Sunday, July 3, 2011


चौपाई:-अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता । अस बर दीन्ह जानकी माता ।।  (31)
अर्थ : हे हनुमंत लालजी आपको माताश्री जानकी से ऐसा वरदान मिला हुवा है,  जिससे आप किसी को भी  आठों सिद्धियां  और नौ निधियां (सब प्रकार की सम्पत्ति) दे सकते हैं ।
गूढार्थ : तुलसीदासजी लिखते है कि हनुमानजी अपने भक्तो को आठ प्रकार की सिद्धयाँ तथा नऊ प्रकार की निधियाँ प्रदान कर सकते हैं ऐसा सीतामाता ने उन्हे वरदान दिया । जिन साधक में सेवा की तल्लीनता एवं तत्परता हो कि राम के कार्य को सम्पादित करने में ही अपने जन्म की सार्थकता और सफलता समझता हो, उसके लिए फिर किसी भी प्रकार की शक्ति, संपत्ति, भक्ति अथवा मुक्ति असंभव नहीं रह tजाती ।भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को प्रसन्न होकर आलिंगन दिया और सीताजी ने उन्हे ‘अष्ट सिद्ध नव निधि के दाता’ का वर प्रदान किया।

सच्चे साधक की सेवा के लिए सिद्धियाँ अपने आप सदैव तैयार रहती है। यौगिक सिद्धियाँ आठ प्रकार की हैं ।  1) अणिमा 2) महिमा 3) गरिमा 4) लघिमा 5) प्राप्ति 6) प्राकाम्य 7) ईशित्व और 8) वशित्व ।  इन अष्टसिद्धियोंने राम-कार्य-सम्पादन में हनुमानजी को सहायता प्रदान की लघुरुप धारण करने में अणिमा, विशाल रुप धारण करने में महिमा, गुरु (अधिकभरवाला) बनने में गरिमा, विशाल होते हुए भी हलकापन लाने में लघिमा, अलभ्य वस्तु उपलब्ध कराने में प्राप्ति, राम कार्य को पूरा करने में प्राकाम्य, निर्भयता लाने में ईशित्व तथा विपक्षी को भी वश में लेने में वशित्व नाम की सिद्धियोंने समय-समय पर हनुमानजी की सहायता की ।

तुलसीदासजी ने जो नऊ निधियोंका वर्णन किया है वह इस प्रकार है ।  1) प 2) महाप 3) मकर 4) कच्छप  5) मुकुन्द 6) कुन्द (नन्द) 7)  नील 8) शंख 9) मिश्र ।  पद्मनिधि लक्षणो से संपन्न मनुष्य सात्विक होता है तथा स्वर्ण चांदी आदि का संग्रह करके दान करता है । महाप निधि से लक्षित व्यक्ति अपने संग्रहित धन आदि का दान धार्मिक जनों में करता है । प तथा महाप  निधि संपन्न व्यक्ति सात्विक होता है । मकर निधि संपन्न पुरुष अस्त्रों का संग्रह करनेवाला होता है । कच्छप निधि लक्षित व्यक्ति तामस गुणवाला होता है वह अपनी संपत्ति का स्वयं उपभोग करता है । मुकुन्द निधि से लक्षित मनुष्य रजोगुण संपन्न होता है वह राज्यसंग्रह में लगा रहता है।नन्दनिधि युक्त व्यक्ति राजस और तामस गुणोंवाला होता है वही कुल का आधार होता है । निल निधि से सुशोभित मनुष्य सात्विक तेजसे संयुक्त होता है। उसकी संपति तीन पीढीतक रहती है। शंख निधि एक पीढी के लिए होती है। मिश्र (मिली-जुली) निधिवाले व्यक्ति के स्वभाव में मिश्रीत फल दिखाई देते हैं ।

परमात्मा के प्रसाद बिना सिद्धि नहीं पायी जा सकती अर्थात्् साधक को भगवान का हाथ चाहिए । भगवान हमारा हाथ पकडे इसलिए हमारे हाथ में भी कुछ होना चाहिए । मेरा जीवन ऐसा होना चाहिए कि उसे देखकर भगवान प्रसन्न हो जाएं । मेरी बुद्धि, मेरा मन ऐसे बनने चाहिए कि उन्हे देखकर भगवान खुश हो जाएं । मन, बुद्धि और जीवन को वैसा बनाना साधना है । एकबार भगवान के बन गये तो फिर साधक को सिद्धि और संपत्ति का मोह नहीं रहता, उसका लक्ष्य केवल भगवद् प्राप्ति होता है । जब वह साधना करने लगता है तो संकट के समय
भगवान मद्द देने के लिए हमेशा तैयार रहते है ।

कुछ लोग सिद्धि प्राप्त करने के चक्कर में अपना संपूर्ण जीवन समाप्त कर देते है । एक बार तुकाराम महाराज को नदी पार करनी थी । उन्होने नाविक को दो पैसे दिये और नदी पार की । उन्होने भगवान पांडुरंग के दर्शन किये । थोडी देर के बाद वहाँ एक हठयोगी आया उसने नांव में न बैठकर हठयोग की प्रक्रिया से नदी पार की। उसके बाद उसने तुकाराम महाराज से पूछा, ‘क्या तुमने मेरी योगशक्ति देखी?’

तुकाराम महाराज ने कहा हाँ, तुम्हारी योग शक्ति मैने देखी मगर उसकी कीमत केवल दो पैसे हैै। यह सुनकर हठयोगी गुस्सेमें आ गया । उसने कहा, तुम मेरी योग शक्ति की कीमत केवल दो पैसे गिनते हो? तब तुकाराम महाराज ने कहा, हाँ मुझे नदी पार करनी थी । मैने नाविक को दो पैसे दिये और उसने नदी पार करा दी । जो काम दो पैसे से होता है वही काम की सिद्धि के लिए तुमने इतने वर्ष बरबाद किये इसलिए उसकी कीमत दो पैसे मैने कही । कहने का तात्पर्य हमारा लक्ष्य भगवद्प्राप्ति का होना चाहिए । मै प्रभु का प्रिय कैसे बनुं इसका विचार होना चाहिए उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए ।

भगवान का लाडला बनना हो तो मन पूर्णत: भगवान को देना होगा। हमारा मन कामना-वासना से गीला रहता है । गीले मन पर भक्ति का रंग नहीं चढता । मकान की दिवाले गीली होती है, तो उनपर रंग-सफेदी आदि नहीं की जाती । ऐसे ही मन का भी है । गीली लडकी जलाई जाती है तो धुआँ उडाकर दूसरे की आँखाें में आँसु निकालती है । इसलिए मन में से वासना-लालसा निकालकर उसे शुष्क करना पडेगा तभी उसमें भक्ति का रंग खिलेगा और भगवान उसे स्वीकार करेंगे।

चित्त एकाग्र करके और प्रभु भक्ति करने मन को स्थिर करना है । स्वाध्याय द्वारा गीता, उपनिषद, और रामायण के दैवी विचार सुनकर बौद्धिक तेजस्विता प्राप्त करनी है । चित्त शुद्धि करने की आवश्यकता है ।  मन-बुद्धि के प्रति जाग्रत न रहना भक्ति शास्त्र की दृष्टि से महान अपराध है ।

बुद्धि स्थिर रहनी चाहिए । आघातों से बुद्धि अस्थिर बनती है । अर्जुन की बुद्धि भी अस्थिर बनी थी । कितने ही लोगों की बुद्धि भीतर से अस्थिर होती है तो कितनों की बुद्धि बाहर के आघाताें से अस्थिर बनती है।  निरंन्तर अन्तर्जागृति रही तो बुद्धि स्थिर रहती है ।

आठ अनिष्ट भावनाए मन पर सतत आघात करती है ।  ये आठ अनिष्ट भावनाएँ यानी दु:ख, निराशा, चिन्ता, भय, राग, द्वेष, मत्सर और वैरवृत्ति ये मन को दुर्बल बनाती है । मन को दुर्बल नहीं रखना है  वैसे मिजाजखोर भी नहीं बनने देना है । मिजाजखोर यानी ‘मै’ ही कुछ हूँ, मैं ही सब करनेवाला हूँ। ‘इवरोहमहं भोगी सिद्धोहम् बलवान्् सुखी’ ऐसा वह कहता है ।  यह राक्षसी विचार है । दूसरी ओर, मैं इस जगत में कौन हूँ? मेरी क्या हैसियत है? मेरा क्या मूल्य है? ऐसा माननेवाले लोग आलसी है । राक्षसी भी नहीं बनना है और आलसी भी नहीं होना है । इन दोनों के बीच में से जो मार्ग निकालता है  वह बुद्धिशाली मनुष्य है।

बीच मार्ग से जा सके इसलिए हमारी प्रात:काल की तथा संध्याकाल की प्रार्थना में संतुलन है । सुबह की प्रार्थना मे ‘ओम पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्ण मादाय पूर्ण मेवावशिष्यते’ ऐसा कहते हैं ।  भगवान और हम दोनो समान ।  भगवान बडा पूर्ण और मैं छोटापूर्ण ! इस प्रकार दोनों पूर्ण होते हैं ।  ऐसे तेजस्वी विचार सुबह की प्रार्थना में रहते है और सायं प्रार्थना में ‘अविनयमपनय विष्णो’ हे विष्णो ! मेरा अविनय दूर करो !  दोनाें प्रार्थना में गुरुग्रंथि  ( Superiority complex ) और लघुता ग्रंथि (Inferiority complex) का संतुलन जान पडता है । हमारे शास्त्रों में भी इन दोनो प्रकार के विचारों का समन्वय दिखायी देता है।
मनपर आशा-निराशा, चिन्ता, भय आदि के आघात होते रहते हैं इनसे बचने के लिए शक्ति आवश्यक है । भक्ति का अर्थ दण्ड बैठके करके उपासना करना नहीं है । भक्ति एक शास्त्र है । (Bhakti is a science )। भक्ति एक प्रकार का Over coat है । भक्ति तथा स्वाध्याय का हेतु समझ लेना चाहिए । उपरोक्त आठ अनिष्ट भवनाओं के स्थानपर धैर्य, आशा, प्रेम, आत्मौपम्य, दया, क्षमा, भक्तिभाव और उत्साह इन आठ इष्टभावनाओं का आवरण मन पर चढाना है ।  भगवान थोडा बहुत आवरण जन्मजात देते ही हैं, परन्तु अपने दैनंदिन जीवन में यह आवरण हम घिस डालते है। जिस प्रकार दाँत पर एनेमल का आवरण घिस जाता है यानी दाँत खट्टे हो जाते हैं और दूसरी तकलीफें खडी होती है । उसीप्रकार मन पर जन्मजात इष्ट भावनाओं का एनेमल घिस जाते ही उत्साह, धैर्य, आशा आदि चली जाती है । आठ अनिष्ट भावनाओं के स्थान पर आठ इष्टभावनाआें का आवरण मन पर चढाना है । इसलिए जीवन में इष्ट भावना वृद्धिंगत होने के लिए वाचन-श्रवण करना चाहिए । स्वाध्याय करना चाहिए । हमारी कतृ‍र्त्व शक्ति और ज्ञानशक्ति खिलनी चाहिए । इसलिए हमारे शास्त्रकारों का आग्रह है कि गीता, उपनिषद, स्मृतिग्रंथ आदि का श्रवण करना चाहिए । उनमें दुर्बल विचार ही नहीं है । तेजस्वी, स्फूर्तिदायक, उत्साहवर्धक विचार देनेवाला वह साहित्य हैं।

वैदिक वाड़्मय का स्वाध्याय हमें सभी परिस्थितियोंमे स्वस्थ रखता है ।  एक भाई ने कहा, हमारे यहाँ फियाट ( FIAT ) कार आयी है ।  सचमुच फियाट अवश्य अच्छी है ।  FIAT यानी  Fit In All Tacts ( सभी कसौटियोंमे योग्य) स्वाध्याय किसलिए? सभी कसौटियों में उत्तीर्ण होने के लिए ।  सुख-दु:ख, अमीरी गरीबी, मान-अपमान आदि कसौटियों में उत्तीर्ण होना पडेगा । भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि हमारे में से प्रत्येक के घर फियाट भेजो । मन और बुद्धिपर होते रहनेवाले आघातों के समय मैं कैसा आचरण करता हूँ, यह महत्वपूर्ण है । किसी भी परिस्थिति में मन-बुद्धि को अविचलित रखना ही महान विजय है।

मन-बुद्धि के बाद अहंकार भी Fit होना चाहिए ।  भगवान की सच्ची सेवा अहंकार होने पर ही होती है । मानव जीवन आत्मसम्मानपूर्ण होना चाहिए ।  हम आरती में गाते हैं बालक हूँ मैं तेरा-तब शक्ति अभिमान! मेरे पास जो कुछ है वह आप ही के कारण है । प्रात:स्मरणीय रामानुजाचार्यजी ने भी यही बात समझायी है ‘तेन त्वं असि’ उसके कारण तू हैै।

मन-बुद्धि-अहंकार को फिट करने के बाद जीवन बदलता जाता है । और साथ ही साथ भक्ति भी वृद्धिंगत होती है ।  ईश्वर-प्रेम में मनुष्य भीतर से बदल जाता है । ऐसे भीतर से बदले हुए मनुष्य की पूजा भाव से होती है ।  उसका ध्यान उत्तरोत्तर बढता जाता है और कमसे कम आधे घन्टे तक टिकता है । यह ध्यान अर्थात्् प्रभु के प्रति अशरीरी प्रेम Occult love है । इस अशीरीरी प्रेम में भक्ति का आवेश दिखाई देता है ।  कामावेग आता है और उसमें एक प्रकार की मधुरिमा आती है ।

जीवन में आठ प्रकार का माधुर्य आता है ।  स्वरुपमाधुर्य, चिन्तनमाधुर्य, श्रवणमाधुर्य, भाषामाधुर्य विरहमाधुर्य, भक्तिमाधुर्य, लीलामाधुर्य और मिलनमाधुर्य ।  इतना मानसिक विकास करना है और अन्त में मिलन माधुर्य तक पहुँचना है । यह सब पूजा की सच्ची सामग्री है । यह पूजा सामग्री जिसके जीवन में इकट्ठी होती है उसको हनुमानजी आठ सिद्धियाँ तथा नऊ निधियाँ प्रदान करते हैं ।

यह पूजा सामग्री एक ही जीवनमें इकठ्ठी नहीं होगी, परन्तु इस जन्म में जितनी भी पूजा सामग्री इकठ्ठी की होगी, वह अगले जन्म में काम आयेगी ।  हम जन्म सातत्य में विश्वास रखते हैं । यह जन्म यदि मुर्खता में बीतेगा तो अगले जन्म में वह मूख्‍रता तुम्हारा पीछा करेगी ।  जीवन को भावपूर्ण तथा तेजपूर्ण बनाना चाहिए । भगवान को भी हमने शान्त और तेजस्वी माना है ।  इसलिए तो कहते हैं ‘नम: शान्ताय तेजसे।’ हमने भगवान का शान्त तेजस्वी रुप स्वीकार किया है।  भक्त को भी शान्त और तेजस्वी बनना है।

1) स्वरुप-माधुर्य:- प्रभुभीति की अपेक्षा प्रभुप्रीति रखनेवाला मन होना चाहिए । प्रभुप्रीति रखनेवाला मन बनाने के लिए जीवन की दृष्टि बदलनी चाहिए । दृष्टि बदलेने से प्रभुप्रीतिमय दृष्टिकोण आता है । प्रभु रंग में रंगे हुए जीवन को सभी मधुर लगता है । ‘मधुराधिपतेरखिलं मधुरम’ लगना चाहिए । सन्तो को सब मधुर लगता है ।  इसीलिए तो महाराष्ट्र के सन्तों ने गाया है, गोड तुझे रुप गोड तुझे नाम ।  भगवान का रुप मधुर कब लगता है? भीतर से यह आवेग आता है तब भगवान मधुर लगते हैं । कामवेग के कारण प्रियतम को प्रियतमा  को और प्रियतमा को प्रियतम सुन्दर लगते हैं ।

हममें भक्ति का निर्झर शुरु नहीं होता कारण हम भक्त नहीं है । हम उपासक हैं । भक्त यानी जो विभक्त नही है वह ।  जो जुडा हुआ है वह भक्त । भक्ति का आवेग आता है तब सब मधुर लगता है । पांडुरंग सन्तों को मधुर लगते हैं । वस्तुत: पांडुरंग मधुर लगने जैसे नहीं है। रंग काला होते हुए भी संत उनके पीछे पागल बने हैं ।  पागल बनकर उनके सामने नाचते हैं ।  जिस प्रकार कामावेग में प्रियकर को प्रियतमा सर्वसौन्दर्यमयी लगती है, उसी प्रकार भक्ति के आवेग में भक्तो को काले भगवान रुपवान लगते हैं। उनको जहाँ देखे वहाँ उसी प्रभु का रूप दिखायी देता है । उसको अनन्याश्रय कहते है । अनन्याश्रय का अर्थ दूसरे भगवान को नहीं मानना ऐसा नहीं है । अन्यनाश्रय यानी किसी भी मूर्ति में अपने ही भगवान दिखते है, दूसरे नहीं दिखायी देते । भगवान मधुर लगने चाहिए । गीता कहती है मूझमें आसक्ति रखो। ‘मय्यासक्तमना: पार्थ......।’ भगवान में इस प्रकार की आसक्ति कैसे निर्माण करना? जिसके प्रति विश्वास निर्माण होता है, जिसकी हमें आवश्यकता लगती है, जिसके प्रति हमारे मनमें ममता निर्माण होती है उसके प्रति आसक्ति निर्माण होती है । 

विश्वास, आवश्यकता और ममता इन तीनों बातों का रसायन ही आसक्ति है । जिन लोगों को ‘भगवान मेरे है’ ऐसा लगता है उनको प्रभु का स्तनपान मिलता है । विश्वास चौदह आने नहीं चलता, विश्वास सोलह आने होना चाहिए ।  विश्वास आवश्यकता व ममता निर्माण होने के बाद एक प्रकार की मधुरता निर्माण होती है । मधुरता निर्माण होने के बाद स्वरुप-माधुर्य निर्माण होता है । स्वरुप-माधुर्य के कारण उसको विविध स्वरुपों मे भगवान दिखाई  देने लगते हैं ।भक्त के लिए यह साध्य है ।  स्वरुप माधुर्य के बाद चिन्तन माधुर्य शुरु होता है ।
2) चिन्तन-माधुर्य:- हमारा वस्तु मिलने तक चिन्तन होता है, परन्तु वस्तु मिल जाने पर भी चिन्तन करना चाहिए । वस्तु की उपस्थिति में और उसकी अनुपस्थिति में वस्तु का चिन्तन करना ये अलग-अलग बाते हैं ।  चिन्तन में प्रकार हैं । भगवान का चिन्तन हम भी करते हैं और याज्ञवल्क्यने भी किया । मधुसुदनसरस्वती ने भी भगवान का चिन्तन किया ।  वस्तु मिलने के बाद उसको अलग रखकर किया हुआ चिन्तन भिन्न होता है । दोनों में भिन्न भिन्न मधुरता होती है । चिन्तन माधुर्य भक्ति में  मिलता है ।  चिन्तन माधुर्य के बाद श्रवणमाधुर्य आता है।

3) श्रवण-माधुर्य :- ध्यान बढने लगा कि चित्त शुद्ध, भव्य व दिव्य बनता है । जीवन यशस्वी बनता है । उच्च बनता है । जब ऐसा बनता है तब आधे घण्टे तक ध्यान रहता है । शारीरिक नहीं अपितु मानसिक ध्यान  दिव्य प्रेम ( Divine love ) ।  ऐसे लोग जब कुछ कहते हैं उसमें श्रवण-माधुर्य रहता है । वह सुनते रहने को मन होता है ।  ऐसे लोगों को भगवान का प्रमाणपत्र मिल जाने के बाद भी उनकी साधना चलती रहती है ।  उनकी भक्ति नहीं रुकती ।  जब ऐसे भक्तों के सन्तो के कान में भगवान आकर कहते होंगे, ‘तू अच्छा है, तू मेरा है’ तब उन भक्तों को क्या लगता होगा? यह श्रवणमाधुर्य है। प्रियतम-प्रियतमा मिलते हैं तब मैं तेरा हूँ अथवा मैं तेरी हूँ कहते हैं तब उनको एक अलौकिक आनंद होता है। जब भगवान भक्त को इस प्रकार कहते हं,ै वह श्रवण माधुर्य है । जिस प्रकार हनुमानजी को भगवान राम ने कहा था ‘तुम मम प्रिय भरत सम भाई’ यह श्रवण माधुर्य है।

4) भाषा-माधुर्य:- हमारे साथ तो मनुष्य भी नहीं बोलते जब कि इन भक्तों के साथ निर्जीव-अवाक सृष्टि भी बोलती है । जो भगवान के बन गये उनकी भाषा भगवान की भाषा के जैसे मधुर लगती है । वह उनकी अपनी भाषा का वैशिष्टय है । गीता मधुर है क्योंकि वह भगवान द्वारा कही हुयी है । श्रीसुक्त मधुर है क्योंकि वह वेदमय है, क्योंकि यह प्रभु की वाणी है।  अष्टादश पुराण लिखनेवाले व्यास ने गीता पर जोर दिया है । क्यो? गीता में ज्ञान है, भक्ति है इसलिए? अजी! ज्ञान भक्ति पर अनेक ग्रंथ हैं । नारद भक्ति सुत्र, शांडिल्यभक्तिसुत्र, मधुसदन सरस्वती का भक्ति रसायन ये चोटि के भक्ति ग्रंथ हैं ।  गीता का वैशिष्टय ज्ञान भक्ति और कर्म के कारण नहीं, गीता में अनेक आश्वासन भी है फिर भी उन आश्वासनों के कारण गीता मुझे प्रिय नहीं है । गीता मुझे प्रिय लगती है । गीता की भाषामधुर लगती है कारण गीता मेरे प्रभु ने गायी है । भाषा-माधुर्य के बाद विरह-माधुर्य आता है ।

5) विरह-माधुर्य:- क्षण भर के लिए भी ध्यान नहीं लगता । मन-बुद्धि-अहंकार का उदत्तीकरण न हुआ हो तब प्रभु विरह आता है, बैचेनी होती है । भक्ति शास्त्र में विरह को बहुत मूल्य है ।विरह में प्रेम बढता है । विरह में जो प्रेम-मिलन होता है उसके अनुभव बार बार स्मरण होते हैं।  और उन अनुभवोंको बार-बार स्मरण करने में बहुत आनंद होता है ।  सुख के आनंद की स्मृति होते ही आनंद मिलता है । वैसे दु:ख के अनुभव की स्मृति में भी आनंद आता है । हमेशा भूतकाल की स्मृति आनंददायक होती है । हमारे पास दो प्राकर की छाया है ।  इन दो छायाओं में खडे रहनेवालो के पैर नहीं जलते। वर्तमान में हम खडे हैं पर हमारे पैर जलते हाें तो इन दो छायोओं का सहारा लेना चाहिए । ये दो छायाएं अर्थात् एक भूतकाल की और दूसरी भविष्य काल की है । भूतकाल में आपने जो दु:ख सहन किये हैं उनको यदि आज याद करेंगे तो वे आनन्ददायक लगते हैं ।  दु:ख भोगते समय भयंकर लगते हैं, परन्तु वे दु:ख भूतकाल का विषय बनते ही सुखकारक हो जाते हैं ।  भूत और भविष्य इन दोनाें छायाओंमे योग्य रीति से खडे रहनेवाले को वर्तमान की धूप नहीं लगती।

6) भक्ति माधुर्य :- विरह माधुर्य के बाद ध्यान बढने लगता है।  सारा विश्व विस्मृत हो जाता है । भगवान और हम एक बन जाते हैं, एकरस बन जाते हैं ।  हमारा मन ही भगवान का रुप ले लेता है । यही तो मूर्तिपूजा का रहस्य है ।  तब हम भी समाप्त हो जाते हैं ।  उसके बाद एकाएक भगवान का रुप समाप्त हो जाता है ।  और पूर्णता की अनुभूति होती है ।  यह वस्तुविरहित आनंद है । ब्रम्हानंद प्राप्त होता है । इस आनंद का उदाहरण ही देना हो तो नींद के आनंद का दे सकते हैं । नींद में विषय नहीं होते, वस्तुएं नहीं होती, फिर भी आनंद होता है ।  परन्तु वहाँ जागरुकता ( Consciousness ) नहीं होती जबकि पूर्णता की अनुभूति में ( objectless ) आनंद के साथ साथ जागरुकता भी होती है । इस ब्रम्हानंद का उपनिषद में वर्णन है ।
मनुष्य लोक में मिलनेवाला मनुष्यानंद । इस आनन्द का तैतरीय उपनिषद में विस्तृत वर्णन है- ऐसे सौ मनुष्यानंद के बराबर एक गंधर्वानन्द, सौ गंधर्वानन्द के बराबर एक देवगन्धर्वानन्द, सौ देवगन्धर्वानन्द के बराबर एक देवानंद, सौ देवानंद के बराबर एक कर्मदेवानन्द, सौ कर्मदेवानन्द के बराबर एक स्वभावसिद्ध देवानंद, सौ स्वभावसिद्धदेवानंद के बराबर एक इन्द्रानन्द, सौ इद्‍​र्रानन्द के बराबर एक ब्रहस्पत्यानन्द, सौ ब्रहस्पत्यानन्द के बराबर एक प्रजापत्यानन्द, सौ प्रजापत्यानन्द के बराबर एक हिरण्यगर्भब्रम्हानन्द और सौ हिरण्यगर्भब्रम्हानन्द के बराबर एक परब्रम्हानन्द ।  परब्रम्ह-आनन्द के वर्णन का यह प्रयत्न मात्र है । सचमुच वह आनंद वर्णनातीत है । ब्रम्हानन्द तक पहुँचने में हमारा कतृ‍र्त्व चाहिए, हमारा पुरुषार्थ भी चाहिए साथ ही साथ ईशकृपा भी चाहिए ।  भगवत्कृपा होती है तभी मूर्ति चली जाती है।  मूर्ति का चले जाना यह ईशकृपा पर निर्भर है ।  इस प्रकार मनुष्य का प्रयत्न व ईशकृपा इनका जोड यानी ब्रम्हानन्द । वल्लभाचार्य ने ‘भगवान कृपासाध्य है’ ऐसा जो कहा वह इस स्थितिमें पहूँचने पर कहा है।

7) लीला माधुर्य:- भगवान का रुप मधुर लगा, भगवान का चिन्तन मधुर लगा, भगवान का श्रवण, भगवान की भाषा, भगवान का विरह मधुर लगा, भगवान का अंतर्धान मधुर लगने के बाद फिर से साधक इस जगत में आता है । और व्यवहार करने लागता है और उससे जो स्थिति आती है वह लीला माधुर्य की स्थिति होती है ।  जीवन एक लीला लगनी चाहिए ।  दो जनाें की क्रीडा लगनी चाहिए । जीवन अर्थात् क्या? जीवन अर्थात् जीव और शिव की क्रीडा ।  जीव + शीव यानी  जीवन । श्रीमद््वल्लभाचार्यने लीला इसीतरह की थी । उनकी भक्ति भी लीला थी । हमारी भक्ति वित के लिए होती है । कुछ लोग पुण्य के लिए भक्ति करते हैं । कुछ लोग विकास के लिए भक्ति करते हैं । वल्ल्भाचार्य जैसों की भक्ति लीला के लिए होती है।  लीला में भगवान खिलते हैं। रामायण में भी जिस काण्ड में भक्त की लीला है उस काण्ड का नाम सुन्दरकाण्ड रखा गया है।  भक्त की लीला भी भगवान को ऋषि मुनी को अच्छी लगती हैं ।

लीला माधुर्य का अनुभव करनेवालों का जीवन लीला है और भक्ति भी लीला है । लीलार्थ भक्ति होने लगती है तब भगवान भी खिलते हैं और भक्त भी खिलता है ।  यह एक परमोच्च अवस्था है । इस अवस्थामें जीव-शिव का मिलन होता है ।  इस अवस्थामें आये हुए भक्त को पकडने का विचार भगवान करते हैं । स्वरुप-माधुर्य,-चिन्तन, श्रवण, भाषा, विरह, भक्ति, लीलामाधुर्य ऐसे सप्त माधुर्य के बाद आठवी स्थिति आती है मिलन माधुर्य की! यहाँ जीवन का शिव में संपूर्ण एक्य साधा जाता है । संपूर्णतया मिलन होता है ।

इस आठवीं स्थि्ति में पहुँचे हुए, मिलन माधुर्य का अनुभव करनेवाले लोगों को हम ‘भगवान’ की उपाधि से संबोधित करते हैं, जैसे भगवान शंकराचार्य, भगवान पाणिनि, भगवान वल्लभाचार्य, भगवान रामानुजाचार्य.............आदि, उनके नाम के पहले भगवान शब्द लगता है ।

इस स्थिति तक पहुँचने के लिए जीवन लीलामय बनना चाहिए और भक्ति भी लीला बननी चाहिए । भक्ति वित्त के लिए नहीं, पुण्य के लिए नहीं, विकास के लिए भी नहीं ।  ये अष्टमनोदशाएँ अत्युच्च भक्त की हैं ।इस स्थिति तक पहुँचने के लिए शब्द-स्पर्श-रुप-रस-गंध-मन-बुद्धि- अहंकार इन आठ बातोंका उदात्तीकरण होना चाहिए । मन के उपर का आवरण बदलना पडेगा । मन में अन्त:जागृति रखनी पडेगी ।  मन को दुर्बल नहीं बनने देना है ।  दु:ख, निराशा, चिन्ता, भय, राग, द्वेष, मत्सर, वैरवृत्ति ये आठ अनिष्ठ भावनाएं मन को पकडकर रखती है ।  उसमें मन दुर्बल बनता है ।  और दुर्बल मनवालों को भगवान नहीं मिलते और जिनको भगवान नहीं मिलते उनको भगवान आठ सिद्धियाँ और नऊ प्रकार की संपत्ति प्रदान नहीं करते ।  मन: पूतं समाचरेत-मन पवित्र करने के बाद वर्तन पवित्र होता है । मन:पूत करना यानी मन को उत्साह, धैर्य, आशा, प्रेम, आत्मौपम्य, दया, करुणा और भक्ति भाव युक्त बनाना। इन आठ इष्ठभावनाओं का आवरण मनपर चढाना है । उसमे मन सक्षम और प्रगमनशील बनता है ।

इस आठवीं अवस्थामें पहुँचने के बाद आठ आत्मगुणों को विकसीत करना होगा ।  दया, क्षमा, पवित्रता, मंगलता, अस्पृहता, उदारता, खेदरहितता और असूया का अभाव ये आठ आत्मगुण हैं ।

दया आत्मगुण है, व्यवहारिक गुण नहीं है ।  हम कहते हैं, हम दया करते हैं, दया भीति से होती है, लोभ से होती है, पुण्य के लोभ से दया करते हैं । हमारे द्वारा की हुई क्षमा भी दुर्बलता से की हुयी होती है। हमारा वश नहीं चलता इसलिए हम क्षमा करते हैं सन्त एकनाथ ने एक सौ आठ बार थूंकने वाले युवक को समर्थ होते हुए भी क्षमा की ।  जीवन में पवित्रता, मंगलता आनी चाहिए सर्वेत्र सुखिन: संतु अन्त:करण से कहना चाहिए ।  आपके जीवन में स्पृहा आयी इसका अर्थ यह है कि आप अपने को छोटा समझते हैं, आप छोटे नहीं है ।  कृपणता यानी कंजूसी ।  कंजूसी कौन करता है?  जिसका अपने कतृ‍र्त्व पर विश्वास नहीं है और ईश्वर के प्रति विश्वास नहीं है वह कंजूसी करता है ।  आत्मविश्वास और ईशविश्वास से उदारता आती है ।  कृपण मनुष्य ज्यादा से ज्यादा पापी होता है । जीवन में किसी भी प्रसंग में खेदरहित रहना चाहिए ।  असूया यानी केवल जलना ।  दूसरे का उत्कर्ष देखकर जलन होना ।  यह तो कतृ‍र्त्वशूण्य लोगों की बात है ।  दुसरे का उत्कर्ष सहन न होना मन की दुर्बलता है । अपने भाई को किसी ने अच्छा कहा तो सहन नहीं होता ।  मनुष्य में असुया का अभाव होना चाहिए ।  इन आठ गुणोंसे भक्त जब युक्त बनता है तब उसे प्रसाद रुप में सिद्धियाँ प्राप्त होती है और हनुमानजी को ऐसा वर सीता माता ने दिया है । इसलिए यदि हम इस प्रकार जीवन में आठों बातोंपर चिंतन कर उन्हे जीवन में लाने का प्रयत्न करेंगे तो हनुमानजी हमपर अवश्य प्रसन्न होगे तथा हमे उनके आशीर्वाद से भगवद्प्राप्ति हो सकेगी । समपर्णात्मक जीवन, समपर्णात्मक कर्म और सुन्दर (मधुर) जीवन यह अध्यात्म है ।  यह अध्यात्म यदि ईशसंस्थ होगा तथा तुम यदि भगवान का आश्रय लोगे और इस रास्तेपर आगे बढोगे तो ही विकास होगा, सिद्धि मिलेगी ।

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