूर्ण समर्थ हो ।

अहंकार और क्रोधकी, प्रतिमूर्ति दशानन रत्नजडित स्वर्ण-सिंहासन पर बैठा हुआ था । सभा भरी हुई थी और शतयोजन सागर को पार करके सीतामाता से भेंटकर, अशोक वाटिका को उजाड, राजपुत्र अक्षकुमार को मार, मेघनाथ द्वारा ब्रम्हास्त्र बद्ध बंदी हनुमान उसके सामने खडे थे । सभा मे सन्नाटा छाया हुआ था एवं समस्त सभा आश्चर्यचकित दृष्टि से उन्हे घूर रही थी । ऐसी विषम परिस्थिति मे भी उस अद्वितीय प्रतिभाशाली राजदूत के द्वारा दिये गये भाषण के एक-एक शब्दमें उनका उत्कृष्ट प्रागल्भ्य का दर्शन  होता है । उन्होने कहा ‘हे राक्षसराज ! मै महात्मा सुग्रीव का सचिव और प्रभु श्रीरामचंद्र का दास हनुमान हूं । मैं अपने स्वामी की आज्ञा से देवी जानकीजी की खोज में उनकी तलाश करता हुआ आपकी लंका मे आ पहुँचा हूँ । मैने स्वयं आपके यहाँ अशोक बनमें माता सीता के दर्शन किये हैं, और उनसे वार्ता भी की है ।

दशानन ! आप तो महामति है, नितिज्ञ, और धर्मज्ञ है, अर्थ, काम के मर्म को भलीभांति जानते है, फिर परायी स्त्री का इस प्रकार अपहरण करके बलात् घरमें रखने का शठता, धूर्ततापूर्ण और महद्अशोभनीय कुकर्म आपसे कैसे हो गया? किंतु अभी भी अवसर है उस भूल को सुधारनेका । आप मेरा धर्मानुकूल अनुरोध मानकर तत्काल रघुकुल वधु देवी जानकीजी को सन्मान सहित श्रीरामजी के पास भेज दें । इसीमे आपकी भलाई है अन्यथा आपका जीवित रहना कठीन है । इसप्रकार रामदूत (भगवान के दूत) को निर्भय, मेधावी, दक्ष, प्राज्ञ, धीर, प्रगल्भ इत्यादि गुणोंसे युक्त होना चाहिए ।  तथा दूत को केवल गुणवान होना ही प्रयाप्त नहीं, उसे बलवान भी होना चाहिए ।  

तुलसीदासजी लिखते हैं कि हनुमानजी का बल कैसा है? ‘अतुलित बलधामा’ । हनुमानजी का बल ‘अतुलित’ है यानी जो तोला नहीे जा सकता, जिसकी कोई तुलना नहीें । हम जब कोई असामान्य वस्तु या व्यक्ति का वर्णन करते हैं तो उस वस्तु या व्यक्ति को उपमा दी जाती है । परन्तु हनुमानजी का बल तो अपार हैं ऐसा तुलसीदासजी वर्णन करते हैं । संस्कृत में कहा गया है।    
गगनं गगनाकारं सागरं सागरोपमम् ।
राम रावणयोर्युद्धं  राम रावणयोरिव ।।
गगन को गगन की उपमा दी जाती है, सागर को सागर की ही उपमा दी जाती है । वैसे ही हनुमानजी के बल के लिए तुलसीदासजी कहते हैं कि हनुमानजी का बल अपार है, ‘अतुलित बलधामा’ उसकी कोई तुलना नहीें की जा सकती। तुलसीदासजी ने सुन्दरकाण्ड में भी हनुमानजी की वन्दना करते हुए लिखा है ‘अतुलित बलधामं हेमशैलाभदेहं’ हनुमानजी का बल अतुलित है ।

हमारे यहाँ हाथी का बल सर्व श्रेष्ठ माना जाता है । योगदर्शनकार ने शक्ति का जो माप कहा है वह ‘बलेषु हस्ति बलादिनि’ ऐसा कहा है। भीम का बल कितना था? तो ‘नवनागसहस्त्रबल:’ ऐसा लिखा है । भीम में नौ हजार हाथीयों का बल था ।  उस समय बल का माप हाथी था । अब हाथी बल चला गया है और अश्व शक्ति (Horse Power) ने उसका स्थान लिया है । हम और कितना गिरते हैं यह देखना है । जिस देश में हाथी नहीं है उस देश के लोग अश्व बल ही कहेंगे । वे अश्व बल कहने लगे इसलिए हम भी वैसा कहने लगे । तुलसीदासजी ने भगवान रामकी बाल लीला का वर्णन करते हुए एक भजन में लिखा है कि भगवान राम का मुखकमल कैसा है? तो लिखा है -
तुलसीदास अति आनन्द   निरख के मुखारविन्द ।
रघुपति की छबि समान   रघुबर  छबि  बनियाँ ।।
ठुमुकि चलत रामचन्द्र.........................
तुलसीदासजी कहते हैं भगवान राम का मुखकमल रामजी के जैसा ही है उसकी कोई तुलना नहीं, उसी प्रकार यहाँ तुलसीदासजी हनुमानजी के बल के लिए लिखते हैं कि हनुमानजी का बल अपार है, ‘रामदूत अतुलित बलधामा’ उसकी कोई तुलना नहीं कर सकते ।
तुलसीदासजी ने लिखा है ‘रामदूत अतुलित बलधामा’ अर्थात युद्ध कौशल और शास्त्रविद्या- दोनों के प्रयोग में राजदूत को दक्ष और विवेकयुक्त होना चाहिये । अर्थात क्षत्रियत्व और ब्राम्हणत्व का उसमें सम्यक समन्वय होना चाहिये। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है लंका दहन । लंका दहन एक वानर की मर्कटलीला नहीं थी अपितु वह एक राजनीतिनिपुण व्यक्ति का पूर्ण विचार से किया हुआ कृत्य था । लंका दहनमें पूर्ण राजनीति है । लंकादहन करके हनुमानजी ने युध्द का आधा काम पूरा कर दिया, आधी लडाई तो उसी समय हनुमानजीने जीत ली थी । लंकादहन करके उन्होने लंका की राक्षस प्रजाका आत्मप्रत्यय समाप्त कर डाला था । प्रजा का अपने उपर तथा अपनी सामथ्‍र्य का विश्वास नहीं रहा । यह कार्य हनुमान जीने किया है । इस क्रिया का प्रभाव इतना शक्तिशाली हुआ कि प्रजा का गया हुआ चैतन्य अन्त तक वापस नहीं आया । सब घबराये हुए थे, सब (Colaps) हो गये थे । जिस प्रकार क्रिकेट में ‘ एक आऊट हुआ, इसलिए मैं भी जानेवाला हँू  यह वृत्ति आई कि  ‘मै खेलूंगा’  ‘मै बाऊंड्री मारुंगा’  इस वृत्ति का नाश हुआ ही समझो, यह ( Psycological effect) है। आत्मप्रत्यय जाने पर (Colaps) शीघ्र होनेवाली ही है । इस प्रकार राक्षस प्रजा मानसिक दृष्टि से हार गयी  थी । हमने विजय के लिए ही जन्म लिया है इतना आत्मविश्वास होगा तो निर्बल व्यक्ति भी काम करेगा । हनुमानजी की यह क्रिया राजनीति और मानस शास्त्र का गहण अभ्यास दर्शाती है । इसप्रकार हनुमानजी के इन गुणों का चिन्तन कर हमें भी अपने जीवन में उन गुणों को लाने का प्रयत्न करना चाहिए तभी हम सच्चे अर्थ में हनुमानजी के भक्त बन सकेंगे । इस प्रकार राजदूत के आवश्यक सभी श्रेष्ठ गुणों से हनुमानजी का व्यक्तिमत्व समन्वित है । जैसे श्रेष्ठ नीतिमान राजा श्रीराम है, वैसे ही श्रेष्ठ नीतिज्ञ रामदूत श्री हनुमान हैं ।

तुलसीदासजी आगे लिखते हैं ‘अंजनीपुत्र पवनसुत नामा’ । भारतीय शास्त्रों मे श्री हनुमानजी को ‘वातात्मज’ या वायुपुत्र बताया गया है । हनुमानजी की माता अंजनी और पिता केसरी थे । अंजनी पूर्व जन्म मे पुंजिकस्थला नाम की श्रेष्ठ अप्सरा थी । ऋषिके शापवश वानरी हुई, तथापि उनका अप्रतिम लावण्य वरदान के कारण था । ‘स्कन्द’ एवं ‘भविष्योत्तर’ पुराणों में भी कथा आती है कि केसरी की पत्नी अंजना अनपत्य दु:ख से दु:खी होकर मतंग ऋषि के पास जाकर रोती हुई कहने लगी -‘मुने’ ! मेरे पुत्र नही है । आप कृपया पुत्रप्राप्ति का कोई उपाय बतलाइये ! तब मतंग ऋषिने कहा -‘पम्पा सरोवर से पूर्व दिशामे पचास योजनपर नरसिंहाश्रम है । उसकी दक्षिण दिशामे नारायणगिरिपर स्वामितीर्थ है । उससे एक कोश उत्तरमें आकाश गंगा तीर्थ है । वहाँं जाकर उसमें स्नान करके द्वादश वर्षतक तप करने से तेरे गुणवान पुत्र उत्पन्न होगा ं मतंग के ऐसा कहनेसे वह नारायणाद्रिपर गयी, स्वामीपुष्करिणीमे स्नान किया और अश्वत्थकी प्रदक्षिणा एवं वराह भगवानको प्रणाम करके आकाश गंगातीर्थ में रहनेवाले मुनियाें एवं अपने पतिकी आज्ञा लेकर उपवास करती हुई बाह भोग त्यागकर तप करने लगी । इसप्रकार तप करते हुए पूरे बारह वर्ष बीत गये, तब वायुदेव ने प्रसन्न होकर उसे पुत्र होने का वरदान दिया । परिणाम स्वरूप अंजनाने एक उत्तम पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम मुनियों ने हनुमान रखा । हनुमानजी की जन्म कथाएँ पुराणों मे विभिन्न प्रकार से मिलती है । हमें तो भक्तिपूर्वक उनकी आराधना करनी चाहिये । वायुदेव की कृपासे अंजना माताको पुत्ररत्न प्राप्त हुआ इसलिए उन्हे वायुपुत्र या पवनसुत भी कहा जाता है ।



                       

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