Wednesday, June 29, 2011

कंचन बरन बिराज सुवेसा । कानन कुंडल कुंचित केसा ।। (4)

अर्थ : आप सुनहले रंग, सुन्दर वस्त्रों, कानों में कुण्डल और घुंघराले बालों से सुशोभीत हैं ।

गुढार्थ : तुलसीदासजी जैसे संत जब भगवान का ध्यान करते है, समाधी लगाते है तब वे समाधी मे तल्लीन हो जाते है तथा उनको भगवान का शरीर, आभूषण, कुण्डल, केस इत्यादि सब सुन्दर लगते है । महाप्रभु वल्लभाचार्यजी को भी भगवान .ष्ण का रुप इतना सुन्दर लगा कि उन्होने लिखा है ‘मध्ुाराधिपतेरखिलम् मधुरम्’ । हमारे जैसे सामान्य मानव को भी जीसपर हम प्रेम करते है, उसकी आँख, नाक, कान, हमें सुन्दर लगते हैं । यहाँ तुलसीदासजी वर्णन करते है कि हनुमानजी का देह स्वर्णिम शैल की आभा के सदृश है। कानों मे कुण्डल शेभायमान है । तथा केस घंुघराले हैं । जिसका जीवन सुन्दर होता है वह जो भी धारण करे वह सुन्दर ही लगता है । तुलसीदासजी ने विनयपत्रिका में भी भगवान हनुमानजी के स्वरुप का वर्णन करते हुए लिखा है ।
जयति बातसंजात, विख्यातविक्रम, वृहद्बाहु, बलबिपुल, बालधि बिसाला ।
जात  रुपाचलाकार  बिग्रह,  लसत,   लोम,   विद्युल्लता  ज्वालमाला ।।
( हे पवनकुमार । तुम्हारी जय हो। तुम्हारा पराक्रम प्रसिध्द है , तुम्हारी भुजदंड विशाल है , बल असीम है, और पूँछ बडी लम्बी है । सुमेरु पर्वत की तरह तुम्हारा शरीर सुशोभित हो रहा है, और उस पर रोम बिजली की लताओं अथवा अग्नि के सदृश जगमगा रहे हैं। )

इस प्रकार हनुमानजी के स्वरुप का उन्होने अनेक प्रकार से वर्णन किया है । उद्दीपक की तीव्रता ध्यान को खींचनेवाली, आकृष्ट करनेवाली बाहय परिस्थिती है । उदाहरण के लिए बिजली की चमक, किसी भी प्रकार की दुर्गंध या सुगंध इन विषयों की ओर किसी का भी ध्यान तुरंत आकृष्ट होता है । इसी प्रकार यदि भगवान मे ध्यान केंद्रित करना हो तो भगवान मे उद्दीपन गुण देखने चाहिए उद्दीपकता गुणों की हो इसी प्रकार स्वरुप की भी होनी चाहिए । दृश्य एवं श्राव्य पदार्थों में दृश्यकी उद्दीपकता ज्यादा होती है ।

जब हम भगवान का ध्यान करते है तो भगवान की मुर्ति सुन्दर, आकर्षक एवं नयन-मनोहारी होनी चाहिए । भगवान सौंदर्य की निधी लगना चाहिए । भगवान के स्वरुप को देखते ही मन उत्तेजित होना चाहिए । मनुष्य का मन केन्द्रित हो इसलिए भगवान को श्रंगार किया जाना चाहिए । पहले पीतांबर धारी प्रभु और मन लगने के बाद कौपीनधारी भी मन को भाते है । संत जब भगवान में चित्त एकाग्र करते है तो वे सब कुछ भूल जाते है तथा उन्हे भगवान का स्वरुप मनोहारी लगता है ।

हमारा मन हर जगह एकाग्र होता है परंतु भगवान में एकाग्र नही होता है । मन सिनेमा में एकाग्र होता है लेकिन भगवान मे नही होता । नव-परिणीत व्यक्ति को काम करते समय भी घरवाली दिखायी पडती है। वह इतना एकाग्र हो जाता है । हमारी एकाग्रता नही होती ऐसा नही है। मक्खी सभी जगह पर बैठती है । हलवाई की दूकान में जाकर बरफी पर बैठती है और कचरे पर भी जाकर बैठती है । लेकिन कभी अग्नि पर बैठी है ? भूल से भी वह वहाँ नही जाती हमारा मन भी ऐसा ही है । हम सब जगह एकाग्र होते हैं लेकिन भगवान में नहीं । यदि मन भगवान में एकाग्र होगा तो मन की सत्ता चली जाएगी यह मन भली भांति जानता है । इसलिए मन भगवान में एकाग्र नही होता । हम मंदिर जाते हैं । कोई व्यक्ति भगवान के दर्शन करके आया हुआ हो और यदि उससे पूछा जाय कि आपने अभी भगवान के दर्शन किये भगवान का श्रंगार आज कैसा था उन्होने कौनसे रंग के वस्त्र धारण किये हुए थे। तो इसका जबाब वह नहीं दे सकता क्योकि उसका मन स्थिर ही नही था। हमारा मन भगवान में एकाग्र नही होता । मनमें संबंध बांधने की शक्ति जब तक पुष्ट नही होती तब तक चित्त में क्रांति नही होती।
जैसे रुक्मिणी ने .ष्ण को देखा नहीं था फिर भी एक पवित्र ब्राम्हण के मुख से उनका वर्णन सुनकर उनसे प्रेम हो गया था । हमें लगता है कि जिस भगवान को हमने देखा नही है उसपर प्रेम कैसे हो सकता है ? रुक्मिणी ने उसको करके दिखाया ।  उसने .ष्ण का वर्णन सुनकर उनसे प्रेम किया । इसी प्रकार संतो के अनुभवों से प्रेरणा लेकर हमें भी हमारे मन की इस शक्ति को बढाना चाहिए तथा भगवान के स्वरुप का उस अनुसार दर्शन करना चाहिए ।

तुलसीदासजीने हनुमानजी के शरीर को ‘कंचन बरन बिराज सुवेसा’ इस प्रकार संबोधित किया है । सुन्दरकान्ड मे भी उन्होने हनुमानजी की स्तुती करते हुए ‘हेमशैलाभदेहं’ के विशेषन से विभुषित किया है। इसका अर्थ है हनुमानजी की देह स्वर्णिम शैल की आभा के सदृश है । हनुमानजी की कान्ति सबको मोहक लगती है । तुलसीदासजी ने हनुमानजी के स्वरुप का जो वर्णन किया है ‘कंचन बरन बिराज सुवेसा’ किया है , उसके पीछे आशय यह है कि यह कान्ति उन्हे ऐसे ही प्राप्त नही हुयी, उसके लिए उन्होने कठीण परीश्रम, अपने पुरुषार्थ से, सुझबूझ से, तेजस्वीता से तपकर, जीवन मे आनेवाले संघर्षों का मुकाबला करके हर परीक्षा में उत्तीर्ण होकर प्राप्त की है ।

हमारे शास्त्र में सोने को तैजस माना है , उलझन यह है कि सोना तेजस्वी है, परन्तु उसे पाने के लिए उसके पीछे पडे हुए लोग निस्तेज क्यो है? सुवर्ण के पूजक, उपासक निस्तेज क्यों है? सुवर्ण तैजस है तो उसके उपासक भी तेजस्वी होने चाहिए । हमारे इष्टदेव हनुमानजी स्वर्ण के समान तैजस है तो हम उपासकों को भी उनके जैसा तेजस्वी बनने का प्रयत्न करना चाहिए ।

मानवी जीवन मे प्रकाश लाना है, तैजस लाना है उसके लिए भगवान की भक्ति यह एकमात्र उपाय है। जिस प्रकार हम सुनार के पास सोना देते है उसकी वह चार प्रकार से परीक्षा करता है । प्रथम वह घिसकर देखता है, फिर कतरकर देखता है, फिर भट्टी मे तपाता है इतना ही नही फिर उसपर हथौडे मारकर उसकी परीक्षा करता है । अध्यात्ममें भी ठीक इसीप्रकार भगवान हमारी भी चार प्रकारसे परीक्षा लेते है ।
यथा चतुर्भि: कनकं परीक्ष्यते    निघर्षणच्छेदन तापताडनै: ।
तथा चतुर्भि: पुरुष: परीक्ष्यते श्रुतेन, शीलेन, गुणेन, कर्मणा ।।
भगवान हमारी उपर लिखे अनुसार श्रुतेन, शीलेन, गुणेन, कर्मणा इन चारों प्रकार से परीक्षा लेते है यदि इसमे हम उत्तीर्ण हो गये हो हमारा जीवन भी हनुमानजी की भांति तेजस्वी हो जाएगा।

1) श्रुतेन :- ‘श्रुतेन’ हमने क्या सुना? किस प्रकार सूना? यह सब भगवान देखते है । ‘श्रुत्वा धर्मं विजानाति’-श्रवण करने से धर्म का ज्ञान होता है । ऐसा सुनना चाहिए कि जिससे बुद्धि तैयार होगी, प्रभावी बनेगी, स्वयं निर्णय कर सके ऐसी बनेगी । केवल कथा कहानियाँं सुनना इसे श्रवण नहीं कहते । श्रवण से बुध्दि बदलना है, तीक्ष्ण बनाना है । इसलिए सुनना है ।

परन्तु आज तो श्रवण करने में से बुध्दि चली गयी है । श्रवण करने का अर्थ ही यह हो गया है कि बुध्दि नही चलानी है । जिस तरह ‘श्रुत्वा धर्म ‘विजानाति’ है वैसे ही ‘श्रुत्वा पापं परित्यजेत्’ सुनने से पाप नष्ट होता है । पाप का अर्थ है क्षुद्रता, दीनता, दुर्बलता, असहिष्णुता । जबतक मनुष्य स्वयं को क्षुद्र समझता है तब तक उसमे कुछ नही होगा । मनुष्य को आत्मगौरव, अस्मिता जागृत करनी चाहिए ।

सुनना यह एक कला है - ’’ । हम अपना दुषित मन साथ लेकर गीता-रामायण सुनने जाते हैं, सुनते समय तुमको अपना मत छोडकर सुनना चाहिए। ‘You must be free from your opinion while listening’ । तभी विवेक निर्माण होगा।

कुछ लोग कहते हैं, हमने बहुत दिनों तक गीता-रामायण सुनी है परन्तु हममें कुछ परिवर्तन नही हुआ। अब हम गीता-रामायण नही पढें्रगे । ऐसा कहनेवाले लोग नादान हैं । कोई कहे कि ‘हम पन्द्रह वर्षतक स्नान करते रहे अब स्नान की क्या आवश्यकता है? अब हम स्नान का स्मरण करेंगे क्योंकि स्नान का अर्थ हम समझ गये हैं । यह विचार जिस प्रकार भ्रामक है उसी प्रकार हमने बहुत दिनों तक सुना है अब जीवन में उतार रहे हैं ऐसा कहना मूर्खता है । प्रतिदिन स्वाध्याय रुपी हथौडे ही चोट पडनी चाहिए तभी बुद्धि शुध्द रहती है । शरीर को शुध्द स्वच्छ रखने के लिए जिस प्रकार आजीवन स्नान आवश्यक है, वैसे ही बुध्दि को भी स्वाध्याय सरिता में स्नान कराना आवश्यक है । उपनिषद, गीता और रामायण क्या है? किसलिये है, इसे समझने बाद भी बार बार उपनिषद, गीता और रामायण का श्रवण करना चाहिए।

भगवान हमारी परीक्षा करनेवाले है कि हमने जीवन में क्या सुना तथा उसे जीवनमे कितना उतारा इसलिए हमे ‘श्रुतेन’ बनना चाहिए तथा अच्छे विचारों को जीवन में उतारने का प्रामाणिक प्रयत्न करना चाहिए तभी हम भगवान द्वारा ली जानेवाली परीक्षा मे उत्तीर्ण होंगे तथा हमारा योग्य जीवन विकास होगा ।

‘मैं कुछ कर सकता हूँ’ ऐसी भावना जब तक तुम्हारे ह़दय में जाग्रत नही होगी तब तक तुम दुर्गुणों के साथ नही लड सकोगे और सद्गुणोंको नही उठा सकोगे । सद्गुणोंको उठाना है और दुगुर्णों के साथ लडना है, इसलिए ऐसा श्रवण करना है जिससे अस्मिता जाग्रत होगी ‘श्रुत्वा निवर्तते मोह:’ जिससे मोह चला जायेगा ऐसा सुनना चाहिए । हमे शरीर, वित्त कीर्ति, सत्ता आदि का कितना मोह है? अच्छा श्रवण करने से मोह चला जाता है । ‘श्रुत्वा ज्ञानामृतं लभेत्’ श्रवण करने से ज्ञानामृत प्राप्त होता है । क्या सुनना है व कैसे सुनना है यह समझाया है । हमारा संपूर्ण जीवन, जीवन की सभी क्रियाएं-खाना, पीना, सोना, उठना कमाना सब उसी (भगवान) के लिए होने चाहिए । क्या सुनना चाहिए? तो कहते है - ‘हरेरद्भूतकर्मण:’ हरि के अद्भूत कर्म है ये सुनने चाहिए । अद्भूत किसे कहते है? जहाँ बुध्दि नहीं चलती वह अद्भूत कहलाता है भगवान के अद्भूत कर्म अर्थात, भूगर्भशास्त्र, भूगोलशास्त्र, नरदेहरचना-कौशल्य ये सब भगवान के अद्भूत कर्म हैं । ये सब भगवान के पुराण हैं, भगवान की लिखी हुयी पोथी है । यह सब पढनेपर भगवान का अद्भूत कौशल्य दृष्टिगोचर होता है । यह शक्य नही है तो गीता-रामायण आदि ग्रथोंका स्वाध्याय करना चाहिए । योग्य प्रकार से स्वाध्याय करने से जीवन विकास होता है ।

घर में हमारी कोई सुनता नहीं इसलिए कथा सुनने के लिये जाने से कोई लाभ होनेवाला नहीं है । केवल समय बिताने के लिये श्रवण नही होना चाहिये । हमे भी हनुमानजी की तरह ही प्रभु चरित्र सुनने के रसिक बनना चाहिए तथा जीवन बदलना चाहिए तभी हम भगवान द्वारा ली गयी परीक्षा मे उत्तीर्ण हो सकेंगे तथा हनुमानजी की भांति हमारा जीवन कान्तिमय बनेगा ।

2) शीलेन :- ‘शीलेन’ अर्थात शुचिता ! भगवान हमारी दूसरी परीक्षा शुचिता से करते है शुचिता का गुण यह मानव जीवन मे महत्वपूर्ण है । शुचिता के कई प्रकार है । देहशौच, वृत्तिशैच, बुध्दिशौच, मन:शौच, अर्थशौच तथा कामशौच वगैरह ।
देहशौच :- देह शुध्द कब होता है? ‘ब्रम्हीभूत काया होतसे कीर्तने’ जिसका देह प्रभु कार्य के लिए घिसा हो उसका देह पवित्र होता है । यह देह शौच है जिस तरह हनुमानजी का जीवन प्रभु कार्य के लिए समर्पित था उसी प्रकार हमें भी थेाडा इस देह को प्रभु कार्य के लिए घिसना चाहिए ।

वृत्तिशौच :- संकुचित वृत्ति, क्षुद्र वृत्ति शुचि (शुध्द) नही है । आदमी संकुचित क्यों रहे? जितना कूदा जा सकता है उतना कूदना चाहिए, आगे बढना चाहिए। आदमी के विचार तथा स्वार्थ विशाल होने चाहिए तो ही वृत्तिशौच आता है ।

बुद्धिशौच :- अशुध्द विचार बुध्दि में नही रहने चाहिए । बुध्दि मे ज्ञान है और ज्ञान मे प्रभु है । इसीलिए कहा है : ‘ज्ञानं ब्रम्ह’ बुध्दि मे जो प्रभु है उनका साक्षात्कार (रियलायझेशन ) बुध्दि में होता है । जीवन में शासन करनेवाला कोई बडा तत्व होगा तो वह बुध्दि ही है । भोग भोगने के लिए बुध्दि चाहिए भक्ति करने के लिए बुध्दि चाहिए, तथा ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी बुध्दि चाहिए।  

आदमी खाता है पीता है वह ज्ञान ही खाता पीता है । दाल की कटोरी मे हाथ रखो तो कुछ पता नहीं चलता परन्तु दाल मुहँं में डालने पर पर जीभ को दाल स्पर्श करती है तभी बुध्दि से टेलिफोन आता है ‘बहुत अच्छी’ यानी दाल खाई किसने? बुध्दि ने, भगवान द्वारा प्रदत्त प्रभावी तत्त्व है बुध्दि । हमेशा बुध्दि का चिन्तन शक्तिशाली होना चाहिए । प्रगमनशीन (प्रोग्रेसीव ) होना चाहिए । इसीलिए भगवानने गीता मे कहा है : ‘मय्येव मन आधत्स्व मयि बुध्दिं निवेशय’ जो लोग निस्तेज है, उनकी बुध्दि में शुचिता नही है । मनुष्य को बुध्दि शौच जीवन मे लाना चाहिए ।

विचारशौच :- बुध्दि में शुध्द विचार होने चाहिए । ऋषियोंकी विचार परंपरा शुचि है । मनुष्य के जीवन में शुध्द विचारों का पूजन होना चाहिए । वेद शुध्द विचार है, गीता शुध्द विचार है,। ये ग्रंथ किसी स्वार्थ से प्रेरित होकर लिखे नही गये है। विचार बडी से बडी शक्ति है । तुम बच्चों के तथा लडकाें के मनमें कौन से विचार भरते हो उसका विचार करो तुम जिन विचारों को उनके मनमें भरोगे वैसे उनका जीवन होगा।

मनशौच :- कामना करना मनका धर्म है । मन को शुचि (शूध्द) कामना करनी चाहिए, अशुचि (अशुध्द) कामना नहीं । शुचि कामना तथा अशुचि कामना में फर्क क्या है? उदाहरण के तौर पर पैसे कमाने की कामना है तो यह शुचि है या अशुचि? रघुराजा ने पैसे प्राप्त करने की कामना की, यह शुध्द कामना थी और हम पैसे प्राप्त करने की कामना करे तो वह अशुध्द कामना मानी जाती है, उसका कारण क्या है? कामना का स्फुरण जिस कारण से हुआ है उससे कामना शुध्द या अशुध्द निश्चित होती है । अर्जुन और रघुराजा दोनो ने धन प्राप्त किया, उसका कारण था कि उन्हे जगत में चिरन्तन मूल्य स्थिर करने थे, बौध्दिक विचार धारा खडी करनी थी । यह उनकी कामना शुचि थी, यह मन:शौच है ।

तप:शौच :- हम तप करते हैं । भक्ति करते हैं मगर वह शुचि है या अशुचि? तप की बैठक में क्या है उसे जाँंचना चाहिए, शुध्द हेतु से तप अथवा भक्ति होनी चाहिए । जिस कृति की बैठक शुचि न हो वह कृति अशुचि हो जाती है ।

तप या पूजा करते समय भी शुध्दि चाहिए । संकल्प शुध्द होना चाहिए । कितने ही लोग उग्र तप करते है । क्यों उन्हे भगवान से कुछ मांगना है? उनसे कहना चाहिए कि तुम तप करो तो उसका फल मिलेगा ही, मांगने की आवश्यकता नही पडेगी। मनुष्य को अर्थना करनी चाहिए या प्रार्थना करनी चाहिए । अर्थना यानी मांग तथा प्रार्थना यानी श्रेष्ठ मांग उसमे इतना फर्क है ।

हमारे पुराणों में एक कथा है । एक भाई पेड के नीचे तप करने के लिए बैठा था । भगवान प्रसन्न हाें तो उसे भगवान के पास कुछ मांगना था । वह पेड के नीचे बैठकर तप करता था । उसके पास नारदजी आए । नारदजी ने उससे पूछा : तुम तप क्यों कर रहे हो?     

उस भाई ने कहा ‘क्या करुं’  मेरे बच्चों को पीने के लिए दुध नहीं मिलता । भगवान प्रसन्न हों तो मै भगवान के पास से एक भैंस मांगूगा जिससे मेरे पूरे परिवार को पीने के लिए दूध मिलेगा ।

नारदजी को लगा कि कोई राज्य प्राप्त करने के लिए तप करता है, किसी को इन्द्रासन चाहिए इसलिए तप करता है, कोई भगवान के पास से गोदमें बैठने के लिए वर मांगता है, तो कोई भगवान के पास से आत्मज्ञान मांगता है । यह आदमी सीदा सादा है इसलिए भगवान के पास से भैंस मांगेगा।

नारदजी तो पूरी दुनिया मे घुमते थे। वे थेाडी दूर गये तो उन्होने वहाँ दूसरे भाई को पेड के नीचे बैठकर तप करते हुए देखा । नारदजी ने उससे पूछा-क्यों भाई तप क्यों कर रहे हो?

उस भाई ने कहा भगवान प्रसन्न हाें तो मुझे कुछ नही चाहिए । मेरा पडोसी तप कर रहा है क्योंकि उसे भैंस चाहिए । उसे भैंस मिलेगी तो पूरे परिवार को पीने के लिए दूध मिलेगा । अत: वे सब दूध कैसे पीते है उसे मै देख लूंगा । भगवान प्रसन्न होंगे तो मै भगवान के पास से एक बाघ मांगूगा । नारदजीने कहा ‘बाघ किसलिए’? उसने कहा भगवान मुझे बाघ देंगे तो वह मेरे पडोसी की भैंस को मारकर खा जाएगा और उसके परिवार में किसी को दूध पीने को नही मिलेगा। इतनी हदतक लोग जाते है या नही किसे पता? मगर पुराण कुछ समझाने के लिए ऐसी कहानी लिखते है। अभी तो पडोसी के यहाँ भैंस आनेवाली है, उसकी भैंस आनेवाली है, उसकी भैंस कैसे मरे इसके लिए दूसरे की तपस्या चलती है । इस मूर्ख को पता नही कि अगर भगवान ने उसे बाघ दिया तो वह पडोसी की भैंस जब भी खाये मगर पहले इसीको खा जाएगा । तात्पर्य यह है कि तप की बैठक मे शौच (शुध्दि) होना चाहिए ।

अर्थशौच :- जीवन मे अर्थशौच का काफी महत्व है । स्मृतिकारोंने अर्थशौच को बडे से बडा शौच माना है । सुभाषितकार कहते है ।
अकृत्वा  परसंतापं   अगत्वा खलमंदिरम् ।
अक्लेशयित्वा चात्मानं यदल्पस्वल्पमपि तद् बहु: ।।
(दुसरे को कष्ट दिये बिना, खल (दुष्ट)के घर गये बिना, अपनी आत्मा को पीडा दिये बिना जो मिला वह कम भी हो तो भी काफी है )
अर्थ शौच में पहली शुचिता कौनसी होनी चाहिए? गीता कहती है :
इष्टाान्भेागान्हि वो देवा: दास्यन्ते यज्ञभाविता ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो  यो  भुड़्क्ते स्तेन एव स: ।।
                                             (गीता 3-12)
( यज्ञ से संतुष्ट हुए देवता तुम्हे इच्छित भोग देंगे (परन्तु) उनके द्वारा दिये गये (भोग) उन्हे न देकर जो (स्वयं) भोगता है, वह चोर ही है। )

इस श्लोक में भगवान कहते हैं कि जो अपनी कमाई में से भगवान का भाग नही निकालता वह चोर है ं भगवान का भाग निकालकर उसे भगवान के काम में उपयोग करना चाहिए । कितने ही लोग व्यापार मे धर्मादा का भाग रखते है और बाद मे उन पैसों से पत्नी-बच्चो को काश्मीर घुमाकर लाते है, उसमे एकाध दिन अमरनाथ की यात्रा भी करते आते है । डेढ महिना काश्मीर घूमते हैं और धर्मादा के पैसे से तीर्थ यात्रा करने का संतोष मानते है।
ऋषि ने जो रास्ता बताया है उसी रास्ते आदमी को जाना चाहिए । भगवान का भाग निकालकर भगवान के काम में इस्तेमाल किया हो तो अर्थशुचि होती है । कितने ही लोग भगवान का भाग नही निकालते और कितने ही निकालते हैं मगर वे जैसा मन में आता है वैसा उस पैसे का इस्तेमाल करते हैं वह जहाँ पैसे खर्च करता है वहाँ अपनी माँ के नाम की तख्ती बिठाता है । तुम्हे अपनी जात बिरादरी में बडप्पन चाहिए तो जरुर लो, तुम्हे कौन मना करता है? मगर उसे तू भगवान के भाग के पैसे में से मत ले, अपने भाग में से ले । तुझे अच्छा बंगला चाहिए कीर्ति भी चाहिए । तू कीर्ति खरीद ले मगर उन पैसों को तू सत्कर्म में इस्तेमाल करता है ऐसा दम्भ मत कर। इस प्रकार जीवन में अर्थ शुचि होनी चाहिए । भगवान इन सब की परीक्षा लेते है ।

कामशौच :- मानव जीवनमें कामशौच भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। हनुमानजी के जीवन मे शील और पावित्‍र्य का सुन्दर वर्णन रामायण मे मिलता है ।

हनुमानजी लंका मे रात्रि के समय सीता माता की खोज करते है । खोज करते करते अंत मे वे रावण के अंत:पुर मे स्त्रियोंके झूंड मे खोजने जाते हैं और अस्त वयस्त स्त्रियोंको देखते है परन्तु उनके मनमे जरा भी विकृति निर्माण नही हुयी । इस तरह भगवान हमारी भी परीक्षा लेते है कि हममें शुचिता कितनी है । इस प्रकार जीवनमें विविध शुचिता होनी चाहिए यह गुण हनुमानजी में थे । हमे भी हनुमानजी की भांति जीवन को पवित्र, स्वच्छ एवं शुचितापूर्ण बनाना चाहिए।

3) गुणेन :- गुणोंसे मनुष्य की परीक्षा होती है । जिसप्रकार किसान खेती करता है, खेत में बीज बोता है ं बीज बोने के बाद प्रभु वृष्टि करते हैं । बीज अंकुरित होता है । अनुकूल वातावरण मिलता है । पौधा बडा होता है, और फिर हरे भरे खेत लहलहाने लगते है । यह देखकर किसान को कितना आनंद आता होगा? कितना प्रसन्न होता होगा? उसी प्रकार भगवानने हमें यह मानव शरीर दिया है । गीता के तेरहवे अध्याय में भगवान ने यह शरीर खेत ‘क्षेत्र’ है ऐसा कहा है । इस खेत मे क्या बोना है यह निश्चित करना चाहिए । इस खेत मे हमे सद्गुणों को बोना है । गीता के सोलहवे अध्याय में भगवान ने दैवी गुणोंका वर्णन किया है परन्तु जीवन का अत्यंत महत्वपूर्ण गुण याने ‘कृतज्ञता’ का विचार करना चाहिए । कृतज्ञता यह गुण मनुष्य मे मनुष्यत्व लाता है। मनुष्यत्व किसे कहते है? जिसके जीवन मे कृतज्ञता है वह मनुष्य! क्या तुम्हारे जीवन में कृतज्ञता है यह भगवान देखते है । कोई कहेगा कि हम पर किसी ने उपकार नही किये तो कृतज्ञता किसके प्रति प्रकट करे? कृतज्ञता का अर्थ केवल किए हुए उपकारों का स्मरण नही है । किये हुए प्रेम और किये हुए उपकार का स्मरण ही कृतज्ञता है । तुम्हारे उपर कितने लोगोंने प्रेम किया? शुरुवात मे तुम्हारी माँ ने तुम्हे प्रेम किया, उसीसे तुम छोटे से बडे बने क्या उसके लिए कृतज्ञता है? जिसमें कृतज्ञता नही वह मनुुष्य नही है। मनुष्यत्व अपेक्षित है । कृतज्ञता के साथ भाव होना चाहिए । क्या तुमने अपने जीवन में किसी के लिए भाव खडा किया है? अगर तुमने भाव खडा किया है तो तुम मनुष्य हो । मनुष्यत्व का अर्थ कृतज्ञता, भावमयत्ता, और स्नेहमयता है।

आज हम मानवी दैवी गुणों को छोडकर पशुओं के गुणों को अपना रहे है। भतृ‍र्हरि राजाने एक दृष्टांत दिया है । ‘एक कुत्ते काे कहीं से एक सुखी ही मिली’। वह उस ही को चूसने लगा। उस ही में रस नही था परन्तु चूसते समय वह उस कुत्ते के तालुमे लगा और उसमे से खून बहने लगा । कुत्ते को अपने ही खुन का स्वाद आ रहा था, परन्तु उसको लगता था कि हीमे से वह खून चूस रहा है । इतने मे वहाँ से इन्द्र का जुलूस जाने लगा उसे देखकर कुत्ते को लगा कि इन्द्र मेरी ही छीन लेगा । इसलिए उसने ही को छीपा दिया । हम भी वैसे ही है । कुछ न कुछ चूसते बैठे है ।

आज मानव मानवता के गुणों को त्यागकर पशुओं के गुणोंको उठा रहा है । हम सैकडो भजन तथा शलोकों को याद रखते है, सब रटते हैं, गीता, रामायण कंठस्थ करते हैं परन्तु तीन शब्द हम भूल गये हैं, और वे तीन शब्द है ’मै मनुष्य हूँ’।  शास्त्रकारोंका आग्रह इन तीन शब्दोंके लिये ही है । परन्तु आज हम ये तीन शब्द भूल गये हैं । इसलिये प्रतिदिन पतित बनते जा रहे हैं । परन्तु यह बात मनुष्य से कोई कहता तो वह चिढता है, उसको वानर कहा तो वह हमपर दौड आता है और खुरचने लगता है, पर उसकी मर्कटलीला चालू रहती है । उसको बिल्ली कहा तो चिढ जाता है परन्तु अहंकार के अंधकार मे घुर्रर्र, घुर्रर करता रहता है । कुत्ता कहा तो भौंकने लगता है परन्तु दिन दहाडे रास्ते में अपनी प्रणयक्रीडा चालू रखता है । आज मनुष्य संख्या बढती जा रही है और ‘मनुष्यता’ घटती जा रही है । मनुष्य को पशु कहा तो क्रोध आता है और देव कहा तो वह बात उसके मस्तिष्क में नहीं उतरती ।
कृतज्ञता यह मानव जीवन में सबसे महत्वपूर्ण गुण है, परन्तु इसकी ओर उसका दुर्लक्ष हो रहा है । आज मनुष्य कृतघ्नी बनता जा रहा है । कृतज्ञता यह बडा से बडा धर्म है । बाकी सब पापों को प्रायश्चित है परन्तु हमारे धर्मशास्त्र के अनुसार कृतघ्नी को प्रायश्चित नही हैं ।
ब्रम्हघ्नेच   सुरापेच  चोरे  भग्नव्रते   तथा ।
निष्कृतिर्विहिता लोके कृतघ्ने नास्ति निष्कृति:।।
कृतघ्नी मानव को निष्कृति नही है इसीलिए भगवान के पास जाने के लिए प्रथम ‘कृतज्ञता’ होनी चाहिए । विज्ञान चाहे कितनी प्रगती क्यों न करे, परन्तु अन्त में मानव को मानव के साथ ही रहना है । उसके लिए प्रथम मानव को मानव बनना चाहिए । पशु सृष्टि की अपेक्षा मानव में जो विशेषातायें है उनमे एक बात यह है कि पशु-पक्षियों मे नर-मादा का युग्म वयस्क होते ही मातापिता से अलग होकर उन्हे छोडकर चला जाता है । वृद्ध माता पिता की उसे आवश्यकता ही नही रहती । परन्तु मानव मे ऐसा नही है। मनुष्य की मनुष्यता उसकी कृतज्ञता में है । ईश्वर के प्रति कृतज्ञता, ऋषिमुनियों के प्रति कृतज्ञता और अपनी संस्कृति के प्रति कृतज्ञता यह मानव जीवन की सुगंध है ।
भगवान जब हमारी परीक्षा लेते है तो वे देखते है कि हममे कृतज्ञता का गुण है या नही इसलिए कृतज्ञता का गुण हमारे जीवन में लाना चाहिए । यदि हमने कृतज्ञता के गुण का बीजारोपन कर दिया तो इतर दैवी गुणों का विस्तार अपने आप हो जायेंगे।

4) कर्मणा :- मनुष्य को कौनसे कर्म करने चाहिये? जैसे सोने की चौथी परीक्षा की जाती है उसी प्रकार भगवान मनुष्य की चौथी परीक्षा कर्मद्वारा लेते हैं । हमे सतत कर्म करना है । जीवन कर्ममय होना चाहिए । कितने ही लोग कहते हैं कि हम कुछ नही करते यह भी एक कर्म है, ‘हम शान्ति से बैठे है’ शान्ति से बैठना भी एक कर्म है।

जितने प्रमाण में कर्मेन्द्रिय अच्छी तरह काम करे उसी प्रमाण मे ज्ञानेन्द्रिय शुध्द होती है, कर्मेन्द्रिय कार्यरत बनाने से ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय दोनो शुध्द होते है । इन दोनों का परिणाम मन पर होता है। ये दोनो परस्पर संबन्धित है ।

भगवान ने कर्ममयता मन में भरी है । हम कर्म लेकर आये है और कर्म लेकर जाना है ।
धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे, भार्या गृहद्वारि सखा स्मशाने ।
देहश्चिताया  परलोकमार्गे,   कर्मानुगो गच्छति  जीव एक:।।
जीव चला जाएगा मगर धन भूमिपर रहेगा, पशुधन गोठे मे रहेगा। पत्नी घर के दरवाजे तक आयेगी, सगे सम्बन्धी स्मशान तक आएंगे, जब देह को चिता पर रखेंगे और जीव परलोग मार्ग पर जाएगा तब वह अकेला रहेगा उसके साथ उसके कर्म ही जायेंगे दूसरा कोई नहीं । तुमने जो कर्म अपने जीवन काल में किये होंगे वही कर्म अगले जन्म में तुम्हारे साथ आयेंगे । जीवन कर्ममय बनना आवश्यक है । आज कितने ही लोग ऐसा समझते हैं कि हम भक्ति करते है अत: दुसरा कुछ करने की कोई आवश्यकता नहीं है । भक्ति भी एक कर्म है । वेद कहते हैं -
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
तेहनाकं महिमानं सचंत यत्र पूर्वे साध्या: संति देवा: ।।
केवल सद्विचार या सदिच्छा नही चलते । एकाध व्यक्ति के पास अनेक सद्विचार होंगे मगर उसे हम धार्मिक नही कहते । धर्म एक गतिशील (Dynamic) तत्व है । एकाध व्यक्ति के पास सद्विचार हो और वह सतत उच्चारण करता है :
सर्वेत्र सुखिन: सन्तु     सर्वे सन्तु निरामया: ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कचिद दु:खमाप्नुयात् ।।
तो भी उसे धार्मिक नहीं कहा जाता। भगवान ने गीता मे कहा है। ‘कर्मजान्विध्दि तान्सर्वान’ तुम केवल सद्विचार रखोगे तो वह नहीं चलेगा भगवान कहते कहते है कि सद्विचार तेरे काम में कितने आये दिखा । कर्म से क्या होता है? कर्म करने से अन्त:शुद्धि (अन्त:करण की शुद्धि) होती है । साथ ही साथ विभिन्न प्रकार के गुण आते हैंं । यदि भगवान का काम यज्ञीय भावना से करेंगे, साथ मिलजुलकर करेंगे तो हमारे में कितने ही दोष खत्म हो जाएंगे । हममे गुण कब आये वह पता नही चलता । मनुष्य को कर्म करने चाहिए । जीवन में कर्ममयता आवश्यक बात है । कर्म का विचार गहराई से करना पडेगा । कर्म फल पक्का है तथा उसके फल को स्वीकारना ही पडता है । इस जगत में किसी को कुछ मुफ्त में नही मिलता । मनुष्य जो कर्म करेगा उसका फल उसे मिलता ही है। हमारे शास्त्रकारों ने कृति का अर्थ धर्म कहा है, केवल विचारों का अर्थ धर्म नही है, विचार कृति को शक्ति देता है, विचार कृति में चैतन्य लाता है परन्तु विचार धर्म नही है ।

कर्म से ही गुण आते हैं, चिन्तन से शक्ति मिलती है, स्फुर्ती मिलती है तथा उत्साह भी मिलता है । चिन्तन के बाद कर्म करेंगे तो गुण पक्के होते हैं । गुणों को पक्का करने के लिए कर्म की आवश्यकता है ।

कितने लोगों को लगता है कि भगवान के पास जाने के लिए गुण और कर्म की जरुरत नहीं है । हम भगवान को फूलोंका हार पहनाएंगे उनका गुणगान करेंगे, गुलाल उडायेंगे तो भगवान प्रसन्न होंगे । भगवान ने कर्ममयता, भक्तिमयता और ज्ञानमयता दिखाये हैं । कृष्ण भगवान ने लिखा है ‘यो मद्भक्त: स मे प्रिय:, परन्तु हम तो गीता पढते ही नही, गीता महाभारत में है । यदि महाभारत पढा तो घरमें महाभारत होता है ऐसी हमारी धारणा है । इन लोगों को पता नही कि गीता नही पढते इसीलिए घरमें महाभारत होता है । गीता मे कृष्ण भगवान के मुखसे वर्णन-गीता के बारहवे अध्याय में ‘अद्वेष्टा सर्वभूतानां’ से शुरुवात करके आठ श्लोंको तक है । उसमे भगवान ने क्या ऐसा कहा है कि जो मुझे हार पहनाते है,उपवास करते हैं, गुलाल उडाते हैं,‘ जय कन्हैयालाल की, हाथी घोडा पालकी’ बोलते है क्या मुझे अच्छे लगते हैं । भगवान ने गीता में जो कहा है उसमे से एक भी बात हमें करनी नही है और उपर से भगवान का लाडला बनना है, यह बात गलत है । केवल उपवास करने से या गुलाल उडाने से कुछ नही होता । नही तो हम जन्माष्टमी के दिन उपवास करते है बारह महिने उपवास करेंगे तो अनाज की बचत होगी मगर उसे अध्यात्मिक मूल्य (Spritual value) कितना है यही पश्न है ।

कर्ममयता कृष्ण की उपासना है इसीलिए वह अपेक्षित है । कर्म तो होंगे ही, तुम न करो तो भी होंगे ही । भगवान को गाली देना बेकार है । मैं गत जन्म मे करोडपती था । इस जन्ममे कौन हूँ? भिखारी, ‘गहना कर्मणो गति:’ हमें जो वस्त्र मिले हैं वे शाश्वत नहीं बल्कि क्षणिक () है, छोडने पडेंगे । कितने लोगों के कपडे विद्वत्ता के होंगे, कितने ही लोंगो के कपडे अधिकार के होंगे, वित्त के होंगे वस्त्रहरण करनेवाले कृष्ण भगवान है, वे जब निकालने को कहेंगे तो निकालने पडेंगे।

पांडव शुध्द थे । कृष्ण भगवान का काम करने के लिए कटिबध्द थे । कृष्ण ने उन्हे साधना यंत्र (Instrument) बनाया था । इतना होनेपर भी पांडवोने जुआ खेला और हार गये । बारह वर्ष के लिये जंगल मे जाना पडा । कृष्ण भगवान के साधनयंत्र बने पांडवो को भी कार्य का फल भोगना ही पडा ।
कर्म की जबाबदारी को स्वीकारो । भागो मत, रोओ भी नहीं । दूसरे पर दोषारोपण करना व्यर्थ है, वैदिक तत्वज्ञान स्पष्ट भाषा मे कहता है ‘जीवन की इच्छा और प्रभु की शक्ति मिलकर काम होता है’ जीवन में कर्म आवश्यक है, उसकी जबाबदारी स्वीकारनी चाहिए ।

कर्म अर्पण करने में आनंद है । कर्म किसी को अर्पण करना है । भगवान जब मैं विचार करता हूँ तब मुझे लगता है मन, बुध्दि की सम्पति मेरी है या नहीं । इसमे सन्देह है । मन व बुध्दि तेरी दी हुई भेंट है । मेरे पास केवल कर्म है। तुम्हे देने के लिये मेरे पास केवल कर्म है ।

प्रभु को अर्पण करने के लिए कर्म करना कर्ममयता का विकास है । सत्कर्म प्रभु को अर्पण करने के लिए करने हैं । प्रभु को कर्म अर्पण करने में आनंद है । जिसने सत्कर्म करके भगवान को अर्पण किये है, उसने जीवन में कर्ममयता सफल बनायी है । उसके जीवन में सुगन्ध है । ये लोग कर्म से भागे नहीं है । वैसे ही डर से भी कर्म नहीं करते । कितने ही लोग दूसरे का बिगाडते नहीं मगर स्वयं अपने को मारते है । आत्महनन बडी से बडी हिंसा है । जो स्वयं को ही मारते है वे हिंसक ही है ।

कर्म के सिध्दांन्त देखने पडेंगे, कर्म की जवाबदारी स्वीकारनी होगी और सत्कर्म करने पडेंगे । सत्कर्म करने के बाद उन्हे अर्पण करने पडेंगे, इतना ही नही, कतृ‍र्त्व को स्वीकारना पडेगा, कर्म छोडकर नहीं कर्म करके कतृ‍र्त्व को स्वीकारना है । ऐसा जो करता है उसने जीवन मे कर्ममयता विकसीत की है ऐसा कहा जाएगा ।
वल्ल्भाचार्य, रामानुजाचार्य नित्य कर्म करते थे । उन्हे भगवान के पास बैठना होता तो रात को बैठते थे जब सभी सो गये हो । उनके मन में एक ही बात थी कि एक मिनट भी व्यर्थ नहीं जाना चाहिए । सुबह उठने के बाद काम की शुरुआत करते, इतनी कर्ममयता होकर भी वे कर्म-कतृ‍र्त्व को स्वीकारते नहीं थे। यह बहुत बडा विकास है । कर्म तो करने ही पडेंगे, कर्म किये बिना चलेगा नही सभी कर्म से मिलता है, कर्म के सिध्दान्त तथा गति गहन है ।

आज किसी को कदाचित पैसे मिले होंगे या सत्ता मिली होंगी तो यह गत जन्म का परिणाम है । कर्म का परिणाम स्वीकारना पडता है । कोई यदि ऐसा कहे कि ‘हम नही मानते’ तो वह नहीं चलता, तुम नहीं मानोगे तो भी परिणाम स्वीकारना पडेगा । अग्नि में हाथ रखा कि वह जलेगा ही, उसके लिए दलीले व्यर्थ है । कोई ऐसा कहे कि मै गुरुत्वाकर्षण के नियम नहीं मानता तो क्या वृक्ष से फल नीचे न पडकर उपर आकाश में जाएगा? नहीं, नीचे ही आएगा प्र.ति के नियमानुसार चलेगा ही ।

‘हम अमुक नही मानते’ ऐसा कितने ही पढे लिखे लोग लिखते है । ये लोग ऐसा लिखकर सैंकडो लोगों के जीवन बिगाडते है । जिसप्रकार ज्ञान का नशा होता है उसी प्रकार अज्ञान का भी नशा होता है, सद्गुण का भी नशा होता है ।
कर्म के सिध्दांत अटल है उसके फल भी अटल है उसे स्वीकारना पडेगा । कर्म भगवान को अर्पण करना विकास की सीढी है । हम भगवान को दूध धरते हैं जिसे भगवानने ही बनाया है । नौकर दूध लाया, सेठानी ने गरम किया तथा सेठ ने धरा। भगवान तुरन्त पूछते है कि इसमें तेरा कतृ‍र्त्व क्या है? जो मेरा कर्म है उसे ही भगवान को अर्पण कर सकते हैं ।

कबीर कहता है कि: ‘झीनी झीनी झानी बीनी चदरिया’ ।  भगवान ! तुम्हारी दी हुई चादर मैं वापस देता हूँ उसमें मैने एक भी दाग नही पडने दिया, मेरी चादर स्वच्छ है । मन बुध्दि भगवान ने ही दिये है । अत: कर्म भगवान को अर्पण करने हैं । कर्म अर्पण करने में भी कतृ‍र्त्वका अहंकार है । कर्ममयता की अंतीम सीढी पर कर्म‍ करके कतृ‍र्त्व को अस्वीकार करना श्रेष्ठ बात है । जीवन में ऐसी कर्ममयता विकसीत करनी पडेगी । कर्म का परिणाम मन तथा बुध्दि पर होता है । वह जन्मजन्मान्तर तक हमारे साथ आता है । उस कर्म का परिणाम अच्छा होना चाहिए यह सब भगवान हमारी परीक्षा लेते है । स्वर्णकार जिस तरह सोने की परीक्षा ठोेककर करता है उसी प्रकार भगवान हमारी परीक्षा लेते है, हनुमानजी का जीवन इसप्रकार था इसलिए उनके जीवन में कांति थी इसीलिए तुलसीदासजी ने ‘कंचन वरन बिराज सुवेसा’ विशेषन से संबोधीत किया है ।

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