Saturday, July 2, 2011


चौपाई:- भूत पिसाच निकट नहिं आवैं। महाबीर जब नाम सुनावै ।।    ( 24 )
अर्थ : हे पवनपुत्र! आपका ‘महावीर’ हनुमानजी का नाम सुनकर भूत-पिसाच आदि दुष्ट आत्माएँ पास भी नहीं आ सकती ।
गूढार्थ : हनुमानजी को महावीर कहते हैं।  जो बाहर के शत्रुओंपर विजय प्राप्त करता है उसे वीर कहते हैं तथा जो अंतर्बाह्य शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है उसे महावीर कहते हैं।  इंद्रजीत जैसे बाह्य शत्रुओं को तो हनुमानजी ने जीता ही था परन्तु मन के अन्दर रहे हुए काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि असुरोंपर भी उन्होने विजय प्राप्त की थी इसीलिए वे महावीर हैं।  और ऐसे महाविर हनुमानजी का स्मरण करते ही भूत पिशाच आदि पास नहीं आते ऐसा तुलसिदासजी लिखते है, ‘भूत पिशाच निकट नहिं आवैं, महावीर जब नाम सुनावै।’

तुलसीदासजी का कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य जब अपने आप को अकेला महसूस करता है तब उसे भय रहता है । उदाहरण के लिए समझो एकाध आदमीको रात्रि के समय दूसरे गाँव जाना है । पैदल जाना है, रात्रि के बारह बजे का समय है, रास्तेमें स्मशान भी लगता है तो उसे जाने के लिए भय लगता है। इतनेमें एक ल्रगडा आदमी उसे दिखता है जो उसी गाँव की ओर जा रहा होता है । एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति का साथ मिलते ही उसका भय चला जाता है । अब यहाँ सोंचने की बात यह है कि यदि कोई भूत-पिशाच आ गया तो यह लंगडा आदमी क्या करेगा फिर भी मेरे साथ कोई है यह विचार दिमाग में आते ही भय चला जाता है। उसीप्रकार यदि हमें जब यह विश्वास हो जाता है कि भगवान मेरे साथ हैं तो आदमी निर्भय बन जाता है।

मन को निर्भय बनाना है । निर्भय कौन हो सकता है? जो रक्षित (Protected) है वही निर्भय हो सकता है । ‘भगवान मेरे साथ है और वे  समर्थ हैं ऐसा दृढपूर्वक जो मानता है उसे डर नहीं लगता । प्रभो! आपका बन जाने पर अब मेरी असमर्थता चली गयी है । अबतक मुझे लगता था कि मै असमर्थ हूँ । मोची की लडकी राजा को पसंद आयी, राजाने उसके साथ विवाह किया वह राजरानी बन जाती है । उसी समय से प्रधानमंत्री भी उसको सलाम करता है । फिर उसे पुलीस या किसी मंत्री का भय नहीं रह जाता । उसी प्रकार भगवान का बनते ही, प्रभु स्पर्श की समझ आते ही भगवान के सभी डी.एस.पी., शनि, राहु, केतु, मंगल, भूत, पिशाच सभी उसे सलाम करने लगते हैं । इसीलिए तुलसीदासजी का यह आग्रह है कि हमें भगवान का आश्रय लेना चाहिए तो ही हम निर्भय बन सकते है । भगवान की पक्की समझ होने के बाद उनकी शरणागति स्वीकारने के बाद मनुष्य निर्भय बन जाता है ।
आज हमें केवल ज्ञान है कि प्रभु हमारा जीवन चलाते हैं, पर हमारी ऐसी समझ नहीं है । ज्ञान (Knowledge) और समझ (Understanding) में अंतर है । हम केवल अनुमान लगाते है कि जीवन की प्रत्येक क्रिया अन्दर रहनेवाली शक्ति करती है, मैं नहीं करता । परन्तु ऐसी पक्की समझ नहीं होती । पक्की समझ होने पर मनुष्य निर्भय बनता है तथा वह पापी नहीं रह सकता। मराठी भाषा में एक श्लोक है:
शास्त्राभ्यास  नको  श्रुति नको  तीर्थास  जाऊ नको ।
योगाभ्यास नको व्रतें जप नको तीव्र तपें ती नको ।।
कालाचें भय मानसीं धरुं नको दुष्टास शंकू नको ।
ज्याचीया स्मरणे पतीत तरती तो शंभू सोडू नको ।।
शास्त्राभ्यास न करो, वेद न पढो, तीर्थाटन न करो, योगाभ्यास न करो, व्रत, जप, तप न करो, काल का भय मत करो और दुष्टों से मत डरो, परंतु जिसके स्मरण मात्र से पतित भी पावन होकर तर जाते है उस शिवजी को मत छोडो । एक बार शिवजी के चरण पकड लिए तो फिर कुछ करने की आवश्यकता नहीं रह जाती ।
कहने का तात्पर्य यह है कि भगवद््स्पर्श की समझ आने पर पाप समाप्त हो जाते हैं तथा मनुष्य निर्भय बन जाता है । तब तक तो पाप का भय बना ही रहता है । जब तक भय नहीं जाता मानव अशांत रहता है । अशांत और अस्वस्थ मन पहले तो भगवान के पास जाता ही नहीं है और जाता भी है तो भगवान के साथ जुडता नहीं है ।

भयग्रस्त मानव न खा सकता है न पी सकता है न भोग ही भोग सकता है । सिर के उपर कच्चे धागे से बंधी तलवार लटकती हो और उसके नीचे बिठाकर किसी को हलुवा, पूरी, मिठाई आदि अनेक स्वादिष्ट व्यंजन खाने के लिए दिए जाँए तो वह खा नहीं सकता, क्योंकि वह भय से बारम्बार ऊपर देखता रहता है ।

पाप से डरा हुआ अस्वस्थ मन वाला व्यक्ति कहता है । पापोहं पाप कर्माहं पापात्मा पापसंभव: रात दिन पाप कर्म करनेवाला मनुष्य भयातूर और अशांत होता है, परन्तु जिसे ईशस्पर्श की समझ आ जाती है, उसका डर निकल जाता है और उसका मन शांत रहता है । बालक के कपडे मैले होते हैं, पर वह माँ के पास जाने से डरता नहीं है । माँ यदि कहती है कि कपडे मैले करके आया है तो वह कहता है: ‘‘तू मेरे कपडे बदल दे और मैले करडे धो डाल । ‘मदीयमालिन्य धूंवावयाते- माँ मेरा मालिन्य धोडाल ।’’ माँ के साथ आत्मीय संबध है, इसीलिए बालक को पूरा विश्वास होता है कि माँ उसके मैले कपडे धो देगी ।

मनुष्य जब तक पराया होता है, तब तक ही डरता है । इसलिए जगत में पराया बनकर मत रहो। भक्त कभी पराया बनकर नहीं रहता है । इसलिए उसे न तो भय होता है न शिकायत ही होती है । हम भक्ति करते हैं पर हमारी भीति और शिकायत कम नहीं हुई । इसीलिए हम मुख्य मार्ग पर चलने की बजाय गली-कूचों में भटकते रहते हैं । याज्ञवल्क्य, पतंजलि, वशिष्ट, वाल्मीकि, तुलसीदास जैसे महापुरुषों की गाडी मुख्य मार्ग से चलती है । हमें गली-कूचों को छोडकर मुख्य मार्गपर आ जाना चाहिए। परन्तु यह तभी संभव है जब जीवन से भय और शिकायत चली जायं । इसके पश्चात ही मानव प्रभु को रुचता है ।

आज आदमी भय से डरपोक बना है । हमारा सारा जीवन भय से भरा हुआ है । हम जीवन में सीधे रास्ते से चल रहे हैं इसका कारण डर है । सुभाषितकार कहता है:
भोगे रोगभयं कुल्ेच्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रुपे जराया: भयम्् ।
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयम्
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां विष्णों: पदं निर्भयम् ।।
जो भगवान के बन गये वे ही निर्भय हैं बाकी सब को भय है । ‘भोगे रोगभयं’ विपुलमात्रामें भोग सामग्री के होते हुए भी भय होता है । शेठ के यहाँ शक्कर के बोरे भरे हुए होते हैं फिर भी शक्कर खा नहीं सकता क्योंकि उसे शक्कर की बिमारी है । भोग सामग्री विपुल होते हुए भी मनुष्य निर्भयता से नहीं रह सकता । भोग में भी रोग का भय है । उसीप्रकार ‘कुलेच्युतिभयं’ उच्च कुल मे जन्म होने पर भी भय रहता ही है । आज मेरे खानदान का जो समाज पर प्रभाव है, वजन है, उस प्रभाव को मेरा वंश गडबड तो नहीं करेगा इसका भय है । ‘वित्ते नृपालाद्भयं’ जिनके पास संपत्ति है उनको भी डर है कि कही संपत्ति चली जाएगी तो? भविष्य में गरीबी आ गयी तो? ऐसा भय  अनेकों को लगता है । गरीब मनुष्य दिनभर काम करके रात को पेटभर खाना खाकर आराम से सो जाता है परन्तु धनवान को रात को नींद ही नहीं आती वह भयभीत रहता है। ‘माने दैन्य भयं’ चौथा भय मानहानी का होता है । सबसे अधिक भय सत्ताधीश को लगता है मेरी कुर्सी कोई ले लेगा तो? यह सतत भय रहता है ।
इसलिए प्रथम भयभीत व्यक्ति का चित्रण पुराणकारोंने इन्द्र का किया है । तनिक कोई तपश्चर्या करने लगा कि इन्द्र को डर होता है, मेरा पद गया तो? सत्तावान सम्पत्तिवान भयभीत बने होते है फिर भी भय प्रकट नही कर सकते । सम्पत्ति है, पर क्या वह टिकेगी? यह बडा प्रश्न है । सबसे अधिक भयभीत व्यक्ति कोई होगा तो वह सत्तावान और संपत्तीवान है । उनसे अधिक भयभीत दूसरा कोई नहीं । जिसने भीतर की सम्पत्ति नहीं खिलायी जीवन की संपत्ति प्राप्त नहीं की, बुद्धि की सम्पत्ति का अनुभव नहीं किया, मन की सम्पत्ति को नहीं जाना, केवल कागज के नोट ही गिनता रहा, अनन्त प्रकार की लक्ष्मी की ओर दुर्लक्ष किया वह भयभीत डरफोक है । ‘बले रिपुभयं’ बलवान को भी भय होता है कारण जो बलवान होता है उसके अनेक शत्रु होते है सबकी नजर उसपर होती है । इसलिए वह भी भयभीत रहता है । ‘रुपे जराभयं’ जो रुपवान होते हैं उनको भी भय है । आज जो रुप है वह कल नहीं रहेगा क्योंकि उनको वृद्धकाल का भय है । फिर आगे कहते है, ‘शास्त्रे वादभयं’ सामान्य लोगों को मालूम होता है कि शास्त्रकार निर्भय रहते है, परंतु उनको भी भय होता है । शास्त्र पढलिया तो भी वह अल्पज्ञ ही होता है क्योंकि केवल भगवान ही सर्वज्ञ है । उसे वादविवाद का भय होता है। ‘गुणे खलुभयं’ पुण्यवान लोगों पर भी पापी मनुष्य की नजर रहती है । पांडवों की उन्नती कौरवों से देखी नहीं जाती थी इसलिए वे उन्हे हमेशा कष्ट देते थे । ‘अच्छे के पीछे लुच्चे’ ऐसा होता है । इस प्रकार सब जगह भय है ।

शास्त्रकार अंत में कहते है ‘काया .तांता भयं’ जीव को मृत्यु का भय है,़परलोक का भय है । मनुष्य को भय लगता है कि ‘मरने के बाद क्या होगा? इस भय से वह आज ही मृत्यु के बारेमे साेंचने लगता है ।परन्तु नित्य स्वाध्याय करने लगेगा तो नित्य कर्मयोगी बनेगा । अत: भय रहता ही नहीं । परलोक का भय तो जिसकी जेब में परलोक की मुद्राएं (currency) नहीं होती उसको रहता है । इंग्लैड जाने पर वहाँ की मुद्राएं नही होगी तो डर लगता है । वहाँ की मुद्राएं होगी तो तुरंत टॅक्सी वाले को बुलाकर जहाँ जाना है वहाँ चल पडता है । जिसने (Exchange) ही नहीं लिया है उसको भय लगता है । उसी प्रकार जीवन मे जिसने उपर की बैंक मे पैसा (कर्म) जमा नहीं किया है उसको परलोक का भय लगता है । अत: जीवन में यदि निर्भय बनना है तो कर्मयोग करो । ‘मै भगवान का काम करनेवाला (सैनिक) हूँ इसलिए मै निर्भय रह सकता हूँ ऐसा लगना चाहिए । हमें  मृत्यु का डर है । किसीको मरने की इच्छा नहीं है । वैसे ही किसी को मृत्यु का डर नहीं लगना चाहिए। मृत्यु खराब नहीं है । बडे बडे संत कहते है, हमें मरना नहीं है, इतना ही नहीं, यदि भगवान मारते हाें तो फिर से हमें जन्म लेना है । भगवान! आपकी सेवा करने का भाग्य तो जन्म लेने पर ही मिलता है । हमें माँ के उदर में नौ महिने वास करना कठीन नहीं लगता, कारण भगवान! आप हमारे साथ होते हैं । इसलिए जन्म लेकर आने की तैयारी है । शास्त्रकार कहते हैं दु:ख थोडा है, परन्तु थोडा दु:ख भोगे बिना भगवान की चरणसेवा का अलौकिक सुख प्राप्त नहीं होता । भगवान! आपके साथ तादाम्य पाने का दैवी आनन्द बिना जन्म लिये नही मिलता ।

गीता तो हमारा मृत्यु का डर ही निकाल डालती है । मृत्यु याने वस्त्रपरिवर्तन! कपडा बदलना! ‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय- इतना सरल विचार मृत्यु का किसी ने नहीं दिया । इसीप्रकार मृत्यु का भय निकालने की हिम्मत भागवत में है, शुकदेव की वाणी में है, भारतीय संस्कृति और वैदिक वाड़.्मय में है । मृत्यु यानी हँसते हँसते जाना ।

सात्विक लोगों को भी डर रहता है कि भगवान मिलेंगे या नही? भगवान के प्रति संपूर्ण विश्वास और तत्वज्ञान के विचारों से परिपूर्ण बुद्धि होनी चाहिए तभी अभयत्व आता है । इसीलिए लिखा है केवल एक ही जगह ऐसी है जहाँ हम निर्भयता से रह सकते है वह है ‘विष्णो:पदं निर्भयम्’ विष्णु पद निर्भय है । जो भगवान के भरोसे जीता है उसे डर नहीं लगता । भयभीतता कब जाती है? भगवान की गोदमें जो बैठता है उसका डर खत्म हो जाता है । इसीलिए तुलसीदासजी लिखते हैं कि यदि हमे निर्भय बनना हो तो भगवान की शरण में जाना चाहिए तथा कहना चाहिए, हे महावीर! हम आपकी शरण आते है आप हमारा रक्षण किजीए, हमें भूत पिशाच आदि दुष्ट आत्माओं का डर लगता है, हमे निर्भयता प्रदान कीजिए। भगवान मेरे साथ हैं वे ही मेरा रक्षण करेंगे ऐसा पूर्ण सत्रह आने विश्वास होना चाहिए फिर हमें किसी प्रकार का डर नहीं लगेगा। भगवान को छोडकर हम किसी जगह निर्भय नहीं रह सकते । जीवन से भय निकालने के लिए भगवान का बनना चाहिए ।

नारद भक्तिसूत्र में कहा है । ‘सा तु परम प्रेमरुपा अमृतस्वरुपा च’ अर्थात् भक्ति की नींव मे भी प्रीति होनी चाहिए, भीति नहीं । हमारे वात्सल्य आदि गुणों की नींव मे प्रीति होनी चाहिए । जब तक स्पष्ट, स्वच्छ समझ नहीं होती तब तक भीति बनी रहती है।

अनेक बार ऐसा होता है कि पति ने दो चार मित्रो को भोजन का निमंत्रण दिया हो तो उसके मन में भय बना रहता है कि पत्नी की ओर से अनुकूल प्रत्युत्तर (Response) मिलेगा या नही? कहीं वह ना न कर दे! जब तक पत्नी हाँ नहीं करती, तब तक उसका मन अशांत रहता है । हमारी भगवद््भक्ति भी प्रीति से चलती है या भीति से, यह शंकास्पद है ।

जीवन में सातवे परदे से भी भय निकालने के लिए स्थिर बुद्धि, जीवन में प्रकाश, निश्चित ध्येय और भगवान के ऊपर शत-प्रतिशत विश्वास होना चाहिए । तभी मानव का भय न्यून्याधिक मात्रा में कम हो सकता है ।

हमारे सत्कर्म, भजन-पूजन, पारस्परिक सम्बन्ध सब भय से ही होते है, यहाँ तक की घुमना-फिरना भी भय के कारण होता है । मानव, बन-बाग आदि निसर्ग सौंदर्य देखने प्रेम से नहीं जाता, बल्कि डॉक्टर कहता है कि घुमना चाहिए, इसलिए घूमता है । अर्थात् हमारी समस्त क्रियाओं के मूल मे भीति होती है प्रीति नहीं होती ।

जगत में भीति और प्रीति को कन्याएँ है । इन दोनो में से किसके साथ शादी करनी है, यह तय करना चाहिए । भीति के साथ विवाह करना सरल है, पर प्रीति के साथ विवाह करना बहुत कठीन है । वह बहुत बडे घर की अर्थात् साक्षात् भगवान की बेटी है-‘ सा तु परम प्रेम रुपा अमृतस्वरुपा च’ God is love and love is god। इसलिए प्रीति के साथ ब्याह करने के लिए बहुत बडी कीमत चुकानी होगी।
हमे मानहानि, वित्तहानि, स्त्रीपुत्रवियोग स्वास्थ्य के बिगडने तथा मरण का भय है- सर्वंवस्तु भयान्वितं भुवि नृणाम््’ अर्थात् जगत में सभी वस्तुएँ भयदायक हैं । अब प्रश्न यह है कि भय यदि वज्‍​र्य ही है तो भगवान ने उसे बनाया ही क्यों? नहीं, भय सर्वथा वज्‍​र्य नही है । भय की आवश्यकता है, इसीलिए भगवानने भय का निर्माण किया है । भगवानने हमारा शरीर लोहे या पत्थर का न बनाकर हड््डी-मांस का क्षर नाशवान बनाया है, इसीलिए हम शरीर के संबध में सजग और सतर्क रहते है । हम वित्त, पत्नी पुत्र आदि के वियोग के भय से ही भगवान के पास जाते हैं और भक्ति करते हैं । जब तक मानव के अन्त:करण में प्रेम.प्रवाह का फुव्वारा निर्माण नहीं होता, तब तक वह क्या कर सकता है? इसलिए भगवान ने भय निर्माण किया है । उसीके कारण हम जगत-व्यवहार में सावधानी वरतते हैं । भगवान के उपर अटूट विश्वास होने पर मानव के मनमें भीति चली जाती है । मनुष्य को जब विश्वास हो जाता है कि भगवान मेरे साथ हैं तो वह निर्भय बन जाता है । तुलसीदासजी का यहाँपर यही संकेत है कि जब भी हमें भय लगता हो तो हमे यह समझना चाहिए कि महावीर हनुमानजी मेरे साथ हैं तो हमे भय नहीं लगेगा इसलिए उन्होने लिखा है ‘भूत-पिशाच निकट नही आवै महावीर जब नाम सुनावै’

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