Thursday, June 30, 2011

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया । राम लखन सीता मन बसिया ।। (8)
अर्थ : आप श्रीराम के चरित्र सुनने में आनन्द-रस लेते हैं ।  श्रीराम सीता और लक्ष्मण आपके हृदयमें बसते हैं।
गूढार्थ : भगवान की कथा में अनुराग होना भक्ति का एक लक्षण है । हनुमानजी का श्रीराम कथानुराग पराकाष्ठा को प्राप्त है । सच तो यह है कि श्री हनुमानजी ने श्रीराम कथाको जीवनाधार ही बना लिया हैं।
श्री वाल्मीकीय रामायण से विदित होता है कि श्रीमारुतनन्दन ने भगवान श्रीराम से यही वरदान माँग लिया था कि ‘जबतक मंगलमयी भगवान श्रीराम की कथा पृथ्वी तल पर प्रचलित रहे, तभी तक उनके शरीर मे प्राण रहे’-
यावद्रामकथा वीर चरिष्यति महीतले । तावच्छरी रे वत्स्यन्तु प्राणा मम न संशय:।।
                                                          (वा.रा. 7-40-17)
महाभारत के वनपर्व में भी भीमसेन को रामचरित सुनाते समय उन्होने अपने द्वारा भगवान श्रीराम से उपर्युक्त आशय का वरदान माँगने का उल्लेख किया है। -
वरं मया याचितोसौ रामो राजीवलोचन: ।।
यावद्रामकथेयं  ते भवेल्लोकेषु  शत्रुहन् ।
तावज्जीवेयमित्येवं तथास्त्विति च सोब्रवीत्  ।।
                                          (148/16-17)
इस प्रकार स्पष्ट है कि श्री हनुमानजी को राम-कथा की शर्तपर ही जीना स्वीकार है । उन्हे दीर्घ-जीवन प्राप्त है, पर बिना राम कथाके वह उन्हे पसंद नही।

अनेक व्यक्तियोंको श्री हनुमानजी के श्रीराम कथानुराग का प्रत्यक्ष प्रमाण भी मिला है । गोस्वामी तुलसीदासजी के सम्बन्धमे कहा जाता है कि उन्होने एक आम की गुठली बोई थी । वे नित्य शौच से आने के पश्चात् उसे सींचते थे । एक दिन जब वह इस वृक्ष को पानी पीला रहे थे तो एक पिशाच ने प्रकट होकर कहा-‘‘मै तेरी एकनिष्ठा से प्रसन्न हूँ, बोल तुझे क्या दूँ?’
तुलसीदासजी ने कहा ‘‘मुझे जो चाहिये, वह तुम्हारे पास नही !’’ प्रेतने कहा-‘‘ पर कह तो सही तुझे क्या चाहिये?’’ तुलसीदासजीने कहा-‘‘मुझे राम चाहिये, मुझे राम के दर्शन करने है क्या तुम मुझे राम के दर्शन करा सकते हो?’’    

प्रेतने कहा-‘‘यह तो मेरे बस की बात नही है, परन्तु तुझे इसके लिये उपाय बताता हूँ । सामने गाँव के एक राम मन्दिर में जहाँ नित्य राम-कथा होती है । वहाँ नित्य एक वृद्ध कथा सुनने सबसे पहिले आता है और सबसे पीछे जाता है । तू उसे पकड लेना, वह तुझे राम के दर्शन करा सकता है ।’’     
पिशाच भी भगवान के कार्य मे उपयोगी हो सकता है । परंतु आज मानव मात्र भगव्कार्य से निर्लेप रहता है तथा भगवदीय विचारों से दूर भागता है ।

तुलसीदासजी आतुरता से संध्याकाल की प्रतिक्षा करते थे । आज उनकी तपश्चर्या फलने वाली थी । भगवान के दर्शन होंगे, जीवन कृतार्थ होगा । वह क्षण आया, भगवान राम की कथा पूरी हुई और सबके चले जाने के पश्चात् एक वृद्ध व्यक्ति उठकर धीरे धीरे मंदिर के बाहर निकला तुलसीदासजी उसके पीछे पीछे चले और गाँव के बाहर जाने पर उनके पैर पकड लिए । उन्होने गद्गद् कंठ से कहा ‘‘प्रभु मेरी आँखें भगवान राम के दर्शन के लिए तडपती है । मुझे उनका दर्शन कराइए । हनुमानजी (वृद्ध) ने कहा परन्तु तू मेरे पैर किस लिए पकड रहा है?। भगवान ! इस सम्पूर्ण संसार में केवल आप ही मुझे भगवान राम के दर्शन करा सकते हैं । इसलिए मैं आपके पास आया हूँ तुलसीदासजी ने कहा । वृद्ध (हनुमान) ने हँसते हँसते तुलसीदासजी की पीठ थपथपाई और अपना असली स्वरुप प्रकट किया । हनुमानजी के दर्शन करते ही तुलसीदासजी का हृदय भर आया और आँखोसे अश्रुप्रवाह होने लगा । तथा वे हनुमानजी के चरणों मे गिर पडे ।

हनुमानजी के कहने के अनुसार तुलसीदासजी गंगा-तटपर (चित्रकुट के घाटपर) आकर बैठ गये । प्रभु राम आये, तुलसीदासजी ने चंदन घिसा और भगवान को तिलक किया । इस प्रकार हनुमानजी की कृपासे तुलसीदासजी को भगवान श्रीराम के दर्शन हुए ।

चित्रकुट के घाट पर भई संतन की भीर । तुलसीदास चन्दन घिसे तिलक करें रघुवीर।।

जेा व्यक्ति जिस वस्तु विषय से स्वाभाविक अनुराग रखता है, वह उस वस्तु विषय के बिना रह नहीं सकता । वह उसकी प्राप्ति के लिये सतत प्रयत्नशील रहता है । क्योंकि वह उसके रसका रसिक होता है । इसीलिए तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा में हनुमानजी की रामकथा अनुराग को देखते हुए लिखा है ‘‘प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया’’ ।

हनुमानजी रामकथा -रसके आस्वादन का अवसर कभी नही चुकते। जहाँ भी भगवान श्रीराम की कीर्ति, कथा का गायन होता है, वहाँ वे अवश्य पहुँचते है, और हाथ जोडे मस्तक झुकाये नेत्रोमें प्रेमाश्रु भरे विराजमान रहते हैं ।
मनुष्य को सुनने का व्यसन लगना चाहिये । ‘‘विद्याव्यसनं व्यसनं अथवा हरिपादसेवनं व्यसनं’’- ये दो व्यसन रखो ऐसा शास्त्रकार कहते हैं । विद्या का व्यसन अर्थात् श्रवण । मनुष्य को श्रुतिपरायण होना चाहिए । मनुष्य को क्या सुनना है, किस प्रकार सुनना है, उसका भी शास्त्र है । सुननेवाला तथा सुनानेवाला कैसा होना चाहिये उसका सुन्दर वर्णन है वह अलौकिक होना चाहिए। रामकथा अलौकिक है इसीलिए हनुमानजी राम कथा के रसिक है ।

मनुष्य को ऐसा लगता है कि अपने दिमाग में उतरे वही पढना चाहिए ।   कितनी ही बातें ऐसी भी पढो जो दिमाग में न उतरे । जो दिमाग में उतरे वही पढने का आग्रह क्यों है? जो दिमाग में न उतरता हो उसे भी पढो । क्योंकि शब्दोंमे शक्ति होती है । क्या सुनना चाहिये यह हमारे शास्त्रकारोंने गीतामें निश्चित किया है ।
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधै: पथक् ।
ब्रम्हसूत्रपदैचैव:    हेतुमद्भर्विनिचतै: ।। (गीता 13/4)
ऋषियों द्वारा निश्चित किये गये विचार सुनोगे तो तुम मुसीबतमें नही पडोगे, निस्तेज नहीं बनोगे । सुननेवाला कैसा होगा चाहिये वह भी लिखा है-
असंप्रणम्य श्रुण्वान: विषवृक्षा भवन्तीह।तथा शयान: श्रुण्वान: भवन्त्यजगरा हि ते ।।
जो अविनीत हो उसे मत सुनाओ, श्रोता विनीत होना चाहिए । उसके पास विनय और नम्रता होनी चाहिये, जिस प्रकार हनुमानजी में है । जिसे सुनना हो जिसे ज्ञान लेना हो, उसमे नम्रता होनी चाहिये। कई सुननेवाले लोग दो घडी मौज करने के लिये आते है, तो कितने ही लोग वक्ताके दोष निकालने आते हैं । ‘देखें तो सही वक्ता कैसा बोलता है।’ कितने ही लोग सुनने जाते है और वहाँ सो जाते है । वहाँ कोई तुम्हे परेशान नहीं करेगा ।

लोग नाटक सिनेमा देखने जाते है वहाँ नही सोते, परन्तु कथा सुनने जाते हैं और वहाँ नींद आ जाती है। उसके बारेमें सुभाषितकार ने लिखा है -‘निद्रा हते प्रेयसि कुम्भकर्णे’ निद्रा नाम की स्त्री का पति कुम्भकर्ण था । कुभकर्ण ने निद्रा को जितना अपनाया था उतना किसीने नहीं अपनाया था । निद्रा का पति कुम्भकर्ण मर गया इसलिए वह विधवा हो गयी । अब विधवा स्त्री नाटक-सिनेमा देखने जाए या कथा सुनने जाए? वह कथा सुनने ही जाती है और किसीका गला पकडकर बैठ जाती है ।
‘‘श्रोतुं कथा याति कथापुराणं’’ तुम जो भी ग्रंथ पढो उसे श्रद्धा से पढो, जो भी ग्रंथ सुनो उसे श्रद्धा से सुनो । ग्रंथ पर श्रद्धा होनी चाहिये । जो सुनो वह मंत्र लगना चाहिये । गीता-रामायण का पारायण करते समय गीता के श्लोक मंत्र लगने चाहिए । सुनने बैठते समय दिमाग में से दूसरी सारी बाते निकाल देनी चाहिये।

कथा सुनते समय ‘नान्यकार्येषु लालसा’ अन्य कार्यों में लालसा नहीं रहनी चाहिये कितने ही लोग सुनते समय एक तरफ खाते रहते है और दूसरी ओर सुनते रहते है । कितनी ही बहने कथा सुनते समय फुलोंका हार बनाती हैं ।  कितने ही लोग सुनते सुनते तुलसीदल गिनते है । ऐसे लोगों पर सुनने का प्रभाव अशक्य है । (You must be eyes and ears only, It is an art of listening) सुनते समय केवल आँख और कान खुल्ले रहने चाहिए । बाकी सब बन्द । तभी इसे सुनने की कला कहते है । हमारे यहाँ पढने से सुनने को ज्यादा महत्व दीया गया है । सुननेमे एक चैतन्य दूसरे चैतन्य के साथ बोलता है । अंग्रेजी भाषा मे काफी पढा (Well read) शब्द प्रचलित है, जबकि हमारे यहाँ ‘बहुश्रुत’ शब्द प्रचलित है । ‘बहुश्रुत’ यानी जिसने काफी सुना है ।

तुलसीदासजी लिखते है हनुमानजी ऐसे ही ‘बहुश्रुत’ है यानी वे रामकथा सुनने को हरदम आतुर रहते है उसी प्रकार हमें भी बहुश्रुत होना चाहिये । आगे गोस्वामीजी लिखते है ‘राम लखन सीता मन बसिया’ यहाँ यह बात हमें समझनी है वह यह कि ‘राम’ ज्ञान के प्रतीक है, ‘लक्ष्मण’ कर्म के प्रतीक है तथा ‘सीता’ भक्ति की प्रतीक है । इस प्रकार हमारे जीवन में ंज्ञान, कर्म भक्ति इन तीनों का समन्वय होना जरुरी है। हनुमानजी के जीवन में यह त्रिवेणी संगम दिखाई देता है, ‘हम भक्ति माननेवाले लोग है, ज्ञान माननेवाले लोग नहीं है । ’कितने ही लोगों को यदि हम कहे चलो भैय्या मंदिर मे सत्संग में चलो दो शब्द ज्ञान के सुनने को मिलेंगे तो वे झट से कहते है कि नहीं भई हमको तो केवल भगवान के भजन में दिलचस्पी है, ज्ञान के लिये नहीं । क्या बिना ज्ञान के भक्ति हो सकती है?

श्रीमद्आद्यशंकराचार्यजीने भी चर्पटपंजरिकास्तोत्र मे कहा है, ‘ज्ञान विहिनं सर्व मतेन, मुक्तिं न भजती जन्म शतेन’ । ‘यह मेरी माँ है’ जब तक यह ज्ञान नही होता तब तक उस पर प्रेम कैसे होगा? व कैसे बढेगा? जब तक प्रेम नही बढता है तब तक भक्ति कैसे होगी? वैसे ही प्रेम और ज्ञान न हो तो उसके लिये कर्म कैसे हो सकते है । उसके लिए कर्म भी नहीं हो सकता ।   अत: कर्म, भक्ति और ज्ञान यह अलग अलग विभाग नहीं हो सकते।

इसप्रकार हमें भी हनुमानजी की तरह प्रभु चरित्र सुनने के रसिक बनकर ज्ञान प्राप्त करना चाहिये, भगवान के जो दिव्य गुण हैं उनको जीवन में लाने का प्रयत्न करना चाहिये तथा सतत् कर्मशील रहते हुए भगवान की भक्ति करनी चाहिए तथा जीवन में हनुमानजी की तरह ज्ञान, कर्म और भक्ति का समन्वय लाना चाहिए , तभी हम सही अर्थ में हनुमानजी की तरह प्रभु भक्त बन सकते हैं।

No comments:

Post a Comment