Wednesday, June 29, 2011

महाबीर बिक्रम बजरंगी । कुमति निवार सुमति के संगी ।। (3)

अर्थ : हे महावीर बजरंगबली! आप तो विशेष पराक्रमवाले है । आप दुर्बुद्धि को दूर करते हैं और अच्छी बुद्धिवालों के सहायक है ।
गूढार्थ : तुलसीदासजी लिखते हैं हनुमानजी कैसे हैं? ‘महावीर बिक्रम बजरंगी’ हनुमानजी वीरता की साक्षात् प्रतीमा एवं शक्ति तथा बल पराक्रम की जीवंत मूर्ति है । भारतीय मल्लविद्या के ये ही परमाराध्य इष्ट है । आप कभी अखाडों मे जायँ तो वहाँ आपको किसी दिवाल के आले में या दिवालपर महावीर की प्रतीमा अवश्य मिलेगी । उनके चरणों का स्पर्श और नामस्मरण करके ही पहलवान अपना कार्य प्रारंभ करते है ।  जिसमें पांच प्रकार की वीरता हो उसे वीर कहते हैं जैसे-
त्यागवीरो दयावीरो विद्यावीरो विचक्षण: ।
दानवीरो  रणवीरो  पंचैते वीर लक्षण: ।।
जो बाह शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है उसे वीर कहते हैं, और जो अंतर्बाह शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है उसे महावीर कहते हैं ।  हनुमानजीने मन के अंदर रहे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि शत्रुओंपर विजय प्राप्त की थी इसलिए उन्हे महावीर कहते हैं ।  
वीरता में हनुमानजी की कोई तुलना नहीं । यही कारण है कि भारत सरकार भी सर्वोत्कृष्ट वीरता पूर्ण कार्य के लिये ‘महावीर चक्र’ नामक स्वर्ण पदक ही प्रदान करती है । महाभारत के इतिहास के सर्वाेत्कृष्ट योद्धा अर्जुनने अतुल पराक्रम के कारण ही हनुमानजी को अपने रथ की ध्वजापर स्थान दिया था। शक्ति की उपासना करनी चाहिए, शक्तिशाली पुरुष श्रेष्ठ हैं मगर शक्ति ईशशक्ति से मिलती है ।  महावीर हनुमानजी पुरुषश्रेष्ठ हैं ।  जैसे भगवान हैं वैसे ही हमें होना हैं, पुरुषश्रेष्ठ की  पूजा तो करनी चाहिए ।  गीता में भी भगवान ने पुरुषश्रेष्ठ का वर्णन किया है ।
मनुष्य को पुरुषश्रेष्ठ बनना है ।  पुण्य से पुरुषश्रेष्ठ बना जा सकता है तथा विकास करके भी पुरुषश्रेष्ठ बना जा सकता है।  अलग अलग पुरुषश्रेष्ठ हैं ।  यहाँ तुलसीदासजी जो वर्णन कर रहे हैं वह शक्तिवान पुरुषश्रेष्ठ का है ।  जो शक्तिवान हैं वह पुरुषश्रेष्ठ है ।  शक्ति होनी ही चाहिए ।  वसुंधरा वीरोंकी है, कायरोंकी नहीं ।  कायरों को केवल इन्द्रियानंद होता है,उपभोग नहीं, उपभोग में कुछ विशेष है ।  शक्तिमान पुरुषश्रेष्ठ है ।  प्ृाथ्वीपर किसका अधिपत्य है? शक्तिशालीयोंका ।  जो आलसी लोग भोग और स्वार्थ के पीछे पडे हैं उनके लिए पृथ्वी नहीं है ।  शक्ति पुण्य से पैदा होती है और शक्तिसे फल-पुण्य मिलता है ।  वैदिक संस्कृित ने शारीरिक और भौतिक दोनों शक्तियोंको स्वीकारा है । 
स्वार्थ के लिए भौतिक और शारीरिक शक्ति इस्तेमाल करने वाले को दुर्योधन कहते हैं ।  किसी के बहकावे में आकर अपनी शक्ति का उपयोग करने वाले को कर्ण कहते हैं ।  और अपनी शक्ति भगवान के लिए इस्तेमाल करने वाले को अर्जून तथा महावीर हनुमान कहते हैं ।
कितने ही लोग दूसरोंके लिए शक्ति का उपयोग करते हैं ।  जो अपनी शक्ति का उपयोग भगवान के लिए करते हैं उनको भगवान के पास स्थान मिलता हैं । भारतीय परम्परा, तत्वज्ञान, अध्यात्म इत्यादि में शक्तिकी उपासना समझायी है । 
महाकाली, महासरस्वती और महालक्ष्मी की पूजा करने के बाद ही मनुष्य पूर्णता की ओर जा सकता है ऐसी भारतीय धारणा है।  जगत पराक्रम पर चलता है, सौजन्य तथा सदिच्छा पर नहीं चलता ।  जगत केवल प्रार्थना मंदिर नहीं है, जगत रणांगन है ।  रणांगन में लडने की शिक्षा भारतीय अध्यात्म देता है।   
ज्ञान-अज्ञान, अंधेरा-प्रकाश, नीति-अनीति, सुख-दुख, राग-द्वेष, उत्साह-आलस ऐसे द्वन्द्वों से जगत भरा है । इन द्वन्द्वोंका मुकाबला हम किस प्रकार करते हैं, इसपर हमारा जीवन निर्भर है । गीता कहती है कि द्वन्द्वोंका मुकाबला करने के लिए शक्ति चाहिए। भौतिक शक्ति की भांति आत्मिक शक्ति भी है । प्राकृतिक मदद लेने को हम भौतिक शक्ति कहते है, भगवान की मदद लेने को हम आत्मिक शक्ति कहते है । दोनों को साथ लेकर चलना है।
शक्ति की उपासना करनी चाहिए, शक्तिशाली पुरुष श्रेष्ठ है, मगर शक्ति ईशशक्ति से मिलती हैं। यह युग बनियों का है । जिसके पास धन है । उसे पुरुष श्रेष्ठ माना जाता है । धनिक पुरुष श्रेष्ठ है इसमे भारतीय लोगों को संदेह नहीं है । धन-वित्त को भारतीयोंने शक्ति माना है।
आज कितने ही विचार प्रवाह धनशक्ति को नष्ट करना चाहते है । धनिक खराब हो सकता है मगर धन खराब नहीं है । धनी व्यक्ति समाज की शक्ति है । धनिकाें को खत्म करके नहीं चलेगा।
जो शक्तिमान है उसे हम पुरुषश्रेष्ठ कहते है, जो भौतिक शक्ति सत्ता को ईश कार्यार्थ। इस्तेमाल करता है उसे सांस्कृतिक पुरुषश्रेष्ठ माना जाता है । हम वित्त को शक्ति मानते हैं वित्त को लक्ष्मी मानते हैं। जो वित्तवान है नि:संदेह वे पुरुष श्रेष्ठ हैं । पिछले जन्म में उन्होने कुछ अच्छा काम किया होगा उसकी उन्हे इस जन्ममें पेन्शन मिलती है मगर वह ऐसा नहीं मानता । वह समझता है कि यह उसकी अपनी कमाई है । इस जन्म में भी उसे काम करना पडेगा तभी अगले जन्ममें पेन्शन मिलेगी अन्यथा नहीं मिलेगी।
लक्ष्मी भोग के साथ आती है, अथवा भाव के साथ आती है, अत: हमें यह देखना है कि लक्ष्मी भोग के साथ आयी है या भाव के साथ? वित्त के आने के बाद भाव ही खत्म हो गया हो तो भोग, लोभ या विस्मरण के साथ धन आया है ऐसा समझना चाहिए।
मै कौन हूँ? मुझे क्या करना चाहिए? जिन्हे इन बातों का विस्मरण हो गया हो वे लोग कुछ अच्छे काम भी करते हैं । जैसे खराब विचार मन मे आते है वैसे अच्छे विचार भी मन में आते है । मन में अच्छे विचार आनेपर लोग अच्छा काम भी करते हैं । उसके पीछे जीवन सुत्र होने चाहिए मगर वे नहीं होते ।
मरणोत्तर वसीयत करनेवाले को वसीयत करते समय लिखना पडता है कि मै समझदारीसे अपने होश और हवास से लिखता हूँ कि................उसी तरह अपना दिमाग स्थिर रखकर बुद्धिपूर्वक सत्कर्म किया हो, वह सत्कर्म अलग है । हमें लक्ष्मी मिली हो तो विचार करना चाहिए कि इसके साथ नारायण है या नही? जिसके यहाँ लक्ष्मी के साथ भावमयता तेजस्विता है, प्रेममयता है उसके यहाँ लक्ष्मी नारायण के साथ आती है । यह बात नि:संदिग्ध है । जिसके पास तेजस्विता, भावमयता तथा प्रेममयता है मगर विस्मरण नहीं है उसकी लक्ष्मी के साथ नारायण जरुर होंगे । वह सांस्.तिक पुरुषश्रेष्ठ है ।
भक्ति में बुद्धि होना जरुरी है, तत्वज्ञान में भी बुद्धि की आवश्यकता है । जिसके जीवन में, भाव में, कर्म में, भक्ति में और तत्वज्ञान में बुद्धि प्रथम है, वह बुद्धिमान पुरुष श्रेष्ठ है । हनुमानजी बुद्धिमान पुरुषश्रेष्ठ है ।, ‘बुद्धिमतां वरिष्ठम्’ इसीलिए तुलसीदासजी लिखते है, ‘महावीर विक्रम बजरंगी।’
जीवन के बारे में पूर्ण ज्ञान होना चाहिए, मै कौन हूँ, किसलिए हूँ, मुझे क्या करना चाहिए, कहाँ जाना चाहिए ? इन सारे प्रश्नों का जवाब जिसकी आँखों के सामने है वह सुशिक्षित है । केवल किसी विषय पर पी.एच.डी. करने से सुशिक्षित नहीं बना जाता।
एक दिन कुछ पढे लिखे लोग घुमने निकले । घुमते घुमते वे समुद्र के किनारे आये । वहाँ एक नाँव मे बैठकर बीच समुद्र में सैर करने गये । नाँव मे बैठे तीनों पढे लिख्ेा थे, मगर नाँव चलानेवाला अनपढ था। उन तीनों मे से एक आदमी ने नाविक से पूछा; ‘शिवाजी को जानते हो? उस नाविकने कहा, मुझे पता नहीं, शिवाजी कौन है। उस पढे लिखे भाई ने कहा तुझे इतना इतिहास भी पता नहीं है? तो तेरा जीवन व्यर्थ है, ‘वृथा गतं तस्य नरस्य जीवितम्।’ नांव मे बैठै तीनों मे से दूसरा आदमी अंग्रेजी का प्राध्यापक था । उसने नाविक से पूछा शेक्सपियर को जानते हो? उसने जवाब दिया आपने जो शब्द कहा वह मै पहली बार सुन रहा हूँ तो आपको क्या जवाब दूँ ? उसने कहा मनुष्य जन्म लेकर तुझे इतना भी पता नही है तो तेरा जीवन व्यर्थ है । इसप्रकार एक एक पंडित ने उसे प्रश्न पुछे, परन्तु वह जवाब न दे सका। अत: उसे अशिक्षित ठहराकर उसका जीवन व्यर्थ है ऐसा कह दिया। नाविक भी क्या बोलता? क्यों कि उसके सामने सारे पंडित थे।
नाविक को लगा कि, ‘इन सारे लोगों का जीवन सफल, मेरा जीवन व्यर्थ है । ’ इतने मे आकाश में मेघ गर्जना होनेे लगी, चारों तरफ हवाएँ बहने लगी । तुफान आने लगा, अत: नाव डगमगाने लगी नाविक ने पतवार छोड दी। नांव मे बैठे पंडित घबराने लगे । उन्होने कहा, ‘तुम पतवार मत छोडो, नहीं तो अभी नांव डूब जाएगी।’ नाविक ने कहा, ‘तुम पतवार पकडो’ पंडितोंने कहा, ‘हमे पतवार पकडना, नांव चलाना नहीं आता।’ नाविक ने कहा, ऐसा! तो जगत में ऐसा कुछ है जो तुम्हे नहीं आता और आज तुम्हे वह नहीं आता तो तुम्हारा जीवन डुबा समझों । कहनेका तात्पर्य यह है कि हमारे यहाँ पढे लिखे लोग अपने को काफी बडा मानते है मगर कई बाते हमेे भी मालूम नहीं होती।
जो शिक्षण हमें समझाता है कि मै कौन हूँ, जीवन में क्या करना है? जगदीश के पास जाना है तो कैसे जाना है? उससे कैसे मिल सकते है? उसका साथी कैसे बन सकते हैं इन सारी बातों को जो समझाता है वही सच्चा ज्ञान है ।  यह ज्ञान जिसके पास है वह सच्चा ज्ञानी है, वही पुरुषश्रेष्ठ है। हनुमानजी सच्चे ज्ञानी हैे इसलिए उन्हे तुलसीदासजी ने ‘ज्ञानीनामग्रगन्यम्’ कहा है । हनुमानजी पुरुषश्रेष्ठ है, इसीलिए तुलसीदासजीने उन्हे, ‘महावीर विक्रम बजरंगी’ ऐसा कहा है।
आज समाज में से ज्ञान पूजा नष्ट हो गयी है । इतनी शाला-प्रशालाएँ है, महाविद्यालय है, शिक्षा पर इतना धन व्यय हो रहा है, परन्तु ज्ञान-पूजा नहीं है । यह सब रोजगारोंन्मुख शिक्षण  है । इसका ज्ञान से कोई संबंध नहीं हैं ।  सभी जगह पूछा जाता है कि शिक्षा और ज्ञान का क्या संबंध है? गीता में भगवान ने कहा है,
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थ दर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तम्ज्ञानं यदतोन्यथा।। (गीता 13-11)
इतने गुण आये तो ज्ञान अन्यथा सब अज्ञान है । आज ऐसी ज्ञानपूजा चली गयी है
श्रेष्ठता का मापदण्ड आज वित्त बना है ।  जिसके पास वित्त है वही श्रेष्ठ, दूसरा कोई श्रेष्ठ नहीं ऐसा माना जाता है । गुण श्रेष्ठता और चरित्र श्रेष्ठता दोनों चली गयी है । जिस समाज में श्रेष्ठता वित्त से मापी जाती है उस समाज का आन्तरिक सौंदर्य नष्ट होता है ।
समाज में सर्वत्र द्वेष बढ गया है । लोकतंत्र नही रहा, गुंडाशाही आयी है । असत्य व ढोंग को प्रतिष्ठा मिल गयी है । मानसिक सौंदर्य नष्ट हो गया है । व्यक्तीगत जीवन, सामाजिक जीवन दोनाें मे से मानसिक सौदर्य नष्ट हो गया है । इसका क्या कारण है इसका विचार करना चाहिए।
आत्मिक सौंदर्य खडे करनेवाले दो तत्व है- एक भक्ति दूसरा अध्यात्म । दोनों तत्व आज बिखर गये हैं । भक्ति वहम पर खडी है व अध्यात्म चमत्काराधिष्ठित बना है ।
सौंदर्य हीरा है, परन्तु उसकी कीमत कब होती है? जब उसकी कटाई की जाती है तब । जब तक उसके पहलू नहीं बनाये जाते तब तक उसकी कीमत नहीं आती । अर्थात हीरे पर संस्कार करने होते हैं । तो क्या संस्कारी मानव खडा करने की आवश्यकता नहीं लगती?  यह प्रश्न है । मनुष्य खाता है, पीता है, उपभोग लेता है, उसके लिए कमाता है,  इसीमें क्या मानवता पूर्ण होती है? अशुद्ध सोना भी अग्नि में डालने के बाद ही निखर उठता है । तभी उसे कीमत आती है । खदान में निकले हुए सोने का उतना मूल्य नहीं होता, उसपर संस्कार होने पर ही उसको मूल्य आता है । तो क्या मानवपर संस्कार करनेकी आवश्यकता नहीं है? संस्कार के बिना मानव का मूल्य कैसे बढेगा? इस संबंध में तनिक विचार न करनेवाले लोग क्या बुद्धिमान है? क्या वे समाजसुधारक है । क्या दूसरे के लिए समाज के लिए उनका अन्त:करण छटपटाता है?
आन्तरिक सौंदर्य बढाने के लिए सत्संग की आवश्यकता अनिवार्य है ।  व्यक्तिगत जीवन में सत्संग की महिमा कही गयी है ।  मनुष्य जिसके संग में रहता है, उसकी भाषा की जैसी भाषा बोलता है और उसीके जैसी उसकी वृत्ति बनती है ।  आप कितने पानी में हैं यह आपकी संगती से पता चलेगा । अंग्रेजी में कहा है, A man is known by the company he keeps ।  मुख्य बात यह है कि जैसा संग होगा वैसा मनुष्य बनता है ।  इसीलिए गोस्वामीजी हनुमानजी से प्रार्थना कर रहे हैं कि हमारी कुमति को हटाकर हमें सुमति प्रदान कीजिए इसका तात्पर्य यह है कि संग का जीवन में महत्व है, सत्संग से मनुष्य को सुयोग्य मोड मिलता है और जीवन बदलता है ।  बुद्धि खराब होने से समस्त दुष्कर्म बनते हैं, तुलसीदासजीने रामचरितमानस में भी लिखा है-
जहाँ सुमति तहाँ सम्पति नाना ।  जहाँ कुमति तहाँ विपति निदाना ।। (मानस 5.40.3)
इसलिए साधु संग की महिमा गायी गयी है ।  किसके साथ संबंध जोडना है यह स्वयं मनुष्य को निश्चित करना चाहिए कारण संगति का जीवन पर परिणाम होता है । 
तुलसीदासजी लिखते हैं, ‘कुमति निवार सुमति के संगी’  मति याने मनन करने की शक्ति। यह शक्ति भगवान ने हमें दी है ।  बुद्धि की .तिशील शक्ति मनन है ।  मनन की शक्ति बढानी चाहिए ।  इस शरीर रुपी मिी के खिलौने में भगवान ने क्या क्या भरा है, इसे देखेंगे तो भगवान को खोजने का प्रयत्न करेंगे । भगवान ने यह कैसा अनोखा बनाया है, यह कैसे होता है?  समझपूर्वक अपनी कृति के निरीक्षण को आत्मनिरीक्षण कहते हैं ।  कृति योग्य होगी तो रखो और अयोग्य होगी तो निकाल दो, इसीको आत्मनिरीक्षण कहते हैं ।  यह शक्ति किसने दी है? कहाँ से मिली है ? कौनसा बटन दबाने में उसकी शुरुआत होती है? आत्मनिरीक्षण की शक्ति भगवान ने बुद्धि में रखी है। 
आज हमारी निरीक्षणशक्ति बढती नहीं है, परन्तु परनिरीक्षण शक्ति बढती है ।  परनिरीक्षण अध्यात्म नहीं है आत्मनिरीक्षण अध्यात्म है ।  ‘आत्मनि अधि इति अध्यातमं ।  हम परनिरीक्षण करते हैं कि दूसरे की क्या भूल है ।  जिस समाज में परनिरीक्षण चलता है वह समाज अनध्यात्मिक है ।  कुटुम्ब में भी आत्मनिरीक्षण चलता हो तो वह कुटुम्ब अध्यात्मिक है ।
माथे पर लम्बा तिलक लगाने से अथवा लम्बी चोटी रखने से अध्यात्मिक नहीं कहा जाता ।  अध्यात्म में आत्मनिरीक्षण को प्रथम स्थान मिलना चाहिए ।
जिस किसान के खेत में अनावश्यक घास फूस उत्पन्न हो जाता है, उसकी खेती चौपट हो जाती है ।  जिस व्यक्ति की साधारण सी बिमारी की चिकित्सा नहीं की जाती, वह अंतमें मृत्यु को प्राप्त होता है ।  इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने दोषों, कमजोरियों, स्वभाव की दुष्प्रवत्तियों का उन्मुलन कर उन्हे नष्ट नहीं करता, वह पतन के ढालू मार्ग पर जा रहा है ।
आपका घर जल रहा है तो क्या आप अपने घरकी अग्नि बुझाने के स्थान पर दूसरेके जलते घर को देख कर संतुष्ट होंगे? आपको स्वयं ही अपनी निर्बलतारुपी अग्नि को दूर करनी होगी ।  जहाँ स्वयं अपने में कमजोरियाँ भरी है, वहाँ केवल दूसरों की त्रुटियोंको देख कर अपने आप निश्चेष्ट बने रहना कहाँ की बुद्धिमत्ता है ?
जो व्यक्ति अपनी वृत्तियों को अंतर्मुखी कर अपनी सच्ची आलोचना करता और अपनी बुराईयों को दूर करने का सतत उद्योग करता है, वह महानता के मार्गपर आरुढ है ।  अपनी निर्बलताओं के प्रति जागरुक होना आधी विजय प्राप्त करना है ।  बुरे विचार दूसरोंके प्रति ईष्‍र्या, द्वेष, प्रतिशोध के भाव अंधकार की वस्तु है ।  इसलिए तुलसीदासजी लिखते हैं कि भगवान मुझे आपके साथ आत्मीयता साधनी है इसलिए हमारी कुमति को दूर कीजिए तथा हमें सुमति प्रदान कीजिए ।     
ईश्वर-चिंतन हमारी समस्त भव-बाधा, चिन्ता एवं अनिष्टों को दूर करने वाली महौषधी है ।  आन्तरिक प्रफुल्लता के लिए सद्विचारों का प्रवाह इसी केंद्र बिंदु से प्राप्त हो सकता है । अलग अलग खंडित अनुभवों को एकत्रित करने की शक्ति बुद्धि की शक्ति है ।  उसी को मन कहते हैं ।  अपने अनुभव तथा विचार  अथवा दूसरों के अनुभव और विचारों को आत्मसात करने की शक्ति भगवान ने बुद्धि में रखी है, उसीको मन कहते हैं ।
जो केवल अपना ही अनुभव मानता है वह पशु है ।  पश्यति इति पशु:।  मानव को दूसरे का अनुभव मानना चाहिए ।  जितना दिखाई देता है उतना ही देखने वाला पशु है ।  जैसे मैं बुद्धिशाली हूँ वैसे दूसरा भी बुद्धिशाली है ।  दूसरे का बुद्धिशाली का अनुभव भी मुझे स्वीकारना चाहिए तभी मैं मानव हूँ ।  बुद्धि देने वाले भगवान हैं उसके बारे में सोंचते समय भगवान पर बौद्धिक प्रेम होना चाहिए । 
सारे प्राणियोंको भगवान ने टेढा बनाया है । एक भी प्राणि सीधा नहीं है ।  भगवान ने मनुष्य को सीधा बनाया है । भगवान की ऐसी इच्छा है कि मानव सीधा चलें, सारे प्राणि सीधा चलते हैं मगर मनुष्य टेढा चलता है ।  इसका अर्थ । प्राणियोंको भगवान ने जैसा जीवन दिया है, उसके मुताबिक वे सीधे चलते हैं ।  केवल मनुष्य को भगवान ने सीधा बनाया है मगर वह सीधा नहीं चलता ।  वह भक्ति में भी टेढा चलता है ।  भक्ति शास्त्र के मुताबिक नहीं चलता है। 
तुलसीदासजी ने लिखा है ‘कुमति निवार सुमति के संगी’ यानी हनुमानजी का हाथ पकडनेसे वे हमारे भीतर जो कुमति है, दुर्बुद्धि है उसे निकालकर हमें सुमति प्रदान करेंगे ! भगवान मेरी देखभाल करनेवाले है ऐसी समझसे भगवान के उपर बौद्धिक प्रेम (Intellectual love) खडा होता है । सात्विक बनना होगा तो भगवान का हाथ पकडना होगा, उसकी मदद लेनी पडेगी । कहा भी है कि ‘संसार सागर है अकेले तराय ना’, ईश की सहाय बिना पार उतराय ना’ इसे जो समझता है वह बुध्दिमान है । और जो नही समझता वह बेवकुफ है । हम बुध्दिमान है या बेवकूफ यह हमें ही देखना चाहिए । हमको भौतिक बातें आवश्यक लगती है । जिसप्रकार भौतिक बाते आवश्यक लगती है, वैसे ही मानसिक बातों के लिए भी भगवान की आवश्यकता लगनी चाहिए । मनुष्य को भावनात्मक सुरक्षितता (Emotional security) की आवश्यकता है । वह स्वयं किया हुआ पाप किससे कहे?
जिसकी भावनात्मक आवश्यकता तृप्त नहीं होती उसका मन अतृप्त रहता है । उसके मन को पुष्टि नहीं मिलती । इस सृष्टि मे मैं असमर्थ हँू अर्थात मुझे किसीका हाथ तो पकडना पडेगा । यदि हाथ ही पकडना है तो समर्थ का हाथ पकडना चाहिए। इसीलिए तुलसीदासजी लिखते है ‘महावीर बिक्रम बजरंगी’ हाथ ही पकडना है तो महावीर का पकडो जो मेहनत नहीं करते और केवल भगवान को पुकारते है भगवान उनकी मदद नहीं करते । कर्मयोगी कर्म करता है और भगवान को पुकारे तो मदद के लिए भगवान तैयार है। तुलसीदासजी ने रामायण में लिखा है ‘दैव दैव आलसी पुकारा’ मैं पाप का विचार करता हँू और देखता हँू कि मैं पापी हँू । मुझे कौन साफ करेगा ? साफ करनेवाला कौन है?
करचरणकृतं वाक््कायजं कर्मजं वा   श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् ।
विहितं विहितं वा सर्वमेमत् क्षमस्व जय जय करुणाब्धे श्री महादेव शम्भो ।।
यदि तुम पापी हो तो विश्वास रखकर उसके (भगवानके)े पास जाओ । वह धोनेवाला है । वाल्मीकि भी पापी थे, परन्तु उन्हे भगवानने धोकर स्वच्छ किया क्योंकि उन्होने भगवान का नाम उठाया । स्वयं राम बोलने लगे और राम का नाम लेने का कार्य उन्होने दुसरों मे जागृत किया । मै रामका नाम लेता हँू और दूसरों को भी इसके लिए प्रवृत करता हँू ऐसा करोगे तो भगवानने जैसे वाल्मीकि को स्वच्छ किया वैसे तुम्हे भी स्वच्छ करेंगे।
भूलें करने के बाद आदमी किसके पास जाता है ? मानो बालक स्कूल में कोइ गलती करके आता है तो वह किसके पास जाकर कहें ? वह माँ के पास जाएगा और अपनी गलती के बारे में कहेगा । उसके लिए दूसरी जगह नहीं है।  बालक के हाथ से कोइ्‍र्र शीशा टूट जाए और यदि वह माँ से जाकर कह दें कि मुझसे अमुक गलती हो गयी है, तो माँ उसे मारेगी नहीं अपितु उसे प्यार करेगी और कहेगी कोई बात नहीं आगे से ऐसी गलती मत करना ।  उसी तरह भूलें करने के बाद आदमी किसके पास कहेगा? भूले कहने की वह एक ही जगह है, वह है भगवान, उसी के पास क्षमा मिलेगी । केवल तुम्हे अंत:करणपूर्वक कहना चाहिए कि मुझसे भूल हुई है।
भगवानने हमें सुविधाएँ दी, बुध्दि दी, हमें मानव बनाया अच्छा बनाया, हमें पैसे दिये, विद्या दी, प्रतिष्ठा दी, परन्तु हमने कुछ नहीं किया । हम जैसे थे, वैसे ही रहे । हमसे भूल हो गयी है । पश्चात्तापदग्ध आदमी जब अंत:करण से भगवान के पास भूल कबूल करता है, तब भगवान उसे माफ करते है। दूसरा कोई उसे माफ नहीं करता । वह कदाचित् छोड देगा, परन्तु माफ नहीं करता । छोड देना अलग है और माफ करना अलग है । वह दस वर्षों के बाद भी तुमसे कहेगा, ‘मालूम है , दस वर्ष पहले तुमने ऐसा किया था।’ भूल हुई हो तो कोई माफ नहीं करता । पहले जिस दृष्टि से देखते थे उसी दृष्टि से फिर से देखना क्षमा है ।
पापी आदमी को धोनेवाला गंगाघाट वही है, विश्रामघाट वही है । विश्रामघाट किसे कहते हैं जहाँ आदमी को विश्राम मिलता है । मुझे काम नहीं करना है, ‘तुम करो’। यह विश्रामघाट है । गत जन्म में भगवानसे कितनी बार कहा था ‘भगवान! मुझे बुध्दि दो, शक्ति दो, वित्त दो। मैं ऐसी बुध्दि चलाउँगा जिससे सभी का जीवन प्रकाशित हो जाएगा । मैं तुम्हारा नाम लेकर घर-घर जाऊँगा । दूसरो से तुम्हारा काम कराऊँगा । भगवानने मनुष्य शरीर दिया, बुध्दि दी, शक्ति दी, वित्त दिया समाजमें स्थान भी मिला । फिर हमने क्या किया? पदोन्नति () कितनी मिली यही देखा । कितने ही लोगों को नौकरियों मे पदोन्नति मिलती है, उन्नति होती है, वे यही देखते हैं, तो कितने ही लोग धन्दा व्यापार में उन्नति खूब हो, यही देखते हैं । स्थान टिकाने का ही प्रयत्न चलता है। भगवान के सभी बुध्दिमान लडके यही देखते हैं । भगवान के प्रथम श्रेणी के लडकों को विचार करना चाहिए कि वे भगवान को जो वचन देकर आये हैैं, उसका कितना पालन किया? कुछ नहीं किया । इसलिए पश्चात्तापदग्ध होकर भगवान के पास जायेंगे । क्षमा देनेवाला वही है । भगवान ही उन्हे माफ करेंगे और कहेंगे : ‘अच्छा, इस जन्म में तुमने भूले की है, मैं फिर से तुम्हारी परीक्षा लूंगा । ऐसा कहकर भगवान वही मनुष्य देह, वही बुध्दि, वही शक्ति देकर वापस भेजते है इसतरह हमारी भूलों की हमें क्षमा मिलती है । इसीलिए तुलसीदासजी के लिखने आशय यही है कि हमे हनुमानजी से प्रार्थना करनी चाहिए की हमे सुमति दे, अच्छी बुध्दि प्रदान करें जो प्रभु कार्य में सहायक हो।
सर्व प्रथम संस्कार दर्शन होना चाहिए ।  उसके बाद संस्कार स्मरण और संस्कार रक्षण होता है ।  हनुमानजी पुरुषश्रेष्ठ हैं, हमको भी पुरुषश्रेष्ठ बनना है उसके लिए हमें आत्मनिरीक्षण तथा आत्मनिवेदन करना चाहिए तभी हम भक्ति पथपर आगे बढ सकते हैं ।

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