Sunday, July 3, 2011

चौपाई:- चारों जुग प्रताप तुम्हारा । है परसिद्ध जगत उजियारा ।। (29) Hanuman Chalisa


चौपाई:- चारों जुग प्रताप तुम्हारा । है परसिद्ध जगत उजियारा ।।  (29)
अर्थ : आपका यश चारों युगों (सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग) में फैला हुआ है, सम्पूर्ण संसार में आपकी कीर्ति सर्वत्र प्रकाशमान हैं ।
गूढार्थ : तुलसीदासजी कहते हैं कि, हनुमानजी का यश चारों युग में फेला हुआ है तथा उनकी कीर्ति से सारा संसार प्रकाशमान हुआ है ।  जो कहने योग्य हो उसे कीर्ति कहते हैं ।  कीर्ति एक शक्ति है। सत्क्ृति का परिणाम बनकर सृष्टिमें जो सद्भावना उत्पन्न होती है उसे कीर्ति कहते हैं। 

तुलसीदासजी लिखते हैं कि, हनुमानजी का यश, प्रतिष्ठा चारों युगों में फैली हुअी है।  प्रतिष्ठा कौन देगा ?  एक बात सच है, जिसे भगवान के हृदयमें प्रतिष्ठा मिली उसे विश्व में प्रतिष्ठा मिलती है।  जगत् में सम्राट, चक्रवर्ती राजा, बडे बडे धनवान हुए और चले गये, उन्हे सब भूल गये, परन्तु नरसीमेहता, तुकाराम, याज्ञवल्क्य, पतंजलि, तुलसीदास, हनुमानजी को सभी आज भी याद करते हैं।  उन्हे प्रतिष्ठा किससे मिली ?  उन्हे भक्ति से प्रतिष्ठा मिली।  भक्ति से मिली प्रतिष्ठा ओईलपेन्ट जैसी है।  आज हम देखते हैं कि, जब कुर्सी पर (सत्ता की) बैठा है तब तक उसे प्रतिष्ठा मिलती है।  वह कुर्सी से निचे उतर गया कि, कोई उसे पुछता नहीं।  प्रतिष्ठा खत्म हो जाती है।  तुम्हारे पास धन हो तो कोई भी तुम्हे नमस्कार करेगा।  वह प्रतिष्ठा तुम्हारी नहीं, तुम्हारे धन की है।  मनुष्य को सच्ची प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए ।

मन की विविध आवश्यकताएं हैं।  उनकी पूर्ति भक्ति से होगी, भगवान से होगी।  आवश्यकता भौतिक, मानसिक, सामाजिक या पारिवारिक भले ही हो परन्तु उसके लिए भगवान की आवश्यकता लगनी चाहिए।  वह लगी तो तुम परिपूर्ण रुप से आस्तिक हो।  तब तक तुम आस्तिक नहीं हो।  मनुष्य जमाने से चली आयी हुई पूजा करता है इसका कारण वह कायर है।  उनको भगवान की आवश्यकता है ऐसा नहीं है। वे भीति से पूजा करते हैं।

जिसे सर्वरुपों से भगवान की आवश्यकता लगती है वही आस्तिक है।  व्यक्तिगत, भौतिक, मानसिक, सामाजिक, पारिवारिक सभी प्रकार के जीवन में भक्ति की आवश्यकता लगनी चाहिए। 

मानसशास्त्र में यश की, सिध्दि की, (Need for success and achivement) आवश्यकता है।  प्रत्येक को जीवन में यश चाहिए।  अपनी कुंडली में राजयोग चाहिए।  प्रत्येक की कुंडली में राजयोग होता है।  भिखारी की कुंडली में भी राजयोग होता है।  उसको भीख में अच्छा पैसा मिलता है।  राजयोग का अर्थ यह नहीं है कि, वह राजा बने।  राजा तो एकाध मनुष्य बनता है, परन्तु यशस्वी बनने की आवश्यकता प्रत्येक व्यक्ति को होती है।

मनुष्य को यश चाहिए। उसके लिए वह अथक प्रयत्न करता है, परन्तु उसे यश नहीं मिलता।  मुझे यश कौन देगा ?  शास्त्रकारोंने अदृष्ट खडा किया।  उन्होने कहा तेरा दृष्ट प्रयत्न है, उसके पिछे अदृष्ट शक्ति होनी चाहिए, तभी तुझे यश मिलेगा।  भगवान के बिना कोई यशस्वी नहीं हो सकता इसलिए भगवान की आवश्यकता है।

मन की एक मांग है वर्चस्व की, उसे वर्चस्व की आवश्यकता ( Need for mastery )कहते है।  वैज्ञानिक चंद्र पर क्यों जाते हैं ?  उनको वर्चस्व चाहिए।  अमेरिका व रुस वर्चस्व पाने के लिए चंद्र पर जाते हैं।  यह वर्चस्व की श्रेष्ठता की अभिलाषा है।
प्रधानमंत्री श्रेष्ठ या पक्षाध्यक्ष श्रेष्ठ ?  ऐसा झगडा चलता है।  गाँव का सरपंच बनने पर श्रेष्ठता मिलती है।  इसलिए सरपंच बनने के लिए लोगों की दौड धूप चलती है।  उनकी शक्ति मर्यादित है।  उनको प्रतिष्ठा कौन देगा ?  जिसे कहीं प्रतिष्ठा नहीं मिलती उसे प्रतिष्ठा की अभिलाषा तो रहती है।  इसलिए प्रतिष्ठा कौन देगा ?  एक बात निश्चित है, जिसे भगवान के हृदय में प्रतिष्ठा मिली उसे विश्व में प्रतिष्ठा मिलती है।  तुलसीदासजी तो लिखते है कि, विश्व ही नहीं अपितु चारों युग में प्रतिष्ठा मिलती है।  हनुमानजी की भगवान के प्रति तथा भगवान के कार्य के प्रति आसक्ति थी।  हनुमानजी राम के सच्चे भक्त थे।  भगवान राम के हृदय में हनुमानजी का विशेष स्थान था इसलिए उनका यश चारों युगों तक फैला।  इसलिए तुलसीदासजी ने हनुमान के यश का वर्णन करते हुए लिखा है ‘चारो युग परताप तुम्हारा।’

हमें भगवान के प्रति आसक्ति निर्माण होनी चाहिए।  भगवान के प्रति आसक्ति निर्माण न हो तो भी भगवान के कार्य के प्रति आसक्ति निर्माण होनी चाहिए।  वह हुई तो आसक्ति का विशुध् रुप से अभ्यास होगा।  वैसा अभ्यास होने पर वही आसक्ति तुम भगवान में रख सकेंगे।  इसलिए कार्यासक्ति होनी चाहिए।

हनुमान राम के सच्चे भक्त थे।  उनको राम के काम की आसक्ति थी।  जब सीता ने अपने नवरत्नों की माला हनुमान को दी तब हनुमान उन रत्नों को तोडकर देखने लगे।  वे रत्न तोडकर देखते थे कि, उसमें राम है या नहीं?    रत्नहार अत्यन्त मूल्यवान था; इसका उनको ज्ञान था, परन्तु उन रत्नों का उपयोग क्या मेरे राम के कार्य में हो सकेगा ?  माला भले ही कितनी ही मूल्यवान हो, परन्तु उसका राम के कार्य में उपयोग न हो तो वह मुझे नहीं चाहिए।  ऐसा हनुमान को लगता था।  हनुमानजी को कोई वस्तु या व्यक्ति मिलता था तब उनके मस्तिष्क में प्रथम यह विचार आता था कि, क्या वह वस्तु या व्यक्ति मेरे राम के कार्य में उपयोगी हैं?  राम के कार्य में उपयोगी हो तो स्वीकारते अन्यथा उनको त्याग देते थे।  इसे कार्यासक्ति कहते हैं।  कोई धनवान होगा परन्तु वह भगवान का काम करता होगा तो हमारा है और भगवान का काम न करता होगा तो उसकी हमें आवश्यकता नहीं है।  हनुमानजी की कार्यासक्ति ऐसी थी । 

हनुमानजी महान बुध्दिशाली थे।  महत्वपूर्ण प्रसंग में रामचंद्रजी हनुमानजी से सलाह लेते थे।  ‘बुध्दिमतां वरिष्ठम्’ यह विरुद प्रभु रामचन्द्र ने ही हनुमानजी को दिया था।  हनुमान कोई ‘वानर’ नहीं थे।  हनुमान एक चक्षु थे।  वे इतना ही देखते थे कि, मेरे राम का काम कितना होता है । शुक्राचार्य एकाक्ष थे ऐसा वर्णन है।  इसका अर्थ यह नहीं की उनकी दूसरी आँख नहीं थी।  उसका अर्थ यह है कि, शुक्राचार्य इतना ही देखते थे कि, राक्षसों की विजय कैसे होगी।  इसके कारण पुराणकारों ने उन्हे एकाक्ष कहा है।  प्रभू कार्य के लिए मनुष्य को इसप्रकार एकाक्ष बनना चाहिए।  एक बार आसक्ति की आदत लग गयी की उसे प्रभुकार्य की ओर मोड सकते हैं।

सर्व प्रथम भगवान के प्रति आसक्ति खडी करनी पडेगी।  उसका अभ्यास करना पडेगा।  अभ्यास यानी ‘तस्य पुन: पुन: करणं नाम अभ्यास:’ किया हुआ बार-बार करना इसका नाम अभ्यास है। आसक्ति का अर्थ क्या है ?  आसक्ति एक रसायन है।  आवश्यकता + ममता  आसक्ति! भगवान की आवश्यकता लगनी चाहिए।  प्रारंभ में भौतिक आवश्यकता होती है।  गृहस्थी मनुष्य को लगता है कि अपनी इच्छा कौन पूर्ण करेगा ?  दीपक में तेल चाहिए।  उसके बिना दीपक प्रकाश नहीं देता।  उसीप्रकार भगवद्भक्ति के लिए संसारासक्ति होनी चाहिए।

यह जगत तुमने अथवा मैने नहीं बनाया है । बनाने वाला दुसरा है, भगवान है । भगवान ने संसार क्यों बनाया है ?  उन्होने आसक्ति क्याें निर्माण की है?  उन्होने मानवीय भावनाए क्यों खडी की है ? यह सब समझ लेना चाहिए और और उसको कैसे रखना है उसकी शि़क्षा मिलनी चाहिऐ भगवान! मुझे रोटी चाहिए, वैभव चाहिए । वह आप ही मुझे देंगे । मैं अकेला असमर्थ हूँ। गुजराथी मे एक भजन है-‘संसार सागर छे एकले तराय ना’ (संसार सागर है, अकेले तैर नहीं सकते......) भौतिक बातें आवश्यक लगती है । जिस प्रकार भौतिक बातें आवश्यक लगती है, वैसे ही मानसिक बातों के लिए भी भगवान की आवश्यकता लगनी चाहिए। जब तक अन्त:करण में भक्ति निर्माण नहीं होती तब तक असली समाज का निर्माण नहीं होगा और एक दुसरे के सम्बन्ध भी शुद्ध नहीं होंगे। एक दुसरे के सम्बन्ध में सुगन्ध आनी चाहिए । भक्ति केवल मंदिर में ही करने की बात नहीं है । भक्ति केवल .ति नहीं, वह वृत्ति है । भक्ति एक सामाजिक शक्ति ( Social force ) है ।
आज समाज निर्माण करनेवाले, समाज को ऊपर लाने का प्रयत्न करनेवाले, दुर्बल वर्ग को ऊपरलाने का प्रयत्न करनेवाले भक्ति को भूल कर प्रयत्न कर रहे हैं, इसलिए वे सफल होंगे या नहीं इसमे संदेह है । अच्छा समाज निर्माण करना हो तो भगवान की आवश्यकता है । परिवार में भी भक्ति की मानसशास्त्रीय आवश्यकता है ।

मन की पुष्टि के लिए भक्ति की आवश्यकता है । उसी के लिए प्रात:स्मरणीय वल्लभाचार्य ने पुष्टिमार्ग बताया है । पुष्टिमार्ग यानी घी-शक्कर खाकर पुष्ट बनना ऐसा नहीं है । कुछ लोगों को पुष्टिमार्ग अच्छा लगता है । इसका कारण उसमें प्रसाद के रुपमें अच्छा अच्छा खाने को मिलता है । भगवान को अच्छे अच्छे पकवान अर्पण करना और प्रसाद के रुपमें खाना, इसका नाम पुष्टिमार्ग नहीं है । आज सब जगह यही भक्ति चल रही है ।

भगवान मन को पुष्टि देते हैं । मनकी आवश्यकताएं परिपूर्ण करनेवाली जो कोई शक्ति होगी तो वह भगवान है । वल्लभाचार्य ने पुष्टर्थ भक्ति समझाकर पुष्टिमार्ग कहा। मन को पुष्टि चाहिए। भगवान के बिना मन को पुष्टि नहीं मिलती । पुष्टिमार्ग पुष्टि देता है । भगवान की आवश्यकता लगनी चाहिए और ममता लगनी चाहिए, तभी मय्यासक्त बना जाता है । हनुमानजीका जीवन ऐसा था इसीलिए तुलसीदासजीने लिखा है ‘चारो जुग परताप तुम्हारा।’

तुलसीदासजी आगे लिखते हैं कि हनुमानजी की कीर्ति कैसी है? ‘है परसिद्ध जगत उजीयारा।’ हनुमानजी के जो गुण है, उनकी जो सत्.ति है जिसके परिणाम स्वरुप सृष्टि में सद्भावना पैदा हुई, जिससे सारा विश्व प्रकाशमान हुआ उसीको कीर्तन कहा जाता है ।यह भगवान की कीर्ति है । हम भगवान की कीर्ति गातें हैं।
सारी सभयता कीर्ति से खडी हुई है । ‘लोग हमे अच्छा कहे, यह भावना हममें भगवान ने रखी है हम कुटुम्ब का पालन करते हैं, लोगों को सम्हालते है ताकि लोग हमें अच्छा कहें, इस भावना ने सभ्यता खडी की है । भगवान ने कीर्ति की अलौकिक भावना खडी की है ।

मुझे पिता, शिक्षक, समाज, सगे-सम्बन्धी अच्छे कहें इसलिए मैं अच्छा बर्ताव करता हूँ । सुधार के लिए ऐसी भावना अत्यावश्यक है । इस प्रकार कीर्ति आवश्यक है । हम छोटे से बडे होते हैं, सज्जन बनते हैं, उसका कारण कीर्ति है । मनुष्य पैसे कमाता है, ज्यादा पैसे क्यो कमाता है? लोग उसे बडा समझे इसलिए ।  लोग मुझे अच्छा कहें यह भावना जब सद्गुण को आहत करती है तब उसके बारे में विचार करना पडता है । कीर्ति की अभिलाषा जब लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन करती है तब वह राक्षस के हाथ में जाती है । कीर्ति की आवश्यकता अद्भूत है, मगर उसे लक्ष्मण रेखा पार नहीं करनी चाहिए।

आज मानव में कीर्ति की तृष्णा इतनी बढ गयी है कि उसको लगता है कि ‘कुछ भी करके अखबार में नाम आना ही चाहिए । उसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार हो जाता है । सेठ भी अपना नाम अखबार में आने के लिए दान देता है । दान देने के पीछे विकास की भावना नहीं है और इसी कारण सद्गुण विकसीत नहीं होते । उनकी .ति उन्हे भगवान तक नहीं ले जा सकती । वास्तव में नाम में क्या है? मेरे कार्य की सुगन्ध भगवान तक पहुँचनी चाहिए, ऐसी कीर्ति की अभिलाषा रखनी चाहिए ।  हनुमानजी के कार्य की सुगन्ध भगवान तक पहुँची इसलिए उनकी कीर्ति से संसार को प्रकाश मिला इसलिए तुलसीदासजी लिखते हैं ‘है परसिद्ध जगत उजियारा।’  आज आदमी सत्कर्म करता है मगर वह लोगों को पता चले इसलिए करता है ।

कीर्ति की अभिलाषा सद्गुण है और इसे भगवान ने ही अन्दर रखा है । सद्गुण मर्यादा में रहे तो विकास के लिए उपयोगी है, परन्तु मर्यादा छोडे तो कीर्ति की अभिलाषा मनुष्य का अध:पतन करती है । परिणाम स्वरुप मानव भगवान से दूर चला जाता है ।

लोगों को खुश करने का प्रयत्न चल रहा है । लोग मुझे अच्छा कहे यही बात सबके मन में है कोई दान क्यों करता है? सामाजिक मान्यता ( Social approbation ) मिले, लोग मुझे समाज का प्रमुख बनाएं इसलिए । किसी को इच्छा होती है कि जब मैं मरुं तब मेरी स्मशान यात्रा में काफी लोग आएं। मगर इसके मरने के बाद बाजार चालू रहे या बन्द रहे इससे क्या फर्क पडता है? मैं तो मानवजाति की ओर से भगवान प्रार्थना करता हूँ कि ‘भगवान, तुमने मुझे काफी दिया है, परन्तु अभी भी एक शक्ति दो कि जब स्मशानयात्रा निकले तब मै बीच में ही उठकर देख सकूं कि स्मशान यात्रा में कौन कौन आया है? काका, मामा, मौसा  और दूसरे जिनके लिए रात दिन मेहनत की ताकि वे अच्छा कहें, उनमे से कौन कौन आये है? इन्हे देखने के बाद भले ही सुला देना । स्मशान यात्रा में काफी लोग आते हैं, क्या यह शोभा है? यदि वे स्मशानयाात्रा में न आए तो लोग गौर करते है, खराब लगता है। इसमें भी सभी को कीर्ति की भूख है, किसी को मरनेवाले व्यक्ति पर प्रेम नहीं है । सेठ के मरने के बाद बाजार बन्द रहते हैं । बाजार के व्यापारी बाजार बन्द रहने से सिनेमा देखने जाते हैं । जनता जर्नादन अपनी प्रतिक्रीया दिखाती है । कहने का तात्पर्य यह है कि सद्गुण खडे करने के लिए सभ्यता आवश्यक है ।

भगवान! मैं ऐसी .ति करुँगा कि उसकी सुगंध तुम तक पहुँचे । भृतुर्हरि राजा कहते हैं ‘स्वर्गद्वार कपाटपाटनपटु:’ मैं खडा रहूँगा तब स्वर्ग के द्वार अपने आप खूल जाएगा । भगवान ! ऐसा कोई काम हमने किया ही नहीं है ।
न ध्यातं पदमीवरस्य विधिवत्संसार विच्छित्तये
स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटु धर्माेपि नोपार्जित:
नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेपि नालिंगितं
मातु: केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा: वयम्् ।
हमने जन्म लिया, मगर क्या किया?  माँ की युवानी खत्म की, दूसरा कुछ नहीं किया । प्रसूतान्ते च योवनम्- प्रसुति के बाद युवानी खत्म हो जाती है । ऐसा कर्म करना चाहिए जिसकी सुगंध भगवान तक पहुँचे।

हम लक्ष्मीनारायण के मंदिर में जाते हैं तब भगवान के हाथ में एक कमल दिखाई देता है । साधक ही नजर उस पर होनी चाहिए । उसे लगना चाहिए कि यह कमल भगवान ने मेरे लिए हाथ में रखा है । भगवान विचार करते है कि किसकी पूजा करुँ? भगवान, एक जन्म ऐसा आएगा कि जब मैं पूजा कराने योग्य बनूँगा । यह कमल मेरे लिए है ।

भगवान को जीवन देना हो तो मस्तिष्क में ज्ञान होना चाहिए, हृदयमें भाव-भक्ति होने चाहिए। और हाथों से कर्म होने चाहिए। तभी हम सच्चे अर्थ में हनुमानजी के उपासक हो सकते हैं ।
कितने ही लोगो के पास ज्ञान ही रहता है, वे पंडित है । पंडित किसी के पास नहीं जाता है । बल्कि उसके पास जाना पडता है । आज पांडित्य कम नहीं है । आज के पंडित व्यास, वाल्मीकि से भी ज्यादा पढे लिखे हैं, इसमे संदेह नहीं है । व्यास वाल्मीकि को लगता था कि मेरे पास जो ज्ञान है वह दूसराें को देना चाहिए इसलिए वे जगत में घूमे । आज के पंडित घर में बैठे रहते हैं उन्हे लगता है कि जिसे ज्ञान चाहिए वह हमारे पास आएगा, फीस देगा तो हम उसे पढायेंगे । जो खडे होकर चलने लगता है । उसे प्रेम होता है । पांडित्य-प्रेमबीसवीं सदी का पंडित और पांडित्य+प्रेमव्यास, वाल्मीकि, तुलसीदास वगैरह । इतना ही दोनों में अंतर है ।

ज्ञान के पीछे प्रेम होना चाहिए । ज्ञानियों के पास प्रेम नहीं है । इसलिए वे ज्ञान के ठेकेदार बनकर बैठे रहते हैं उन्हे लगता है कि ‘हमे कोई बुलाएं, हमारी सारी व्यवस्था करें तो हम जाकर दो शब्द कहेंगे । यह पांडित्य किस काम का?  पांडित्य के साथ प्रेम होना चाहिए। पुराने जमाने में ब्राम्हण प्रवर्चनकार होते थे, कथाकार नहीं ।  परन्तु आज तो स्वाध्याय प्रवर्चन के स्थानपर कथा कीर्तन का जमाना आया है । परिणाम यह है कि रामायण की कथा श्रवण की जाती है और घर-घर में महाभारत चलता रहता है ।

जो लडका अच्छा लगता है उसी को भगवान अपनाते हैं । भगवान को जो स्वकीय लगता है उसे भगवान अपनाते है । गुण तृष्णा होनी चाहिए ।  भारतीय संतो का, भक्तों का इतिहास सुनकर हमको भी उनके अनुसार जीवन को प्रभु प्रिय बनाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए।

ताश के खेल में भी तत्वज्ञान है । हमें पता है कि हुक्म की तीरी बादशाह को भी मात देती है । बादशाह को मात देनेवाली हुक्म की तीरी होना है या बादशाह? यह हमें निश्चित करना चाहिए। हुक्म की तीरी होना ही अच्छा है । इसीप्रकार भगवान का होना अच्छा है । ताश का खेल खेलनेवाला हुक्म की तीरी-भगवान का होने का प्रयत्न न करते हों तो खेलना व्यर्थ है ।

जिसप्रकार कुटुंब की कीर्ति वैसी संस्.ति की कीर्ति । जिस भव्य, दिव्य संस्.ति की नींव राम-कृष्णादि अवतारों ने डाली जिसको हनुमानजी जैसे भक्तो ने जलसिंचन किया उस संस्कृति की दिव्यता फिरसे खडी करने के लिये वित्तशक्ति और बुद्धि शक्ति जो प्रयुक्त नहीं करते वे सचमुच भगवान के द्वेषी हैं । प्रात:काल से रात्रि में शयन करने तक केवल भगवान का दर्शन कर संतोष माननेवाले विचार करना चाहिए । दर्शन करने में विरोध नहीं है । दर्शन तो करना ही, परन्तु जिसके लिए अवतारों ने अपने रक्त की बूँद और बूँद व्यय की उसके लिए लोगों को अपने पास जो कुछ शक्ति है उसका उपयोग करना चाहिए तभी संस्.ति टिकेगी। ईश्वरनिष्ठा और उसके विचारों का प्रचार होना चाहिए, तब यदि हम गायेंगे ‘चारो युग परताप तुम्हारा । है परसिद्ध जगत उजीयारा’ तो कोई अर्थ है । जीवन में दो बाते आवश्यक है भक्ति और तत्वज्ञान।

यह देश वीराें का देश है । भगवान प्रसन्न हों, भगवान को कुछ आकर्षन हाें ऐसा कुछ कहने जैसा हाें तभी प्रसाद मिलता है । मिट्टी को सिरपर धारण करने से पाप नष्ट होता है ऐसी इस देश की मिट्टी है- मृत्तिके हन् मे पापं।’ इस देश की मिट्टी का वैशिष्टय ही कुछ भिन्न है । ब्राम्हणों की दिव्यता और क्षत्रियों की तेजस्विता से भरा हुआ यह देश है । दुर्बल, रोनेवाले लोगों का काम नहीं है । यहाँ केवल व्यापारी वृत्ति आई तो सब समाप्त हो जाएगा।

अपने संस्कृति की कीर्ति को टिकाना चाहिये । आत्मा और अनात्मा की चर्चा करनेवाले आद्यशंकराचार्य केवलाद्वैती होते हुए भी भगवान का रुप देखकर अन्त:करण से पुलाकित हो जाते, भगवान को देखकर आकुल व्याकुल बनकर स्तोत्र गाते । रामेश्वर से प्रारंभ कर बदरीनाथ तक संस्.ति का ध्वज लेकर सगुणो पासना के लिए दौडे । ‘हम लकडी का या पीतलका भगवान नहीं मानते, जनता में ही जनार्दन देखते हैं । जनसेवा ही प्रभु सेवा है’ ऐसा कहनेवाले लोग बुद्ध भगवान के समय भारत में हो गये है । वे मूर्तिपूजा का उपहास करते थे ऐसे समय शंकराचार्य ने मूर्तिपूजा की महत्ता बढाकर संस्.ति का विशिष्ठ कार्य किया है । उन्होने भारत के चारोही धामो में मूर्तिपूजा की प्रतिष्ठा खडी की और बुद्ध के विचारों को देश-निकाला कर दिया । हिम्मत से फिरसे शास्त्रीय मूर्तिपूजा लोगों में प्रस्थापित की ।

आज वैष्णव शंकराचार्य का नाम लेने को तैयार नहीं, कारण उनके नाम मे ‘शंकर’ शब्द आता है । शंकराचार्य ने बदरीनारायण में विष्णु भगवान की स्थापना की है, फिर भी ‘शं’ यानी कल्याण इतना समझने के लिए भी लोग तैयार नहीं है और विरोध करते रहते हैं । जीवका कल्याण करता है वह शंकर

संस्कृति के लिए, कुल-कुटुम्बकी कीर्ति के लिये जिसका हृदय नहीं तपता उसके यहाँ भगवान कैसे आयेंगे । भगवान इस सृष्टि में अवतार लेके क्यों आते हैं यह बात तुलसीदासजी अगली चौपाई में हमे समझाते हैं ।
जिस प्रकार हनुमानजी की कीर्ति है, उन्होने कीर्ति को सँभाला उसी प्रकार हमें भी भिन्न भिन्न कीर्तियों का पालन करना चाहिये । ये सब सज्जनों, भक्तों के लक्षण हैं ।

6 comments:

  1. ॥श्री राम जय राम जय जय राम॥
    ॥जय मेरे बाबा की॥
    ॥बाबा सदा ही मेरे।।मैं सदा ही बाबा का॥

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  2. ॥श्री राम जय राम जय जय राम॥
    ॥जय मेरे बाबा की॥
    ॥बाबा सदा ही मेरे।।मैं सदा ही बाबा का॥

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  3. ॥श्री राम जय राम जय जय राम॥
    ॥जय मेरे बाबा की॥
    ॥बाबा सदा ही मेरे।।मैं सदा ही बाबा का॥

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  4. ॥श्री राम जय राम जय जय राम॥
    ॥जय मेरे बाबा की॥
    ॥बाबा सदा ही मेरे।।मैं सदा ही बाबा का॥

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  5. Jai Bajrang Bali Maharaj Jai ho prbhu apki sada he jai ho

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  6. में तो केवल चारो जुग में हनुमान जी का प्रताप पढ़ने आया था लेकिन आपने तो मेरा पूरा मानस ही बदल दिया l धन्यवाद

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