Thursday, June 30, 2011

लाय सजीवन लखन जिवाये । श्री रघुबीर हरषि उर लाये ।।  (11)
अर्थ : आपने संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मणजी को जीवाया जिससे श्रीरघुवीरने हर्षित होकर आपको अपने हृदय से लगा लिया ।
गुढार्थ : लक्ष्मण राम के बहिचर प्राण थे ।  लक्ष्मण को यदि राम का दाहिना हाथ कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी ।  दोनों की जोडी थी ।  राम है और लक्ष्मण नहीं, यह कभी संभव ही नहीं हो सकता है ।  रामायणमें राम अकेले थे ही नहीं ।  जिस प्रकार मनुष्य के साथ उसकी छाया का होना निश्चित है, उसी प्रकार राम के आते ही लक्ष्मण का आना अनिवार्य ही है ।

विश्वामित्र दशरथ के पास केवल राम को ही मांगते हैं ।  राम का जाना निश्चित हुआ कि लक्ष्मण तो चलेंगे ही, उन्हे अलग से निमंत्रण देने की आवश्यकता ही नहीं थी ।  राम को आमंत्रित करने का अर्थ है साथ लक्ष्मण को आमंत्रित करना ।  माँ को बुलाया कि उसके साथ तीन वर्ष के बालक को बुलाया ही समझो ।  ‘बालक को साथ लेती आना’ ऐसा कहना जिस प्रकार माँ का अपमान है, ठीक उसी प्रकार राम को बुलाने के पश्चात् लक्ष्मण को निमंत्रण देने का अर्थ यही समझा जाएगा कि इन दोनों के पारस्परिक संबंध का यथार्थ ज्ञान हमें नहीं है ।  यदि आदमी को बुलाने के बाद उसकी छाया को उसके साथ जानेसे रोका जा सकता है तो लक्ष्मण को भी राम के साथ जाने से रोका जा सकता है ।  दोनों में इतनी अभिन्नता थी ।  कोई भी कार्य करवाना हो तो राम को ही कहते और उनका बोलना लक्ष्मण को भी कहने के समान होता ।  इस प्रकार भाई-भाई का अभिन्न संबंध केवल रामायण ही संसार को दिखा सकती है ।

राम का लक्ष्मण पर असीम प्रेम था, राम के राज्याभिषेक के समय राम लक्ष्मण के लिए जो कहते हैं वह विचार करने योग्य है ।  राम यह नहीं कहते कि ‘मैं राजा बनने चला हूँ’ ।  ‘लक्ष्मण! मया सार्धं प्रशाधि त्वं वसुंधराम्’ लक्ष्मण तुझे ही राज्य करना है ऐसा राम कह रहें हैं ।  कितनी उच्च भावना है ।  दोनोंका जीवन अभिन्न है ।

यदि राम कीर्तिका पताका है तो लक्ष्मण पताका का दण्ड है ।  ध्वजकी पूजा करते समय काष्ठनिर्मित दंड को ही चांवल चंदन चढता है ।  तुलसीदासजी ने तथा महर्षि वाल्मीकि ने रामचन्द्र का चरित्र-चित्रण करके मानव जाति के समक्ष संस्.ति का उच्च ध्येय रखा और इस ध्येय के समीप पंहूँचने के लिए लक्ष्मण के जैसी उग्र साधना करने का इशारा किया है ।

साधक की कठोर उग्र साधना का ऐसा महान आदर्श लक्ष्मण ने उपस्थित किया है कि जिसकी रजकण तक पहुँचने के लिए अनेक जन्मों का परिश्रम करना पडेगा ।    

राम ने जिस समय लक्ष्मण को वन में साथ चलने को मना किया तो लक्ष्मण ने कहा, ‘जिस प्रकार जल के बिना मछली नहीं रह सकती उसी प्रकार लक्ष्मण भी राम के बिना नहीं रह सकता है ।  यह शब्द केवल श्षि्टाचार के नाते अथवा राम को भला लगने के लिए नहीं बोले गये थे ।  लक्ष्मण के विशुद्ध अन्त:करण से निकले हुए ये उद्गार थे ।  तभी तो जब लक्ष्मण को रामका वियोग हुआ है उसी स्थल पर रामायण की इतिश्री करनी पडी है ।  लक्ष्मण का संपूर्ण जीवन राम की सेवा में बिता है ।  वे राम के साथ इतना घुलमिल गये थे कि राम शब्द का उच्चारण करते ही लक्ष्मण साथ में आता ही है। लक्ष्मण जब मूर्छित होते हैं तो राम कहते हैं :-
न हि मे जीवितेनार्थ: सीतया च जयेन वा । को हि मे जीवितेनार्थ: त्वयि पंचत्वमागते ।।
देशे देशे कलत्राणि देशे देशे च बांधवा: । तं तु देशे पश्यामि यत्र भ्राता सहोदर: ।।
ये दोनों श्लोक बतलाते हैं कि राम लक्ष्मण की ओर किस दृष्टि से देखते थे। राम शब्द है और लक्ष्मण अर्थ ।  राम शब्द का अर्थ लक्ष्मण के कारण था । लक्ष्मण के बिना राम शब्द अर्थ रहित हो जाए ।  तभी तो राम विलाप करते हुए कहते हैं ‘‘ सीता न मिले तो कोई बात नहीं, परन्तु यदि लक्ष्मण चला जाएगा तो मेरे प्राण निकल जायेंगे ।’’ राम जैसे सत्यवादी पुरुष इन शब्दों का उच्चारण करते हैं ।  वास्तव में देखा जाए तो राम कौशल्या के पुत्र और लक्ष्मण सुमित्रा के पुत्र, फिर भी राम ‘सहोदर:’ (एक माँ के पेट से जन्मे हुए भाई) शब्द का प्रयोग करते हैं ।  यही बात दोनोंके संबंध की विशिष्टता समझाती है । 

कर्तव्य और प्रेम के बीच झगडा उत्पन्न होते ही राम बुद्धि का आश्रय लेते हुए भावना को गौन समझकर कर्तव्य पथपर अग्रेसर होते थे, परन्तु लक्ष्मण का धर्म- कर्तव्य सब कुछ राम ही थे ।  लक्ष्मण के लिए प्रेम और कर्तव्य का प्रश्न ही नहीं ।  राम ही उनके सर्वस्व थे ।  राम स्वयं एक उत्.ष्ट नैतिक मूल्य हैं, अत: विचार करने की जरुरत ही नहीं ।  जब राम के साथ वन गमन के लिए निकले तो अपनी पत्नी उर्मिला को केवल ‘मैं जाता हूँ ’  इतना ही कहकर चल पडे ।  ‘ मैं जाऊँ या न जाऊँ ’ यह पूछा तक नहीं ।  पत्नी की राय तो लेनी चाहिए, परन्तु नहीं ली, पति कर्तव्य का विचार ही नहीं किया ।  जहाँ राम का संबंध आ गया वहाँ उन्हे दूसरी कोई बात सूझती ही नहीं थी । 

उनके मन मे कभी भी धर्म और कर्तव्य के विचारोंका संघर्ष राम के प्रेम के साथ नही हुआ, क्योेंकि उनका कर्तव्य एक मात्र राम ही थे । उनके मनमें राम के सिवाय दूसरा कर्तव्य नहीं, राम के सिवाय अन्य विचार नहीं । धन्य उर्मिला और धन्य है लक्ष्मण । धन्य है वह उर्मिला जिसने अपना व्यक्तित्व पति में एकरस कर डाला और धन्य है वह लक्ष्मण जिसने अपना समस्त जीवन राम की छायारुप बना डाला । लक्ष्मण को राम के कीर्तिध्वज की लाठी ही समझो, क्योंकि लक्ष्मण के ही कारण रामरुपी ध्वज फहराता है ।

मेघनाथ की शक्ति बाण से लक्ष्मण जब मूर्छित होते हैं तो सभी चिन्तित हो जाते है । उसी समय विभीषण के परामर्श से महाबुद्धिमान जाम्बवान् ने कहा भैया हनुमान । तुम तुरंत लंका जाओ । पहले तुमने उस नगरी को अच्छी प्रकार से देख ही लिया है । वहाँ सुषेन नामक योग्यतम चिकित्सक है । तुम उसे ले आओ । उसके बताये हुए उपचार से निश्चित ही लक्ष्मण के घाव तुरंत भर जायेंगे, और ये पूर्ववत् शक्ति सम्पन्न हो जायेंगे ।

विभीषन ने हनुमानजी को सुषेन के घर का पता ठीक-ठीक बता दिया था । बस, हनुमानजी अत्यंत छोटा रुप धारणकर लंका में तुरंत प्रविष्ठ हो गये । सुषेन के द्वारपर पहुँचकर उन्होने सोंचा-‘सुषेन शत्रुपक्ष के वैध है, कहीं ये चलना अस्वीकार न कर दें । बस, पवनकुमार ने अधिक समय नष्ट करना उचित नही समझा । उन्होने उनका सम्पूर्ण भवन समूल ही उखाड लिया और उसे आकाश मार्ग से लाकर श्रीराम के समीम कुछ दूरीपर रखकर खडे हो गये । विभीषणने सुषेन को स्थिति समझा दी । सुषेन ने तुरंत नाडी, हृदय एवं घावकी परीक्षा की और बोले -‘घाव गम्भीर है, किंतु यदि संजीवनी बुटी यहाँ सुर्योदय के पूर्व आ जाय तो ये जीवित हो जायेंगे और इनकी शक्ति भी पूर्ववत लौट आयेगी ।

‘जय श्रीराम!’ का घोष करके श्री रघुनन्दन के चरणों मे प्रणाम कर पवनकुमार वायुवेग से उडे । उन्हे हिमालय के समीप पहुँचते देर न लगी । तथा रास्ते में कालनेमी ने बाधा डालने का प्रयत्न किया उसे समाप्त कर तुरंत द्रोणागिरी पहुँचे वहाँ उन्होने देखा अनेक औषधियाँ प्रकाशित हो रही थी वे सुषेन द्वारा बताई हुयी औषधी पहचान न कर सके, इस का कारण उन्होने औषधियों सहित पर्वत को ही उखाड लिया और गरुड के समान वेग से आकाश में उड चले ।
द्रोणाचल सहित आकाश में उडते हुए हनुमानजी आयोध्या के ऊपर से जा रहे थे कि भरतजी ने देखा, उन्होने सोंचा ‘विशाल पर्वत लिये सम्भवत: यह कोई असुर जा रहा है । उन्होने अपना धनुष उठाया और बाण छोड दिया ।‘ श्रीराम! जय राम।। जय सीताराम!!! कहते हुए हनुमानजी मूच्‍र्छित होकर धरतीपर गिर पडे । उनकी मूच्‍र्छितावस्था मे भी पर्वत सुरक्षित था।

‘अरे! यह तो कोई श्रीराम भक्त है । भरतजी का हृदय कांप उठा! वे दौडे उन्होने श्रीराम भक्त हनुमान को देखा उनके मुख से श्रीराम का स्वर सुनाई दे रहा था । भरतजी के नेत्र बहने लगे। उन्होने हनुमानजी को सचेत करने के अनेक प्रयत्न किये, किंतु सब कुछ विफल होते देख, उन्होने कहा -‘‘जिस निर्मम विधिने मुझे अपने प्रभु श्रीराम से पृथक् किया, उसीने मुझे आज यह दु:ख का दिन भी दिखाया है। किंतु यदि भगवान श्रीराम के अमल चरण कमलोंमे मेरी विशुद्ध प्रीति है और श्री रघुनाथजी मुझपर प्रसन्न हों तो यह वानर पीडामुक्त होकर पूर्ववत् सचेत और सशक्त हो जाय ।’’

‘भगवान श्रीराम की जय!’-हनुमानजी बोले-‘हनुमानजी तुरंत उठकर बैठ गये । उन्हे जैसे कुछ हुआ ही नहीं । वे पूर्णतया स्वस्थ एवं सशक्त थे । उन्होने अपने सन्मुख भरतजी को देखकर पूछा-‘प्रभो मैं कहाँ हुँ?’ ‘यह तो अयोध्या है।’ आँसू पोंछते हुए भरतजीने कहा ‘तुम अपना परिचय दो।’
‘यह आयोध्या है? ‘हनुमानजी बोले-‘तब तो मै अपने स्वामीकी पवित्र पुरी मे पहुँच गया हूँ और मेरे प्रभु प्राय: गुण-गान किया करते है, लगता है कि आप भरतजी हैं ।

हनुमानजीने भरतजी के चरणों मे प्रणाम किया और कहा प्रभो! देवी अंजना मेरी माता है और मैं वायुदेव का पुत्र श्रीरामदूत हनुमान हूँ। लंकाधिपति रावण ने माता जानकी का हरण कर उन्हे अशोक वाटिकामें रख दिया है । प्रभुने समुद्रपर सेतु निर्माण करवाया और फिर अपने वीर वानर-भालुओं की असीम सेना के साथ समुद्र के पार उतर गये । युद्ध हो रहा है । आज मेघनाथ की शक्ति से लक्ष्मण मुर्छित हो गये हैं । उन्ही के लिये मै संजीवनी बूटी लेने द्रोणाचल गया था । बुटी न पहचानने के कारण पूरा पर्वत-शिखर लिये जा रहा हूँ । अत्यन्त सौभाग्य की बात है कि मार्ग में आपका दर्शन हो गया । प्रभु श्रीराम सदा ही आपका गुण-गान किया करते हैं । आज आपके दर्शन कर मैं कृतार्थ हो गया ।

‘‘भैया हनुमान! ‘रोते हुए भरतजीने उन्हे अपने वक्ष से लगा लिया और रोते-रोते ही उन्होने हनुमानजी से कहा-‘ भाई पवनकुमार! मैं प्रभु के एक भी काम न आ सका । मुझ पातकी के कारण प्रभुको ये समस्त विपदायें झोलनी पड रही है । और जब भाई लक्ष्मण मुच्‍र्छित पडे हैं, तब मैने और व्यवधान उत्पन्न कर दिया।
उधर रात्रि बीत जानेकी आशंका थी । इस कारण भरतजी ने कहा-भाई हनुमान ! तुम मेरे बाण पर बैठ जाओ । मेरा यह बाण तुम्हे तुरंत प्रभु के समीप पहुँचा देगा । कहीं देर न हो जाय? हनुमानजी ने हाथ जोडकर भरतजी से कहा - प्रभो! स्वामी के प्रताप से आपका स्मरण करता हुआ मैं शीघ््रा ही पहुँच जाऊँगा । हनुमानजीने भरतजी के चरणों मे प्रणाम किया और पूर्ववत वायुवेगसे आकाश मे उड चले ।

उधर रात्रि अधिक व्यतीत होते देख भगवान श्रीराम अत्यंत दु:ख से अधीर हो गये और विलाप करते हुए कहने लगे -‘ जिस भाई लक्ष्मण ने मेरे लिये माता-पिता, पत्नी ही नही, सम्पूर्ण राज्य-सुख को त्याग दिया, उसके बिना मैं अयोध्या में कौन-सा मुँह लेकर जाऊँगा । सीता मिल गयी तो अब लक्ष्मण के बिना मेरा क्या होगा? अपने प्राण प्रिय भाई के बिना मैं निश्चय ही अपना प्राण त्याग दूँगा।

लीलावपु भगवान श्रीराघवेन्द्र के नेत्रों से अश्रुपात हो रहा था । उन्हे बिलखते और करुण विलाप करते देखकर वानर-भालू अत्यंन्त व्याकुल हो गये । सब के नेत्रों से अश्रु प्रवाहित होने लगे । रोते हुए वे रह-रहकर आकाश की और देखते जाते थे । उनके मन में महावीर हनुमान के आ जाने की आशा लगी थी और वह आशा भी क्षण भर में पुरी भी हो गयी ं।

‘जय श्रीराम!’ का घोष करते हुए हनुमानजी द्रोणाचल को श्री रघुनाथजी के कुछ ही समीप एक ओर रख दिया और चरणों पर गिर पडे । वानरों की प्रसन्नता की सीमा नहीं थी । हर्षावेग में वानर हनुमानजी के चरण दबाते तो केाई हाथ और कोई उनकी पूँछ सहला रहा था ।
इधर वानर-भालू प्रसन्नता व्यक्त कर रहे थे, उधर सुषेण ने बूटी लेकर लक्ष्मणजी को सुँघा दी। लक्ष्मणजी जैसे नींद से जाग पडे हो । उठते ही उन्होने कहा -‘ मेघनाथ कहाँ है।’ कुछ देर के बाद उन्हे वास्तविक परिस्थिति का ज्ञान हुआ ।

भक्तवत्सल श्री रघुनाथजी ने अत्यंत प्रसन्न होकर हनुमानजी को गले लगाते हुए कहा- हे वत्स! आज तुम्हारी कृपा से ही मैं अपने भाई लक्ष्मण को स्वस्थ निरामय देख रहा हूँ।

हनुमानजी के इस महान कार्य की स्वयं भगवान श्रीराम प्रशंसा तो करते ही थे, समस्त वानर-भालू सर्वत्र उन्हींका गुण-गान कर रहे थे; किंतु अभिमान शून्य आंजनेय  के हृदय में इसका तनिक भी विचार नहीं था, जैसे उन्होने कुछ किया ही नही था । उनके हृदय में यही भाव था मानो यह सब करनेवाले कोई अन्य ही थे।

तुलसीदासजी द्वारा लिखीत इस चौपाई को यदि हम सांकेतिक अर्थ में लें तो ‘लक्ष्मण’ यह हमारी भारतीय संस्.ती का प्रतीक है । लक्ष्मणकी तरह आज हमारी भारतीय संस्.ति मुच्‍र्छित हुयी है, सुप्त अवस्था में चली गयी है । मानव-मानव में स्थित राम आज सुप्तावस्था में है, वह क्षुद्र, और मृतवत् बना हुआ है । मनु की संतान-मनुष्य को ऐसा क्षुद्र और मृतवत्् बना हुआ देखकर सृष्टि-सर्जक को कितनी व्यथा होती होगी !

सोते हुए के कानों में सांस्.तिक शंखध्वनि फूँकने और मृत मानव के शरीर में जीवन संचार करने के लिए आज भी ऐसे हनुमान के उपासना की जरुरत है । आवश्यकता है मात्र उन्हे जगाने की । समुद लान्घने के समय सिरपर हाथ रखकर बैठे हुए हनुमान को जरुरत है पीठपर हाथ फेरकर विश्वास देनेवाले जाबुवंत की । शस्त्र त्यागकर बैठे हुए युद्ध पराड़्मुख अर्जुन को जरुरत है उत्साह प्रेरक मार्गदर्शक .ष्ण की । आज हमें जरुरत है हनुमानजी की तरह पुरुषार्थी और पराक्रमी सांस्कृतिक वीर बनने की ।

विश्व में भव्य ऐसी भारतीय संस्.ति है , परन्तु उसकी आज विडम्बना हो रही है । मानवके समृद्ध भौतिक जीवन के साथ उसका परलौकिक और अध्यात्मिक जीवन को मार्गदर्शन करनेवाली वैदिक संस्कृति आज रो रही है । हजारों वर्षोंसे विश्व को मार्गदर्शन करती आयी हुयी संस्.ति खडी  करने के लिये हमारे अवतार - राम.ष्णादि महापुरुष निरंतर कर्मप्रवृत्त रहे । ऋषियोंने अविरत अपने रक्त की धारा उंडेलकर उसको बनाये रखा, सन्तोंने अथक प्रयत्नों द्वारा प्रेरणा का पीयूष पिलाकर हममें संस्कारों को जीवित रखा, इन सबसे उऋण होनेे का कभी कोई विचार करता है क्या? हमारा हृदय अहर्निश गतिमान रखकर प्रभु हमारी सेवा करते है । प्रभु के इस ऋण से मुक्त होने का कोई कभी विचार करता है क्या?

आज सर्वत्र अशान्ति फैली हुयी है । सर्वत्र असंतोष व्याप्त है । भोगलालसा अमर्यादित बढ गयी है । परिणाम स्वरुप दु:ख से त्रस्त और ग्रस्त समाज आज के बुद्धिमानोंको और जागृत अन्त:करण के व्यक्तियोंको आव्हान कर रहा है । आज का युग ही आव्हाण का युग है । सहृदयी, विचारशील और शिक्षित मानव आज व्यथित हुआ है । वेदनाओं का अनुभव कर रहा है । धर्म को, संस्.ति को जो विनाश से बचाता है, वही क्षत्रीय है ऐसा कहा जाता है । आज ऐसे ही .तिशील हनुमान की जरुरत है। इसलिये समय के इस आव्हान को प्रभु के प्रति प्रेम होने के कारण कृतज्ञतासे स्वीकार करना चाहिये और ‘संघेशक्ति: कलौयुगे’ यह उक्ति ध्यान में लेकर यथाशक्ति, यथामति संस्.ति की सेवा करने के लिये कटिबद्ध होना चाहिये, तो ही हम हनुमानजी की तरह सांस्.तिक कार्य करके प्रभु को प्रसन्न कर सकते हैं ।

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