Saturday, July 2, 2011

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं । जलधि लांघि गये अचरज नांहीं ।।   (19)
अर्थ :  आपने श्रीरामचंद्रजी की अंगूठी मूंह में रखकर समुद्र को पार किया परन्तु आपके लिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है ।
गूढार्थ : तुलसीदासजी लिखते हैं कि हनुमानजी ने भगवान श्री रामचन्द्रजी की दी हुई अँगुठी को मुहँ में रख कर सीतामाता की खोज करने समुद्र पर छलांग लगाई और उस पार (लंका में) पहुँच गये इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।  

गोस्वामी तुलसीदासजी का अभिप्राय यह है कि हमें हनुमानजी की तरह सुक्ष्म बनकर भीतर पडी हुई सुप्त शक्तियों को जागृत करना चाहिए ।  हमें पता नहीं होता कि अपने में इतनी शक्ति पडी है ।  दूसरा एकाद व्यक्ति जब कहता है कि ‘तुझमें इतनी शक्ति है’ तब पता चलता है ।  हनुमानजी को विस्मृति का शाप था ऐसा कहतें हैं ।  हनुमानजी को सागर पार करने की अपनी शक्ति का ज्ञान नहीं था ।  लोगोंने कहा रावण इस सागर को पार करके सीता को ले गया है ।  यह सुनने पर सब निराश होकर बैठ गये ।  इतने में जाम्बुवंत वहाँ आया और हनुमान से कहने लगा, ‘हनुमान !  तुझमें यह शक्ति है, तू सागर लाँघ कर जा सकता है ।

हनुमान :- ‘झूठ बात है, मैं नहीं जा पाउँंगा।’
जाम्बुवन्त :- ‘ मैं कहता हूँ , तू जा सकता है।’
हनुमान :- ‘ऐसा ? तो क्या मैं जाऊँ? अब चलता हूँ ।’
फिर हनुमान ने जो कूदान भरी तो सीधे लंका में जा पहुँचा (Non stop flight) ।  इसमें कहनेवाले पर विश्वास था ।  हम बहुत कुछ सूनते हैं, परन्तु गीता कहने वाले .ष्ण पर, संतों पर हमारा विश्वास नहीं।  हममें शक्ति है ही और उसको विकसीत करना है। यह शक्ति विकसीत करने का काम गीता, उपनिषद करते हैं ।  हममें पडी हुई सुप्त शक्ति समझाने का, उसको जागृत करने का प्रयत्न ये ग्रंथ तथा संत करते हैं ।  इतनी भी जिसमें अक्ल नहीं है उसको दूसरों पर विश्वास करना चाहिए। कारण गीता ने ‘संशयात्मा विनश्यति’ कहा है ।  जिसका किसी पर विश्वास नहीं है उसको इहलोक भी नहीं और परलोक भी नहीं है ।

हमको लगता है कि इस भक्ति मार्गमें अनेक सागर, नदी, पर्वत, सर्प आदि बाधाएँ है ।  सागरमें डूबनें का भय है ।  कोई प्रेम में डूबता है, तो कोई धन सागर में, कोई सत्ता सागर में डूबता है तो कोई कीर्ति सागर में ।  भगवान! मैने बुद्धि पूर्वक सोंच लिया है कि इन सबको पार करने की मेरी शक्ति नहीं है ।  तो तुलसीदासजी जैसे संत हमें यह समझानें का प्रयास करते हैं कि हमारे भीतर अनंत सुप्त शक्तियाँ भरी पडी है।  उन सुप्त शक्तियों को जागृत करना चाहिए तथा भगवान पर पूर्ण विश्वास रखकर यदि हम कोई कार्य करेंगे तो अवश्य ही उसपार (भवसागर के पार) पहूँच जायेंगे इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है ।  जिस प्रकार हनुमानजी जाम्बुवन्त की बात पर विश्वास रखकर उस पार पहुँच गये उसीप्रकार हमें भी संतोंपर तथा गीता, उपनिषद, रामायण इत्यादि ग्रंथोंपर विश्वास रखकर उसमें भगवानने जो रास्ता दिखाया है उस मार्गपर चलने का प्रयास करना चाहिए तो हम भी उस पार पहुँच सकते हैं।

कोई कहेगा ‘चोरी नहीं करना, झूठ नहीं बोलना’ ये बातें हम जानते हैं तो फिर गीता पढने की क्या आवश्यकता है? भाई! मालूम होते हुए भी आचरण में नहीं आता । उसके लिए निरंतर जुगाली करते रहना चाहिए ।  अर्जून ने आमंत्रण देकर सभी को युद्ध के लिए बुलाया था ।  उसको मालूम था कि भीष्म द्रोण के साथ लडना है, परंतु युद्ध के मैदान में प्रत्यक्ष देखने पर भिन्न ही परिणाम हुआ।  ‘कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन’। प्रतिदिन तेजस्वी बातें बुद्धिको समझाना इसीका नाम स्वाध्याय है। स्वाध्यायमें दैवी बातें ही सुनने को मिलती है ।
तुलसीदासजी का अभिप्राय यह है कि हनुमानजी को विस्मृतिका शाप था, परंतु स्मृति होते ही उन्होने भगवद् कार्य की शुरुवात कर दी ।  हमको तो बिना शाप के विस्मृति हो गयी है ।  भगवान ने स्मृति नाम की एक अलैकिक शक्ति अंदर रखी है ।  व्यवहार समझने के लिए स्मृति आवश्यक है । कर्तव्य करने के लिए भी स्मृति आवश्यक है । 

‘मैं मनुष्य हूँ’ इसकी स्मृति होनी चाहिए ।  ‘मुझे क्या करना है’ उसकी भी स्मृति होनी चाहिए ।  हमारा जीवन सुख दु:ख से भरा है ।  यह सुख-दु:ख कर्माधिष्ठित है ।  इसलिए कर्म की स्मृति होनी चाहिए ।  हमें स्मृति ही नहीं रहती है ।  हमें बाजार भाव की स्मृति रहती है । गुड कहाँ अच्छा मिलता है इसकी स्मृति है, अच्छे कपडे कहाँ सस्ते मिलते हैं इसकी स्मृति है, परंतु मानव जीवन उन्नत बनाने के लिए जो हमें शक्ति मिली है उसका यदि हमनें योग्य उपयोग नहीं किया तो फिर से भगवान हमें यह शक्ति न देंगे, यह बात हमें मालूम नहीं है ।  इसकी स्मृति रहनी चाहिए ।  उत्क्रांति (Evolution) का एक ​ नियम है कि जिन इन्द्रियोंका हम उपयोग नहीं करते वे लुप्त हो जाती हैं । हमे ‘लेने’ की स्मृति है, परन्तु ‘देने’ की स्मृति नही है (हम खानदान नहीं बल्कि खान साहेब हैं।) जो लेता-देता है उसे खानदान कहते हैं । देते समय हमें विस्मृति हो जाती है, परन्तु लेते समय स्मृति रहती है, यह आज की बडी समस्या है।

एक सज्जन खड्डे में गिर पडे थे । बनिया प्रकार के दुकानदार थे । रोये-चिल्लाये तो एक यात्री ने हाथ नीचे करके कहा ‘‘ला मुझे हाथ दो’’ वह सज्जन रोते और चिल्लाते तो रहे, हाथ नहींं दिया । वह व्यक्ति चकित था कि यह खड्डे में गिरनेवाला क्या पागल है? कई दूसरे लोगों ने भी कहा-‘‘ अरे, तू रोये जाता है, हाथ क्यों नहीं देता?’’ तभी एक बुद्धिमान वहाँ आया। उसने खड्डे में गिरे आदमी को देखा; बोला-‘‘आप लोग गलती कर रहे हैं । यह व्यक्ति है व्यापारी । देना कुछ जानता नहीं, केवल लेना जानता है । ठहरो, मैं इसे निकालता हूँ। ’’ उसने हाथ को नीचे करके कहा-‘‘ ले भाई यह हाथ ले । पकडकर उपर आ जा ।’’ उसने तुरन्त नये आदमी का हाथ पकडा और उपर आ गया । हम व्यापारी बन गये हैं । हर बात में लाभ चाहते हैं । परन्तु आज की समस्या विस्मृति ही है ।

सुधार (Reformation) पुनर्जागरण (Renaissance) और क्रांन्ति (Revolution) का अभ्यास करोगे और उनका विचार करोगे तो मालूम पडेगा कि उनमें से कई अच्छी अच्छी बातें बाहर निकली है, परन्तु उनके साथ साथ एक हलाहल-विष भी निकला है । (उसे पीने के लिए अभी कोई शिवजी नहीं मिले है) वह जहर है मानवी हक्क (Human rights) हक्क का अर्थ है लेना और फर्ज का अर्थ है देना । हम हक्क के विषय में जागरुक हैं, मगर फर्ज के विषय में सोये हुए है । उसकी हमें विस्मृति है । यही तो समस्या है । यदि यह समस्या हल हो जाएगी तो मानव जीवन उन्नत बन जाएगा।

आदमी अपना हक्क समझता है परन्तु अपना फर्ज नहीं समझता, वह समझने का प्रयत्न भी नहीं करता है । यह बात कोई उसे समझाता भी नहीं है । अगर कोई समझाए तो उसे वह मूर्ख लगता है। उसे अगर कोई समझाए कि तेरे पिताजी ने तेरे लिए काफी किया है , उनका तुमपर कितना प्रेम है, तो तुम्हारा भी कुछ कर्तव्य है, तुम्हे उनकी सेवा करनी चाहिए, यह तुम्हारा फर्ज है, तो ये बातें उसे अच्छी नहीं लगती।

आज  का आदमी कहता है, हमे हमारा फर्ज मालूम है, इसे हमे मत सिखाओ। हमे हमारे हक्क कहो। मजदूर और मालिक दोनो अपने अपने हक्काें को समझने के लिए उत्सुक हैं । पत्नी भी पति से अपने हक्क के बारे में पूछती है, मांगती है। आदमी लेने की स्मृति और देने की विस्मृति रखता है। इसीको कलियुग कहा जाता है । कलहयुग को कलियुग कहते है ।
लेन-देन पर मनुष्य का चरित्र खडा है,। स्कूल, कॉलेजों में आजकल A+B और A-B का शिक्षण दिया जाता है, परन्तु इससे व्यक्ति मानव नहीं बनता है, उल्टे यह शिक्षण व्यक्ति को शुष्क बना देता है । आज धनवान, बुद्धिमान और शासक शिक्षण के पीछे पडे हैं । मगर यह वही पढाई है। केवल खानसाब की पढाई से नही चलता। ‘खानदान’ की, लेन-देन की पढाई भी होनी चाहिए । आज ऐसी पढाई नहीं होती है।
जीवन यानी आदान-प्रदान।  हम सभी लोग आदान के पीछे पडे हैं । भगवान के पास से कुछ लेना नही है बल्कि उन्हे देना है यह कल्पना खत्म हो गयी है । लोग कहते हैं कि भगवान को कोई आवश्यकता ही नहीं है, वह तो समर्थ है, उसे क्या चाहिए? उसके पास से तो हमे लेना ही है । सारे भक्त यही कहते हैं । उन्होने अध्यात्म, भक्ति सब कुछ खत्म कर दिया है । दिन-प्रतिदिन आदमी स्वार्थी बनता जा रहा है । उसे आदान की स्मृति है, मगर प्रदान की नहीं है ।

आदमी आदान-प्रदान ठीक से समझेगा तो उसका कौटुम्बिक और सामाजिक जीवन अच्छा हो जाएगा। मुझे कौनसी स्मृति रखनी है? मै मनुष्य हूँ, मुझे क्या करना है इस बात का विचार करना चाहिए । जीवन सुखदु:ख से भरा है और सुख-दु:ख दोनो कर्माधिष्ठित है, इसलिए कर्म पर ध्यान देना चाहिए। आदमी मर जाता है तब उसके साथ कुछ नहीं जाता है, सभी यहीं पर रह जाता है, तो उसके साथ क्या जाता है? जीवन कैसा है, वृत्ति कैसी है, भाव कितना बढाया, ये सारी बातें उसके साथ जाती है । कहा गया है:
धनानि भूमौ पशवच गोष्ठे। भार्यागृहद्वारि जन: स्मशाने ।।
देहचितायां परलोकमार्गे । कर्मानुगो गच्छति जीव एक: ।।
मनुष्य के साथ उसका कर्म जन्मान्तर तक जाता है । इस तरफ ध्यान देना चाहिए। कौनसा कर्म उसके साथ जाएगा? कर्म बैंक के चेक के समान है । चेक का भुगतान दो बार नहीं किया जा सकता है, उसी तरह जो कर्म तुमने यहाँ भुनाया है वह तुम्हारे साथ नहीं जाएगा। उसका फल तुम्हें दूसरे जन्म में नहीं मिलेगा । जिस कर्म का फल तुमने यहाँ नही लिया, वह तुम्हारे साथ जाएगा । उसी को निष्काम कर्म योग कहते हैं । जिस कर्म रुपी चेक का भुगतान यहाँ नहीं करोगे, वह तुम्हारे साथ जाएगा । जिस कर्म रुपी चेक का भुगतान यहाँ हुआ है वह तुम्हारे साथ नहीं जाता ।

कीर्ति पाने के लिए तुम अमुक सत्कर्म करते हो और उसके फलस्वरुप तुम्हें कीर्ति मिलती है तो वह सत्कर्म मृत्यु के बाद तुम्हारे साथ कैसे जाएगा? उसका इस्तेमाल तो तुमने यहीं कर दिया। मनुष्य को अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए और सोंच समझकर कर्म करना चाहिए। मनुष्य को कर्म की स्मृति रहनी चाहिए। ‘मुझे आज जो मिला है वह कर्म से मिला है । इस जन्म में मुझे जो अच्छी स्थिति मिली है वह कर्म से ही मिली है । कदाचित खराब स्थिति मिली हो वह भी कर्म से ही मिली है । यह न भूलना चाहिए । उसके लिए हंसना या रोना व्यर्थ है । क्योंकि जो भी मिला है वह कर्म से ही मिला है।

भगवान तुम्हे बुद्धिशक्ति (Intellectual Power) दी है, उसके साथ इच्छास्वातंत्‍र्य (Free Will) भी दिया है । कुछ तथाकथित भक्त कहते हैं कि उपरवाले की ईच्छा होगी तब हम सत्संग करेंगे । उनसे पूछा जाना चाहिए कि उपरवाले ने कौनसी आज्ञा दी? क्या बिगडने की आज्ञा भगवान ने दी है? भगवान ने हमें अच्छे संसाधन देकर भेजा है। हमारे पास बुद्धिशक्ति, दृष्टिशक्ति, निर्णयशक्ति सबकुछ है । यदि इनका इस्तेमाल नहीं करेंगे तो यह केवल गुनाह ही नहीं बल्कि पाप भी है।

मनुष्य को कर्म का स्मरण करना चाहिए । भगवान शक्ति देते हैं, जीवन विकासार्थ और प्रभु कार्यार्थ इसका इस्तेमाल होना चाहिए । भगवान ने शक्ति क्यों दी है इसका स्मरण होना चाहिए । आज सभी बुद्धिशाली लोगों को विस्मरण हो गया है । ‘मुझे कुछ करना है’ इसलिए भगवान ने मुझे शक्ति दी है इसी बात को आदमी भूल गया है । उन्हे याद दिलाने के लिए भगवान तुकाराम, तुलसीदास जैसे सन्तों को भेजते है, परन्तु आदमी उन्हे पागल समझता है । आदमी उनका पूजन करता है परन्तु उनकी सुनता नहीं है, उन्हे मानता नही है।

आज भी ज्ञानबा, तुकाराम का जप करते हैं, तुलसीदास का पूजन करते हैं, परन्तु किसीको उनका सुनना नहीं है और मानना भी नहीं है । केवल सन्तों, महापुरुषों का वर्णन करके नहीं चलता। भगवान इन्हे जगत में क्योें भेजते है? हमें जगाने के लिए भगवान इन महापुरुषों को भेजते हैं, परन्तु हम जागते ही नहीं है।

भगवान ने हमें जगत में भेजा है । हमे मोटार दी है, बंगला दिया है, हमारा धन्दा अच्छा चलता है, सोने के लिए वातानुकूलित कमरा है । इतनी सारी सुविधाएं इसलिए दी है ताकि हम उसका काम करें । हम सो जाते है तो भगवान किसी को उठाने के लिए भेजता है । निवृत्ति ज्ञानदेन सोपान मुक्ताबाई एकनाथ नामदेव तुकाराम ये सारे बीच बीच में हमें उठाते है और जो काम करना है उसकी याद दिलाते है :‘तू मनुष्य है, पशु नहीं । तो तेरा बर्ताव पशु जैसा क्यों है? तब हम कहते हैं, हाँ, हाँ हम जरुर प्रभु का काम करेंगे, मगर अभी तो हम छोटे हैं। साठ वर्ष के बाद जरुर करेंगे। वे हमें याद दिलाते हैं । कर्म करने की स्मृति कराने की आवश्यकता है ।
भगवान ने मानव को स्मृति दी है । देना मानव का कर्तव्य है । आदान प्रदान मिलकर जीवन बनता है । बडे कारखानों के मालिक अफसरों को ज्यादा वेतन देते हैं । वातानुकूलित कमरे में उनकी व्यवस्था करते हैं, उन्हे मोटर देते हैं। क्यों? क्योंकि उनकी शक्ति टिकनी चाहिए । बची शक्ति अपने कारखाने के लिए इस्तेमाल करें इसलिए सुविधांए दी है ।

भगवान ने भी अपने लडकों की शक्ति टिकाने के लिए कुछ सुविधाएं दी है । ताकि वह शक्ति हम भगवान के चरणों मे धरें और उसका काम करें । मगर होता क्या है कि हम अपनी क्षमता शक्ति बाजार में व्यापार-धन्दे में इस्तेमाल करते हैं और अक्षमशक्ति को लक्ष्मीनारायण भगवान के चरणों में धरते हैं । इसके बदले क्षमता शक्ति को भगवान के चरणों मे धरो । हमें बुद्धि, चित्त, विद्या, कतृ‍र्त्व ये सब क्यों मिला है । इसकी स्मृति चाहिए ।
हमें रेल्वे का समयपत्रक (Time table) मुखपाठ है । इसकी हमें स्मृति है हमारी बुद्धि में ऐसी कितनी ही चीजें भरी है । हमें याद रहना चाहिए ‘मैं जगत में क्यों आया हूँ? मुझे क्या करना है? भगवान ने मुझे ही इतनी अच्छी बुद्धि क्यों दी है? दूसरे किसीको नहीं और मुझे ही अतनी अच्छी बुद्धि क्यों दी है? इसका जो विचार नहीं करता है उसे विस्मृति आ गयी है ।

भगवान ने हमें जो स्मृति दी है उसका उपयोग हमें व्यवहार और परमार्थ में करना चाहिए । हमें कर्मो की स्मृति रखनी चाहिए । मैं क्यों आया हूँ इसकी स्मृति होनी चाहिए। पूर्वजों का स्मरण करना चाहिए। नवधा भक्ति में स्मरणं है । पूर्वजों का स्मरण होना चाहिए कि मैं किस कुल मे जन्मा हूँ ?
पुराने जमाने में ब्राम्हण रोज पूवर्जों का स्मरण करते थे । केवल ब्राम्हण ही नहीं बल्कि जिन्होंने जनेऊ ली वे सब पूर्वजों का रोज स्मरण करते थे । अत्रिगोत्रोत्पन्नोहं मैं कौन से कुल में जन्मा हूँ? मेरा गोत्र अत्रि है तो उन्हे शोभा दे ऐसा मेरा वर्ताव होना चाहिए । इसलिए रोज गोत्रोच्चार करना चाहिए । मैं किस ऋषि की संतान हूँ, इसका स्मरण होना चाहिए ।

हम अपने को बुद्धिनिष्ठ मानते हैं, परन्तु हम बुद्धिनिष्ठ नहीं बल्कि बुद्धिजीवी है We live on our wits। बुद्धि से जो उपजीविका पाता है उसे बुद्धिजीवी कहते हैं । वह बुद्धिनिष्ठ नहीं होता । कोई हाथ चलाकर उपजीविका पाता है तो कोई बुद्धि चलाकर उपजीविका पाता है । ये बुद्धिजीवी हैं, मनुष्य को बुद्धिनिष्ठ (Rational) होना चाहिए।
बुद्धिजीवी अलग, बुद्धिवादी अलग और बुद्धिनिष्ठ अलग होता है । मनुष्य को बुद्धिनिष्ठ बनना चाहिए। भगवान ने प्रभावी स्मृति के साथ साथ प्रभावी विस्मृति भी रखी है । सतत सभी की स्मृति भी योग्य नहीं । इसलिए भगवान ने गीता में लिखा है: “मत्त: स्मृतिज्ञ‍र्ानमपोहनं च” स्मृति, ज्ञान और उपोहन मैं ही देता हूँ । भगवान की दी हुई वस्तु को संभालना चाहिए । स्मृति के साथ विस्मृति भी होनी चाहिए, परन्तु स्मृति किसकी? विस्मृति किसकी? इनका जीवन मे समतोल रहना चाहिए । स्मृति प्रभावी है और जरुरी भी है । इसीलिए नवधा भक्ति में उसे स्थान है । श्रवणं कीर्तनं के बाद स्मरणं है । मनुष्य ने भगवान के साथ करार (Contact) किया है, उसका जीवन में स्मरण रहना चाहिए तभी दिवाली होती है ं करार तोडना आज भी गुनाह माना जाता है । जिसे अपने द्वारा किये करार का स्मरण नहीं होता, उसके जीवन में दिवाली नहीं होती, होली होती हैं

स्मृति से सम्बन्ध मालूम होतेेे हैं, व्यवहार पता चलता है और कर्तव्य की भावना आती है । स्मृति के बिना जीवन अपूर्ण है । मैं भगवान के लिए हूँ और भगवान मेरे साथ है ये दोनो बातें सतत ध्यान में रखनी चाहिए । उसका सातत्य रहे तो हम अध्यात्म के रास्ते सरलता पूर्वक जा सकें्रगे । मेरे पास रही शक्ति प्रभु के लिये ही है । इसीलिए वह दिव्यता, मंगलता पवित्रता, तेजस्विता, चैतन्य के लिए होनी चाहिए । यदि मैं उसके लिए शक्ति इस्तेमाल करुं तो मैं भगवान के लिए हूँ ऐसा कहा जा सकता है । जिस प्रकार हनुमानजी ने अपनी शक्ति का इस्तेमाल भगवान राम के कार्य के लिए किया और उन्हे यश प्राप्त हुआ तो इसमे कोई आश्चर्य की बात नहीं है ऐसा तुलसीदासजी ने ठीक ही लिखा है । जो लोग भगवान पर पूर्ण विश्वास रखकर प्रभु कार्य करते हैं उन्हे यश भगवान अवश्य देते हैं इसमें कोई्र शंका नहीं, इसलिए हमें भी हनुमानजी से प्रेरणा लेकर भगवान पर पूर्ण विश्वास रखकर यथा शक्ति प्रभु कार्य करना चाहिए ।

भगवान सतत मेरे साथ हैं इसकी स्मृति रहे तो जीवन को अलग ही मोड आता है । इस मोड को आध्यात्मिक रास्ते पर ले जाना है। स्मृति का थोडा भाग भगवद्कार्य के लिए इस्तेमाल करना चाहिए । यदि हम भगवद्कार्य के लिए स्मृति रखेंगे तो हम अन्दर शुद्ध, स्वच्छ करते हैं ऐसा कहा जा सकता है । अन्दर की शक्तियाँ भगवानने दी है उन्हे उदात्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।

तुलसीदासजी का अभिप्राय यही है कि संस्कृति के कार्य के लिए हनुमानजी ने कुदान भरी और उन्हे यश प्राप्त हुआ उसी प्रकार हनुमानजी से प्रेरणा लेकर हमे भी भगवद्कार्य तथा संस्कृति के कार्य के लिए कूदान भरनी चाहिए । भगवान हमें अवश्य ही सफलता देंगे इसमें कोई आश्चर्य नहीं।

No comments:

Post a Comment