Wednesday, June 29, 2011

दोहा :-  बुद्धिहिन तनु जानिके    सुमिरों पवन-कुमार ।
                         बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं हरहु कलेस विकार ।।
अर्थ : हे पवनकुमार ! मैं आपका स्मरण करता हूं । आप तो जानते ही हैं कि मेरा शरीर और बुद्धि निर्बल है। मुझे शारीरिक बल, सद्बुद्धि एवं ज्ञान दीजिए और मेरे दु:ख व दोषों का नाश कर दीजिए ।
गूढार्थ : तुलसीदासजी ने प्रथम दोहे में “बरनउ रघ्ुवर िबमल जसु” यह िलखकर अपना संकल्प हनुमानजी को बता चुके हैं । हनुमान चालीया के प्रारंभ में गु़रू वन्दना करने के पश्चात् उन्होने हनुमानजी की वन्दना करते हुए राम चरीत्र िलखने का संकल्प किया हो एेसा हो सकता है । अब इस दाेहे में वे हनुमानजी से प्रार्थना कर रहे हैं कि हे पवनसुत मैने इतना बडा संकल्प तो किया है परन्तु मुझे आपकी सहायता चािहए । आपकी सहायता के िबना मेरे िलये यह कार्य करना असंभव है । मैं भगवान राम के िवमल यश का गान करने के िलए राम चरीत्र िलखने का प्रयत्न करूंगा परन्तु आपकी सहायता की अपेक्षा है । मुक्षको आप शक्ती प्रदान कीिजए तथा मुक्षे एेसी िवद्या दीिजए िजससे मेरी बुि़द्ध िस्थर रहे आैर मैं इस कार्य को कर सकूं।आपकी सहायता के िबना यह कार्य मेरे िलए अशक्य है ।
तुलसीदासजी लिखते हैं ‘‘बुद्धिहिन तनु जानिके सुमिरों पवन-कुमार’’ हे पवनकुमार ! मैं बुद्धिहीन हँू आप मुझे बल बुद्धि और विद्या प्रदान कीजिए। भक्ति में नम्रता का होना अति आवश्यक है इसीलिए हमारे जैसे साधकों को समझाने के लिए तुलसीदासजी अपने आपको बुद्धिहिन कह रहे हैं ।  तुलसीदासजी तो भगवान राम के परम भक्त तथा महान ज्ञानी थे परन्तु फिर भी वे कह रहे हैं कि हे पवनसुत मैं बुद्धिहिन हँू आप मुझे बल,बुद्धि और विद्या प्रदान कीजिए । इस दोहे में तुलसीदासजी का विनय दृष्टिगोचर होता है । भगवान ने मनुष्य को अमर्याद इच्छा दी है और शक्ति मर्यादित दी है। नतीजनन शक्ति की अपूर्णता के कारण मदद की जरुरत पडती है अत: वह प्रभु को पुकारता है ।
तुलसीदासजी ने प्रथम दोहे में अपनी इच्छा व्यक्त की है परन्तु उनको लगा  की इतना बडा संकल्प तो  मैने किया है किन्तु शक्ति कम  पडती है । इसलिए वे हनुमानजी से प्रार्थना कर रहे हैं कि हे पवनसुत आप तो बल बुद्धि और विद्या में परिपूर्ण हो आप मुझे शक्ति प्रदान कीजिए क्योंकि मैं दुर्बल हँू, अशक्त हँू  और आपकी के बिना मैं यह कार्य पूर्ण नहीं कर सकता । अत: हे हनुमानजी मुझे ऐसी विद्या दो जिससे मैं अपनी बुद्धि को सुन्दर बना सकँू तथा राम चरित्र का गान कर सकँू । भक्ति करते समय भक्त में विनय का होना अत्यंत आवश्यक हैं इसीलिए तुलसीदासजी लिख रहें हैं  कि मैं बुद्धिहिन हँू , मैं कुछ जानता नहीं, मुझे कुछ मालूम नहीं ।  हे हनुमानजी आप समर्थ हैं, करुणामय हैं  और आप मेरे हैं अत: आप मुझे शक्ति प्रदान कीजिए ।  हमारे मन और बुद्धि मर्यादा में रहने चाहिए तभी वे भगवान को आकर्षित कर सकते हैं ।  भगवान पर दुर्दम्य विश्वास होना चाहिए तथा ‘मुझे मालुम नहीं’ यह वृत्ति निर्माण होनी चाहिए । इन दो बातों का पक्का रस मनमें तैयार हो तभी भक्ति की शुरुवात होती है । यही बात समझाने के लिए तुलसीदासजी ने ‘‘बुद्धिहिन तनु जानिके सुमिरों पवन-कुमार, बल बुद्धि विद्या देहु मोहि’’ ऐसा लिखा है ।

तुलसीदासजी आगे लिखते हैं  ‘‘हरहँु कलेस विकार’’  भक्ति में विकाराें को पहचानना, जानना और समझना आना चाहिए। विकारों का जिसने योग्य प्रबंध किया है उसका अन्त:सौन्दर्य खिलता है।  इसप्रकार विकारों का योग्य प्रबन्ध करने के लिए तुलसीदासजी हनुमानजी से प्रार्थना कर रहे हैं  कि हे पवनकुमार मुझे मेरे विकारों का ज्ञान नहीं है आप मुझे उनका ज्ञान कराइये तथा उनको निकालने में मेरी मदद कीजिए ।  इसप्रकार तुलसीदासजी हनुमानजी से मांग रहे हैं तथा विकारो को दूर करने के लिए प्रार्थना कर रहे हैं ।
भक्त के पास िवनय होना चािहए, िवनय होगा तभी िवद्या िमलती है । मनुष्य के पास िवत्त आया कि भोग के िवचार आते हैं आैर िवद्या आयी कि मनुष्य अपने आपको ही महान समझने लगता है। पैसेवाले के मनमें सातवें पर्दे में लघुता का भाव रहता है परन्तु िवद्वान को तो अहंभाव रहता है। उसको यही लगता है कि मैं बहुत िवद्वान हूं । उसमें जबरदस्त मद होता है । पैसे का नशा उतर जाता है परन्तु िवद्या का नशा नहीं उतरता । “िवद्या िवनयेन शोभते” िवद्या के साथ नम्रता होनी चािहए ।
श्रीमदाद्यशंकराचार्य कहते हैं : “मत्सम पातकी नािस्त” यह उनका िवनय ही है । भगवान श्रीकृष्ण तो ज्ञान के िहमालय थे । उन्होने अर्जून को कुरूक्षेत्र की रणभूिम पर संपूर्ण ज्ञान िदया, परन्तु उन्होने कहा है कि “” ऋषीयोंने जो कहा है वही मैं कहता हूं । िवद्या आनेपर तो िवनय होना ही चािहए तथा यदी हमें िवद्या प्राप्त करनी हो तो भी िवनय होना चािहए । हमें भगवान से िवद्या प्राप्त करने के िलए प्रार्थना करनी चािहए ।
यदि हममें िवनयता होगी तभी िवद्या भगवान से िमलेगी । जो झुकते नहीं उनको िवद्या कैसे िमलेगी? तालाब या नदी में खुब पानी है, उसमें घडा ितरछा करके नहीं डुबाया जाय तो उसमें जल कैसे जायेगा । घडे को जल लेना होगा तो झुकना ही पडेगा अन्यथा कितने ही समय तक जल पर तैरता रहा तब भी उसमें पानी की एक बुंद भी नहीं जायेगी । यही अवस्था साधक की है ।
साधक जब तक िवनयशील नहीं होगा, वह झुकेगा नहीं तब तक उसे भगवान से या गुरू के पास से ज्ञान सरीता का जल कैसे प्राप्त होगा? इसलीए हनुमान चािलसा का पाठ करते समय हमें भी हनुमानजी से िवनम्र होकर प्रार्थना करनी चािहए कि हे प्रभो मैं बुिद्धहीन हूं आप मुझे बल, बुिद्ध आैर िवद्या दीिजए मुझे आपका काम करना है ।
तुलसीदासजी हनुमानजी से कुछ मांग रहे हैं, क्या मांग रहे हैं? तो हे भगवान ! आप मुझे बल, बुिद्ध आैर िवद्या दीिजए । हम भी भगवान से मांगते हैं आैर ऋषी भी भगवान से मांगते हैं परन्तु हमारे मांगने में आैर संतों के मांगने में अंतर है । हम भगवान से एन्द्रीय सुख के िलए मांगते हैं जब कि संत जीवन िवकास के िलए मांगते हैं ।
तुलसीदासजी भगवान से िवद्या मांगते हैं । िवद्या याने ज्ञान याने सरस्वती, िवद्या याने क्या? जो मुझे मालूम नहीं उसे जानना यह ज्ञान है । परन्तु यह ज्ञान सरस्वती कैसे होती है। सरस्वती की पूज्यता किसमे है? तो ज्ञान प्राप्त करने के हेतु में । ज्ञान प्राप्त का हेतु यदी िदव्य है तो ज्ञान सरस्वती रूप बनता है । भगवान मुझे दैवी बनना है, सात्त्वीक बनना है, इसलीए ज्ञान चािहए । एेसा दैवी संकल्प होगा तो वह िवद्या सरस्वती रूप होती है।हमारा िशक्षण का हेतु यदी क्षुद्र होगा तो? हम लडके को िशक्षा के िलए भेजते हैं परन्तु पैसा कमाने के िलये, यह पशु जीवन है। जीवन में िवशीष्ट दृिष्टकोण होना चािहए ।  
आज स्कूल कॉलेज को सरस्वती का मंिदर कहते हैं आैर वहां िशक्षक ही िसगारेट आैर शराब पीते हुए प्रवेश करता है तो िफर वहां पािवत्र्य कैसे रहेगा? इसिलीए संकल्प उच्च होना चािहए । जीवन में संकल्प महान होना चािहए । िजतना संकल्प उच्च उतना ही जीवन उच्च होता है । भगवान मैं वकील, व्यापारी, इंजीिनयर, डॉक्टर बनूंगा आैर मुझे जो प्रतीष्ठा प्राप्त होगी वह मैं आपके सेवा कार्य में उपयोग करूंगा यह सतत ध्यान रहना चािहए । परन्तु आज हर क्षेत्र में व्यापारी दृिष्टकोण आ गया है । आज मुक्षे िवद्या क्यों चािहए? “िवदुषां जीवनं मूर्खा:” मूर्खों को लूटने के िलए । मुक्षे िवद्या क्यों चािहए? रोटी कमाने के िलए । संकल्प बडा होना चािहए ।   
िवद्या से रोटी िमलेगी परन्तु मेरी िवद्या केवल रोटी कमाने के िलए नहीं है । भगवान को समझने के िलए है । उसका काम करने के िलए है उसपर प्रेम बढाने के िलए हमें िवद्या चािहए । मेरे जीवन में शांती आये स्वस्थता आये, उदात्तता आये इसिलीए मुझे िवद्या चािहए।
हम भगवान से प्रार्थना करते हैं कि भगवान मुझे बुिद्ध चािहए । अध्ययन के िलए बुिद्ध चािहए । जब हम भगवान से मांगते हैं तो भगवान हमें दे देते हैं वह तो दाता है, दयालू है परन्तु जब हम मांगते हैं तो वे हमारे भावों को समझ लेते हैं आैर उन भावों की नोंद कर लेते हैं । जब हम भगवान से मांगते हैं तो उसके बारे में प्रश्न पूछा जाता है, उसका जबाब िमलता है आैर भगवान दर्ज कर देते हैं । उदाहरण स्वरूप “मुझे पैसा चािहए” क्यों चािहए? मुझे बंगला बनाना है इसलीए मुझे पैसा चािहए ।
मुझे दुकान चलानी है । दुकान क्यों चलानी है? पैसे कमाने के िलए । मुझे महान बनना है क्यों? क्योंकि सभी मुझे नमस्कार करें इसलीए, मुझे महान बनना है । मुझे शादी करनी है क्यों? एंेिन्द्रय सुख के िलए । यह संकल्प हीन नहीं है परन्तु ये संकल्प उच्च होने चािहए । मुझे शादी करनी है क्यों करनी है? भगवान मुझे तुम्हारे पास आना है इसलीए “धन्यो गृहस्थाश्रम:” तो होना चािहए । 
भगवान समर्थ है, अत: मांगना हो तो केवल भगवान के पास ही मांगेंगे । संकल्प को श्रेष्ठ बनाना चािहए साथ ही साथ कृितपूर्ण होना चािहए । श्रेष्ठ संकल्प प्रथम सीढी है? कृितपूर्ण संकल्प दूसरी सीढी है । उसके बाद कृित का जो फल िमलता है, उसे भगवान को अर्पण करो तभी तुम भगवान के हुये एेसा कहा जा सकता है ।
गीता का कहना है कि प्रयत्न के िबना किसी भी वस्तु की इच्छा रखना व्यर्थ है । प्रयत्न के िबना कुछ नहीं िमलता है । महाराष्टृÚMM के संत तुकाराम महाराज ने िलखा है, “Nahi deva paasi mokshache Gathode aanuni nirale dyave haathi” भगवान के पास भी मोक्ष की पाेटली नहीं है कि तुम्हारे हाथ में दे देवे । मोक्ष बौिद्धक िवकास (Intellectual development) है । साधना में उतावली नहीं चलती मुझे प्रयत्न के िबना कुछ नहीं चािहए । यह वृित्त प्रथम होनी चािहए ।
िबना प्रयत्न के िवत्त, िवद्या, सत्ता, कीिर्त, भक्ती या मुक्ती कुछ भी नहीं चािहए एेसी वृित्त िनर्माण होनी चािहए। िबना प्रयत्न के कुछ प्राप्त करें यह भारतीय संस्कृित नहीं है, क्योंकि जीवनमें अमुक एक वस्तु प्राप्त करने के िलए मनुष्य का योग्य िवकास होना आवश्यक है इसलीए साधना को बहुत बडा महत्व है । इतना ही नहीं साधना के कारण िसद्धी का मूल्य बढता है । िबना प्रयत्न के प्रत्यक्ष भगवान भी प्राप्त हुए तो उसका भी स्वीकार करने की भारतीयों की तैयारी नहीं है । सत्कर्म करते करते मन, बुिद्ध, िचत्त शुद्ध करने को, जीवन उन्नत करने को ही साधना कहते हैं । मोक्ष या भगवद दर्शन जैसी बातें सहजता से प्राप्त होने लगी तो साधना को कुछ भी अर्थ ही नहीं रहेगा ।
तुलसीदासजी भगवान से बल, बुिद्ध आैर िवद्या मांगते हैं । िवद्या की तृष्णा होनी चािहए, जो आदमी को भगवान का बनाता है वह िवद्या है। बुिद्ध बदलने को सरस्वती कहते हैं । नवरात्री के िदनों में सरस्वती पूजन के िदन होते हैं । सरस्वती किसे कहा जाता है? हम उपन्यास को सरस्वती नहीं कहते । िजन िवचारों से बुिद्ध भव्य, िदव्य बनती है, मन मजबूत बनता है उसे हम सरस्वती कहते हैं । िजसने सरस्वती की उपासना की है उसे हम सारस्वत कहते हैं । सारस्वत एक वृित्त है ।
मां के दूध से िजसप्रकार शरीर पुष्ट होता है, उसी प्रकार मन आैर बुिद्ध को पुष्ट करनेवाली सरस्वती मां है । हम सरस्वती को माता मानते हैं । माता का अर्थ क्या होता है? जो पवीत्र, वात्सल्य आैर कारूण्य से भरपूर है उसे हम मां कहते हैं । हम भगवान को मां कहते हैं क्योंकि उनके पास ये सारी चीजें हैं । सरस्वती का अर्थ है ब्रम्हज्ञान । इस मां का दूध पीने से हमारा दृिष्टकोण बदल जायेगा । हमने मां को पवीत्र माना है । पूराने जमाने में लोग पुस्तक को नमस्कार करते थे आैर उसके बाद खोलते थे। आज लोगों को उसमें मूर्खता लगती है कि पुस्तक को क्यों नमस्कार करते हो? आज जो चीत्र िदखाई देता है वह देखने पर दु:ख होता है। परीक्षा के िदनों में आज खूब पुस्तकें मंगाई जाती है, पढने के िलए नहीं अपीतु उसके पन्ने फाडकर नक्कल मार कर पास होने के िलए । इसप्रकार हमें िवद्या कैसे प्राप्त होगी? मनुष्य को “मैं कौन हूं?” उसकी स्मृित होनी चािहए । मैं जगत में क्यों आया हूं? मुझे किसने भेजा है? इसकी िवस्मृित हो गयी है । इसलीए तुलसीदासजी प्रथम भगवान से बल, बुिद्ध आैर िवद्या मांगते हैं ।
हनुमान चालीसा का पाठ करते समय हम भी यह भाव रखें कि हे हनुमानजी! मुझे भी आपके जैसा भक्त बनना है । भगवान मुझे बल दो तथा एेसी िवद्या दो िजससे मेरी बुिद्ध िस्थर रहे । िजस िवद्या से मन के िवकारों को जाना जाता है एेसी िवद्या हमें चािहए । मेरे साथ मन है परन्तु मन के िवकारों की मुझे जानकारी नहीं है। इस कारण मन के िवकार बेकाबू हो जाते है, मुझे एेसी िवद्या दो िजससे मुझे मेरे िवकारों की जानकारी िमलें । हमें एेसी िवद्या चािहए िजसमें मानव िवकास की दृिष्ट िमले । उसी को सच्ची िवद्या कहते है ।  आज िजस प्रकार की िवद्या दी जा रही है वह हमारी भारतीय िवचारधारा के अनुसार िवद्या में न आकर कला में आती है । आज की िशक्षा केवल उदरपूिर्त िनर्वाह के िलए “Education for bread” है । केवल जीिवका के िलए जो िशक्षा होती है वह कला है । जीवन िवकास के िलए जो िशक्षा होती है उसी को िवद्या कहा जाता है। हमें एेसी िवद्या प्राप्त करने के िलए भगवान से प्रार्थना करनी चािहए ।
तुलसीदासजी आगे िलखते हैं “Harahu kalesh vikaar” हे पवनकुमार ! मेरे दु:खों का नाश कर दीिजए । इसका अभीप्राय यह है कि भगवान से जब ज्ञान प्राप्त हो जायेगा तो किसी भी प्रकार का दु:ख हमें दु:ख नहीं लगेगा । दु:ख सहन करने की ताकत मनुष्य में िनर्माण हो जायेगी । दु:ख आयेंगे आैर रहेंगे भी । परन्तु दु:ख की आेर देखने की दृिष्ट बदल जायेगी तथा भगवान के भेजे हुये सुख आैर दु:ख दोनों को वह प्रसाद के रूप में स्वीकार कर लेगा । 
मनुष्य को जनम का दु:ख है, जीवन का दु:ख है, मृत्यु का दुख है, भवसागर का दु:ख है । िजस प्रकार वायु शीतलता देती है, उसी प्रकार भय से पीिडत मनुष्य को महापुरूष शांती देते हैं । कितने ही लोगों को भवसागर का दु:ख लगता है । भवसागर में से िबना भय के उस पार जाना हो तो िहम्मत के साथ तैरने लगो । दु:ख की थोडीसी लहरें आयेगी तभी तैरने में मजा आता है । सन्त कहते हैं, किसलीए डरते हो? तैरने में मजा है इसीिलए तो भगवान ने सागर का िनर्माण किया है । तैराक को िबना मौजों के शान्त सागर में तैरने में मजा नहीं आता । मौजें उपर नीचे आती हैं उनमें ही तैरने का मजा आता है  इसप्रकार संसार में से भवसागर का डर िनकालना चािहए । भगवान पर पूर्ण िवश्वास होना चािहए ।
िवद्या में मानवी िवकारों को पहचानने की तथा मन के िवकास की जानकारी कराने की िहम्मत होनी चािहए । िवकार कैसा है? क्यों है? उसका उपयोग कैसा करना है, िवकार को रोकना हो तो कैसे रोकना, िवकार का रूप क्या है? इन सब बातों को जो समझाती है उसे िवद्या कहते हैं। इसलीए तुलसीदासजी भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं कि मुझे एेसी िवद्या दो िजससे मैं अपने िवकारों को जान सकूं तथा उन्हें िनकालने का प्रयत्न कर सकूं ।
िवकार हमको सताते हैं । समझो आपमें द्वेष िनर्माण हुआ तो क्या करेंगे? द्वेष िवकार है आैर िवकार हमको सताते हैं तो क्या करेंगे? उनको अपने ही पास बैठने दो  दूसरे का द्वेष करने की अपेक्षा अपना ही द्वेष करने लगो । प्रल्हाद को अन्दर से इतनी चीढ हुई थी िक उसने कहा, मुझे मुिक्त नहीं चािहए, संपूर्ण जगत को मैं वैकुण्ठ ले जाउंगा आैर पंिक्तमें में अंितम स्थान में रहुंगा । उसमें आत्मद्वेष है । अहंकार भी वस्तु का न रख कर उसका “God” का हूं एेसा आत्माहंकार रखो । अहंकार को िनकालो मत उसे बदल डालो । अहंकार आैर द्वेष की व्यवस्था करो । इसप्रकार िवकारों को िनकालने के िलए तुलसीदासजी हनुमानजी से प्रार्थना करते हैं कि हे हनुमानजी! हमको बुिद्ध प्रदान कीिजए िजससे हम िवकारों को पहचान कर उनको दूर कर सकें ।  




No comments:

Post a Comment