Wednesday, June 29, 2011

हाथ बज्र अरु ध्वजा बिराजै । कांधे मूंज जनेउ साजै ।।  (5)

अर्थ : आपके हाथमें बज्र और ध्वजा हैं तथा कांधे पर मूंज जनेऊ की शोभा है ।

गुढार्थ : तुलसीदासजी यहाँ हनुमानजी के स्वरुप का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि श्री हनुमानजी का हाथ वज्र के समान है तथा उनके हाथ में रामनाम की ध्वजा है । इसका संकेत यह है कि हमें भी हनुमानजी की तरह प्रभु कार्य के लिए कटिबध्द होकर प्रभु कार्य की ध्वजा हाथ मे लेनी चाहिए।

विश्व मे भव्य ऐसी भारतीय संस्कृति है, परन्तु उसकी आज विडम्बना हो रही है । मानव के समृद्ध भौतिक जीवन के साथ उसके परलौकिक और अध्यात्मिक जीवन को मार्गदर्शन करनेवाली संस्कृति आज रो रही है । हजारों वर्षों से विश्वको मार्गदर्शन करती आयी हुयी संस्कृति खडी करने के लिए हमारे अवतार रामकृष्णादि महापुरुष निरन्तर कर्म प्रवत्त रहे । ऋषियोंने, संतोने अविरत अपने रक्त की धारा उंडेलकर उसको बनाये रखा, सन्तोंने अथक प्रयत्नों द्वारा प्रेरणाका पीयुष पिलाकर हममें संस्कारों को जीवित रखा, इन सबसे उऋण होने का कोई कभी विचार करता है क्या? हमारा हृदय अहर्निश गतिमान रखकर प्रभु हमारी सेवा करते है । प्रभु के इस ऋण से मुक्त होने का कोई कभी विचार करता है क्या?

आज सर्वत्र अशान्ति फैली हुयी है । सर्वत्र असमाधान व्याप्त है । भोगलालसा अमर्यादित बढ गयी है। परिणाम स्वरुप दु:ख से त्रस्त समाज आज के बुध्दिमानाें और जागृत अन्त:करण के व्यक्तियों को आव्हान कर रहा है । आजका युग आव्हान का युग है । ‘क्षतात त्रायते’-अर्थात धर्मको संस्कृति को जो विनाश से बचाता है वही क्षत्रिय है ऐसा कहा जाता है । आज ऐसे सांस्.तिक क्षत्रियोंकी आवश्यकता है । इसलिए तुलसीदासजीने हनुमानजी के हाथ में राम नाम की ध्वजा का जो वर्णन किया है वह इसी ओर संकेत करता है कि हमे भी हनुमानजी की भांति यशाशक्ति, यथामति, संस्कृति की सेवा करने के लिये कटिबद्ध होना चाहिये ।
तुलसीदासजी कहते हैं कि हनुमानजी के हाथ वज्र के समान हैं यह इस ओर संकेत करता है कि जो विपरीत दिशा की ओर जाते हैं, जो आुसरीवृत्ति की ओर जाते हैं उनको सजा देने के लिये उनके हाथ वज्र के समान कठोर हैं।

पवनपुत्र हनुमानजी ने चार चुने हुए वीरों पर मुष्टिका प्रहार किया है । इसका सुन्दर वर्णन रामचरित मानस मे तुलसीदासजी ने किया है । लंकानगरीकी अधिष्ठात्री देवी लंकिनीपर हनुमानजी का प्रथम मुष्टिका-प्रहार हुआ है ।

मुठिका एक महा कपि हनी । रुधिर बमत धरनी ठनमनी।। (मानस 5/3/2)

लंकिनी के प्राण पखेरु न उड पाये, इसलिये उसे हलके से ही मारा, नहीं तो स्त्री हत्या कही जाती । दूसरा मुष्टि का प्रहार मेधनाद पर अशोक वाटिकामें हुआ है। हनुमानजी का यह दूसरा मुक्का घनदान कभी नही भूला । देखिये -
मुठिका मारि चढा तरु जाई । ताहिं एक छन मुरछा आई ।।
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया । जीति न जाई प्रभंजन जाया ।
                                           (मानस 5/18/4-4-1.5)
मुक्का लगते ही मेघनाथ मूच्‍र्छित हो गया ; परन्तु उसके प्राण बच गये; क्योंकि हनुमानजी का मुक्का तो लोगों को पाठ पढाता है -उनके प्राण नहीं लेता। तीसरा मुक्का कुम्भकर्ण को लगा है-
कोटि कोटि गिरी सिखर प्रहारा। करहि भालु कपि एक एक बारा ।। (मानस 6-64-2/2)
तब मारुत सुत मुठिका हन्यो । परयो धरनि व्याकुल सिर धुन्यो ।।
पुनि उठि तेंहि मारे हनुमंता । घुर्मित भूतल पेरउ तुरंता ।। (मानस 6-64-4)

ऐसा कनक भूधराकार शरीरधारी कुम्भकर्ण भी हनुमानजी के मुष्टिका-प्रहार से तिलमिला उठा है; कलाबाजी खाता हुआ पृथ्वीपर गिर गया है । पुन: उठा तो सही, पर उधर हनुमानजी का मुक्का तैयार था । मुक्का लगा और कुम्भकर्ण भूतल पर चक्क्र काटकर पुन:गिर पडा-

चौथा मुक्का रावण को लगा है । पूर्वापेक्षया यह भीषण वज्र मूष्टि-प्रहार है । लंकिनी, घननाद तथा कुम्भकर्ण को तो मुष्टिका प्रहार मात्र लगा है, पर लंकेश को वज्रमुष्टिका लगी है ।
मुठिका एक ताहि कपि मारा । परेउ सैल जनु वज्र प्रहारा ।।
मुरछा गै बहोरि सो जागा । कपिबल बिपुल सराहन लागा ।।
                                            (मानस 6-83-1-1/2)
हनुमानजी की इस वज्र मुष्टिकाने तो लंकापति रावण को भी मूच्‍र्छित कर दिया है । इसपर अब दार्शनिक दृष्टि से विचार करें । यह मानी हुई बात है । कि एक-एक अँगुली का अलग अलग अपना महत्व, प्रभाव और कतृ‍र्त्व है । पाँचो अँगुलियाँ ज्ञानेद्रियोंकी प्रतिक है । मोड देने से ‘मुष्टिका’ बन जाती है । अंगुठ्ठे में अग्नितत्व, मध्यमा में आकाश तत्व, तर्जनी में वायु तत्व, अनामिका में जलतत्व और कनिष्ठिका में पृथ्वी तत्व स्थित है । इन पाँचोकी समष्टि अर्थात मुडकर एकता बद्ध होना ही ‘मुष्टिका’ है। इसमे बडी शक्ति आ जाती है । हाँ इसमे ब्रम्हचर्य का बल तथा योग संयम भी अपेक्षित है। रावण को वज्रमुष्टिका लगी थी। याें तो बजरंगी के मुक्केसे मूच्‍र्छा चारों को आयी है। हनुमानजी की मुष्टिका प्रहार से चारों खाने चित्त हो गया था विश्वविजयी वीर रावण। होशमें आते ही रावण से रहा नही गया और मुक्त कंठ हनुमानजी के विपुल बल की सराहना करने लगा ।
मुरछा गई बहोरि सो जागा । कपिबल विपुल सराहन लागा ।। (मानस 6-83-1-1/2)
आगे तुलसीदासजी हनुमानजी के स्वरुप का वर्णन करते हुए कहते है ‘कांधे मुंज जनेऊ साजे’ । हमारी संस्कृति में जनेऊ याने यज्ञोपवीत का बहुत बडा महत्व है । हमारे यहाँ मानव जीवन में सोलह संस्कार माने गये हैं । महर्षि व्यास द्वारा प्रतिपादित व्यासस्मृतिमें प्रमुख षोडस संस्कार इस प्रकार है 1)गर्भाधान 2)पुसवन 3)सीमन्तोन्नयन 4)जातकर्म 5)नामकरण 6)निष्क्रमण 7)अन्नप्राशन 8)वपनक्रिया (चुडाकरण) 9) कर्णवेध 10)व्रतबंध (उपनयन) 11)वेदारम्भ 12)केशान्त (गोदान) 13)वेदस्त्रान (समावर्तन) 14) विवाह 15)विवाहग्निपरिग्रह और 16)त्रेताग्निसंग्रह । उपरोक्त संस्कारों में से ‘उपनयन संस्कार’ मानव जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है । परन्तु आज धर्म का अर्थ केवल कर्मकान्ड रह गया है । कर्मकांड करनेवाले भी धर्म का अर्थ नही समझते तथा कर्मकांड करानेवाले भी धर्म का अर्थ समझाते नहीं तो फिर कैसे रहना चाहिए ।

पुराण ग्रंथ संस्कारों के लिये लिखे गये हैं ।  पुराणों को, ग्रंथों को पढने पर वैसे गुणोंको आत्मसात करने की इच्छा होती है । जब हम हनुमान चालीसा पढते हैं । तथा हनुमानजी के स्वरुप को देखते हैं । तो हमें भी ऐसा लगना चाहिये जिस प्रकार हनुमानजी ने जनेऊ धारण किया है मै भी संस्कारी बनूँगा तथा जनेऊ धारण करुँगा ।

बाहय सौंदर्य जैसे कि आत्मीक सौंदर्य बौद्धिक सौदर्य, मानसिक सौदर्य इत्यादि रहना चाहिये उसी प्रकार आंतरिक सौंदर्य की आवश्यकता समझनी चाहिए । भगवान मेरे भीतर बैठे हैं । यह प्रथम समझना चाहिए। भगवान उपर आकाश मे नहीं हैं वे मेरे भीतर ही बैठे हुए हैं । इस समझ से जीवन को नया मोड मिलेगा । हमारे शास्त्रकारोंने भगवान को भीतर बिठा दिया है और उनका मानने को कहा है । भगवान भीतर बैठे हैं यह समझने के लिये यज्ञोपवीत (जनेऊ) देते है । यज्ञोपवीत का अर्थ यह है कि भगवान की स्थापना करनी है । जो यज्ञोपवीत का अर्थ नहीं समझते वे अध्यात्म भी नही समझ पाते। यज्ञोपवीत यह अध्यात्मिक प्रगति की सीढी है । यज्ञोपवीत के सूत्र में अपने ही हाथोंसे भगवान को बिठाना है, प्रतिष्ठित करना है । भगवान भीतर है । इससे जीवन को नया मोड मिलेगा तथा जीवन आत्मविश्वासपूर्ण बनेगा । दूसरी सीढी में भगवान भीतर है इसलिए जीवन में नियंत्रण आएगा । उसके बाद ‘मै उसका हूँ । यह समझ तीसरी सीढी है । मै उसका हूँ केवल ऐसा बोलना पर्याप्त नहीं है ऐसा तो सभी बोलते हैं । मैं उसका हूँ और उसके लिए हुँ यह आगे की सीढी है ।
जनेऊ को व्रतबंध भी कहते है । ‘व्रत’ यानी संकल्प । अमुक एक बात पूर्ण किये बिना भोजन नही करुँगा ऐसा निश्चय किया जाता है । उसको संकल्प कहते है ।   जीवन मे कुछ संकल्प तो होना चाहिये उसके बिना जीवन को आकार नहीं आता । हनुमानजी के बारे मे तुलसीदासजी लिखते है ‘राम काज लगि तव अवतारा’ (मानस 5-30-3) यह उनका संकल्प है ।

आज मनुष्य के जीवन में कोई संकल्प नही है । ‘मै स्वाध्याय करुँगा’, ‘मै सत्संग करुँगा’ यह संकल्प है । फिर भले ही कितनी ही असुविधा आये, सत्संग करुँगा ही, गाँव मे न हूँ या सख्त बीमार पडा हुँ तो भिन्न बात बात है , अन्यथा यही मेरा संकल्प है । इस प्रकार का जीवन में संकल्प होगा तो कितने ही प्रलोभनों को ठुकराना पडेगा ऐसे संकल्प से आत्मिक शक्ति निर्माण होती है ।

आज युवा शक्ति कितनी बलवान है। शासन के करोंडो रुपये और मनुष्य की बुद्धि इन युवकों पर व्यय की जा रही है फिर भी युवक अनुशासनहीन क्यों बनते जा रहे है? इसका एक ही है उनके जीवन में कोई संकल्प नहीं है । उनके पिता के जीवन में भी कोई संकल्प नही है । मुझे अमुक अमुक अच्छा लगेगा वह मैं करुँगा ही ऐसा विशुद्ध संकल्प कहीं दिखाई नहीं देता । युवकों को संकल्प देना यानी ‘व्रत’ लेना चाहिए ‘अमुक’ एक मै करुँगा ही’ ऐसे संकल्प से आत्मिक शक्ति बढती है ।

‘‘उपनयन संस्कार’’ यह एक दीक्षा-विधि है । यह कर्मकाण्ड है, होना ही चाहिये ग्रीकों में बाप्तिस्मा है । ईसाईयोंमे (Confirmation) है, उसके बिना रिव्रश्चन नही कहलाता, पारसीयोंमे नव-ज्योत संस्कार है, इस्लाम मे सुन्नत है, उसी प्रकार हमारे यहाँ उपनयन मे यज्ञोपवित लेना होता है । यज्ञोपवीत एक नियंत्रण है ‘आज से मै कामाचार, कामवाद, कामभक्षण पर नियंत्रण रखुँगा ऐसी प्रतिज्ञा अग्नि के समझ लेनी होती है। मानव मात्र के लिये यह संस्कार आवश्यक है । परन्तु हमारे यहाँ यह केवल ब्राम्हणों के लिये रह गया है । कारण यज्ञोपवीत क्यों लेना है । उसके पीछे क्या तत्व है, कौनसा कारण है यह कोई सोंचता ही नही और किसी को खोज करनी नहीं है ।

उपनयन संस्कार करनेपर मनुष्य को सतत लगता है कि भगवान मेरे साथ है । यज्ञोपवीत में ब्रम्हगांठ है, उससे पिशाच भाग जाते है ।  एक ऐतिहासिक घटना है -

ब्रिटेन का राज्य उस समय सर्वत्र फैला था । ऐसा कहा जाता था कि ब्रिटेन के साम्राज्य पर सूर्य कभी अस्त नही होता । ब्रिटेन के राज्य का बहुत विस्तार था । एक बार ब्रिटेन का राजा वेष बदलकर-एक किसान के वेष में घूमने के लिए निकला । मार्ग में एक मिलिटरी की छावनी थी । वहाँ राजा चला गया । तंबू के बाहर मिलिटरी का कॅप्टन कुर्सी डालकर पैर लंबे फैलाकर चिरुट हाथमें लेकर विचारों में (शायद घरवाली के विचारों मे) खोया हुआ बैठा था । किसान वेषधारी राजाने कॅप्टन से पूछा, ‘पिट्सबर्ग जाने का मार्ग कौनसा है?’

कॅप्टन ने तिरछी निगाहों से किसान की ओर देखा । कहाँ मिलिटरी कॅप्टन और कहाँ यह किसान ! कैप्टन ने कुछ जबाब नहीं दिया । राजाने फिर से कैप्टन से पूछा, पिट्सबर्ग जाने का रास्ता कौनसा है? ’कैप्टन को गुस्सा आया, उसने राजा को कसकर एक लात मारी व कहा, चल! हट्, निकल जा यहाँ यहाँसे।’ राजा नीचे गिर गया, मुँह मे धूल गयी । राजा फिर से खडा हुआ, कपडों की धूल साफ की, मुँह पोछा और फिर से कैप्टन के पास आकर खडा हुआ । नम्रता से कहा, ‘साहब’! आप बहुत बडे मालूम होते हैं । आपने मुझे लात मारी?,

जो बडे होते हैं वे दूसरों को लात ही मारते है । मिलिटरी के मनुष्य जितने तेज मगज के होते हैं उतने ही विनोदी भी होते है । मजाक भी करते है ं इसका कारण मृत्यु को हाथ मे लेकर घूमनेवाले लोग होते है वे !
किसान ने पूछा ‘‘साहब! आप कौन है?’’
कैप्टन को विनोद करने का मन हुआ । उसने कहा ‘तू ही बता मैं कौन हूँ।’
किसान ने कहा, ‘‘आपके वेषसे तो आप मिलिटरी में हैं ऐसा लगता है ।’’
कैप्टन ने कहा- हाँ! इसीलिए तो घरबार छोडकर छावनीमें आकर बैठा हूँ मुझे पहचान कि मैं कौन हूँ।
किसान-‘मुझ अनाडी को कैसे पता चलेगा कि आप कौन है! आप तो कोई बडे अधिकारी लगते हैं ।
कैप्टन - ‘पर बता तो सही, मै कौन हूँ!
किसान- ‘आप जमादार लगते है !’
कैप्टन-‘नही! उससे भी उपर!’
किसान- ‘तो आप लेफ्टनंट होंगे ।’
कॅप्टन- ‘उससे भी उपर ।’
किसान-‘मुझे कैसे पता चलेगा!’ लैफ्टनंट से उपर यानी आप कॅप्टन है?’
कॅप्टन--‘सच पहचाना तूने! मै कैप्टन हूँ।’
किसान-‘ओ हो! आप इतने बडे और मैने आपसे पिट्सबर्ग जाने का रास्ता पूछा! साहब! मै पागल हूँ मुझसे भूल हूई ।
कैप्टन ने कहा! ठीक है जाने दे, पर तू कौन है?’
किसान-‘ यह तो आप ही कहिए न!’
कैप्टन-‘तू सिविल है या मिलिटरी में है?’
किसान- मै हूँ तो मिलिटरी में !’
कैप्टन को लगा ब्रिटेन की सेना अनेक स्थानों मे फैली हुयी है । यह कोई सेवा निवृत्त (रिटायर्ड) फौजी व्यक्ति लगता है। उसने कहा तू जमादार होगा।
किसान-‘उससे भी उपर।’
कैप्टन-‘तो क्या लेफ्टनंट है?’
किसान-‘उससे भी उपर!’
कैप्टन-‘तो क्या कैप्टन है?’
किसान-‘उससे भी उपर !’
यह सुनते ही कैप्टन सीधा बैठा गया । क्योंकि मिलिटरी अनुशासित थी । उसने पूछा, ‘तो क्या तुम मेजर थे!’
किसान‘-उससे भी उपर!’
कैप्टन-‘ तो फिल्ड मार्शल रहे होंगे!’
किसान-नही! उससे भी उपर!’
कैप्टन-‘तो क्या इंग्लैंड के बादशाह है ?’
किसान-‘हाँ ! मैं इंग्लैंड का बादशाह हूँ।’
यह सुनते ही कैप्टन डर से काँप उठा, खडा हो गया । उसने अति नम्रता से कहा, ‘मुझसे बडी भूल हुई । हमारे बादशाह को कोई गाली देता है तो हम उसका सिर उडा देते है ं यह पिस्तोल लो, और मुझे गोली से मार दो।’ बादशाह ने कहा, ‘इतने स्वदेश प्रेमी, स्वाभिमानी, अनुशासनप्रिय, शूरवीर कैप्टन को मैं मार डालूँ? इंग्लैंड का बादशाह इतना मूर्ख नही है । फिर भी तुमको सजा फर्माता हूँ ।

राजाने कौनजी सजा फर्मायी? वह सुनने जैसी है । राजाने कहा, जब मै सामान्य किसान लगता था। तब तुम्हारा वर्ताव कैसा था? उद्धत, अविवेकी, उद्धण्ड था। मुझे राजा के रुप में पहचानने पर तुम्हारा वर्ताव कैसा बदल गया? तुम नम्र, शिष्ट और विवेकी बन गये ! मै तो वही हूँ, मेरे कपडे भी वही है, परन्तु तुम्हारी समझ में फर्क हुआ और तुम्हारा वर्ताव बदल गया। तो अब ‘चोबीसो’ घंटे इंग्लैंड का बादशाह मेरे साथ है।’  ऐसा समझकर आज से वर्ताव करना । यह सजा मैं तुम्हे देता हुँ।

इस दृष्टांत द्वारा हमें यह समझना है कि यज्ञोपवीत द्वारा ऋषि, मुनीयों ने यही रास्ता हमारे लिये निकाला है । हम मंदिर मे जाते हैं, तो सिगरेट बुझाकर अंदर जाते हैं । बाहर शराब पीते है मंदिर में नहीं पीते । अगर शराब पीना या सिगरेट पीना अच्छा है तो मन्दिर में भी पीनी चाहिए । और सिगरेट या शराब पीना बुरा है तो बाहर भी नहीं पीनी चाहिए । हम मन्दिर मे गाली नही देते अथवा अपशब्द नहीं बोलते, परन्तु मन्दिर के बाहर आते ही गालीयाँ देना या अपशब्द बोलना शुरु करते हैं । मन्दिर में भगवान है’ तो क्या मंदिर के बाहर भगवान नहीं है? वैसे देखा जाय तो मन्दिरमें सभ्यता का पालन करना अच्छा ही है, अभ्यास करने के लिये वह अच्छा ही है, परन्तु चौबीसों घन्टे भगवान मेरे साथ है ऐसी समझ आयेगी तो जीवन बदल जायेगा।

‘‘उपनयन संस्कार’’ होने पर मनुष्य को सतत लगता है कि भगवान मेरे साथ है । जब हम हनुमान चालीसा का पाठ करते हैं तो हमें अवश्य यह देखना चाहिये कि हमारे आराध्य देव का जीवन जिस प्रकार संस्कार युक्त भव्य एवं दिव्य हैं उसी प्रकार मैं भी अपने जीवन को संस्कारी बनाऊँगा तथा जीवन को आकार देने के लिये जीवन में कुछ करार करुँगा । ऐसा संकल्प करने पर यदि हम सच्चे मन से प्रयत्न करेंगे तो हनुमानजी तो हमारी मदद करने के लिये तत्पर रहते हैं । तुलसीदासजी ने लिखा ही है ‘कुमति निवार सुमति के संगी’। इसप्रकार जीवन को संस्कारीत बनाने का हमें प्रयत्न करना चाहिए।

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