Thursday, June 30, 2011

सूक्ष्म रुप धरि सियहिं देखावा । बिकट रुप धरि लंक जरावा ।। (9)
अर्थ :  आपने अपना बहुत छोटा रुप धारण करके सीता मां को दिखाया तथा भयंकर रुप धारण करके लंका को जलाया ।
गुढार्थ : तुलसीदासजी लिखते है हनुमानजी ने सीता माता को अपना छोटा रुप दिखाया इसका तात्पर्य यह है कि जीव कितना ही बडा क्यों न हो परन्तु माता (भगवान) के सामने उसे छोटा ही होना चाहिए । तथा उन्होने आगे लिखा है ‘बिकट रुप धरि लंक जरावा‘’ अर्थात जीव भले ही सूक्ष्म हो परंतु उसमें अपार शक्ति होती है तथा उस शक्ति का उपयोग भगवान का साधन बनकर बडे से बडा काम कर सकता है । यहाँ तुलसीदासजी का यह संकेत है कि जीव को सुक्ष्म बनना चाहिए। अहम (Ego) को सूक्ष्म करना है । अहम ( Ego) कम करते जाओ । इसका अर्थ है कि सूक्ष्म बनो । अहम शूण्य ( Egoless) बनकर कैसे रहना यह प्रश्न है । भगवान का साधन (Instrument) बनकर काम करो तो अहम-शुण्य बन जायेगा । यह उसका उपाय है । फिर अहम नही सतायेगा । जो जीवन में छोटा बनता है, वही बडा बन सकता है । जिस प्रकार हनुमानजी भगवान के साधन बनकर लंका मे सीता की खोज करने गये तथा अकेले ही अपनी शक्ति से समस्त लंकापुरी को जला दिया। लंका दहन के पश्चात् वहाँ से वापस आने पर श्रीरामने प्रशंसा करते हुए उनसे पूछा-
कहु कपि रावन पालित लंका। के बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ।। (मानस 5-32-2-1/2)

रामने पुछा हे हनुमान! बताओ तो रावण के द्वारा सुरक्षित लंका और उसके बडे बांके किले तुमने किस तरह जलाया । भला अपने स्वामी द्वारा की हुई प्रशंसा निराभिमान सेवक हनुमानजी को कैसे अच्छी लगती? अपनी प्रशंसा का श्रवण ही तो अभिमान उत्पन्न करा देता है । अत: हनुमानजी ने उत्तर दिया-
सो सब तव प्रताप रघुराई । नाथ न कछु मोरि प्रभुताई ।। (मानस 5-32-5)

हनुमानजी नम्र होकर कहते  है प्रभो इसमें मेरी कुछ भी बढाई नही है । यह सब आपका ही प्रताप है । यदि हनुमानजी की जगह हमारे जैसा कोई स्वार्थी जीव होता तो वह स्वयं भी उसीके साथ अपनी प्रशंसा के गीत गाने लगता।

हम जब कोई अच्छा काम करते हैं और यदि हमारी कोई बढाई करदे तो तुरंत हम कहना शुरु कर देते है हाँ मैने ऐसा किया, वैसा किया आदि, किन्तु हनुमानजी जानते ही थे कि ‘इन्द्रे्रपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैगुणै:’। स्वयं (प्रशंसा सुननेसे या) अपने ही मुख से अपनी प्रशंसा करने से स्वर्गाधिपति इन्द्र भी लघुता को प्राप्त हो जाते है । अत: वे बोले-
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं  जा पर तुम्ह अनुकूल ।
तब प्रभावँ बडवानलहि जारि सकइ खलु तूल ।। (मानस 5-33)

हे प्रभो! जिस पर आप प्रसन्न हो, उसके लिए कुछ भी कठीन नही है । आपके प्रभाव से रुई (जो स्वयं जल्दी जलनेवाली वस्तु है) बडवानल को निश्चय ही जला सकती है । (अर्थात असम्भव भी सम्भव हो सकता है ।)

सर्व प्रथम भक्त को सूक्ष्म बनना चाहिये । कितने ही भक्त कहते है, हम अब सूक्ष्म में पहूँच गये। लोग उनका उपहास करते है । इसका कारण उनको इसका अर्थ मालूम नही है । उनको लगता है, ये दिखने मे तो तगडे लगते है, और सूक्ष्म मे कैसे गये? अस्सी किलो तो इनका वजन है, तो फिर सूक्ष्म मे किस प्रकार गये? सूक्ष्म में जाना है, और उसके लिये सूक्ष्म बनना आवश्यक है । व्यक्ति के जीवन में दो शोभास्पद बातें है । एक गुण, दूसरी क्रिया-कर्म ! ये दोनाें उसकी शोभा है । इस स्थितिमे पहूँचे हुए मनुष्य के जीवन में अनेक गुण है । परन्तु उसकी भूमिका और समझ ऐसे है कि, ये गुण मैने नहीं कमाये है, ये गुण मुझमें आये हैं । गुण कमाना भिन्न बात है और गुण आना भिन्न बात है। भगवान मुठ्ठि खोल खोलकर किसी को नहीं देते । भगवान यदि इस प्रकार देते होंगे तो उनके दरबार मे यह पक्षपात है । ऐसा होना संभव ही नही है । गुण कमाने पडते है ।

गुण उठाने के लिये साधना करनी पडती है । साधना किये बिना गुण नही आते । वास्तवमें, साधक गुण कमाकर ही भक्त की अतियुच्च स्थिति प्राप्त करता है । उसके विविध गुण लोगों को आकृष्ट करते हैं वह कहता है, ‘ मैं ये गुण नहीं लाया हूँ वे आये हुए हैं। उसका घमण्ड समाप्त हो गया है। वास्तवमें गुण उसने कमाये है, परन्तु वह कहता है, गुण आये है, मैं नही लाया हूँ। फिर से कहता हूँ कि गुण साधना से ही आते है, फिर भी लाये हुए गुण नहीं है, आये हुए गुण है।

इस भक्त की क्रियाएं लोगों को विशिष्ट लगती है । अच्छि लगती है, महान लगती है । फिर भी वह कहता है कि क्रिया मेरी नही है, क्रिया तो भगवान ही करते है । यह भक्त झूठ नही बोलता है । वह उसकी असली भावना है । क्योंकि व्यवहार में लोग वैसा बोलते ही है । किसीसे पूछो, ‘क्यों, व्यापार कैसा चल रहा है? तो वह कहता है, अजी! भगवान अच्छि तरह से चला रहे हैं, उनकी .पासे बहुत अच्छा चल रहा है । परन्तु उसे मनमें शत प्रतिशत विश्वास है कि इसमें मेरा अपना कतृ‍र्त्व है । परन्तु वैसा बोलना अच्छा नहीं लगता, शोभा भी नहीं देता, और डर लगता है, कि ‘सब मै करता हूँ ऐसा कहूँ और कदाचित् कल सब चला गया तो? व्यवहार में मनुष्य वैसा बोलता है यह बात अलग है और भक्त सच्ची भावना से बोलता है कि सभी क्रियायें भगवान की है वह बात अलग है।

लोकेषणारहित जीवन होना चाहिये । लोकेषणारहित और लोक-प्रेम से भरे हुए जीवन को सूक्ष्म जीवन कहते है । हनुमानजी का जीवन ऐसा ही है । यह तुलसीदासजी इस चौपाई द्वारा हमें समझाते है ।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के बारहवे अध्याय में भक्तो के गुणों का वर्णन करते हुए उसमे ‘निर्मम:’ के गुण का भी वर्णन किया है ।
अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् मैत्र: करुण एवच ।
निर्ममो निंहकार सम दु:ख सुख क्षमी ।।  (गीता12-13)
भक्त कहता है कि प्रभु! मुझमें जो गुण दिखाई देते है, वह आपकी .पा का फल है, मेरे कतृ‍र्त्व का नहीं । भगवान कहते है- तुने साधना तो की है न? भक्त कहता है भगवान! साधना तो की है, पर गुणों का बाजार कहाँ है? इसकी मुझे जानकारी नही थी । गुणों के रुप रंग का भी मुझे पता नहीं । उदारता क्या है, मुझे इसका भी ज्ञान नही । तब मै गुण कहाँ से लाया? शायद मेरी दृढता, स्थिरता, बौद्धिक एवं मानसिक तत्परता को देखने के लिये ही आपने मुझसे साधना का नाटक करवाया हो और मेरी थोडी बहुत दृढता देखकर ही आपने मुझे गुण प्रदान किये हैं । इसलिए वे आपके है, मेरे नही- ‘न मम’।

सृष्टि के सर्जनहार के साथ जुडना आना चाहिये । हमको जो वित्त, यश कीर्ति आदि मिलती है, उसको यदि भगवान के साथ जोड देंगे तो उनमें सुगन्ध आएगी और हमारा जीवन भी सुगन्धित हो जाएगा।

उपनिषद में एक सुन्दर कथा है । देव और असुरों की लडाई में विजय प्राप्त करने के पश्चात विजयोत्सव मनाने के लिए देवराज इन्द्र की अध्यक्षता में देवताओं की एक सभा हुई । सभा मे विजय के लिए सब एक दूसरे की प्रशंसा करने लगे ‘अस्माकमेवायं विजय:।’ हमने विजय प्राप्त की । चित्शक्ति को लगा कि देवताओंने क्या मेरे बिना ही विजय प्राप्त की? क्या विजय का श्रेय केवल देवताओं को ही है? ऐसा विचार करके अतीन्द्रिय शक्ति विचित्र रुप धारणकर वहाँ उपस्थित हुई । उसे देखकर सबका ध्यान उधर आकर्षित हुआ । इन्द्र ने अग्नि को आदेश दिया कि वह जाकर देखें कि वह अद्भूत व्यक्ति कौन है?

अग्नि जब उस विचित्र व्यक्ति की ओर बढा तो उसने अग्नि की संपूर्ण शक्ति खींच ली । अग्नि बिलकुल निर्बल हो गया, उसमे बोलने की शक्ति भी नही रही । चित्शक्ति ने उसमें थोडी शक्ति भरकर पूछा-‘तुम कौन हो?’ उत्तर मिला’-‘मै अग्नि हूँ।’

चित्शक्ति ने पूछा - ‘तुममें क्या शक्ति है? तुम क्या करते हो?’ अग्नि को लगा यह कोई नया मालूम पडता है, उसको मेरी शक्ति का पता नहीं है । अग्नि ने कहा ‘अग्निर्वा अहमस्मि जातवेदो वा अहमस्मि’ मैं अग्नि हूँ और जातवेदस (पूर्ण ज्ञानी) मेरा खिताब है ।

चित्शक्ति ने पूछा-‘पर तुम्हारी शक्ति क्या है?’ अग्नि ने कहा तुमको मेरी शक्ति का पता ही नही है? मुझमें इतनी शक्ति है कि मैं एक मिनट में सारी दुनिया को जला सकता हूँ । अतीन्द्रिय शक्ति ने उसका तेज खींचकर कहा-‘सारी दुनिया की बात छोडो लो’ इस तिनके को जलाकर दिखाओ । ‘पूरी शक्ति लगाने पर भी वह घास के एक तिनके को नहीं जला सका । इसलिए लज्जा से सिर झुकाकर वापस लौटा और चुपचाप अपनी जगह पर जा बैठा।

अग्नि कुछ नही बोला, इसलिए इन्द्रदेव ने वायुदेव को भेजा। उसे भी अतीन्द्रिय शक्ति ने पूछा-‘तुम कौन हो तुम्हारा खिताब क्या है?  

वायु ने कहा- ‘वायुर्वा अहमस्मि मातरिश्वा वा अहमस्मि’ मै वायु हूँ और मातरिश्वा मेरा खिताब है । चित्शक्तिने पूछा-तो तुम्हारी शक्ति क्या है? वायु ने कहा-तुम्हे मेरी शक्ति का पता नही? मुझमें इतनी शक्ति है कि मैं एक क्षण में सम्पूर्ण पृथ्वी को उडा सकता हूँ

चित््शक्तिने उसकी शक्ति को खींच कर उसके सामने भी वही तिनका रखा और कहा पृथ्वी की बात रहने दो, इस घांस के तिनके को उडाकर दिखाओ।

वायुने बहुत फूॅँ-फाँ की, पर तिनका हिला भी नही वह भी शर्म से नीचा सिर किए झेंपते हुए अपनी जगह पर वापस जा बैठा इसी प्रकार अन्य देवता भी जा-जा कर वापस लौटे। इन्द्र को लगा कि वह कौन है?

चित्शक्ति ने विचार किया कि अब स्वयं सरदार ही आता है, इसलिए अपमान करना उचित नहीं है । इसलिए अदृश्य होकर उसने कहा-तुम लोग विजय गर्व से उन्मत होकर अपनी प्रशंसा करते हो । तुम इस बात को भूल गये हो कि तुम्हारी विजय के पीछे अतीन्द्रिय शक्ति का हाथ था, इस ओर तुम्हारा ध्यान ही नहीं है । इसलिए इस ओर तुम्हारा ध्यान आकर्षित किया है ।

मुल बात यह है कि यश या सफलता मेरी है, ऐसा कहने में सुगन्ध नहीं है । भगवान! तेरी सहायता से हुआ‘ यह प्रथम ईमानदारी है‘ भगवान तेरी सहायता से मैने किया’ यह दूसरी इमानदारी है और ‘भगवान तुने ही किया’  यह तिसरी इमानदारी है । मानव को इस स्थिति तक पहुचँना चाहिये यही बात तुलसीदासजी इस चौपाई द्वारा समझाने का प्रयास कर रहे है । मनुष्य के पास इतनी कृतज्ञता होनी चाहिये कि वह अपनी सफलता के लिये भगवान की सहायता को स्वीकार कर सके । यही ‘न मम‘ है।

वित्त, स्त्री, संतान, सद्गुण, यश, सद्विचार आदि सभी वस्तुओं के लिए ‘न मम’ बोलोंगे पर शरीर के लिए? मनुष्य इतना तो स्पष्ट समझता है कि मैं घोडे के उपर बैठता हूँ पर घोडा नहीं हूँ, घरमें रहता हूँ, पर घर नही हूँ । इसी प्रकार यह समझ भी दृढ होनी चाहिये कि मैं शरीर का प्रयोग करता हूँ, परन्तु मैं शरीर नहीं हूँ । ऐसी समझ होने पर ही ‘न मम’ पूर्ण होता है। मुझमें गुण है या नहीं, मुझे तो इसका पता नहीं है, पर लोगों को गुण दिखाई देते हैं । और वे मुझे सद्गुणी कहते है। यदि मुझसे कुछ गुण चिपके हो तो यह मेरी कमाई नहीं, भगवान तुम्हारी .पा का फल है । इस प्रकार समझ पैदा कर मनुष्य को हनुमानजी की तरह सूक्ष्म बनना चाहिये । तथा भगवान का साधन बनकर प्रभु कार्य करना चाहिये ।

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