Sunday, July 3, 2011

चौपाई :- संकट ते हनुमान छुडावै । मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ।। (26) Hanuman Chalisa


चौपाई :- संकट ते हनुमान छुडावै । मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ।।  (26)
अर्थ : हे हनुमानजी ! विचार करने में, कर्म करने में और बोलनें में जिनका ध्यान आपमें लगा रहता है, उनको सब दु:खों से आप दूर कर देते हैं । हनुमानजी संकटमोचन हैं, जो मन, क्रम और वचन से एकाग्र होकर उनका ध्यान धरता है, उसके सभी संकट nदूर हो जाते हैं ।
गुढार्थ : तुलसीदासजी इस चौपाई द्वारा हमें भगवान की मूर्ति में चितएकाग्र करने के लिए कहते हैं भगवान की भक्ति दो प्रकार से करनी चाहिए। अन्तर्भक्ति और बहिर्भक्ति । अन्तर्भक्ति यानी भगवान में चित्तएकाग्र करना और बहिर्भक्ति यानी जिस भगवानपर प्रेम है उसका काम करना ‘मन, क्रम, बचन ध्यान जो लावै’ ऐसा लिखा है । चित्त की एकाग्रता ध्यान में अत्यंत जरुरी है ।


चित्तएकाग्रता यानी मूर्ति के सामने एक नजर से देखना ऐसा नहीं है । लेकिन एकाग्रता के योग्य बाहवातावरण तैयार कर, भगवान का गुण संकीर्तन कर, जीवन में घटित भाव-प्रसंगों का स्मरण कर, मन ही मूर्ति का आकर ग्रहण करे और वह आकर लम्बे अरसे तक टिका रहे ऐसी एकाग्रता लाना ही वास्तविक चित्त-एकाग्रता है ।
मन के स्थिर करने-मन का अवधान करने की हमारी तैयारी के रुप में ही मूर्ति के सामने धूप, दीप, अगरबत्ती, चन्दन इत्यादि रखने से मन प्रसन्न होता है । इसमें एक प्रकार का वातावरण तैयार होता है । प्रार्थना, स्तोत्र, पाठ इत्यादि भी ध्यान केन्द्रित करने की पूर्व तैयारी के ही भाग है । इसीलिए तो पहले पाठ और बादमें पूजा का स्थान है । प्रभु की मूर्ति पर किया जानेवाला शृगांर भी इस दृष्टि से विचारणीय है । नयन-मनोहर मूर्ति हमारे चित्त को तुरन्त खींच लेती है ।

हमारे भीतर स्थित सुषुप्त भक्तिरस को यदि पूजा के इन बाहय उपचार से आलम्बन और उद्दीपकता मिलती है तभी हमारे अन्दर भक्ति रस की उत्पति् होती है । हमारे भीतर शांत, हास्य, वीर, शृंगार इत्यादि सभी रस है । जब किस रस को आलम्बन और उद्दीपकता मिलती है, तब वह रस उत्पन्न होता है । कोई दु:खद दृश्य देखते ही हमारे अन्दर करुणा पैदा होती है । इसमे अव्यक्त  (सुषुप्त) रस को व्यक्त (जागृत) करना होता है । भक्ति रस को जागृत करने के लिए बाहय कृतियां आवश्यक है ।
मूर्ति को चन्दन लगाया गया हो, एक ओर से अगरबत्ती की सुगन्ध आ रही हो, दूसरी ओर दीपक का मन्द मन्द प्रकाश मूर्ति के मनोहारी स्वरुप बिखरता हो, उस समय एक वातावरण तैयार होता हैं । ऐसे वातावरण में मन भगवान में केन्द्रित होना सम्भव है । यह तो हुई भक्ति की पूर्व भूमिका । परन्तु अधिकांश लोग वातावरण तैयार करनेवाली इस बाहय .ति को ही पूर्ण भक्ति समझकर जिन्दगी भर भक्ति करने का मिथ्या संतोष ग्रहण करते हैं और सच्ची भक्ति से वंचित रहते है ।

मूर्ति में एकाग्र होने के लिए चित्त द्रवित होने की आवश्यकता रहती है । चित्त को द्रवित करने के लिए जिसमें चित्त स्थिर करना है उसका गुण-वर्णन सुनकर उसपर प्रेम स्थिर हो तभी उसमें चित्त एकाग्र हो सकता है । स्तोत्रगान भी इसी उद्देश से है । हम विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करते है (‘‘सर्वशक्तिमतां श्रेष्ठ:,महोत्साह:,महाबल:’’) तब  उसपर स्वाभाविक प्रेम पैदा होता है। इस परिस्थिति में चित्त-एकाग्रता आसानी से हो सकती है । तदुपरान्त प्रभु पर प्रेम-निर्माण हो इसलिए भावनात्मक विचार करने चािहए ।

हमारे जीवनमें अनेक महत्वपूर्ण प्रसंग घटित होते है । जिस समय हम अन्त:करण पूर्वक स्वीकार करते हैं कि ‘‘भगवान ने ही हमारी सहायता की’’ उसने ही हमारे आए हुए कष्ट को दूर किया ‘‘संकट ते हनुमान छुडावै’। उसके कुछ ही समय बाद उस प्रसंग को हम भूल जाते हैं ।

एक आदमी को अहमदाबाद में रहनेवाली अपनी माँ की गम्भीर तबीयत के अचानक समाचार मिले । उसे तत्काल अहमदाबाद जाने की जरुरत थी । रिजर्वेशन था नहीं और रिजर्वेशन के बिना जाना संभव नहीं था । वह बम्बई सेन्ट्रल तो आ गया, टिकट की खिडकी पर जाकर उसने प्रार्थना की, लेकिन व्यर्थ । वह निराश होकर विवशतापूर्वक विचार करता था, इतने मे अचानक एक अपिचित व्यक्ति आकर पूछता है ‘‘भाई आपको अहमदाबाद का टिकट चाहिए! मुझे अचानक काम आ जाने से मै वहाँ नहीं जा सकूंगा । ’’ ये शब्द कान में पडते ही उस आदमी में प्राण आ गये । उसे उसमें भगवान के दर्शन हुए। भगवान ने ही आकर उसकी सहायता की हो ऐसा लगा । मगर कहाँ तक? कल्याण स्टेशन आने तक । कल्याण स्टेशन पर बटाटाबडा खाते समय वह भूल जाता है । प्रभु ने संकट में मद्द नहीं की ऐसा नहीं है । प्रभुद्वारा की गयी मद्द याद रखो, बाकी सारी स्मृति रखते हो इस स्मृति को क्यों नही रखते हो? इसतरह के अनेक प्रसंग प्रत्येक के जीवन में आते रहते है । इनका स्मरण हम नहीं रखते ।

भक्ति करते समय भगवान द्वारा की गयी मदद याद करो । उस स्थिति को खडी करो । उस स्थिति मे रही वृत्ति खडी करो । उस समय घबराहट खडी करो और भगवान ने मदद की इसे याद रखो । यही पूजा है । यह तुम्हारा स्तोत्र है । यह स्तोत्र शंकराचार्य या वल्लभाचार्य का नहीं है बल्कि यह स्तोत्र स्वयं तुम्हारा है । हमें इन महापुरुषों के स्तोत्र गाने ही चाहिए अगर भगवानद्वारा की हुई मदद ध्यान में रखे तो? संसारी मनुष्य के जीवन में ऐसी अनेक घटनाएं घटित होती हैं । जीवन में मुसीबते आती हैं, जाती हैं फिर भुला दी जाती हैं । विवाह होनेवाला है, मगर लडकी को यह विवाह पसंद नही है । बाप से कुछ कह नहीं सकती । लडकी को लगता है कि यह विवाह नहीं होना चाहिए । पुराने जमाने की लडकी बाप से क्या कहती? सिर नीचे करके चुपचाप बैठी है। इतने में मामा आता है और वह कहता है, ‘यह तुमने क्या चला रखा है? मैं यह विवाह नही होने दूँगा’ प्रभु मामा के रुप में आये मगर दो-तीन दिन में उन्हे भी भुला दिया जाता है । संसारी आदमी को भगवान द्वारा प्रत्येक को मदद दी गयी है । नरसिंह मेहता को ही नहीं । हम भी यदि भगवान द्वारा दी गयी मदद याद करेंगे तो नरसिंह मेहता के साथ बैठने के योग्य हो सकेंगे । यही हममे और नरसिंह मेहता मे अंतर है । नरसिंह मेहता भूले नहीं हम भूल जाते हैं । भगवान, व्यवहार में मदद तुम करना, देखभाल तुम करना सरंक्षण तुम करना, हमारे वित्त की रक्षा कौन करता है? हम भले कुछ भी कहें मगर वित्त की रक्षा करनेवाले भगवान हैं।

नरसी, मीरा जैसे भक्तों को भगवान द्वारा की हुयी सहायता का स्मरण लोग भी रखते हैं । भगवान ने हमें सहायता की हो तो हम भूल जाते हैं । लेकिन ऐसे प्रसंगो को याद रखकर बार-बार चिन्तन करना चाहिए तभी चित्त द्रवित होता है ।
इसप्रकार द्रवित चित्त में मुर्ति की छाप बराबर लग जाती है । फिर मूर्ति स्थिर हो जाती है । जिस तरह लाख के पिघलने पर ही छाप उठ जाती है, उसी प्रकार द्रवित चित्त में मन जिस मूर्ति का आकार लेता है वह स्थिर होता है । मधुसुदन सरस्वती ने कहा है --
‘‘द्रुते चित्ते प्रविष्ठाया: गोविन्दाकारता स्थिरा ।’’
मूर्ति में लम्बे समय तक मन को स्थिर रखने की साधना मनुष्य का प्रयत्न (Asceding human efforts) है, और उसके बाद एकाएक मूर्ति का अदृश्य हो जाना और पूर्णता की अनुभूति होना ईश्वर की .पा ( Desceding grace of God ) है । इन दोनो का मिलन जहाँ होता है वही मनुष्य जीवन की परमोच्च अवस्था का दर्शन है । साधन की चित्त-एकाग्रता बहुत ही बढती है । कम से कम आधे घंटे तक चित्त-एकाग्र टिके, चित्त कहीं भी विचलित न हो, वह विश्व को भूल जाए, अपने अहं तक को भूल जाय, सब कुछ भूल जाएं और मूर्ति के साथ तदाकार होकर आधे घन्टे तक उसकी एकाग्रता बनी रहें तभी उसे प्रभु-.पा से अपने ईश-स्पर्श का अनुभव प्राप्त होता है । यही है पूर्णता की अनुभूति (Experiencing the fullness)


ध्यान शास्त्रीय प्रक्रिया है । इसलिए ध्यान में प्रभु की मूर्ति केवल आंख के समक्ष रखने से नहीं चलता। उसमे तल्लीनता लानी चाहिए । इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है ‘संकट ते हनुमान छुडावै, मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ।’ केवल मूर्ति और हम इन दोनो के सिवा सब कुछ चला जाना चाहिए । इसलिए केवल पेड के नीचे भगवान हनुमानजी खडे हैं और मैं उनके पैरों में पडा हूँ यह एक ही चित्र रहना चाहिए । इसके सिवा कोई आवाज, वस्तु, पदार्थ, विचार, संकल्प, कामना, इच्छा, इत्यादि का अस्तित्व रहना ही नहीं चाहिए । ऐसी स्थिति लाने के लिए अभ्यास करना आवश्यक है । ऐसा योग सिद्ध करने के लिए ध्यान की सामग्री एकत्र करनी चाहिए।

लोग सामग्री में चन्दन, चावल, पुष्प इत्यादि लाते हैं । वस्तुत: यह भक्ति की सामग्री नहीं है । लेकिन उपासना की सामग्री है । विशुद्ध बुद्धि ध्यानयोग की प्रथम सामग्री है । विशुध्द बुद्धि का मतलब-वह बुध्दि जो कामनाग्रस्त नहीं है । जिस समय हम ध्यान में बैठते हैं, उस समय ‘‘मुझे यह चाहिए, यह कम है यह नही चाहिए’’’ ऐसे विचारों को घुसने ही नहीं देना चािहए ।
जीवन के अभाव के विचार जब तक आते हैं, तब तक चित्त एकाग्र नहीं हो सकता और चित्तएकाग्र हुए बिना भक्ति संभव नहीं है । चौबीस घण्टे कोई कामनारहित रह नही सकता, परन्तु जब ध्यानयोग करने बैठते हैं तब उतने समय तक भी बुद्धिको अहंकार एवं वासना रहित रखना-इसीका नाम विशुध्द बुध्दि है । बुध्दि से अहंकार चला जाना चािहए ।

अहंकार एवं वासना के अभाव की स्थिति वही वास्तव में विशुध्द बुध्दि की स्थिति है। ध्यानयोग का अभ्यास करनेवाले को राग-द्वेष से दूर रहना चाहिए । न किसी की आसक्ति और न किसी से द्वेष । न तो किसी के भले के लिए मैं पूजा करता हूँ और न किसी के बुरे के लिए मेरी पूजा है ।

ध्यानयोग अभ्यास के लिए मन को एकान्तवास की आदत डालनी चाहिए । एकान्तवास यानी वह स्थिति जिसमे मैं बिलकुल अकेला हेाऊं । भूतकाल भी नहीं, भविष्यकाल भी नहीं एवं वर्तमानकाल भी नहीं ऐसी एकाग्र स्थिति में रहना सीखना चाहिए।

ध्यानयोगी को मिताहारी रहना चाहिए । केवल आहर ही मिताहार रहे इतना पर्याप्त नहीं है लेकिन सभी इन्द्रियों का भी मिताहार रहना चाहिए । केवल आहर ही मिताहार रहे इतना पर्याप्त नहीं है लेकिन सभी इन्द्रियों का भी मिताहार रहना चाहिए । सभी इन्द्रियोंका विषयों के साथ सम्बन्ध है । विषय इन्द्रियोंका आहार है । वे सभी इन्द्रियाँ मिताहारी बनने चाहिए।

ध्यानयोग की साधना मे वाणी, काया और मन का निश्चित ध्येय की ओर आकर्षण रहना चाहिए, इसीलिए तलसिदासजी लिखते हैं । ‘‘संकट ते हनुमान छुडावै । मन क्रम बचन ध्यान जो लावै’’ योगदर्शनकार भी कहते हैं कि जब भक्ति करने बैठो तब ‘बद्धपासन’ करो। काया, वाणी, मन इन सब का एक साथ निश्चित ध्येय की ओर आकर्षित होना आवश्यक है । कहने का तात्पर्य यह है कि मन जब ध्यान में जाता है तब किसी भी प्रकार के वासना-विकार साथमें नहीं होने चाहिए । इसीलिए भगवान में तल्लीन होनेवाले लोगों को भगवान के पास कुछ मांगने की जरुरत नहीं रहती । बहुत से लोग तुकाराम महाराज से पूछते थे ‘‘भगवान आपको रोज मिलते हैं तो फिर भगवान से क्यों नही कहते कि मेरा व्यापार नहीं चलता? भगवान मे जो तल्लीन हो गया है उसकी मन:स्थिति ही अलग होती है । उसे उस समय व्यापार या व्यवहार कुछ भी याद नहींं होता ।  अज्ञानी लोग यह बात समझ नहीं सकते और इसलिए प्रभु के सच्चे भक्त का मखौल उडाते हैं ।

वैयक्तिक जीवन विसंगत और ध्येयशुन्य हो तब भी चित्त-एकाग्रता नहीं होती । विचार और आचार में अन्तर हो सकता है परन्तु विसंगति नहीं होनी चािहए । गीताकार ने इस बात का सुन्दर निरुपण किया है-
‘‘शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनामात्मन:।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशेात्तरम्् ।।’’
                     (गीता 6-11)
चितैकाग्रता के अभ्यास के लिए स्थल-काल का पावित्‍र्य अपेक्षित है । ट्रेन में या बाजार की भीड में चित्तैकाग्रता संभव नहीं है । अभ्यास करनेवाले का आसन स्थिर होना ही चाहिए । ़(स्थिर सुखमासनम््) तदुपरातं आत्मगौरव ( Reverence for self ) और ईशविश्वास ये दोनो बाते जीवन की नींव में होनी चाहिए। आत्मगौरव में ‘‘मै हल्का नही हूं , सृष्टि खराब नहीं है और जीवन सजा नहीं है’’ इन तीनो बातों का समावेश होता है । ईशविश्वास में ‘‘मै भगवान का हूं और भगवान के लिए हूं’’ यह भाव दृढ होना चाहिए । संसार सत्य है यह मानने पर आसक्ति उत्पन्न होती है, असत्य है यह मानने पर विरक्ति निर्माण होती है इसलिए संसार सत्य (प्रभु) का है ऐसा मानने पर ही अनुरक्ति पैदा होगी ।

‘‘मै हलका नही हूं एवं महान भी नही हूं ’’ ‘‘नात्युच्छ्रितं नातिनीचं’’ । ‘‘मै महान का हूं , भगवान का हूं , मेरे स्वामी नारायण हैं इसमें एक मधुर अहंकार है, जो भक्ति का पोषक है ।
चितैकाग्रता स्थापित करने के समय मनुष्य को कैसा होना चाहिए इसका वर्णन गीताकार ने निम्नलिखित श्लोक मे किया है --
‘‘प्रशान्तात्मा विगतभीर्बह्मचारिव्रते स्थित:।
मन: संयम्यमच्च्तिो युक्त आसीत मत्पर: ।।"
जिसे चित्त एकाग्र करना है, उसका मन शान्त होना चाहिए । काल या वस्तु से मन अस्वस्थ हो तो चित्त एकाग्र नहीं हो सकता । काल से भी अस्वस्थता आती है । मान लीजिए कि साडे सात बजे कोई हमारे यहाँ आनेवाला हो और हम साढे सात बजे चित्त एकाग्र करने की कोशीश करें तो उस समय हमारा मन अस्वस्थ होगा ।  चित्त एकाग्र करने के लिए बैठना हो तो ऐसे समय बैठना चाहिए कि जिसमे पांच के बदले पच्ची मिनट भी हो तो दिक्कत न हो । इसमें काल की भीति नहीं होनी चाहिए । इसी प्रकार वस्तु से मन अस्वस्थ नहीं होना चाहिए । ‘‘यह चाहिए, वह चाहिए’’ ऐसे विचार चित्त में चल रहे हों तो मनुष्य का चित्त एकाग्र नहीं हो सकता।

भगवान में चित्त एकाग्र करना हो तो भीति भी जानी चाहिए । जब तक भगवान पर प्रेम और आत्मीयता निर्माण न हो तब तक भीति रहेगी ही । दूसरा व्यक्ति जब तक अपना न हुआ तब तक हम उसके यहाँ जाते है और घंटी बजाते है तो भी मन में एक भीति रहती है कि मनुष्य दरवाजा खेलकर हमारा स्वागत करेगा या नहीं ! भगवान के पास जानेवाला व्यक्ति भी ‘‘विगतभी:’’ होना चाहिए । उसे हिम्मत से भगवान को कहना चाहिए कि ‘‘ भगवान मैं तेरा काम कर रहा हूं , तेरे विचारों के अनुसार चल रहा हूँ, यदि गलती हो रही हो तो तुझे सुधारनी है । ‘‘इस प्रकार निर्भय बनकर भगवान के पास जाना चाहिए । भक्तिशास्त्र में कर्मयोग की यहीं आवश्यकता है । किसीने हमे एकाध काम सौंपा हो और हमने वह काम न किया हो तब उस आदमी से मिलते वक्त हमें डर लगता है । हमें मालूम है कि वह आदमी हमसे पहला सवाल यही पूछेगा कि ‘‘काम हुआ’’ तो जवाब क्या देंगे? इसलिए वह व्यक्ति यदि दाये फुटपाथ चलता हो तो हम बाएं फुटपाथ पर चलने लगेंगे । हमारे मन का भी ऐसा ही है । मन अतिशय संवेदनशील एवं भावनाशील है । उसे पता है कि हम गोपाल.ष्ण के पास जायेंगे तो वे पहले ही पूछेंगे, ‘‘मेरा काम किया?’’ मन को मालूम है कि उसने ‘‘खाओ पिओ और मौज करो’’ के सिवा कुछ नहीं किया तो भगवान के पास जाएगा कैसे?

स्वयंस्थिति एवं जिसके पास जा रहे है उसकी स्थिति-इसप्रकार दोनो भीतियां जानी चाहिए । यदि भगवान पर दृढ विश्वास हो तभी भीति जा सकती है। इसप्रकार ध्यानयोग की समग्र सामग्री एकत्र कर साधक जब अन्तर्भक्ति करता है, तब उसमें उत्तरोत्तर विकास करने के लिए अर्थात् चितैकाग्रता बढाने के लिए बहिर्भक्ति अनिवार्य है ।  बहिर्भक्ति का मतलब है .तिभक्ति ।  जीवन में अन्तर्भक्ति और बहिर्भक्ति दोनाें एक दूसरे के पूरक एवं आवश्यक तत्व हैं । इसीलिए तुलसीदासजीने मन क्रम और वचन से ध्यान लगाने के लिए आग्रह किया है । जिसपर प्रेम हो उसका काम किये बिना रह ही नहीं सकते । .तिभक्ति ज्यों-ज्यों करते जाते है त्यों त्यो प्रभु पर प्रेम बढता जाता है । और जैसे जैसे प्रभु पर प्रेम बढता है वैसे-वैसे अन्तर्भक्ति खिलती है । इसलिए अन्तर्भक्ति खिलती है । इसलिए अन्तर्भक्ति का विकास करने के लिए चितैकाग्रता बढाने के लिए .तिभक्ति आवश्यक है । और .तिभक्ति करने के लिए अन्तर्भक्ति - चित्‍र्तकाग्रता बढाना जरुरी है।  ‘तप:स्वाध्याय ईश्वारप्रणिधानानि क्रियायोग:। ’ यह योग सुत्र है ।

गीता का स्वाध्याय अनिवार्य है। इसलिए ही इसी से हमारे अन्त:करण में भगवान के लिए आत्मीयता-लगन पैदा होगी, भगवान का सहचर्य पाने के लिए बुध्दि दृढ होगी । जिससे कि प्रभु के प्रति बौध्दिक भाव ( Intellectual love towards God ) हो । ‘‘तस्मात् स्वाध्याय प्रवचनाभ्याम् न प्रमदितव्यम्।’’

इस प्रकार स्वाध्याय के माध्यम से चितैकाग्रता (अन्तर्भक्ति) और .तिभक्ति (बहिर्भक्ति) करते हुए मानव अपना मनशक्तिशाली (Powerful ), प्रगतिशील ( Progressive )एवं संवेदनशील ( Sensitive ) बना सकता है । ऐसा मन ही जीवन-विकास के अन्तिम सोपान तक ले जाता है । शास्त्रीय मूर्तिपूजा द्वारा ही मानव स्वायत्त आत्मनिष्ठ आनंद ( Subjective happiness ) की अनुभूति होती है । तुलसीदासजी लिखते  हैं कि इसप्रकार यदि हम मन क्रम बचन से हनुमानजी की मूर्ति में ध्यान लगाकर एकाग्र होंगे तो हम भगवान के बनजायेंगे फिर संकट आएगा तो भगवान ही हमें संभालेंगे ।

गीता  मे मूर्तिपूजा-सगुणोपासना समझायी गयी है । मूर्तिपूजा में स्वरुप माधुर्य है । मूर्ति को बाहर से भी देखना आना चाहिए। निसर्ग में भगवान की मूर्ति देखना आना चाहिए ।  भगवान सर्वत्र है, पर निसर्ग में ( Unknown ) हैं । मनुष्य known होने से उसमें भगवान को देखना यह अंतिम सीढी है । कारण मनुष्य शराबी है यह दिखायी देता है । वह हरामखोर है यह भी दिखता है, वह झूठ बोलता है, स्वार्थी है, दुर्बल है यह दीख पडता है । ऐसे मानव को भगवान मानना कठिन है । सामाजिक कार्य करनेवाले जब कहते हैं ‘जनसेवा यह प्रभुसेवा है’ तब वह दम्भ होता है । याज्ञवल्क्य को प्रत्येक मनुष्य में भगवान दिखाई देते थे  यह शक्य है, परन्तु सामान्य मनुष्य के लिए वह संभव नहीं है । स्वरुप मधुर लगने के बाद आवेग आता है, आत्मीयता लगने लगती है । यह एक बडा अभ्यास है।

चिन्तनमाधुर्य के बाद श्रवणमाधुर्य आता है । ध्यान बढने लगा कि चित्त शुध्द, भव्य व दिव्य बनता है। जीवन यशस्वी बनता है उच्च बनता है । जब ऐसा बनता है तब आधे घण्टे तक ध्यान रहता है ।
शारीरिक नही अपितु मानसिक ध्यान ! दिव्यप्रेम ( Divine love ) व्यावहारिक प्रेम नहीं । ऐसे लोग जब कुछ कहते हैं उसमें श्रवणमाधुर्य रहता है, वह सुनते रहने को मन होता है । ऐसे लोगों को भगवान का प्रमाण पत्र मिल जाने के बाद भी उनकी साधना चलती रहती है । हम क्या करते हैं ? युनिवर्सिटी का प्रमाणपत्र मिलते ही पुस्तकें हटाकर अलग रख देते है । उन लोगो को आत्मसाक्षात्कार होने के बाद भी उनकी साधना अविरत चालू रहती है । उनकी भक्ति नहीं रुकती । फिर उनका अविरत प्रयत्न चलता हुआ देखकर भगवान को
कहना पडता है, ‘बेटा! तू अच्छा है इतना ही नही, परन्तु तू मेरा है।’ My man ! गीता में भी यही कहा है - ‘यो मद्भक्त: स मे प्रिय:।’

जो भगवान का बना- जिसकी राम रक्षा करते हैं उसका कौन बिगाड सकता है? जिसने भगवान का पट्टा अपने गले में बांध दिया है उसको कोई नहीं मारता । नगरपालिका भी जिसके में पट्टा है उस कुत्ते को नहीं मारती, कारण पट्टेवाले कुत्ते का मालिक होता है । इसीलिए तुलसीदासजीने लिखा है  ‘‘संकट ते हनुमान छुडावै, मन क्रम बचन ध्यान जो लावै’’

7 comments:

  1. कर्म और क्रम
    दो अलग शब्द हैं
    तो क्रम को कर्म कहने की बात को समझाइये

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    1. बनवारी लाल जी लगभग 4 महीने से उत्तर की प्रतीक्षा है

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  2. हनुमान चालीसा तुलसीदास जी द्वारा अवधी भाषा में लिखी गई है, इस भाषा में क्रम माने कर्म होता है इसलिए।

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  3. क्रम शब्द को अवधी भाषा मे कर्म कहते हैं यह सत्य से परे है क्योंकि स्वयं सुशील ओझा अवध क्षेत्र से संबंधित हैं
    क्रम शब्द का भावार्थ क्रमशः अर्थात क्रम से या क्रमवार होता है

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    1. मन क्रम बचन ध्यान जो लावै'' योगदर्शनकार भी कहते हैं कि जब भक्ति करने बैठो तब 'बद्धपासन' करो। काया, वाणी, मन इन सब का एक साथ निश्चित ध्येय की ओर आकर्षित होना आवश्यक है । कहने का तात्पर्य यह है कि मन जब ध्यान में जाता है तब किसी भी प्रकार के वासना-विकार साथमें नहीं होने चाहिए ।

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  4. कितना अच्छा समझाया है आपने इस चौपाई का अर्थ । कितने दिनों से मेरा मन इसी चौपाई पर अटक गया था जबकि ऐसे तो और भी चौपाइयाँ हैं हनुमान चालीसा में। काफी सराहनीय कार्य कर रहे हैं आप🙏🙏
    बहुत बहुत बधाई और साधुवाद 💐💐

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