Thursday, June 30, 2011

शंकर सुवन केसरी नंदन । तेज प्रताप महा जग बन्दन ।। (6)
अर्थ : हे शंकर के अवतार ! हे केशरी-नन्दन ! आपके पराक्रम और महान यश की संसार भर में वन्दना होती है ।
गुढार्थ : श्री हनुमानजी के शंकर-सुवन, रुद्रावतार या रुद के अंश से उत्पन्न होने के सम्बंध में भिन्न-भिन्न कथाएँ मिलती है, ‘आनन्दरामायण’ के अनुसार सती साध्वी अंजना माता ने पुत्र प्राप्ति की कामना से भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए उग्र तपस्या की । दीर्घकाल बीतने पर भगवान शंकर उसके तप से प्रसन्न होकर प्रकट हुए एवं उसे वरदान मांगने को कहा । तब अंजना ने शंकर भगवान के सदृश भोले भक्त, तथा पवन के समान पराक्रमी पुत्र प्राप्ती की प्रार्थना की । तब शिवजी ने कहा, ‘रुद्रगण में से ग्यारहवे महा रुद्र तुम्हारे पुत्र होंगे’ ।  तुम हाथ फैला कर एवं आंखे बंद कर मेरे ध्यान में थोडी देर खडी रहो । थोडी देर में पवन देव तुम्हारे हाथोंमें प्रसाद रखेंगे । उस प्रसाद के खानेसे निश्चय ही रुद्रावतार, परम तेजस्वी पुत्र रत्न तुम्हे प्राप्त होगा । ऐसे कहकर शिवजी अंतर्धान हो गये ।

इसी बीच राजा दशरथ के पुत्र कामेष्टी यज्ञमें अग्नि देवता से पायस-दान के रुपमें तीन पिन्ड दशरथ को प्राप्त हुए ; जिनका तीनों रानीयों में वितरण हुआ था। कैकयी के हाथ से पिंड के कुछ अंश को चील ने झपट लिया और वह उसे लेकर आकाश में उड गयी । उसी समय भगवत्कृपासे भयंकर आंधी उठी । वह पिंड चील के मुख से छूट कर वायू द्वारा अंजनी के हाथ में गिरा । तत्क्षण अंजनाने उसे खा लिया । उस पिंड के सेवन से वह गर्भवती हुई एवं चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को मंगलवारके दिन मंगल वेलामें श्री हनुमानजी का जन्म हुआ इसलिए उन्हे शंकर-सुवन भी कहते हैं।                  

‘विनय पत्रिका’ के परिशिष्ट में यह संक्षिप्त कथा मिलती है - एक बार शिवजी ने श्रीरामचन्द्रजी की स्तुति की और यह वर मांगा कि हे प्रभो ! मैं दास्य भाव से आपकी सेवा करना चाहता हूँ , इसलिए .पया मेरे इस मनोरथ को पूर्ण किजीए । इस प्रकार शिवजी श्रीरामावतार में हनुमान के रुप में अवतीर्ण होकर श्राीराम के प्रमुख सेवक बने ।

इस विषयमें गोस्वामी तुलसीदासजी का मत है कि ‘जिस शरीर के धारण करनेसे श्रीरामके प्रेम एवं उनकी सेवा हो सके, वही शरीर आदरणीय है । ऐसा ही विचार कर श्रीराम सेवाका रस लेने एवं श्रीराम की अनन्य भक्ति के आनन्द का अनुभव करने भगवान शंकर रुद्र रुपमें श्रीराम के अनन्य सेवक हनुमान बन गये।
 जेहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान ।
रुद्रदेह तजि नेहबस  वानर भे हनुमान  ।।
जनि राम सेवा सरस  समुझि करब अनुमान ।
पुरखा ते सेवक भए हर ते भे हनुमान ।। (दोहावली 142-43)
‘हनुमानबाहुक’ मे भी तुलसीदासजी कहते है-
राम को दुलारो दास बामदेव को निवास, ।  नाम कलि-कामतरु केसरी-किसोर को ।।
करुना-निधान, बलबुद्धि के निधान, मोद, । महिमा-निधान, गुन ज्ञान के निधान हो ।।
बामदेव-रुप, भूप  राम के सनेही,  नाम ।  लेत देत अर्थ-धर्म-काम निरबान हौ ।। (9,14)
अर्थात हनुमानजी वामदेव (शंकर) के रुप है ।
अपनी ‘विनयपत्रिका’ मे भी तुलसीदासजी ने हनुमानजी को रुद्रावतार, महादेव, वामदेव, पुरारी आदि नामों से सम्बोधित किया है-
जयति रणधीर, रघुवीरहित, देवमणि,  रुद्र-अवतार  संसार-पाता  (25)
जयति मर्कटाधीश मृगराज-विक्रम, महादेव, मुद मंगलालय कपाली (26)
जयति मंगलागार, संसारभारापहर,  वानराकार-विग्रह  पुरारी (27)
सामगायक भक्त-कामदायक, वामदेव श्रीराम-प्रिय-पे्रमबंधी   (28)
उपर्युक्त प्रमाणोंसे यह सिद्ध हो जाता है कि श्री हनुमानजी रुद्रावतार है, स्वयं शंकर ही है । जिसप्रकार भगवान श्री.ष्ण को प्रसंग-भेंदसे वसुदेवनन्दन, नन्द-सुवन, गिरिधारी, देवकी-नन्दन, यशोदा-नन्दन, रासविहारी आदि कहा जाता है । उसी प्रकार हनुमानजी को कही ‘शंकर-सुवन’ कहीं ‘पवन-तनय’ कही केशरी-नन्दन’ कही ‘आंजनेय’ इत्यादि नामों से अलंकृत किया गया है । महाराष्ट्र के संत तुकाराम महाराज ने भी कहा है -‘तुका म्हणे रुद्रा । अंजनीचिया कुमरा।।’

केसरीनन्दन :- हनुमानजी के पिता का केसरी तथा माता का नाम अंजना था । स्वर्गाधिपति इन्द्र की रुप-गुण-संपन्न, अप्सराओंमे पुन्जिकस्थला नाम की एक प्रख्यात अप्सरा थी । वह अत्यंत लावण्यवती तो थी ही, चंचला भी थी । एक बार की बात है कि उसने एक तपस्वी ऋषिका उपहास कर दिया ।   ऋषि ने क्रुर होकर उन्हे शाप दे दिया-‘वानरीकी तरह चंचलता करनेवाली तु वानरी हो जा ।    

ऋषि का शाप सुनते ही पुन्जिकस्थला काँपने लगी । वह तुरंत ऋषि के चरणोंपर गिर पडी और हाथ जोडकर उनसे दया की भीख माँगने लगी ।   सहज कृपालु ऋषि द्रवित हो गये बोले- ‘मेरा वचन मिथ्या नही हो सकता’ । वानरी तो तुम्हे होना ही पडेगा, किंतु तुम इच्छानुसार रुप धारण करने में समर्थ होओगी ।  

उस परम रुपवती अप्सरा पुन्जिकस्थला ने ऋषि के शाप से कपि योनिमे वानरराज महामनस्वी कुंजर की पुत्री के रुपमे जन्म लिया तथा उसका नाम अंजना था । लावण्यवती अंजना का विवाह वीरवर वानरराज केसरी से हुआ । कपिराज केसरी कंांचनगिरी (सुमेरु) पर रहते थे । समस्त सुविधाओंसे संपन्न इसी सुन्दर पर्वत पर अंजना अपने पतिदेव के साथ सूखपूर्वक रहने लगी । वीरवर केसरी अपनी सुन्दरी पत्नी अंजनाको अत्यधिक प्यार करते थे । इस प्रकार सुखपूर्वक बहुत दिन बीत गये, पर उन्हे कोई संतान नही हुई ।

अंजना माता ने घोर तपस्या की तथा वायुदेव व शंकर भगवान की कृपासे उन्हे पुत्र रत्न की प्राप्ती हुयी जिसका नाम हनुमान रखा गया । इसप्रकार हनुमानजी को शंकर-सुवन, पवनतनय व केसरीनन्दन भी कहते हैं ।

आगे तुलसीदासजी लिखते हैं कि हे हनुमानजी ! आपके पराक्रम और महान यश की संसार भर मे वंदना होती है । तुलसीदासजी लिखते है, हनुमानजी कैसे है? ‘तेज प्रताप महा जगवन्दन’। हनुमानजी तेजोमय है इसलिए हमे भी तेजोमय बनना चाहिये । हमारी वृत्ति और बुद्धि तेजस्वी बने बिना भगवान नही मिलते । जीव के पास हनुमानजी जैसा तेजस्वी जीवन होना चाहिये तभी वह भगवान का भक्त बन सकता है।

हमारे संत, ऋषि, मुनि और पुराने जमाने के राजा सूर्य के उपासक थे । इसीलिये ‘तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात’ कहकर अपनेमें सूर्य का तेज आने के लिये सूर्य की उपासना करते थे । गायत्री की उपासना करनेवाला बहुत महान मनुष्य हैै । वह समझकर उपासना करता है । जिसको संस्कृति का काम करना है उसका जीवन अत्यंत तेजस्वी होना चाहिये । तभी संसार में वह वंदनीय हो सकता हैं ।

तेजस्विता यानी क्या? आत्मा की श्रेष्ठता यह सबमे प्रथम बात है । जीवनकी तेजस्विता यानी जीवनमें आते रहनेवाले प्रसंगोंसे मनुष्य भयभीत न बनता हो तो उसको तेजस्विता कहा जायेगा । जो डर कर जीवनसे भागता है वह तेजस्वी नही है । उसको पलायनवादी कहा जाता है । उसी प्रकार जो अगतिकता से पडा रहता है । वह भी तेजस्वी नही है । जीवनमे अनेक प्रसंग आते है, उनके सामने जो झूकता नही वह तेजस्वी है । जीवनमें अनन्त सुख-दु:ख के, आबरु-बेआबरु के प्रसंग आते है, उस समय जो अपना मार्ग नहीं छोडता वह तेजस्वी कहलाता है ।

जब समुद्र-तटसे उछलकर श्री हनुमानजी लंका की ओर जा रहे थे, उस समय मैनाक पर्वतने उनसे कहा कि ‘तनिक विश्राम कर लीजिये’। किंतु श्री हनुमानजी ने कहा-‘नही, ‘ राम काजु कीन्हे बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ’ , (मानस 5-1) इतना ही नही, लंका जलाकर सीता से आज्ञा प्राप्त करके वे तत्काल वहाँसे चल पडे । उन्होने कुछ भी विलम्ब नहीं किया । उन्होने किस प्रकार सारी लंका जलाकर राख कर डाली, यह उनकी तेजस्विता, शक्ति और प्रताप का जीता जागता उदाहरण है। तेजस्वी मनुष्य को सुखदु:ख, संघर्ष की लहरों मे तैरने मे मजा आता है । हम शारीरिक तथा बुद्धि की शक्ति से बलवान है परन्तु आत्मशक्ति में दुर्बल है ।

तुफानी सागर हो तो तैराक को तैरने मे आनंद आता है । मनुष्य मे पौरुष है । और जहाँ उसके पौरुष को आहवान नही मिलता वहाँ उसको जिन्दादिली नहीं लगती ।

जीवनमें प्रकाश प्राप्त करना चाहिए । हनुमानजी के पास मूर्तिमन्त उत्साह है इसलिये हमको भी सतत उत्साही होना चाहिए । उत्साहरहित भक्ति का कोई अर्थ नही है ।

लडका कुछ करने लगता है तो उसका पिता कहता है, ‘बेटा! तू यह काम नहीं कर पायेगा । परन्तु लडका उत्साही होता है। वह पिता से कहता है, ‘तुम यहाँ बैठे रहो ! मैं अभी यह काम करके दिखाता हूँ । ऐसा कहकर लडका काम करने लगता है । वह कदाचित् उल्टा-सीधा भी करेगा। , कदाचित्् उससे वह काम होगा भी नही । परन्तु उसमें जबरदस्त उत्साह है यह बात निश्चित!

माँ रसोई बनाती है तब छोटी छोकरी कहती है, ‘माँ ! आज रोटी मैं बनाऊँगी माँ कहती है, बेटी । अभी तू बहुत छोटी है । तुझे आटा गुंदना नही आयेगा । तब लडकी कहती है , माँ । तू देख तो सही ! ऐसा कहकर वह आटा गूंदने लगती है । कदाचित् उसके छोटे हाथों से आटा ठीक तरह से गूँदा भी नही जायेगा, चारों ओर आटा गिरेगा, उसके हाथ भी आटे से पुत जायेंगे । परन्तु उसमें जबरदस्त उत्साह होता है यह बात निश्चित!
भक्ति करनी है तो जीवनमें उत्साह होना चाहिये यह बात निश्चित है । भक्ति मे उत्साह चाहिये । अगतिकतासे आई हुयी भक्ति का क्या अर्थ है? आज कितने ही लोग कहते है कि समाज में बडी मात्रा में लोग भक्ति की ओर मुडते जा रहे है । परन्तु शान्ति से विचार करेंगे तो पता चलेगा कि लोग अगतिकता से भक्ति की ओर मुडे है, उत्साह से नही ! महँगाई बढी है, संसार मे आनन्द नहीं है, पैसा पर्याप्त नहीं होता है, यात्रामें बहुत कष्ट है, बारबार बिमारी आती है । उसके कारण मनुष्य को संसार मिथ्या व भगवान सत्य लगते है । इसलिये वह भक्ति की ओर मुडता है । यह अगतिकतासे आयी हुई भक्ति है । प्रेमसे आयी हुई भक्ति नहीं है । भक्ति में उत्साह होगा तो भक्ति खिलती है , अन्यथा नहीं खिलती ।

जिस प्रकार भक्ति में उत्साह, चाहिये, उसी प्रकार अध्यात्ममें भी उत्साह चाहिये । आज अध्यात्म थके हुए लोगों के हाथमे गया है, यह बहुत दु:ख की बात है । अध्यात्म युवक व्यक्ति के हाथ में चाहिये और यौवन यह वृत्ति है । वह उम्रपर आधारित नहीं है । मनुष्य अस्सी वर्षका होनेपर भी तरुण हो सकता है । अध्यात्ममें उत्साह चाहिये । भक्तिमें उत्साह चाहिये वैसा ही जीवनमें भी उत्साह चाहिये । यह उत्साह हनुमानजी की उपासना से आता है ।

हनुमानजी के पास दूसरा एक गुण है कि उन्होने अपना संपूर्ण जीवन प्रभु कार्य के लिए समर्पित कर दिया था अर्थात ‘दुसरों के लिये जीना है’ यह एक गुण है । मनुष्य ने संस्.ति खडी करके ‘मुझे दूसरे के लिये जीना है’ यह निश्चित किया । यही जीवन का सच्चा रस है । अध्यात्मिक लोग भगवान के लिये, प्रभु कार्य के लिये जी कर इस रस का अनुभव करते है । परन्तु सामान्य मनुष्य को इतनी बडी बात हजम नहीं होती । फिर वे किसके लिये जीते है? पत्नी कहती है, ‘मै पति के लिये जीती हूँ ! पति कहता है ‘मै पत्नी के लिये जीता हूँ ! फिर दोनो लडको के लिये जीते है । ‘ऐसा जीना, जिनको नही आता उनका संसार अयशस्वी कहलाता है ।
हनुमानजी से ‘दुसरों के लिये जीना है’ यह गुण लेने जैसा है । दूसरों के लिये जीने मे एक काव्य है । पत्नी से पूछो कि ‘तू इतनी अच्छी साडी क्यों पहनती है?’ तो वह कहेगी, ‘मुझे अच्छी लगती है इसलिये नही, मेरे पति को अच्छी लगती है इसलिये !’ इसमे काव्य है । पत्नी अपना व्यवहार पति के लिये करती है, इसमे उसे एक प्रकार का आनन्द है । माँ-बाप कष्ट उठाते है परन्तु लडकाें के लिए । लडका प्रथम क्रमांक से उत्तीर्ण होता है वह माता-पिता को अच्छा लगे, आनन्द हो इसलिये । दूसरे के लिये जीने मे बडा आनन्द है । उसमे काव्य है । जिसको जीवन में ऐसी शिक्षा मिलती है, उसके जीवनमें आनन्द निर्माण होता है ।
इसप्रकार हनुमानजी से तेजस्विता, उत्साह, प्रकाश तथा दुसरों के लिये जीने का गुण जीवन मे लाने का प्रयत्न करेंगे तो हमारा जीवन भी उनकी तरह तेजस्वी तथा प्रकाशमय हो सकेगा। हमे हनुमानजी से इन गुणों को प्राप्त करना होगा ।

4 comments:

  1. Jai Shri Ram. Jai Kara Veer Bajrangi Har Har Mahadev. tourfoodindia.com is my site about vegetarian food & india tourism.

    ReplyDelete
  2. मैंने एक प्रतिमा के दर्शन किये जिसमें आधे हिस्से में श्री भोलेनाथ हैं तथा आधे हिस्से में श्री हनुमान हैं ।जिस प्रकार माँ पार्वती और बाबा भोलेनाथ की प्रतिमा को अर्ध नारीश्वर के नाम से संबोधित किया जाता है ,वैसे ही श्री हनुमान और बाबा भोलेनाथ की संयुक्त प्रतिमा को किस नाम से संबोधित किया जाता है ,कृपया जानकारी देकर कृतार्थ करें । धन्यवाद ।

    ReplyDelete