Monday, July 4, 2011

दोहा : पवनतनय  संकट  हरन,    मंगल मूर्ति रुप ।
           राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप ।।
अर्थ : हे संकटमोचन पवनकुमार !  आप संकट दूर करने वाले तथा, आप आनन्द मंगल के स्वरुप हैं ।  हे देवराज आप श्रीराम लक्ष्मण और सीताजी सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए ।
गूढार्थ : तुलसीदासजी हनुमानजी से प्रार्थना कर रहे हैं कि हे हनुमानजी ! आप राम लक्ष्मण और सीता सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए ।  इस बात के पीछे गहरा अर्थ छुपा हुआ है ।  यहाँ पर भक्त श्रेष्ठ के रुप में हनुमानजी है तथा राम, सीता और लक्ष्मण, ज्ञान भक्ति और कर्म के रुपमें हैं ।  भक्त कैसा होना चाहिए? वह ज्ञान भक्ति और कर्म युक्त होना चाहिए । उसके जीवन में ज्ञान भक्ति और कर्म का समन्वय होना चाहिए ।  हनुमानजी का जीवन-ज्ञान भक्ति और कर्म युक्त है, इन तीनोे बातोंका समन्वय उनके जीवनमेे दिखाई देता है ।  ऐसे भक्त को हृदय मेे धारण करने से उनके सामीप्य के ज्ञान से जीवन मेे सतत उनसे प्रेरणा प्राप्त होगी ।  यह बात समझाने के लिए तुलसीदासजी लिखते हैं कि आप राम लक्ष्मण और सीता सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए, ‘राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप।’

दूसरी बात, भगवान मेरे भीतर बैठे हैे यह बात वे समझाना चाहते हैे ।  भगवान उपर आकाश मेे नहीे है, वे मेरे भीतर बैठे हुए है, इस समझ से जीवन को नया मोड मिलेगा ।  हमारे शास्त्रकारों ने भगवान को भीतर बिठा दिया है और उनका मानने को कहा है ।  उनका मानने से जीवन को नया मोड मिलेगा ।  जीवन आत्मविश्वासपूर्ण बनेगा ।

योगकला से हृदयपुष्प खिलना चाहिए । सर्व प्रथम, भगवान अन्दर है यह जानना चाहिए । वह ज्ञान प्राप्त करने की भी सीढी है ।  किसीको मानकर, समझकर और अनुभव से उसके पास जाना चाहिए ।  महानुभावों का मानना चाहिए, जिन्होने अपने भीतर स्थित भगवान को देखा है वे महानुभाव हैं ।
नयनोंकी की करी कोठरी  पुतली पलंग बिछाय ।
पलकों की चिक डारि के  पिय को लिया रिझाय ।।
ऐसे अनुभव लेनेवाले महानुभाव का मानना चाहिए ।  ‘स्‍र्वस्व चाहं हृदि संन्निविष्ट:’ ऐसा भगवान ने गीता में कहा है ।  वे कहते हैं मैं तेरे हृदय में आकर बैठा हूँ इसलिए तेरा जीवन चलता है ।

महानुभावों का मानना पडेगा यह प्रथम बात है ।  भगवान भीतर है यह मानना पडेगा, भगवान को समझना होगा ।  यह दूसरी सीढी है ।  उसके बाद उसके तत्व के समीप जैसे जैसे आयेंगे वैसे वैसे उसकी सुगंध आयेेगी ।  उसके लिए उसको जीवन में लाकर समझना चाहिए और फिर उसका अनुभव लेना चाहिए ।  इसीलिए तुलसीदासजी लिखते हैं, ‘राम लखन सीता सहित हृदय बसहुं सुर भूप।’

तुलसीदासजी इस अंतिम दोहे की शुरुआत ‘पवननमय संकट हरण’ से कर रहे हैं उसके पीछे भाव यह है कि हम जब भक्ति मार्गपर आगे बढने लगते हैं तो भगवान हमारी परीक्षा लेते है । उस समय सावधानी की आवश्यकता है इसलिए हे पवनकुमार ऐसी संकट की घडी में आप हमारी सहायता कीजिए ।  भक्त जैसे जैसे विकास करते जाता है भगवान बीचमेे हमारी परीक्षा लेेते है, उसके लिए सावधानी चाहिए ।  थोडा विकास होने लगा कि मानव को नैसर्गिक सुख-वैभव मिलने लगता है, पैसे मिलने लगते हैे, कीर्ति मिलने लगती है ।  अत: भक्त की उपर की पकड कम होने लगती है, उसके लिए सावधानी चाहिए ।

भगवान करुणामय है, समर्थ हैं और मेरे हैं ऐसा विश्वास निर्माण होना चाहिए ।  भक्त कैसा होना चाहिए? भक्त के जीवन में तीन बातें आनी चाहिए ।  ‘मुझे मालूम नहीं है’ यह भक्ति में पहली बात है और ‘मैं नहीं करता’ यह दूसरी बात है तथा ‘मेरा कुछ नहीं’ यह तीसरी बात है ।  ये तीनों बातें जीवन में खडी केसे करनी है? यह बडा प्रश्न है ।  परन्तु ये तीनों बाते खडी करनी है ।

पहली बात ‘मुझे मालूम नहीं है’ यह बात परिपक्व हो तो भगवान के पास मांग ही नहीं होती ।  आज एकाध बात से हमें सुख मिलता हो तो कल उस बात से दु:ख भी मिलेगा ।  हम मनौती करते हैं, उससे भगवान प्रसन्न होते हैं । हम भगवान से पैसे मांगते है और भगवान पैसे देते हैं । उसमे हमें सुख लगता है, परन्तु कल दु:ख भी लगेगा ।  तब आदमी चिढकर कहता है; ‘देखो इन पैसों से आज लडके बिगड गये हैं इससे तो भगवान पैसे न देते तो अच्छा होता ।’ इसका अर्थ कल सुख बदल जाएगा । भगवान ने जब पैसे भेजे तब उसे सुख लगता था ।   उन्ही पैसों के कारण लडकों का प्यार गुमाने के बाद वही सुख उसे दु:ख लगता है ।  यह शक्य है ।  मेरा सुख किसमे है? यह मुझे मालूम नहीं है ।  यहीं से भक्ति शुरु होती है ।  अर्थात् श्ुरुआत में मनुष्य भगवान के पास मांगने के लिए जाता है ।

‘मुझे मालूम नही’ यह वृत्ति निर्माण करने के लिए किसी के उपर दुर्दम्य ​ विश्वास बैठना चाहिए ।  भगवान पर दुर्दम्य विश्वास हो तभी ऐसी वृत्ति तैयार होती है ।  भगवान के साथ आत्मीयता और दुर्दम्य विश्वास इन दोनो बातों का पक्का रस मनमें तैयार हो तभी यह बात शक्य है ।  जो भगवान के उपर विश्वास रखनेवाले हैं, उनके विशाल हृदय की कल्पना होनी चाहिए । इतना ही नहीं उनके हृदय तक पहुँचने की वृत्ति तैयार होनी चाहिए ।  जगत में अदृश्य शक्ति (Unseen power) पर विश्वास रखने वाला भक्त मिलना चाहिए ।  शायद तभी उसके सानिध्यमें रहकर भगवान पर हमारा थोडा बहुत विश्वास बैठे इसीके लिए हमारे यहाँ सत्संग की महिमा गायी गयी है ।  भगवान के सामीप्य की अनुभूति आने के लिए ही तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘राम लखन सीता सहित हृदय बसहुं सुर भूप।’

भक्त कहता है मेरे सुख किसमें है यह मैं नहीं जानता हूँ, आपको ही वह मालूम है, आप जो करेंगे मैं उसका स्वीकार करुँगा ।  ऐसा कहकर भक्त अपनी इच्छा ही भगवान को सौंप देता है । उसीको ‘यदृच्छालाभसंतुष्टो............. कहते है । यह भक्त की अंतिम अवस्था है । इच्छा भगवान को सौंप दो ।

जैसे ‘मुझे मालूम नहीं’ यह वृत्ति जीवन मे आनी चाहिए । उसी तरह ‘मै नही करता हूँ’ यह वृत्ति भी आनी चाहिए ।  ‘मै करता हूँ ।  इसमे से ‘मै’ निकालना है, परन्तु ‘मैं’ शीघ्र नहीं निकलता है ।  इसलिए हमारे ऋषिमुनियों ने जो मार्ग दिखलाया है, स्वाध्याय परिवार ने उसका स्वीकार किया है ।   कौनसा मार्ग ?  वह मार्ग है ‘यज्ञ’ यज्ञमें ‘मै करता हूँ’ यह भावना नहीं है । ‘हम करते है’ यह भावना है ।  ‘मै’ के स्थान पर ‘हम’ शब्द आ गया ।  ‘हम’ शब्द बहुत अच्छा है, उसमें ‘मै’ भी रहता है और ‘तु’ भी रहता है ।  ‘मै’ के स्थान पर ‘हम’ लाओ, उसमें ‘मै’ रहता है और तकलीफ नहीं होती ।

शुरुआत में ‘मैं करता हूँ’ यह हमारी भूमिका है, मैं काम करता हूँ, गृहस्थी चलाता हूँ मैं पैसा कमाता हूँ ऐसी सभी की भूमिका रहती है, उसके बाद मैं करता हूँ मे से मैं मेरा काम करता हूँ परन्तु मेरे सामथ्‍र्य से करता हूँ इस सीढी पर आदमी आता है ।  इसमें मेरा और मै कायम रहते हैं ।  बाद में भगवान के सामथ्‍र्य से करता हूं यह  भूमिका आती है ।  माध्वाचार्य इत्यादि आचार्यों का ‘तेन तत्वमसि’ का यही अर्थ है ।  मैं मेरे लिए करता हूँ परन्तु भगवान के सामथ्‍र्य से करता हूँ उसके बाद भगवान, मैं तुम्हे अच्छा लगनेवाला काम करता हूँ यह तीसरी सीढी है । ये सब ‘मै’ निकालने की सीढीयाँ है ।
भगवान! मैं आपके लिए करता हूँ यह ‘मै’ निकालने का मार्ग है । ‘मै आपका हूँ आपका कार्य करता हूँ, आपके लिए करता हूँ । परिवार चलाता हूँ । इतना कहनेपर मेरा कुछ नही, मै भी अपना नही हूँ यह भक्त की भूमिका है ।
भगवान! वित्त भी आपका है-
विष्णु पत्नीं क्षमां देवींं माधवीं माधवप्रियाम् ।
लक्ष्मीं प्रियं सखीं देवीं नमाम्यच्युत वल्लभाम्  ।।
भगवान! वित्त आपका! आपकी लक्ष्मी मेरे पास है, परन्तु वह आपकी धरोहर है । यह भागवत का दर्शन है ।  अत: भक्ति में तीन बातें पक्की करनी है, ‘मुझे मालूम नहीं है’,‘मै नही करता’ ‘मेरा कुछ नहीं है’ ।  जिसके जीवनमें ये तीन बातें पक्की हो गयी वह भक्त है ।  भक्त बनने के लिए वृत्ति बदलने का प्रयत्न चाहिए ।  मानव को लगना चाहिए, ‘कुछ नहीं बनना है’ की अपेक्षा वैष्णव बनना है, मुझे कुछ बनना है ।  मुझे हनुमानजी जैसा भक्त बनना है ऐसी हमारे जीवन में अभिलाषा निर्माण हो इसीलिए गोस्वामीजी हनुमानजी को अपने हृदय में निवास करने के लिए प्रार्थना करते है ।  एक बार हनुमानजी का सामीप्य का ज्ञान हो जाए तो जीवन को एक नया मोड प्राप्त होगा । मनुष्य को सतत हनुमानजी के चरित्र का अभ्यास करके उनसे प्रेरणा प्राप्त करनी चाहिए तभी हम भक्ति मार्ग पर आगे बढ सकेंगे तथा हमारा जीवन विकास होगा और तभी मनुष्य का जीवन पुष्प खिलता है ।

तुलसीदासजी आगे भगवान के गुणों का वर्णन करते हुए लिखते है कि भगवान ‘मंगल मूरति रुप’ हैं।  भगवान पर जब भाव खडा होता है तब एक अलग ही विश्व खडा होता है ।  भगवान का मेरे उपर असीम प्रेम है वह बुद्धि से पता चलता है, दृढ होता है, आईलपेंट के समान होता है, तब ऐसी स्थिति आती है कि सारा मंगल ही मंगल हो जाता है। उसे भगवान मंगल रुप लगते हैं ।
मंगला मंगल यद् यद् करोतीति ईश्वरो ही मे ।
तत्सर्वं  मंगलायेति  विश्वास: सख्यलक्षणम्  ।।
मंगल या अमंगल, प्रभु जो कुछ करेंगे वह मेरे मंगल के लिए ही होगा ऐसा विश्वास होना चाहिए ।  मुझे क्षणिक जो मंगल लगता है वह कदाचित्् मेरा मंगल नहीं भी होगा, उसी प्रकार जो मुझे क्षणिक अमंगल लगता है वह मेरे मंगल के लिए भी होगा ।  ऐसा विश्वास होना बहुत बडी बात है ।  ऐसा विश्वास होना सभ्यता का लक्षण है    इसलिए तुलसीदासजी भगवान को मंगल मूरति रुप कहते है ।  भगवान आप मंगल मूरति रुप हो इसलिए आप मेरे हृदय में निवास कीजिए ।  भगवान मेरे लिए जो कुछ कर रहे हैं या जो कुछ करेंगे वह मंगल ही है ऐसा विश्वास भगवान पर होना चाहिए ।

तुलसीदासजी आगे लिखते है, ‘राम लखन सीता सहित हृदय बसहुं सुर भूप’ यानी ज्ञान, प्रेम और .ति (कर्म) ! अर्थात्् ज्ञान, भक्ति और कर्म जब एक ही शरीर में आते हैं और क्रीयाशील बनते हैं, तब ब्रम्हदेव बना जाता है ।
ज्ञान, भक्ति और कर्म का जिसके जीवन में संगम हुआ वह ब्रम्हदेव ।  समाज में कितने ही लोग केवल काम ही करते रहते हैं, वहाँ न भक्ति का ठिकाना होता है, न ज्ञान का पता । कितने ही केवल भजन ही गाते रहते हैं, उनमें ज्ञान नहीं होता और कुछ काम नहीं करते । ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ बोलना, माला फेरना, पर कुछ करना नहीं, इतनी ही भक्ति के संबंध में उनकी कल्पना है ।  वैदिक दृष्टि में वह भक्ति नहीं है, उपासना है ।  भक्ति और उपासना में जो फर्क है वही ये लोग नहीं जानते । कितने ही लोग केवल ज्ञानी होते हैं ।  हमको कुछ करना नहीं है, केवल ब्रम्ह की चर्चा ।  सेवा, पूजा करने की क्या आवश्यकता है? अत: जिसमें कर्म, ज्ञान और भक्ति पूर्णतया एकत्रित हुए है वह ब्रम्हदेव ।  ये तीनों बाते अपने जीवन में लाने का प्रयत्न करना चाहिये ।  इसीलिए तुलसीदासजी लिखते हैं  ये तीनाें बातों के प्रतीक ‘राम लखन सीता’ के रुपमें आप मेरे हृदय में निवास कीजिए ।

पूर्णज्ञान, पूर्णभक्ति ओर निरन्तर कर्मयोग जीवन में होने चाहिए ।  अनेकों को लगता है कि कर्म करने से वासनाएँ बढती है, वासनाओं के बढने से ही कर्म संग्रह होने लगता है ।  आनेवाले जन्म में ये कर्म भोगने पडेंगे, अत: कर्म न करना ही अच्छा है ।  ऐसा निर्णय करके वे कुछ कर्म करते ही नहीं ।  कुछ लोग कर्म में ही इतने मग्न हो जाते हैं कि ज्ञान का ठिकाना ही नहीं होता ।  गीता में ज्ञान, भक्ति और कर्म इनका त्रिवेणीसंगम किया और कहा कि उसमे ब्रम्हदेव है । देव अर्थात्् अमर व निर्जर वृत्ति के लोग! जिनकी वृति अमर, आशा अमर, इच्छा अमर, वासना अमर, श्रद्धा अमर, वैसी ही जिनकी भक्ति अमर व प्रभु के प्रति प्रेम अमर वे देव! ऐसे ही देव हनुमानजी है, जिनके जीवन में यह बातें हमे देखने को मिलती है, इसीलिए तुलसीदासजी हनुमानजी से प्रार्थना करते हैं कि आप राम लक्ष्मण और सीताजी सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए जिससे ज्ञान, कर्म और भक्ति की प्रेरणा सतत मिलती रहे ।

अमरनाथ जाते समय क्षण में एक हजार फिट उपर चढते हैं तो दो हजार फिट नीचे उतर जाते हैं, फिरसे उपर चढते है ।  ऐसा ही हमारी निष्ठा का होता है । चार दिन अंधकार, असत्य, तमोगुण नाचते हुए देखते है तब निष्ठा डिग जाती है, मन गिर जाता है, वृत्ति हार जाती है । किसी भी प्रसंग में हमारी ‘सत्यमेव जयते’ और ‘न मे भक्त: प्रणश्यति’ पर अटूट निष्ठा रहनी चाहिए ।  बुद्धिपर दृढ विश्वास रखकर भक्ति पथ की ओर चलने लगो ।

असत्् लोगों की क्षणिक विजय देखकर सर्वसामान्य भेड-बकरे जैसे लोग खिंचे जाते हैं । समाज में ऐसे भेड-बकरों की संख्या अधिक मात्रा में हैं ।  सिंह बहुत कम होते हैं । जीवन में जिस प्रकार रुढिग्रस्त लोग दिखाई देते हैं वैसे भक्ति में भी ऐसे ही लोग होते हैं ।  पीछे से आया आगे धकेल दिया ।  कुछ विचार ही नहीं करना है ।  अराजक के जैसी राक्षसी वृत्ति नाचती हुई देखने पर अमर श्रद्धा के प्रति विश्वास नहीं डिगना चाहिये ।  अंत में तो सत्यमेव जयते और वैदिक तत्वज्ञान की ही विजय होनेवाली है ऐसी दृढ निष्ठा होनी चाहिए ।  बिना पेंदी के लोटे जैसे इधर के चार लोग मिले, उधर के चार लोग मिले और बोलने लगे कि यह भी अच्छा  है, वह भी अच्छा है, सो ऐसे (बिना पेंदीके) लोग कुछ काम नही कर सकेंगे ।  इन लोगोंका श्रद्धा, विश्वास, आत्मविजय अथवा मन-किसीपर भी नियंत्रण नहीं होता ।

आज के समय मे इस प्रभु कार्य की आवश्यकता नही है इसलिये वह योग्य नहीं है, ऐसा कहनेवाले लोग होंगे फिर भी मै विचलित नही हूँगा ।  विश्वके विरोध में खडे रहने की हिम्मत मनुष्य में होनी चाहिये ।  प्रभुका काम करना यह आलसियों का काम नहीं है ।  आलसी व्यक्ति के सामने लकडी आडी रखी तो वह दूसरी ओर से चलने लगता है, पीछे रखी तो आगे चलने लगता है ।  इस प्रकार के लोगों को किसी का प्रमाण नहीे मानना होता है, परम्पराका स्वीकार करना नहीं होता, किसी के अनुभव से ज्ञान लेना नहीं होता और अपनी अक्ल भी नहीं चलानी है । ये सब प्रवाहपतित कुछ भी नही कर सकेंगे ।

कर्म भक्ति और ज्ञान जो जानता होगा वह ब्रम्हदेव है ।  विश्व में व्याप्त जो चैतन्यशक्ति (Universal power) है उसका ही नाम ब्रम्ह है । वह शक्ति जब क्रियात्मक बनती है, तब उसको ब्रम्ह कहते हैं, प्रेमात्मक होती है तब उसको विष्णु कहते हैं, जब वह शक्ति ज्ञानात्मक होती है तब उसको शिव कहते हैं ।  शक्ति तो एक ही है ।  इन तीनों को जो जानता है वह ऋषि है ।  जो कृतात्मा है, जिसके जीवन में साफल्य है, किसी प्रकार की बैचेनी नहीं है, आत्मविश्वासपूर्ण जीवन जिसका होता है वह ऋषि।  उसी प्रकार जिसको विषय नहीं हिलाते इतना प्रशांत होता है वह ऋषि । ‘क्या मिलेगा?  इस वासना से जो नहीं चलता वह ऋषि! हमें तो पैसा अथवा कीर्ति या पूण्य चलाता है, हम स्वयं नहीं चलते हैं ।  जिस दिन हम स्वयं चलने लगेंगे, उस दिन प्रशान्तात्मा बन जायेंगे । जिसके इंद्रियाँ, मन और बुद्धि ईश्वरीय कार्य के लिये दौडते रहते है वह ऋषि ।
परन्तु, यह ईश्वरीय कार्य यानी क्या है? ईश्वरीय कार्य यानी ‘ईशावास्य मिदं सर्वं’ समझकर, जगत में निर्माण हुई आत्माकी विस्मृति और ईशश्रद्धा का अभाव ये दो दुर्गुण जहाँ जहाँ होंगे, वहाँ से उनको हटाने का प्रयत्न करना! आत्मस्मृति और ईश विश्वास फिर से खडा करना । मुझे अपनी स्वयं की स्मृति चाहिये और मेरा अपने निर्मातापर विश्वास चाहिये ।  ये दो बाते जीवन में दृढ होगी तो ईश्वर तक पहुँचने में मुझे कोई रोक नहीं सकेगा ।  इसलिये ये दो बातें समाज में जो दृढ करने के प्रयत्न करते रहते हैं वे ऋषि ।  ऋषि लोगों का जन्मजन्मांतर का हित देखता है ।  ऐसे ऋषि स्वाध्याय कराते हैं, उसके लिए ज्ञान की प्याऊ के पास जल पीना होता है ।  स्वाध्याय केन्द्र ज्ञान की प्याऊ है ।  ज्ञान के लिए स्वाध्याय केन्द्र में जाने से जीवन में नियमितता और विनम्रता आती है ।  इस लिये हमारे ऋषियों ने महामंत्र दिया, ‘स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम््।’

धर्मजिज्ञासा,  ब्रम्हजिज्ञासा और आत्मजिज्ञासा के लिये मन की भ्नि्न-भिन्न बातें मनुष्य जान लेगा तो अध्यात्म में आत्मिक आनन्दतक वह जा सकता है ।  भय, दु:ख वहम नहीं आयेंगे इस तरह से काम और मन एक साथ घुमेंगे ऐसी व्यवस्था हो सके इसलिए जीवनपर धर्म ने अंकुश  रखा है ।  मन की दृढता के लिए सहजावस्था बनी रहनी चाहिये ।  वाणी से भी योग्य शब्द निकलने  चाहिये ।  उसका परिणाम हमारे मनपर होता है ।  वाणी का परिणाम तो दूसरों पर होता ही है, इसलिए योग्य बोलना चाहिये ।

अनेक लोग कहते है जितना .ति- (Action) में उतर सके उतना ही बोलना चाहिये ।  यह बात भी गलत है ।  वाणी में तो अधिक आना चाहिये कारण .ति में उसमे से थोडा ही आनेवाला है ।  हमारे शरीर के कपडे शरीर के प्रमाण में तनिक बडे ही होने चाहिए ।  शरीर के माप के ही होंगे तो न पहन सकेंगे, न निकाल सकेंगे ।  अत: .ति की अपेक्षा विचार बडा होता है ।  विचार और .ति के संबन्ध में शास्त्रकारोंने बहुत विचार किया है ।  जितना .ति में आयेगा उतना ही बोलना यह अशास्त्रीय बात है। इसलिये अधिक बोलना, योग्य बोलना, अच्छा बोलना, दैवी बोलना ।  कृति से हलका नहीं बोलना चाहिये ।

सर्वसामान्य व्यक्ति बात बात में कहते हैं, ‘हम किस कामके है? हम पापी हैं । पापोहम्् पापकर्माहम््.. पापमें डूबे है, माया में फँस गये हैं, हमसे क्या होनेवाला है? बोलने से .ति तनिक हलकी हुई तो उसमें मनुष्य पराधीन है यह समझ पडता है ।   इसलिये बोलना भव्य होना चाहिये ।  ‘मुझे भव्य करना है’ ऐसा मनुष्य सतत बोलता रहेगा और पुण्योहम्् पूण्यकर्माहम् । पूर्णस्य पूर्ण मादाय....... जैसी भाषा बोलता रहेगा तो वह भाषा योग्य होगी ।  केवल शुभचिन्तन नही चाहिये, परन्तु मनको ऐसा योग्य, भव्य बोलने की समझ देनी चाहिये ।  निरन्तर अच्छी, उच्च भाषा बोलते रहेंगे तो तुम्हारे मन को वैसी आदत होगी की मुझे इस देहमें किस प्रकार रहना है? सतत दैन्य का ही स्वीकार किया जायेगा तो मन भी समझेगा कि इसको दैन्य ही अच्छा लगता है । इसलिये सतत दैवी, उच्च और योग्य बोलना यह बहुत बडी बात है ।  हनुमानजी की वाणी ऐसी भव्य थी, उनकी वाणी से भगवान राम भी प्रसन्न हो गये थे ।  हमें जीवन को उच्च, दिव्य एवं भव्य बनाने के लिये हनुमानजी से सतत प्रेरणा लेनी चाहिये । उनकी तरह जीवन में ज्ञान भक्ति और कर्म का हमारे जीवनमें समन्वय होना चाहिए ।  भगवान हमारे हृदयमें विराजमान हैं ।  इसका सतत हमें चिन्तन होना चाहिए ।  भगवान के सामीप्य का ज्ञान यदि हमें हो जाएगा तो हमारे जीवन को दिशा प्राप्त होगी इसीलिए तुलसीदसजी हनुमानजी से प्रार्थना करते हैं कि आप राम लखन और सीताजी सहित मेरे हृदयमें निवास कीजिए जिससे मैं भी अपने जीवन को आपकी तरह बना सकूँ तथा प्रभु का प्रिय बन सकूँ ।
तुलसीदासजी द्वारा रचित ‘हनुमान चालीसा’ मानव जीवन के लिए बहुमूल्य कल्याणकारी देन हैं ।   हनुमान चालीसा के विचार संपूर्ण मानव जीवन को प्रकाशीत करते हैं ।  तुलसीदासजी  ने हनुमान चरित्र द्वारा हनुमानजी के दैवी गुणों का चित्रण किया है ।  उन गुणों को आम जनता द्वारा आत्मसात किया जा सके तथा व्यवहार में लाया जा सके, इसी उद्देश्य से गोस्वामीजीने हनुमान चालीसा की रचना की है ।

हनुमत चरित्र उच्चतम आदर्श तथा श्रेष्ठ भक्ति का जीता जागता प्रतीक है और सब के लिए अनुकरणीय है ।  हनुमान चालीसा से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं ।  ‘हनुमान चालीसा’ का हमने आज तक गहराई से चिंतन करने का प्रयास नहीं किया ।  हनुमान चालीसा के गूढतम विचारों को एक नये दृष्टिकोण से देखने यह प्रयास किया गया है ।  हनुमान चालीसा के तत्व को प्रतिपादन करने में हो सकता है कही त्रुटि रह गयी हों तो कृपया क्षमा करें क्योंकि यह केवल प्रयास मात्र है ।  इसमें जो विचार आपको अच्छे लगे उनको आप ग्रहण कीजिए तथा त्रुटिपूर्ण विचारों को मेरी अपनी भूल समझकर क्षमा कीजिए ।

हनुमान चालीसा के विचारों को आत्मासात करने तथा आदर्श जीवन तथा भक्तिपथ पर अग्रसर होने की शक्ति हनुमानजी सब को प्रदान करें, यही अभ्यर्थना ।

चौपाई:- तुलसीदास सदा हरि चेरा । कीजै नाथ हृदय मह डेरा ।।   (40)
अर्थ : हे नाथ हनुमानजी ! तुलसीदास सदा ही श्रीराम का दास है। इसलिए आप उसके हृदय में निवास कीजिए ।
गूढार्थ : हनुमानजी तुलसीदासजी के गुरु हैं। तुलसीदासजी ने हनुमानजी को अपना गुरु माना है। उनके मार्गदर्शन के अनुसार ही उन्हे भगवान श्रीराम के दश्‍र्रन हुए ।  इसलिए तुलसीदासजी हनुमानजी से प्रार्थना कर रहे हैं कि, हे हनुमानजी । आप मेरे हृदय में निवास कीजिए । गुरु हो तो ज्ञान मिलता है, या सत्संग किया तो मार्गदर्शन मिलता है ।

साधक के जीवन में कभी कभी अंधकार छा जाता है ।  परन्तु अंधकार की रात्रि के बाद प्रकाश आने ही वाला है ऐसा विश्वास रखकर साधक को अध्यात्म मार्ग नहीं छोडना होता ।  साधक कहता है, मुझमें बहुत बडी बुद्धिमन्दता है, कर्ममन्दता है और भावमन्दता है । इन सब बातों के लिए साधक को मार्गदर्शन कौन करेगा? गुरु ही मार्गदर्शन करते हैं, इसीलिए तुलसीदासजी ने हनुमानजी को अपने हृदय में निवास करने के लिए प्रार्थना की है, ‘कीजै नाथ हृदय मह डेरा।’

बुद्धि उत्तम होनी चाहिए, दैवी होनी चाहिए, तभी अच्छा ज्ञान मितता है इस में संदेह नही है ।  परन्तु बुद्धिमन्द नही होनी चाहिए ।  बुद्धि मे एक प्रकार की किंकर्तव्यमूढता आती है ।  उस अवस्था में गुरु से मार्गदर्शन जरुरी लगता है ।

बुद्धि में कामनाग्रस्तता, संशयग्रस्तता और भयग्रस्तता ये तीन बातें घुसती है ।  मनुष्यको भय लगता है कि मेरा क्या होगा? मैं कहाँ से आया हूँ? मुझे कहाँ जाना है? मेरे साथ कौन आनेवाला है? इसमें से मनुष्य को किसी बात का पता नहीं चलता ।  उनके संबंध में मनुष्य जैसा जैसा विचार करता जाता है, उसकी बुद्धि बधिर बनती है और वह अधिकाधिक दु:खी बनता है । भयग्रस्त बुद्धि में यह महान दोष है ।

बुद्धि में ज्ञान को पकडकर मनुष्य भगवान तक पहुँच सके इतनी शक्ति है ।  बुद्धिमन्दता का अर्थ यह नही है कि हमारे पास बुद्धि की कमी है ।  हम गीता के अठारह अध्याय कंठस्थ करते हैं, हनुमान चालीसा मुखोद्गत करते है ।  हमें बैंकिग व एकौन्टन्सी इतनी अच्छी आती है कि हम भगवान को भी चकमा दे सकते हैं ।  इतनी हमारे पास जबरदस्त बुद्धि है ।  पिछले पाँच-सात वर्षों का हिसाब भी हमें पूरा याद रहता है, तो क्या हमारे पास अक्ल की कमी है? नहीं हमारे पास बहुत बुद्धि है परन्तु वह भयग्रस्त है ।

उसी प्रकार हमारी बुद्धि में अनन्त कामनाओंका निर्माण होने से वह इतनी कामनाग्रस्त बनती है कि उसमे ‘ज्ञान’ के लिये स्थान ही नही रहता वास्तव मे, बुद्धिपर सच्चा अधिकार ज्ञान का है, परन्तु बुद्धिमें अनन्त कामनाएं भर जाने से ज्ञान के लिए जगह ही नही रहती ।

बुद्धि में प्रथम विचार आता है तो वह है सुख का! उसमें सुख की कामना का निर्माण होता है । आनन्द-कामना और सुख-कामना में फर्क है ।  सुख व आनन्द भिन्न है । परब्रम्ह के वर्णन में सुख शब्द का प्रयोग नहीं करते, आनन्द शब्द का प्रयोग करते हैं ।  ‘चिदानन्द रुप: शिवोहम शिवोहम।’  इसमे सुख शब्द नही है, आनन्द शब्द है ।

मनुष्य को लगता है कि हम सुखी हों, इसीलिए वह अपनी बुद्धि का उपयोग सुख प्राप्त करने में करता है बुद्धि मेंं जिस प्रकार सुख की कामना होती है वैसी दूसरी स्वामित्व की कामना होती है ।  इन दो कामनाओं के कारण बुद्धि में अनन्त कामनाएँ निर्माण होती है ।  उसके पास बहुत बुद्धि है, इतना ही नहीं अपितु ऐसी शंका निर्माण होती है कि क्या पीढी दर पीढी मनुष्य में बुद्धि- अक्ल बढती ही जा रही है? परन्तु बुद्धि में इतनी कामनांए आकर बैठती हैं कि वहाँ ज्ञान के लिए जगह ही नही रहती ।

मनुष्य की बुद्धि में स्वामित्व की भावना रहती है ।   वस्तु अथवा व्यक्ति पर स्वामीत्व की धाक जमाने की उसमे कामना होती है ।  जो अपना बनकर रहता है वह मनुुष्य को अच्छा लगता है । उसको पत्नी अच्छी लगती है, कारण वह उसकी (मेरी) बनकर रहती है । लडका मेरा, पति मेरा, ‘यह स्वामित्व का आनन्द है । उसको गाडी का आनन्द नही, ‘गाडी मेरी है’ इसका आनन्द है । हमे कोई अपनी गाडी में बिढाता है तो हम बैठते है सच! परन्तु ‘हवा मे लटकते हुए’’ से बैठते है, मानो हमे एकाध बिच्छू काट रहा हो ।  परन्तु, हम अपनी गाडी में बैठते है तो उसका भिन्न ही आनन्द होता है ।  यह आनन्द गाडी का नही है, अपितु गाडी मेरी है ‘इस स्वामित्व की भावना का आनन्द है ।  एकाध बार शृंगारित आलीशान बंगले में हमे सोने को मिला तो उसमे उतना आनन्द नहीं होता, जितना हमें अपने बंगले में सोने से मिलता है ।  मनुष्य को निरन्तर ऐसा लगता है कि प्रत्येक वस्तु ‘अपनी’ होनी चाहिए तभी उसमे आनन्द है । स्वामित्व प्रत्यक्ष होना चाहिए । केवल मानसिक दृष्टि से माना हुआ स्वामित्व नही चाहिये ।  सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय  भगवान आकाश मे जो विविध रंग भरते हैं, उसमे आनन्द है, परन्तु मनुष्यको उसमें उतना आनन्द नही होता कारण ‘अमुक वस्तु मेरी है, तेरी नही है’ इसीमे उसे आनन्द मिलता है ।  आकाश में जो इंद्रधनुष्य दिखाई देता है, वह मेरा है ऐसा कहा तो क्या उसमें तुम्हे आनन्द मिलेगा? नही मिलेगा । ‘यह मेरा है, तेरा नही  भगवान आकाश मे जो विविध रंग भरते हैं, उसमे आनन्द है, परन्तु मनुष्यको उसमें उतना आनन्द नही होता कारण ‘अमुक वस्तु मेरी है, तेरी नही है’ इसीमे उसे आनन्द मिलता है ।  आकाश में जो इंद्रधनुष्य दिखाई देता है, वह मेरा है ऐसा कहा तो क्या उसमें तुम्हे आनन्द मिलेगा? नही मिलेगा । ‘यह मेरा है, तेरा नही है,’ ऐसा चार लोगों में कह सके तभी उसमें स्वामीत्व की भावना होती है और सुख होता है ।  यह स्वामीत्व की भावना आते ही मुक्ति व भक्ति अलग हो जाती है ।  इसका कारण किसी भी काल में भगवान पर स्वामित्व की भावना नही चलती । इस प्रकार हमारे पास बुद्धि है परन्तु कामनाओं के कारण ज्ञान के लिए स्थान नहीं रहता ।
प्रथम बात यह है कि अध्यात्म की जिज्ञासा निर्माण होनी चाहिये ।  वही हमें नही होती । हम कभी कभी गीता पढते हैं परन्तु जिज्ञासा से नही ।  गीता को पढने से कुछ पुण्य लाभ होगा और व्यापार में मुनाफा होने के लिए उसका आधार मिले इसलिए पढते हैं ।  गीता को पढने से संसार विकसित होता हो उसमें कुछ बुरा नहीं है । परन्तु उसमें जिज्ञासा नहीं यह समझ लेना चाहिये । आत्मज्ञान की जिज्ञासा कब निर्माण होती है? आवश्यकता लगी तो जिज्ञासा निर्माण होती है । कालेज की शिक्षा लेने की आवश्यकता लगती है इसलिए उसके प्रति जिज्ञासा भी निर्माण होती है ।  हमें आत्मज्ञान की आवश्यता नहीं लगती ।  इस प्रकार आवश्यकता में से जिज्ञासा निर्माण होती है ।
हमें जीवन में अध्यात्म की बिलकुल आवश्यकता नहीं लगती यह वस्तुस्थिति है ।  किसी के साथ इस संबंध में बात की तो वह यही कहेगा कि मेरी सात पीढियाँ संसार करते हुए इस जगत से चली गयी, उनमें से किसीका तुम्हारे अध्यात्म के बिना नहीं बिगडा ।  हमारे बाजार में सैंकडो व्यापारी है, पैसा कमाते है, मोटरे उनके पास है, बही-पूजन के दिन लक्ष्मी को नमस्कार भी करते है, नहीं करते ऐसा नही है, परन्तु इनमे से किसीका भी अध्यात्म के बिना कुछ भी नहीं रुका है । इस प्रकार जीवन में अध्यात्म की आवश्यकता ही नहीं लगती तो उसके प्रति जिज्ञासा कैसे निर्माण होगी?

भगवान! हमें अध्यात्म ज्ञानकी आवश्यकता नहीं लगती यह पहली बात है । यह हमारी दिक्कत है । हम प्रयत्न करते रहते है, परन्तु हमारे प्रयत्न अयोग्य मार्गपर है ऐसा आप कहते हैं ।  हमारा यह भी प्रतिवाद नही है परन्तु यह सामान्य व्यक्ति का आत्म-निरीक्षण है ।

दूसरा- जिज्ञासा निर्माण होने का कारण परिस्थिति होती है ।  आसपास की परिस्थिति वैसी हो तो मनुष्य में जिज्ञासा निर्माण होती है ।  कितनी ही बार ऐसी परिस्थिति निर्माण होती है कि मनुष्य को कुछ बातें करने पर ही छुटकारा मिलता है ।  उदाहरण स्वरुप अंग्रेजी पढना ही चाहिये ऐसी परिस्थिति निर्माण हुई तो मनुष्य अंग्रेजी पढता ही है ।  कारण वह अंग्रेजी न पढा हुआ हो तो उसकी प्रगति रुक जाती है ।  आज समाज ने ऐसी परिस्थिति निर्माण की है कि मैं कुछ पढ, लिख सका तभी समझदार! वास्तव में पढने लिखनेका व जीवन का क्या संबंध है? इस पढने-लिखने ने ही अनन्त दु:ख निर्माण किये है ।  क्या पढाई से सुख मिला है? मनुष्यने पढकर कल्पनातीत दु:खों का निर्माण किया है ।  पढने से क्या लाभ हुआ है? परन्तु ऐसी परिस्थिति खडी हुई कि लडकों को पढना ही चाहिये ।  अध्यात्मज्ञान अथवा भक्ति के लिए इस प्रकार की परिस्थिति निर्माण हो तो मनुष्य उस मार्ग से जायेगा ।  परन्तु उसके लिये तो उल्टी परिस्थिति है। इसलिये आज कोई्र अध्यात्म या भक्ति मार्ग पर चलने लगता है तो उसको जबरदस्त विरोध सहना पडता है ।  यह विरोध सहन करने की शक्ति होने पर भी वह इस मार्गपर टिकता है, अन्यथा नही टिकता ।

लडकों को पढना चाहिये इसलिये पूरा परिवार, सगे संबंधी, अडोसी-पडेासी, समाज सभी अनुकूल है।  परन्तु लडकों को ‘गीता पढनी चाहिये’ इसके लिये कोई अनुकूल नही है । माँ-बाप भी अनुकूल नही है तो दूसरे की बात ही क्या है! भूलकर एकाध लडका गीता पढने लगा तो आसपास के लोग उसकी नाक मे दम कर देते हैं ।
भगवान! जिस समाज में मै पाल-पोसकर बडा हो रहा हूँ, उस समाज में ऐसी परिस्थिति नहीं है कि मुझमें अध्यात्म ज्ञान की जिज्ञासा निर्माण हो!

जिज्ञासा निर्माण होने का तिसरा कारण है संस्कार! यदि संस्कार अच्छे हो तो अध्यात्म ज्ञान की जिज्ञासा निर्माण होती है ।  इसीलिये तो उपनिषदोंने कहा है-‘मातृवान् पितृवान् आचार्यवान् पुरुषों वेद! यदि संस्कार अच्छे हों तो बिना परिस्थिति के अथवा आवश्यकता के भी जिज्ञासा निर्माण होती है ।  अच्छी परिस्थिति, अच्छे माँ-बाप या अच्छे संस्कार मिलना, यह भगवान! आपके हाथ की बात है, मेरे हाथ की बात नहीं है ।  इसलिये कहा जाता है कि हम भयानक प्रारब्ध के हाथ में हैं ।  हमारा   प्रारब्ध हमें जहाँ खिंच ले जायेगा वहाँ हम जाते हैं ।  परिस्थिति, संस्कार और आवश्यकता इन तीनों बातों में हमारी लकडी कितनी निर्बल है, यह आप  समझ सकते हैं ।

सर्वप्रथम बुद्धि है ।  उसमें स्वामीत्व की भावना होती है, सुख कल्पनायें होती है, इसलिये अध्यात्म ज्ञान के लिये वहाँ स्थान नहीं है ।  उसके बाद जिज्ञासा निर्माण होने के लिए आवश्यकता नहीं लगती ।  परिस्थिति की अनुकूलता नहीं होती और संस्कार भी नहीं होते ।  इतना होने पर भी शायद जिज्ञासा निर्माण होती है ।  उस जिज्ञासा के आधारपर हम कुछ  ज्ञान प्राप्त करने लगे, दो चार शंकायें पूछने लगे तो तुम्हारे अध्यात्म के पथिकों के जो मार्ग हैं वे हमारी जिज्ञासा को मार डालते हैं ।  कारण शंकायें पूछनी नहीं होती और भगवान के संबंध में संदेह चलता नही!
दूसरी बात, जीवन में ज्ञान आने के लिये ग्रहण शक्ति चाहिये ।  कामनाग्रस्त व भयग्रस्त बुद्धि की ज्ञान ग्रहण करने की शक्ति ही चली गयी है ।  हमारी बुद्धि कुछ ग्रहण कर ही नहीे सकती ।  कदाचित् जिज्ञासा हुई तो भी ग्रहण शक्ति चाहिये । तलाब में जल भरा हुआ है वहाँ पानी लाने के लिये बर्तन लेकर गये, परन्तु उस बर्तन में यदि छिद्र हो तो उसमे जल कैसे भर सकते है? इसी प्रकार हमारे बुद्धि रुपी बर्तन में छिद्र पडा हुआ है ।  उसमें भूलचूक से गीता का जल भर लिया तो भी अन्तिम सीढी पर आने तक हमारा बर्तन रिक्त हो जाता है ।  हमारी बुद्धि में ग्रहण  शक्ति ही नहीं है तो हम कया करे? ज्ञानमार्ग में यह सब अडचने हैं ।

गुरु हो तो ज्ञान मिलता है, इसीलिए तुलसीदासजी ने गुरु को अपने हृदय में स्थान दिया है । उस समय सच्चे गुरु थे ।  आज के काल में सच्चा गुरु मिलना मुश्किल है, अत: आज यह समस्या है ।  जब तक योग्य गुरु जीवन में नही मिलते तब तक कृष्ण को गुरु मानो  ‘कृष्ण वन्दे जगद्गुरुम्’

कृष्ण भगवान चिरन्तन काल से गुरु हैं ।  कृष्ण केवल वैष्णवो के गुरु नहीं है, केवल भारत वासियों के ही नही, अपितु संपूर्ण विश्व के गुरु हैं और चिरन्तन काल तक गुरु है ।  वे विचार और जीवन के गुरु है ।  उन्होने जीवन जीकर और सोचकर जीवन के सभी कक्ष प्रकाशित किये हैं ।  कृष्ण की प्रत्येक कृित उनका उठाया हुआ प्रत्येक चरण दैवी ही था- ‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्।’ जीवन में कृष्ण भगवान ने दु:खों को स्वीकार क्यों किया? कृष्ण भगवान का अवतार सामान्य लोगों के लिए था यह नहीं भूलना चाहिए ।  एक भी सूुख ऐसा नहीं था कि जो कृष्ण के चरणों में नहीं था और एक भी दु:ख ऐसा नहीं था कि जिसे   कृष्ण ने नहीं स्वीकारा सुख या दु:ख के प्रसंग में जीवन कैसे जीना है यह उन्होने स्वयं जीकर दिखाया है ।  सुख व दु:ख की तरफ शान्ति से कैसे देखना, यह उन्होने समझाया है ।  प्रवृत्ति या निवृत्ति इन दोनो द्वन्द्वों में फँसे हुए मानव को मार्गदर्शन करनेवाला कौन है?

जो धर्म, व्यक्ति में ओज, तेज, उत्साह, साहस, पराक्रम नहीं भर सकता हो तो उसे धर्म क्यों कहना चाहिए? कौन उसे धर्म कहेगा? जिसमें प्रवृत्ति के गुण, उत्साह, तेज, उद्योग, साहस है वैसे ही तप, अनासक्ति, निरंहकारता ये निवृत्ति के भी गुण है उनको प्राप्त करने का मार्गदर्शन करनेवाला यदि कोई ग्रंथ होगा तो वह गीता है ।  गीता गानेवाले कृष्ण  हैं ।  इसी कारण ‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्’  कहकर कृष्ण को जगत का गुरु माना है ।

तुलसीदासजी का अभिप्राय यही है कि गुरु को हृदय में स्थान देना चाहिये तथा उनसे मार्गदर्शन प्राप्त कर जीवन विकास के लिये आगे बढना चाहिये ।  जब तक जीवन में सच्चा गुरु नहीं मिलता श्रीकष्ण को गुरु मानकर उनके बताये हुए मार्गपर चलकर जीवन विकास साधने का प्रयत्न करना चाहिये ।    

चौपाई : जो यह पढै हनुमान चालीसा । होय सिद्ध साखी गौरीसा ।।   (39)
अर्थ : भगवान शंकर ने यह हनुमान चालीसा लिखवाया इसलिए वे साक्षी हैं कि जो इसे पढेगा उसे निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी ।
गूढार्थ : भगवान शिव का रुप गुरु का रुप है ।  ज्ञानराणा शिव है, जिनके मस्तिष्क से अविरत ज्ञानगंगा का प्रवाह प्रवाहित होता रहता है । भगवान शंकर इस ‘हनुमान चालीसा’ के साक्षी हैं ऐसा इस चौपाई में उल्लेख है ।  भगवान शंकर की प्रेरणासे तुलसदासजी ने ‘हनुमान चालीसा’ की रचना की है । हनुमान चालीसा में हनुमत चरित्र पर पूर्ण रुप से प्रकाश डाला गया है । गुरु का मस्तिष्क ज्ञान से भरा हुआ रहता है । लोककल्याण के हेतु से तुलसीदासजी लिखते हैं कि इस ज्ञान को पढो, पढकर चिन्तन, मनन करो तो तुम्हे जीवन में अवश्य सफलता प्राप्त होगी ।

वाड़मय दो प्रकार का होता है ।  व्यावहारिक वाड़मय और आर्ष वाड़मय! व्यावहारिक वाड़मय कथा-उपन्यास के रुपमें होता है ।  कितने ही बार ऐसा होता है कि एकाध संघर्ष हमें अच्छा लगता है, परन्तु वह स्वयं अपने जीवन में आया तो उसे सहन करने की हमारी तैयारी नही होती ।  उस संघर्ष का दूसरे के जीवन में अनुभव करना हमें अच्छा लगता है । इसीका नाम उपन्यास-कहानियों का वाचन है ।  इसमें वह संघर्ष दूसरे के जीवनमें देखना नही होता, उसमे समरस होना होता है ।

दूसरा प्रकार आर्ष वाड़्मय का है ।  आर्ष वाड़्मय यानी ऋषिप्रणीत वाड़्मय । वाणी चार प्रकार की है। परा, पश्यन्ति, मध्यमा व वैखरी ।  हम बोलते हैं वह वैखरी वाणी है ।  परन्तु ऋषि, संत बोलते हैं वह परा अथवा पश्यन्ति वाणी ।  ऋषि जो बोलते जाते है उनकी वाणी के पीछे अर्थ दौडता आता है । वे अर्थ निश्चित करके वाणी प्रयुक्त नही करते । इसीलिए वाल्मीकि, तुलसीदास जैसे महापुषोंका वाड़्मय बुद्धिनिष्ठ तो है ही, परन्तु बुद्धि से भी परे जो प्रभु है उस सम्बन्ध में भी वह वाड़्मय कहता है ।  इसलिए वह प्रभु निष्ठ भी है ।  इस वाड़्मय को आर्ष वाड़्मय कहा जाता है ।

जीवन विकास चाहनेवालों को कौनसा वाड़्मय स्वीकारना चाहिए इस सम्बन्ध में शास्त्रकानोंने लिख रखा है । भौतिक दृष्टि से देखा जाय तो भारत से विदेश में कोई भी खाने की वस्तु भेजी जाती है तब उस वस्तु को ले जानेवाला स्टीमर किनारे से मीलों दूर खडा किया जाता है और वहाँ के लोग आरोग्य की दृष्टि से उस वस्तु का परीक्षण करते है । इधर से भेजा जानेवाला माल तनिक भी हलकी श्रेणीका लगा तो वे लोग उस माल को स्वीकार नही करते अत: अपने देशमें जो भी कोई वस्तु ले जानी है उसकी पूर्णतया जाँच किये बिना वे लोग उस वस्तु को अपने देशमें नही ले जाते इतनी सावधानी वे लोग रखते है ।  प्रत्येक माता पिता को इस प्रकार की सावधानी रखनी चाहिए ।  उनको विचार करना चाहिये कि कौनसी पुस्तके पढने से अपने बच्चों का मन व बुद्धि स्वस्थ रहेगी ।  परन्तु इस प्रकार की सावधानी स्वतंत्रता के नाम पर उडा दी जा रही है। लोग मन और बुद्धि की धर्मशाला बनाकर बैठे है ।  यह सयानापन है या पागलपन, इसे काल ही निश्चित करेगा ।

संत की वाणी में वाड़्मय का प्रसाद है ।  यह वाणी मनुष्यत्व का इनाम है ।  मधुरवाणी देवत्व का इनाम है और सारवाणी प्रभु की कृपा है ।  इन तीनों वाणीयों के संयोग से उत्पन्न वाणी को संतवाणी कहते हैं।

हमे वाणी मिली है यही एक मनुष्यत्व का ईनाम है ।  वाणीद्वारा हम विविध भावनाएं तथा विकारों का व्यक्तिकरण करते है। हमें अपने ज्ञान को दिखाने की जरुरत नही पडती ।  वात्सल्य, ज्ञान और मन के विकारों के लिए वाणी है ।  वासना के लिए भी वाणी है ।  विकारों का व्यक्तिकरण करो । गुस्सा आनेपर लकडी से मत मारो बल्कि गुस्सा निकाल दो ।  मुझे कई बार ऐसा लगता है कि जगत में जैसे किसीने प्रथम संस्.ति (First civilization) को खडा किया वैसे ही जिसने गाली देने की शुरुआत की, उस गाली को भी आध्यात्मिक मूल्य (Spritual value) है । इसका तात्पर्य ऐसा नही कहता हूँ कि तुम गाली देने लगो, परन्तु क्रोध आए या चीढ चढे तब हाथ में लकडी लेने के बदले गाली दे दो तो क्रोध शान्त हो जाएगा।

हमारा क्रोध विकारों का व्यक्तिकरण करता है ।  किसी जगह तुम क्रोध निकालने से स्वतंत्र हो जाते हो ।  मैं गालियों का समर्थन नही करता हूँ, परन्तु उन्हे भी कुछ मूल्य है ।  सामाजिक जीवन में भी उसे कुछ मूल्य है, नही तो आदमी लकडी हाथ में ले और किसी का सिर फोड दे ।  इसलिए विकार, भावना, वासना, ज्ञान आदि के व्यक्तिकरण के लिए वाणी है ।

हमारे वर्णाक्षरों (Alphabets) का सुसंबद्ध अर्थ है ।  वाणी की एक शक्ति है । शब्दशास्त्र बहुत बडा है । ‘स्फोट एव अर्थवान्’ इसलिए वाणी भगवानद्वारा दिया गया वरदान इस दृष्टि से जो देखता है वह मनुष्य है ।  अब तक मुझे पता नही है कि कहाँ जीभ के स्पर्श करने पर ‘ट’ का उच्चार होता है । इसीलिए ईसा मसीह स्पष्ट शब्दों में कहते है ; (The spirit of thy father that speaketh in you ) अर्थात् तू नहीं बोलता है बल्कि तेरे अन्दर की कोई शक्ति बोलती है ।  यह केवल भावना नही है । संत तुकाराम महाराज भी वही कहते है: ‘आपुलिया बळे नाही बोलवंत सखा .पावंत वाचा त्याची ।’ अत: प्रथम बात यह है कि वाणी भी भगवान की अनुपन वरदान है ।

दूसरी बात, मधुरवाणी देवत्व की प्रतीति है । आदमी का हृदय जितना मधुर होता है उतनी ही मधुर उसकी वाणी होती है ।  आदमी जितनी आत्मीयता से बोलने लगता है उतनी मधुरता आत्मीयता की वाणी मे है।  उसके अर्थ भी अलग अलग है ।  इन विधानों मे जो अर्थ है वह शब्द कोष (dictionary) में भी नही मिलता है ।  मैं कई बार कहता हूँ कि बालक कहता है, ‘माँ खेलने जाऊँ?’ माँ कहती है, बाहर धूप है, अभी खेलने मत जा ।’  बालक फिर से आग्रहपूर्वक कहता है, ‘माँ जाने दो न! मुझे खेलने जाना है तंग आकर माँ कहती है, ‘जा मर’ बालक मर जाए ऐसी इच्छा माँ नही करती । यहाँ अर्थ शब्दकोष के मुताबिक नही है ।  इसमे भाव प्रकट नही होता ।  अत: हृदय भी मालूम नही पडता है, शब्द को पकड कर चलने वाले शास्त्री जीवन नही बदलते ।  वे भले कानूनविद हो परन्तु वे भाव नही समझते और केवल बुद्धि को प्रधानता देकर संशोधन (research) करते रहते हैं ।  इसलिए भावशून्य संशोधन होते है ।  यदि आदमी को प्रेम करने की शिक्षा मिली हो तो भी उसकी वाणी मेे माधुर्य प्रकट होता है ।  इसीलिए वाणी दिव्यत्व की अनमोल भेट हैे ।

तीसरी बात, सार वाणी प्रभु की कृपा है ।  हमारी वाणी असार होती है ।  सारवाणी में मनुष्य को दूसरे को कुछ समझाना है, कुछ कहना है, उसका अन्त:करण जलता है और जीवन बदलना है, उसके लिए जो लिखा जाता है वह सार वाणी है ।  कितने ही लेखक कहते हैं कि लोगो ंको क्या चाहिए? क्या लिखोगे तो प्रकाशक लेगा? लोगों को जो चाहिए उसे हम लिखते हैं ।  उसमें लोगों को बदलने की ताकत नही है, उसमें हिम्मत नही है ।  युग बदलने की या आदमी की रुचि बदलने की मस्ती जिसके मगज में नही है वह सार वाणी नही है ।  बहुत लिखा जाता है वह लेखन नही, छपता है वह लेखन नही है। लोगों को बदलें, लोगों की रुचि बदलें, युग परिवत्रन करें, ऐसी सार वाणी प्रभु की .पा है ।

तुकाराम महाराज की वाणी  ‘अभंग वाणी’ के रुपमे प्रसिद्ध है ।  कही भी अभंग भंग नही है ।  किसी भी समय पढो, किसी भी स्थिति मे पढो, अक्कल तथा हृदय हो तो अर्थ मालूम पडेगा ।  नही तो नही पता चलेगा ।  गीता किसी भी समय पढो उस वाणी को भंग नही है ।  रामायण किसी भी समय पढो उस वाणी को भंग नही है उसी प्रकार हनुमान चालीसा भी है । इसीलिए वह अभंग वाणी कही जाती है । वाणी मनुष्यत्व का ईनाम है, मधुर वाणी दिव्यत्व का पुरस्कार है तथा सारवाणी ईश्वर की .पा है, इन तीनों के मिलने से जो वाणी होती है उसे संतवाणी कहते है ।  यह संत वाणी मानव को हंसते-हंसते सावधान करती है ।  मानवी जीवन को नया मोड देती है ।

संत तुलसीदासजी की हनुमान चालीसा भी एक वाणी है जिसके साक्षी भगवान शिव है ।  हनुमान चालीसा मानव जीवन को प्रकाशित करने में सक्षम है ।  इसलिए हनुमान चालीसा का गहराई से स्वाध्याय करना चाहिए जिससे मानव जीवन अवश्य प्रकाशित होगा तथा उसे जीवन में अवश्य सफलता प्राप्त होगी ।
चौपाई:- जो शत बार पाठ कर कोई । छूटहि बंदि महा सुख होई ।।  (38)
अर्थ : जो कोई इस हनुमान चालीसा का पाठ करेगा वह सब बन्धनों से छूट जायेगा और उसे परमानन्द मिलेगा ।
गूढार्थ : तुलसीदासजी ने लिखा है कि जो सौ बार हनुमान चालीसा का पाठ करेगा उसे सब बंधनो से मुक्ति मिलेगी तथा सुख की प्राप्ति  होगी । यहाँ पर तुलसदासजी ने जो ‘शत बार’ शब्द का प्रयोग किया है, ‘शत बार’ यानी बार-बार ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ करना चाहिए यह अभिप्रेरित है । गोस्वामी तुलसीदासजी का अभिप्राय यह है कि हनुमान चालीसा में भक्त श्रेष्ठ हनुमानजी का जो चरित्र चित्रण है उसका स्वाध्याय बार बार करना चाहिए । केवल पाठ करने से क्या होगा? पाठ करने से अवश्य वाणी पवित्र होगी, किन्तु स्वाध्याय करने से जीवन का दृष्टिकोण बदलेगा और फिर सब बंधनों से मुक्ति मिलेगी । जो ग्रंथ पढना है उसके प्रति आत्मीयता और आदर होना चाहिए तभी संस्कार होंगे ।  हनुमान चालीसा पढते समय हनुमानजी कैसे हैं? हनुमानजी के विविध गुणों को जानकर-पहचानकर सभी बंधनों से मुक्त हो सकते हो ।  तुमको जो पाश (बंधन) लगे हुए हैं उनसे मुक्त हो सकते हो ।

व्यावहारिक जीवन में पारिवारिक लोगों के लिए मुक्ति यानी दु:ख, दैन्य व दारिद्रय से मुक्ति । प्रत्येक व्यक्ति परेशान है । उसकी परेशानी कौनसी है? दु:ख! कुछ दु:ख आये हुए हैं और कुछ आनेवाले हैं । उनकी विवंचना-भ्रम यही व्यक्ति का दु:ख है।  इस दु:ख से मुक्ति चाहिए ।  इसलिए भक्ति की किसी भी अवस्था में नितांत आवश्यकता है ।  दु:ख से मुक्ति का अर्थ दु:ख आयेंगे ही नहीं ऐसा नहीं है । दु:ख लगेगा ही नही । दु:ख आना अलग बात है दु:ख लगना अलग बात है । जीवन का दृष्टिकोण (Out look) बदलेगा तो दु:ख आयेगा पर लगेगा नही ।दु:ख, दैन्य और दारिद्रय को निकालना पडेगा । उसके लिए स्वाध्याय करना चाहिए ऐसा गोस्वामीजी का अभिप्राय है ।

गीता, रामायण और हनुुमान चालीसा क्या है किसलिए है इसे समझने के लिए बार बार इन ग्रंथोंका पठन, श्रवण, मनन तथा स्वाध्याय करना चाहिए ।  प्रतिदिन बुद्धि पर स्वाध्याय रुपी हथौडे की चोट पडनी चाहिए तभी बुद्धि शुद्ध रहती है । शरीर को शुद्ध-स्वच्छ रखने के लिए जिस प्रकार आजीवन स्नान आवश्यक है उसी प्रकार बुद्धि को भी ‘स्वाध्याय सरिता में बार बार स्नान कराना आवश्यक है ।  विचार समझने के बाद भी बार बार स्वाध्याय करना चाहिए नहीं तो जिस प्रकार खाली पडे हुए लोहे पर जंग चढ जाती है और यदि जंग निकालना हो तो उसे मिट्टीके तेल में भिगोये रखना पडता है । इसी प्रकार बुद्धि को स्वाध्याय के तेजस्वी विचारों में सतत भिगोना पडता है । स्वाध्याय में हमें अपने मनको पहचानना सीखना है । स्वाध्याय अर्थात् मन और बुद्धि की गढाई करना । हम किसी दिन मन का विचार ही नहीं करते है ।  मनके अध्ययन द्वारा अपने विकारों को पहचानना और पहचानकर उनको हटाते जाने का नाम ही ‘अध्यात्म’ है । इसीलिए तुलसीदासजी ने ‘शत बार’ यानी बार बार शब्द का प्रयोग किया है ।  विचार और आचार इन दोनों का प्रतीक वाणी है ।  केवल पठन ही पयाप्त नही है शुभ आचरण भी होना चाहिए ।

यह शरीर भगवान का है ।  इस शरीररुपी क्षेत्र में क्या बोना है यह हमें निश्चित करना है । मनुष्य सचमुच बडा चालाक है ।  उसको पहचानना कठीन है । ज्ञानेश्वरी, गीता, रामायण आदि के सामने सिर झुकायेगा, परन्तु उनके अनुसार आचरण नही करेगा ।  शुभ आचरण अपेक्षित है ।

गुजराती भाषा में प्रथम पाठ और फिर पूजा करने को कहते हैं । ‘पाठ पूजा’ शब्द गुजाराती भाषा में रुढ बन गया है । प्रथम पाठ- स्वाध्याय का महत्व है । आज घर-घर में हनुमान चालीसा का पाठ होते ही है । परन्तु पाठ यानी स्वाध्याय! हम पाठ करते हैं परन्तु स्वाध्याय नही करते ।  पाठ के साथ-साथ अच्छा साहित्य लेकर उसका स्वाध्याय करना चाहिए । वह प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है ।  भक्ति का अर्थ यह है कि उसका मन और बुद्धि पर परिणाम होना चाहिए। मन और बुद्धि पर परिणाम होने के लिए अच्छा साहित्य पढना चाहिए ।
‘हनुमान चालीसा’ पढकर भी यदि मनुष्य मे निर्भयता, .तज्ञता, भावमयता, .तिप्रवणता, अस्मिता आदि गुण नही आये तो उसने ‘हनुमान चालीसा’ पढा है ऐसा कैसे कहा जाएगा? तात्पर्य यह केवल पाठ पढने से प्रकाश नहीं आता ।  बुद्धि कामनाग्रस्त होगी तो उस बुद्धि में प्रकाश नहीं पडता है ।  कामना रहित बुद्धि में प्रकाश आता है । ‘नही चाहिए’ का सुख यानी पाश (बंधन) से मुक्त होने का सुख!

आज हम मानते हैं कि भक्ति से मन बदलेगा, परन्तु भक्ति का अर्थ क्या है? जप करना, उपवास करना अथवा नवरात्रि में रात भर गरबा खेलने जाना इतना ही अर्थ हम समझते हैं ।  भक्ति का परिणाम मन पर होना चािहए, जीवन के दृष्टिकोण पर होना चाहिए । जीवन, वित्त, व्यक्ति, घर-गृहस्थी, कीर्ति इनकी ओर देखने के दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता है । यह दृष्टिकोण बदलने का नाम भक्ति है । हमने तिलक लगाया है या नही यह स्वतंत्र बात है ।  तिलक लगाना ही चाहिए यह बुद्धि की पूजा है, परन्तु दृष्टिकोण बदला है या नही, अथवा बदलने जीवन के दृष्टिकोण पर होना चाहिए । जीवन, वित्त, व्यक्ति, घर-गृहस्थी, कीर्ति इनकी ओर देखने के दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता है । यह दृष्टिकोण बदलने का नाम भक्ति है । हमने तिलक लगाया है या नही यह स्वतंत्र बात है ।  तिलक लगाना ही चाहिए यह बुद्धि की पूजा है, परन्तु दृष्टिकोण बदला है या नही, अथवा बदलने की कुछ कोशीश चल रही है यह भक्ति में प्रथम बात है । जीवन का दृष्टिकोण बदलना चाहिए ।  सद्विचार से आचार बदलता है और आचार से जीवन बदलता है । जिस प्रकार शरीर से वस्त्र बडा होना चाहिए वैसे आचार से विचार बडे होने चाहिए ।

विचारों का बहुत बडा प्रभाव पडता है ।  इसलिए कुविचार के आनेपर मन के अध:पतन में देर नही लगती और सुविचार स्थिर रहे तो मन की उध्‍र्वगति में समय नही लगता । विचार में इतनी शक्ति है । इसलिये अच्छे विचार आये कि प्रगति होगी ही, इसमे संदेह नही है ।  विचार यह बडी शक्ति है ।

मनुष्य को प्रामाणिक विचारों तथा प्रामाणिक वाणीका बनना चाहिये । ऋषि कहते हैं ‘वाच:सत्यम्’ अर्थात् भगवान! मै प्रामाणिक वाणी का बनूँ, सत्य बोलने वाला बनूँ ।  सचमुच! तुम सत्य विचार करो और सत्य बोलो, तो तुम कह नही सकोगे कि तुम अपनी शक्ति से चलते हो ।  तुम खाते है सच, तुम बोलते है यह भी सच, परन्तु तुम ठीक से विचार करोगे तो तुम्हे लगेगा कि तुम्हे कोई तो भी चलाता है, खिलाता है और तुमसे कोई  बुलवाता है ।  इसलिए ऋषि जगज्जननी को कहते है, माँ! मेरी विचार संपदा पर तुम्हारा सच्चा और प्रामाणिक छत्र रहने दो और मेरे विचार सच्चे और प्रामाणिक रहने दो ।

विचारों से मनुष्य बदलता है और विचार शब्दों से व्यक्त होते है ।  शब्द में ऐसी शक्ति है । ‘अस्य शब्दस्य अयमेव अर्थ: इति ईश्वरेच्छा संकेत: शक्ति:’ हमारे वैयाकरणी लोग ‘स्फोट’ को ब्रम्ह मानते है ।

एक राजा था ।  उसके दरबार में एक कवि आया करता था और राजा को कविता सुनाता था ।  उस कवि का छोटा भाई भी कवि था ।  एक दिन कवि को बाहर गाँव जाना पडा ।  उसने अपने छोटे भाई को राजदरबार में जाने को कहा । जब छोटा भाई दरबार में गया तो राजा ने पूछा‘ आज कौन लडका आया है?’ राजा को कहा गया कि यह अपने कवि का छोटा भाई है और यह भी कवि है ।  राजाने कहा ऐसा? तो फिर उसे जो कविता सुनानी हो वह सुनायें।’
कवि ने कहा,‘राजा साहब! मैं कविता सुनाऊँगा परन्तु आपको हाथ धोकर बैठना होगा ।’
राजाने कहा,‘क्यो? मैं हाथ क्यों धोऊँ ?  कविने कहा, ‘आप नाराज नही होंगे तो कहता हूँ ।’
राजाने कहा, ‘कहो ।’
कवि बोला, ‘महाराज! ‘आपने आज तक केवल शृंगार सुना है और शृंगार की जुगाली की है ।  अत: आपके हाथ से बिना शृंगार के दूसरा कुछ हुआ नही है ।  ऐसा, केवल शंृंगार में डूबा हुआ हाथ आपके जैसे महान व्यक्ति की मूँछों पर गया तो मुझसे सहन नही होगा ।  इसलिए आप हाथ धोकर बैठें ।
राजाने पुछा, ‘तेरी कविता मे ऐसा क्या है कि मेरा हाथ मूँछोंपर जायेगा?’
कविने कहा, ‘मै गाने लगूँगा तब आपका हाथ मूछोपर जायेगा ही ।  अत: आपका हाथ स्वच्छ होना चाहिए ।
राजाने कहा, ‘तेरी कविता में ऐसा भी क्या है और यदि मेरा हाथ मूँछोंपर नही गया तो?’ ‘मेरी गर्दन उडा देना’ कविने कहा ।
ऐसा स्वीकृत होने पर राजा ने हाथ धोये । उसको लगा कि इस घमण्डी पण्डित का घमण्ड उतारना चाहिए ।  ऐसा निश्चय करके राजाने अपने हाथ पीछे रखे, जिससे भूल से भी हाथ मूँछोंपर न जाएँ ।  उसके बाद कविने प्रारंभ किया । कविने वीररस प्रकट करनेवाले काव्यों का गायन किया । राजा राजपूत था ।  पाँच मिनट में ही वह कवि के काव्य में तल्लीन हो गया और यकायक राजा का हाथ मूँछपर गया ।  राजा को इसका भान ही न रहा ।  वह कविपर खुश हुआ और उसको इनाम दिया । कहने का तात्पर्य यह है कि शब्द में शक्ति है, वाणी में सामथ्‍र्य है ।  परन्तु आज किसी को वाड़मय अच्छा नही लगता । ‘भाषा चाहिये’ ऐसा नही लगता ।  आज का मनुष्य यंत्रशक्ति की धुन में शीघ्र गति से गया तो मुझे लगता है कि विश्वविद्यालयों ़(Universities) मे वाड़मय शाखा के व्यक्ति मिलेंगे ही नही, क्योंकि (Arts faculty) किसी को भी नही चाहिए ।  सबको रुपये, पैसे चाहिये ।  वाड़मय की शाखा अर्थात केवल गीता, रामायण ही नही ।  समाज को -राष्ट्र को अच्छे अर्थशास्त्री और राजनीतिज्ञ चाहिये या नही? उनको कहाँसे लायेंगे? एस.एस.सी. में लडको को 45 प्रतिशत अंक मिले होंगे तो भी पिता उसको सायन्स की शाखा में भेजना चाहता है ।  ऐसे पिता को कुछ अक्ल है? लडके को सभी विषय भाषा विभाग के हो फिर भी उसको सायन्स की ओर ही जाना चाहिये । ऐसे गतानुगतिक होने के कारण पागल के समान प्रवाह-पतित बनकर बहते जा रहे है ।  वाड़मय शाखा को जला डालोगे तो मनुष्य जल जायेगा ।

भाषा यह बहुत बडी समृद्धी है, शक्ति है ।  मनुष्य भाषा से सुधरता है और विचारों से बदलता है ।  कानून से मनुष्य न सुधरता है न बदलता है । कानुन से मनुष्य को कैसे सुधारेंगे? कानून द्वारा शब्द का उल्टा सुलटा अर्थ किया जा सकता है ।  इसमे क्या है?  कानून बनाया और उसकी स्याही सूखती है, न सूखती है इतने में उसको तोडने के सभी रास्ते बन जाते हैं ।  शेक्सपियर के ‘मर्चन्ट ऑफ व्हेनिस’ नाटक में पोर्शिया कानून का आधार लेकर कहती है कि मेरे मुवक्किलका माँस रक्त की एक भी बूँद गिराये बिना ले सकते है, क्योंकि दस्तावेज में रक्त देने की बात नही लिखी है ।  कानून में शब्द का ही अर्थ निकालकर सब व्यवहार चलता है । अत: कानून से मनुष्य नही सुधरेगा ।  सुधार करना हो तो बचपन से ही मनुष्य पर प्रामाणिक व सच्चे विचारों के संस्कार करने चाहिये ।

तुलसीदासजी ने जो लिखा है, ‘जो शत बार पाठ कर जोई’ यानी बार बार सद्विचारोंका स्वाध्याय करना चाहिए । ‘शतबार’ यानी बार-बार ।  हम व्यवहार में भी बोलते है कि मैने तुझे सौ बार कहा फिर भी तू मेरा कहा नही मानता । यहाँ पर हम सौ बार शब्द का जो प्रयोग करते हैं उसका अर्थ बार-बार ही होता है, उसी प्रकार तुलसीदासजी ने जो ‘शतबार’ शब्द प्रयोग किया है हमें उसको उसी अनुरुप लेना चाहिए ।
‘हनुमान चालीसा’ मे छुपे हुए गूढ अर्थ को समझनेका प्रयत्न करना चाहिए ।  हनुमत चरित्र पर बार बार चिन्तन करना चाहिए ।  तथा उसके अनुरुप जीवन को बदलने का प्रयत्न करना चाहिए ।  तो ही हमे सब बंधनों से मुक्ति मिलकर परम आनन्द की प्राप्ति होगी ।  इसीलिए तुलसदासजीने लिखा है, ‘जो शत बार पाठ कर कोई, छुटहि बंदि महा सुख होई।’

चौपाई:-जै जै जै हनुमान गोसाईं । कृपा करहु गुरु देव की नाईं ।।  (37)
अर्थ : हे स्वामी हनुमानजी ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो, ।  आप मुझ पर कृपालु श्री गुरुजी के समान कृपा कीजिए ।
गूढार्थ : तुलसीदासजी लिखते हैं, हे हनुमानजी आपकी जय हो ऐसा तीन बार उन्होने लिखा है, इसके पीछे गहरा अर्थ छुपा हुआ है । हम जब आपस में एक दूसरे से मिलते हैं तब, ‘जय रामजी की’ या ‘जय श्रीकृष्ण’ कहते हैं ।  इन में से कोई भी बोलो मगर भगवान की जय होनी चाहिए ।  यह सुनकर मेरे मन में एक प्रश्न खडा होता है, जबकि यह प्रश्न बोलने वाले के मन में खडा नहीं होता है बोलनेवाला जोर से बोलता है ‘जय रामजी की’ परन्तु जय कहाँ होती है? युद्ध में दोनाें में से एक की जय होती है, परन्तु यहाँ युद्ध किसके साथ है? राम के साथ या .ष्ण के साथ या हनुमानजी के साथ? इस बातका कभी किसी ने विचार नहीं किया है ।  लोग कहते हैं कि आसुरी संपत्ति की लडाई है, परन्तु भगवान की लडाई किसके साथ है? भगवान  का युद्ध मेरे ही साथ है ।  शरीर में दो जन है- जीव और शिव ।  भगवान कहते है: ‘यह शरीर मेरा है और मेरे लिए है’ और जीव कहता है, ‘यह शरीर मेरा है और मेरे लिए है’ ऐसी लडाई चल रही है ।  उसमें भगवान! आपकी जय होनी चाहिए ।  जिसके जीवन में भगवान की जय होती है उसे हम सन्त कहते हैं ।  सन्त कहते है कि, ‘यह देह भगवान का है, भगवान के लिए है’ भगवान को भी देह के उपर अपना हक्क सिद्ध करने के लिए दलीले देनी पडती है। ‘क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारतं ’। फिर भी हम समझते हैं कि देह हमारा है, हमारे लिए है, हम जैसा उपयोग करना चाहे वैसा उपयोग करेंगे ।

हमारे जीवन में भगवान की जय नहीं है, पराजय है ।  एक दिन ऐसा आना चाहिए जब कृष्ण की जय हो, रामजी की जय हो, हनुमानजी की जय हो ।  ‘मेरा  शरीर भगवान के लिए है’ यह बात अन्दर की वृत्ति पर निर्भर है ।  यह शरीर मेरा नहीं है, उसका है, उसके लिए है ।  हनुमानजी का शरीर भगवान राम के लिए था इसलिए उनके जीवन में भगवान  की जय हुई इसीलिए तुलसदासजी लिखते हैं, ‘जय जय जय हनुमान गोसाई।’ महापुरुष कहते हैं हमारी पहली मुलाकात भगवान के साथ होनी चाहिए (our first appointment must be with god) और बचा हुआ समय अपने लिये रहना चाहिए ।  हम ठीक इसके विपरीत करते हैं । हमारी भगवान के साथ मुलाकात अन्त में होती है ।  इतना ही वृत्ति मे अंतर है । यह वृत्ति जीवन में जिसने स्थिर की, उसके जीवन में अनन्यता आती है ।
कृष्ण के साथ हमारी लडाई चालू है ।  मैं कहता हूँ जगत मेरा है, मेरे लिए है, ‘और .ष्ण कहता है, ‘जगत मेरा है और मेरे लिए है’ अन्दर ऐसी लडाई चालू है ।  उसमें भगवान की जय होनी चाहिए । लोग ‘जय श्री.ष्ण’ बोलते हैं मगर उन्हे उसका अर्थ मालूम नहीं है ।  कितने ही लोग कहते हैं कि ‘हमारे धरम में ऐसा है  इसलिए हम ऐसा कहते हैं ।  भगवान ! शरीर तुम्हारा है और तुम्हारे लिए हैं । ऐसी वृत्ति तैयार होनी चाहिए, तभी जय श्री.ष्ण बोलने का अर्थ है ।

भगवान कहते हैं इस व्यक्ति को मैने इतनी अच्छी बुद्धि दी, किन्तु ‘मै कौन हूँ?’ इस एक बातको यह समझ नहीं सका । भगवान ने कहा था, ‘तू एक पाठ रटकर आ ।  उसके बाद मैं तुझे दूसरा  पाठ पढाऊँगा ।  वह पंक्ति थी-इस जन्म में ‘मैं मनुष्य हूँ’ ;  दूसरे जन्म में ‘मैं दैवी मनुष्य हूँ’  तीसरे जन्म में ‘मै देव का मनुष्य हूँ’ और चौथे जन्म में ‘मै देव हूँ’ बस समाप्त हो गया ।  इतना पाठ पक्का हुआ कि पर्याप्त है ।  फिर क्या चाहिए? गीता में भगवान ने कहा है: ‘बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते’ ‘बहूनां’ अर्थात् एक वचन, द्विवचन और बहुवचन । ‘बहुवचन’ अर्थात् कम से कम तीन, इसीलिए तुलसीदाजी ने तीन बार हनुमाजी की जय कहा है, अर्थात् हमको कमसे कम तीन जन्म लेने पडेंगे इन तीन बातों को जीवन में उतारने के लिए और उसके बाद ही भगवान की पूर्णत: जय होगी ।
भगवान ने छगनलाल को पाठ दिया, ‘मैं मनुष्य हूँ’ और उसे कहा,  ‘जा, यह पाठ ठीक से याद कर आ ।’  छगनलाल यहाँ आया और इस पाठ को रटने लगा ।  पर आठ नौ वर्ष के बाद ‘मै मनुष्य हूँ’ के बदले   ‘ मैं हूँ ’ ऐसा रटने लगा । बीचमें ‘मनुष्य’ (शब्द) ही वह खा गया । अब, जो मनुष्य ही नहीं रहा उसे मुक्ति कैसे मिलेगी ? माँ की गोद में जाकर बैठने पर उसे ‘मैं मनुष्य हूँ’ ऐसा पाठ माँ से मिला, परन्तु ‘मै हूँ’ इतना ही उसके ध्यान में रहा, इसका माँ को दु:ख होता है । मनुष्य को इतना भी ज्ञान नहीं है कि ‘मै कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, किसलिए आया हूँ, मेरा रहने का स्थान कहाँ है?’

रामकृष्ण परमहंस की एक बात है ।  उन्हे एक दिन एक भाई मिला ।  बंबई शहर का कोई व्यापारी रहा होगा ।  उसे मुफ्तमें भगवान चाहिये थे ।  ‘बेटा, तेरा भला हो जायेगा।’ ऐसा कहकर कोई उसे भगवान मिला दे तो उसे चाहिये था ।  वह भाई राम.ष्ण परमहंस के पास गया और बोला, ‘आपके पास भगवान आते है । आप रोज उन्हे मिलते है, उनके साथ बातें करते हैं, तो अब ऐसा कीजिए कि भगवान जब आपके पास आएंगे तब उन्हे मेरा पता दीजिये, जिससे से वे मेरे यहाँ भी आयेंगे ।  आप भगवान को कहेंगे तो आपका कहना बेकार नहीं जाएगा, वे जरुर मेरे यहाँ आयेंगे ।

रामकृष्ण परमहंस ने कहा, ‘ऐसा? तो ठीक है ।  मैं तुम्हारा पता भगवान को जरुर दे दूँगा ।  यह सुनकर वह भाई खुश हो गया ।  इतने में रामकृष्ण परमहंस ने कहा, पर तुम्हारा पता तो मुझे दो ।  वह बेचारा अपने घर का पता बताने लगा कि, 24, चौरंगी................’

तब रामकृष्ण ने कहा, ‘यह तो तुम्हारे घर का पता है, तुम्हारा नहीं है ।  तुम्हारा पता कहाँ है? तुम्हारा ही पता मुझे ज्ञात नही है ।  जिस दिन तुम्हारा पता तुम्हे मिलेगा उस दिन मैं भगवान को तुम्हारे यहाँ भेज दूँगा ।  तुम गलत पता मुझे दे रहे है, तब मैं भगवान को कैसे भेजूँ? मैं जरुर भगवान को भेज दूँगा, इसमें मेरा क्या जाता है? दो शब्द कहने से किसी का भला होता हो तो मैं क्यों नहीं कहूँगा? पर भगवान को तुम्हारा कौनसा पता दूँ? तुम्हारा पता हीं नहीं है । मूल बात यह है कि, जीव इतना बुद्धिशाली है कि विश्व की समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न करता है, परन्तु उसको अपना स्वयं का पता ही ज्ञात नही हैं ।

ज्ञान एक ही है वह है ‘तत्त्वमसि’ का ज्ञान । ‘तत्त्वमसि’ काफी बडा तथा कठीन शब्द है ।  इसलिए हमारे आचार्यों ने इसकी अलग अलग व्याख्या की है ।  इस शब्द को तोडकर अलग अलग रास्ते दिखाए हैं ।  इस महावाक्य का प्रकाश मनुष्य की बुद्धि में पडे इसलिए इन महान आचार्यों ने उसके तीनों अथों‍र् पर भाष्य लिखे हैं । मै कौन हूँ, किसका हूँ, किसके लिए हूँ, किसके कारण हूँ इन बातों की स्मृति हमें नहीं है ।  आचार्याें का कहना है, कि वास्तव में तत्वमसि के अलग अलग अर्थ होते हैं ।  उन्होने इस शब्द को तोडकर अलग अलग रास्ते दिखाए,  परन्तु सबकी मंजील एक ही है ।  सब का अर्थ एक ही है ।  मगर उन आचार्यों के अनुयायी पूर्वाग्रह पकडे बैठे हैं और कहने लगे हैं कि यही आचार्योंका कहना है ।

एक छोटा बालक स्कूल जाता है तो पहले दिन उसे पढाया जाता है 4 + 4 = 8, और दूसरे दिन पढया जाता है 5 + 3  = 8 और तीसरे दिन पढाया जाता है 6 + 2  = 8 अब वह बालक परेशान हो जाता ह,ै वह कहता है हमारे मास्तर बराबर नहीं पढाते एक दिन एक बात कहते हैं तथा दूसरे दिन दूसरी बात कहते हैं इसलिए मुझे स्कूल नहीं जाना है ।  यही बात उन आचार्यों के अनुयायीयों की है सब का अर्थ एक ही है परन्तु समझाने का ढंग अलग अलग है, परन्तु वे आपस में बिना समझे झगडते रहते हैं।

माधवाचार्य कहते है, ‘तेन त्वम् असि’ उसके कारण तू है, ‘वल्ल्भाचार्य, रामानुजाचार्य कहते हैं, ‘तस्य त्वम् आसि’ उसका (भगवान का) तू है’ ।  शंकराचार्य कहते हैं ‘तत् त्वम् असि’- मैं भगवान के कारण हूँ, मेरा उठना, रहना, सोना सब उनके (भगवान के) कारण हैं, परन्तु यह स्मृति चली गयी है ।  पीत्वां मोहमयी प्रमादमदिरां उन्मत्तभूतं जगत्.......। मैं कौन हूँ, किसके कारण मैं खडा हूँ, मेरी बुद्धि किसके कारण चलती है इसका विचार करने का समय भी लोगो के पास नहीं है । उनको ये सब बेकार की बाते लगती है ।  उनकी बुद्धि-(मेधा) का विवाह प्रसिद्धि, कीर्ति, वैभव, भौतिक सुख के साथ हुआ है ।  इन बातों के पीछे वे पागल बने हुए हैं । मेधा का विवाह धर्म के साथ हो तभी सच्ची बातों की स्मृति रहेगी ।

जीवन में रहा अंधेरा कौन पहले निकालता है? क्या सूर्य निकालता है? पहले उष:काल आता है फिर सूर्योदय होता है । उष:काल होने के बाद महापुरुष पधारते हैं ।  इस तरह उसे ‘तेन त्वम् असि’ तेरे कारण मै हूँ, ऐसा लगा ।  अत: माधवाचार्य कहते हैं तेरे कारण मै हूँ यही वृत्ति प्रकाश है । अध्यात्म में तुम्हारा होने की वृत्ति का प्रकाश-न सुर्य का, न चंद्र का, न अग्नि का है बल्कि इस वृत्ति का प्रकाश महावाक्य के बोध से होता है ।

वर्षा होने से धरती पर हरियाली उगती है मगर पत्थर वैसे ही रहते हैं ।  वर्षा तो दोनो जगह होती है, मगर पत्थर पर कुछ नहीं उगता । इसी तरह इन महापुरुषों का जो महावाक्य-बोध है कि ‘तेन त्वम् असि’ उसके कारण मैं हूँ, यह वाक्य यदि जीवन में आए तो अंधेरा खत्म होकर सुबह होगी ।  मेरे पास जो कुछ भी है वह तुम्हारे कारण है ।  मेरे पास पैसे, कीर्ति, मान- सन्मान जो भी है वह सब तुम्हारे कारण है । मनुष्य को इसका पता तो है मगर प्रकाश नहीं पडा है ।
मेरी आँखे उसके कारण देख सकती है ।  मेरा शरीर उसके कारण चल रहा है ।  मुझे उसके कारण पैसे मिलते हैं ।  इस सीढी पर हमें आना है ।  हम स्वयं कमाते हैं, अथवा हमें भाग्य से मिला है? सभी में भगवान हैं यह ज्ञान तो हुआ, परन्तु मुझमें भगवान है यह मुझे मालूम नहीं पडता ।  इसलिए ज्ञान अलग बात है और समझ  अलग बात है ।  मेरा सब कुछ उसके कारण है ; यह बोलने की बात नहीं बल्कि समझने की बात है ।  इसलिए हमारे पुराने वाड़मय में दो शब्द  है, ज्ञान और बोध । ‘उसके कारण तू है’ यह बोध होना चाहिए ।

‘मैं भगवान के कारण हँू’ यह भावना दृढ होनी चाहिए ।  यह बात काफी कठीन है ।  हमारा अहं बीच में आता है ।  लडका उत्तीर्ण हुआ तो हम कहते हैं कि काफी मेहनत करता था, यदि वह अनुत्तीर्ण हुआ तो हम कहते हैं कि भगवान से देखा नहीं गया, भाग्य उल्टा था इसलिए वह अनुत्तीर्ण हुआ ।  हमारा यह रोज का व्यवहार है ।  अत: हमें अपना व्यवहार जाँचने की जरुरत है ।

‘मै भगवान के कारण हूँ, यह वृत्ति जीवन में बढनी चाहिए । आज भक्ति  केवल कृति में आकर बैठी है ।  भगवान के भजन गाने, भगवान को हार पहनाना, भगवान को नैवेद्य धरना केवल इसी को हम भक्ति समझ बैठे हैं ।  यह भक्ति नहीं है ऐसा  मैं नही कहता हूँ, परन्तु भक्ति केवल कृति नहीं एक वृत्ति है । यह वृत्ति बदलती न हो तो कृति का कोई अर्थ नहीं है, अत: ‘तेन त्वम असि’ उसके कारण तू है यह पहली सीढी है ।
हम ‘तेन त्वम असि’ ऐसा कहेंगे, कदाचित् आरती गायेंगे या रटेंगे मगर हमारे जीवन में उसका प्रकाश नहीं है ।  इसीलिए अंधेरा खत्म नहीं होता ।  महावाक्य के बोध से बुद्धि में प्रकाश आता है ।  हम तो बिना समझे चर्चा करने लगते हैं, कोई कहता है हम शंकराचार्य के मत के हैं और कोई कहता है हम तो रामानुजाचार्य के मत के हैं ।  जिन्होने शंकराचार्य को पहचाना नहीं तथा रामनुजाचार्य को जाना नहीं वे बिना समझे ऐसी चर्चा करते रहते हैं ।

तुम्हारे कारण मैं हूँ, मेरी प्रत्येक बात तुम्हारे कारण है ।  पत्नी तुम्हारे कारण है, बच्चे तुम्हारे कारण, माँ-बाप तुम्हारे कारण, कृति भी तुम्हारे कारण है ।  तुम ही मेरा वैभव हो । भगवान! तुम्हारा होना बहुत बडी बात है, इसलिए तुम्हारे कारण मैं हूँ यह पहली बात हैं ।

उसके बाद ‘तस्य त्वम् असि’ उसका तू है यह दूसरी बात है ।  मैं उसका हूँ, मैं उसका गुलाम हूँ, मैं उसका नौकर हूँ, मुझे मजदूरी चाहिए मगर उसी के पास से चाहिए ।  दूसरे किसी के पास भिख नहीं माँगूगा, लाचारी नहीं करुँगा ।  इन अलग अलग अवस्थाओंमे अलग अलग प्रकाश है ।

‘तस्य त्वम् असि’ इस प्रकाश में भगवान के साथ संबंध रखना है, उसका मैं कौन हूँ, मैं उसका कोई हूँ ।  मैं उसका गुलाम हूँ, नौकर हूँ, उसी तरह मैं उसका पुत्र हूँ ।  ‘तस्य त्वम् असि’ अलग अलग प्रकाश है ।  मैं भगवान का हूँ इतना कहकर नहीं चलता भगवान के साथ बाप का सम्बध रखना है ।  मेरे पास रही निपुणता (Efficiency) भगवान के लिए है, ऐसी समझ आनी चाहिए ।  हम सब अभ्यासक हैं ।  छोटा बच्चा पूरा लु किसीको जल्दी नहीं देता ।  ‘थोडा तू खा और थोडा दे’ ऐसा कहे तो वह तुरन्त तैयार हो जाता है ।  इसी तरह हमें कठीन न लगे इसलिए शास्त्रकारोंने कहा कि तुम्हारी निपुणता भले तेरे लिए इस्तेमाल कर परन्तु उसका थोडा सा भाग भगवान के कार्य में इस्तेमाल करो ।  हम ऐसे भक्त है कि अपना जीवन का अमूल्य भाग बाजार में अपने काम काज मे इस्तेमाल करते हैं और बचा हुआ भाग भगवान के काम में इस्तेमाल करते हैं ।

‘स्वकर्मणा तमभ्यच्‍र्य’ अपने कर्म से भगवान की पूजा अर्चना करें, तो जितना फल किसी यज्ञ करनेवाले, भजन करनेवाले को मिलता है उतना ही फल इनको भी मिलेगा ।

‘तस्य त्वम् असि’ के बाद ‘तत्त्वमसि’ इस महावाक्य के बोध से प्रकाश पडता है ।  प्रकाश के बटन दबाने से यह प्रकाश नहीं आता है ।  इस महावाक्य के बोध से मैं उसे दुरुस्त कर सकता हूँ, मैं फिटींग करुँगा, बल्ब लगाऊँगा, यह सब मेरी साधना है ।  मगर अन्दर प्रवाह कौन रखेगा? प्रकाश अन्दर आने के लिए बटन कौन दबायेगा’ किसे पता है बटन कहाँ है? हम अंधेरे में है ।  अत: यह सब करेंगे तो प्रकाश आयेगा ।

तेजस्वी आदमी क्या है? तेजस्वी आदमी अर्थात जलानेवाला आदमी नहीं ।  कितने ही लोग गुरु महाराज की छबी बनाते हैं और उसके पीछे तेज का गोला बनाते हैं ।  तेजस्वी यानी प्रकाश ।  यह प्रकाश महाकाव्य का बोध है ।  इस महाकाव्य का बोध सद्गुरु की .पा से जिनके जीवन में होता है उसके जीवन में भगवान की जय होती है ।  इसीलिए इन तीन बातों को जीवन में लाने के लिए तुलसीदासजी ने तीन बार जय शब्द का प्रयोग किया है और लिखा है, ‘जय जय जय हनुमान गोसाई, कृपा करहु गुरु देव  की नाई’।

केवल बोलने से ही तुम उसका नहीं होते हो, ‘उसके कारण तुम हो’, ‘उसके तुम हो’ और ‘वही तुम हो’ ये जो ‘तत्त्वमसि’ के अर्थ हैं उन्हे जीवन में लाने के लिए सत्संग सत्शास्त्र स्वाध्याय करना है ।  रोज ऐसी वृत्ति  तुम्हारी होती जाएगी तो अन्दर परिवर्तन होता जाएगा और फिर तुम्हारे मन, बुद्धि, जीवन इत्यादि बदलते जाएंगे और फिर तुम्हारे जीवन में हनुमानजी की जय होगी ऐसा तुलसीदासजी का कहने का अभिप्राय है ।

रीर के अन्दर जीव और शिव की जो लडाई चल रही है, उसमें भगवान की जय हो अर्थात मेरी पराजय हो ।  जब तक अन्दर लडाई चल रही है, तब तक अस्वस्थता और अशांति रहनेवाली है शांति अपेक्षित हो तो लडाई बंद होनी चाहिए ।  इसके लिए जीव को शिव की शरणागति स्वीकारनी होगी । इसके लिए जीवन में इन तीनो आचार्यों के तत्त्वो को लाना पडेगा ।