Saturday, July 2, 2011

राम दुआरे तुम रखवारे । होत न आज्ञा बिनु पैसारे ।।  (21)
अर्थ : श्री रामचंद्रजी के द्वार के आप रखवाले हैं , जिसमें आपकी आज्ञा के बिना किसी को प्रवेश नहीं मिल सकता ।  (अर्थात श्रीराम-.पा पाने के लिए आपको प्रसन्न करना आवश्यक है)।
गुढार्थ : तुलसीदासजी कहते है कि यदि हमें भगवान तक पहुँचना है तो गुरु, संत और शास्त्रकारोंकी सेवा करनी चाहिए । पुराने जमाने में बचपन में ही विवाह होते थे । उसमे बालवधु होती थी, उसको अपने पतिका प्रेम पाना होता तो प्रथम सास स्वसुर की सेवा करनी पडती थी, तभी पति हाथ में आता था । सास स्वसुर की सेवा किये बिना जिस प्रकार पति हाथ में नही आता, उसी प्रकार गुरु, सन्त और शास्त्रकारों की सेवा किये बिना भगवान हाथ में नही आते।

रामचरितमानस में भी जब हनुमानजी पहली बार विभीषण को लंका में मिले तब विभीषण ने हनुमानजी को संत ही कहा है, तथा उनकी .पासे ही विभीषण को राम के दर्शन हुए ।
अब मोहि भा भरोस हनुमंता । बिनु हरि.पा मिलहिं नहिं संता ।। (मानस 5/6/2)
हनुमानजी की कृपा से ही विभीषण को भगवान राम तक पहुँचने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है ‘राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसारे’ याने संतो की सेवा किये बिना भगवान तक नहीं पहूँच सकते । संतो से ज्ञान मिलता है, यानी कि सत्संग किया तो मार्गदर्शन मिलता है ।

तुलसीदासजी इस चौपाई द्वारा संत की महिमा समझाते हैं । तुलसीदासजी ने संत महिमा समझाते हुए रामचरितमानस में लिखा है--
मोरे मन पभु अज विश्वासा । राम ते अधिक राम कर दासा ।।
                               (मानस 7/119/8)
राम सिंधु घन सज्जन धीरा ।  चंदन तरु हरि संत समीरां ।।
(भगवान समुद्र हैं तो संत मेघ हैं, भगवान चंदन हैं तो संत समीर (पवन) हैं, इस हेतु से मेरे मन में ऐसा विश्वास होता है कि राम के दास राम से बढकर है ऐसा तुलसीदासजी लिखते है। )

दोनों दृष्टांतों पर ध्यान दीजिए। समुद्र जल से परिपूर्ण है, परन्तु बादल जब उसी समुद्र से जल को उठाकर यथा योग्य बरसाते हैं तो केवल मोर, पपीहा, और किसान ही नहीं-सारे जगत में आनंद की लहर बह जाती है । उसी प्रकार परमात्मा सच्चिदानन्दनघन सब जगह विद्यमान है, परन्तु जब तक परमात्मा के तत्वोंको जाननेवाले भक्तजन, संत उनके प्रभाव का सब जगह विस्तार नहीं करते तब तक जगत के लोग परमात्मा को नहीं जान सकते। जब महात्मा संत पुरुष सर्वसद्गुणसागर परमात्मासे समता, शान्ति, प्रेम, ज्ञान और आनन्द आदि गुण लेकर बादलों की भँाति संसार में उन्हे बरसाते हैं तब जिज्ञासु साधकरुप मोर, पपीहा, किसान ही नहीं किन्तु सारे जगत के लोग उससे लाभ उठाते हैं । यहाँ भाव यह है कि सन्त न होते तो भगवान के गुण, गरिमा और महत्व, प्रभु तत्व का विस्तार जगत में कौन करता? इसीलिए संत भगवान से ऊँचे है ।

दूसरी बात यह है कि जैसे सुगंध चंदन में ही है, परन्तु यदि वायु उस सुगंध को वहन न करे तो चंदन की गंध चंदन में ही रहती, इसी प्रकार सन्त यदि भगवान की महिमा का विस्तार नहीं करते तो दुर्गुणी, दुराचारी मनुष्य भगवान के गुण और ज्ञान को पाकर सद्गुणी सदाचारी नहीं बनते। इसीलिए संतो का दर्जा भगवान से बढकर है। इस संदर्भ में संत कबीर ने भी कहा है:
गुरु गोविन्द दोनों खडे,  काके लागु पाय ।
बलिहारि गुरु आपकी गोविन्द दियो बताय ।।
गुरु, संत भगवान तक पहुँचने का रास्ता बताते हैं, मार्गदर्शन करते हैं इसलिए उनका दर्जा भगवान से उपर है भगवान तक पहुँचना है तो पहले संतो की सेवा करनी चाहिए, उनके द्वारा ज्ञान प्राप्त कर उस अनुसार जीवन जीने का प्रयत्न करना चाहिए । भागवत में भी वेदव्यासजी ने वसुदेव के मुँह से कहलाया है कि सन्त भगवान से भी श्रेष्ठ हैं और सबसे कोई पवित्र होगा तो वह सन्त है।

भारतीय संस्कृति में तीन चीजें पवित्र मानी गयी हैं-- काशी, हिमालय और गंगा। इन तीनों से भी सन्त अधिक पवित्र हैं । काशी मरणान्मुक्ति :- काशी में मरने पर मुक्ति मिलती है, परन्तु मरने के लिए काशी जाना पडता है । कितने ही लोग काशी में रहने के लिए जाते हैं। एक भाई जीवन के अंतिम दिनों मे काशी में रहने के लिए गये । हेतु यह था कि काशी में मृत्यु हुई तो मुक्ति मिलेगी । चार वर्ष काशी में रहे, मगर मृत्यु नहीं हुई । इधर मुंबई मे एकदम नजदीक के सम्बन्धी के यहाँ विवाह प्रसंग आया इसलिए वह भाइ्‍र्र तीन दिन के लिए मुंबई आया और वहीं मर गया। काशी में मृत्यु के बाद मुक्ति मिलती है ऐसा कहा जाता है । संतो का विचार यदि दिमाग में आया तो दु:ख, दैन्य, दारिद्र और कर्मबन्धन से मुक्ति मिलती है।

हिमालय पवित्र है, परन्तु हिमालय के पास जाने के लिए वित्त चाहिए । सन्त के पास जाने के लिए वित्त नहीं लगता, अपितु भाव लगता है और भाव सबके पास होता है ।

गंगा पवित्र है, परन्तु वह अदृष्ट फलसूचक है । गंगा मरने के बाद मुक्ति देती है, परन्तु सन्त के विचार सानिध्य से जीवित रहते हुए भी दैवी, सुखी, आनंदी और तेजस्वी हो सकते हैं, इसलिए भागवतकार ने वसुदेव के मुँह से नारद से कहा है कि भगवान तो सभी को सुख व दु:ख देते हैं, परन्तु आप जैसे सन्त सभी को सुख केसे मिलेगा यह देखते हैं । भगवान को तो लोगों को दु:ख देना ही पडेगा कारण जो हरामखोरी करता है उसे सजा देनी ही पडती है । भगवान पिता के समान हैं और सन्त माँ के जैसे हैं । पिता कठोर होते हैं, माँ दयालु ‘आज तुझे खाना नही मिलेगा।’ (यह पुराने जमाने के पिता की बात है।) आज तो पिता पुत्र से डरता है कि न जाने लडका घर से चला गया और कुछ किया तो?) दुसरी बात, बुढापे में लडके के पास ही रहना पडेगा । मातापिता का नियंत्रण ढीला पड गया है । पिता की छाती में दम नहीं, मस्तिष्क में विचार नहीं है ऐसा पिता प्रभावी कैसे रहेगा?

पिता पुत्र को घर से बाहर निकालता है और ‘आज तुझे खाना नहीं मिलेगा’ ऐसा कहता है । परन्तु माँ कहती है, ‘तेरे पिताजी दफ्तर  जायेंगे तब पिछले दरवाजे से आ जाना, मै तुझे खाना दूँगीं।’ माँ का अन्त:करण भिन्न ही होता है । भगवान ने गीता में कहा है--
इदं ते नातपस्काय ना भक्ताय कदाचन 
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योभ्यसूयते ।।
                        (गीता 18/67)
(यह तेरे हित के लिए कहा हुआ ज्ञान कभी तपरहित और भक्तिरहित तथा जिसे सुनने की इच्छा नहीं है ऐसे व्यक्ति को नहीं कहना चाहिए, एवं जो मेरी निंदा करता है उसे भी नहीं कहना चाहिए।)

कितने ही लोग, स्वयं तो गीता पढते नहीं, परन्तु लोगों को पढने के लिए गीता की पुस्तके मुफ्त में देते हैं । भगवान तो स्पष्ट भाषामें कहते हैं कि अतपस्वी को गीता न दो! जीवन में क्या कोई तप है? भक्तिफेरी की है? ऐसा हो तो गीता सुनने के लिए जाओ, गीता तुम्हारे साथ बोलेगी। भगवान ने जो कहा है वह सुनकर सामान्य व्यक्ति हताश बनकर बैठ जाता है । उसे लगता कि अपने जैसे के लिए गीता नहीं है । हम सब गीता के अनधिकारी हैं, परन्तु शंकराचार्य, ज्ञानेश्वर जैसे महापुरुष खडे हुए और उन्होने कहा, ‘आइये! हम आपको गीता सुनायेंगे, पढायेंगे !’ हमने उनसे कहा, ‘हम तो अनधिकारी है! तब उन्होने कहा, ‘हम और भगवान देख लेंगे । हमारा भगवान के साथ सम्बन्ध है । शंकराचार्य और ज्ञानेश्वर जैसे संत न होतेे तो हमें गीता पढने को नहीं मिलती । गीता पढने की हममें शक्ति ही नहीं है । अधिकार भी नहीं है । इसीलिए सन्तो का महात्म्य है, ‘भगवान से भी सन्त महान है ।’

तुलसीदासजी इसलिए संतसंगति करने के लिए कहते हैं। भारतीय संस्.तिने संत की महिमा गायी है । महाराष्ट्रके पंढरपुर में तुम्हे पंढरीनाथ पांडुरंग या विठ्ठलनाथ की धुन सुनाई नहीं देगी, वहाँ लोग ‘ज्ञानबा-तुकाराम’ की धुन गाते हैं । संतसंगति श्रेष्ठ मानी गयी है ।

जिस आदमी के चित्त और वित्त भगवान के लिए होते हैं उसे संत कहते है मन+बुद्धि +अहंकार  चित्त । संत का मन कैसा होता है । गीता में भगवान ने कहा है कि संत का मन मेरे समान उदार और कृपालु होता है । मन्मना भव, मद्भक्तो भव ऐसा भगवान ने गीता में कहा है । कोई ऋृंगार (Make up) करने से संत नहीं बन जाता । संत या भक्त यह एक वृत्ति है, दृष्टि है, जीवन है। तुम कपडे कैसे पहनते हो इसपर यह निर्भर नहीं है । भगवान आदमी की वृत्ति और दृष्टि देखते हैं।

गीता में भगवान ने कहा है : मन्मना भव मेरे जैसा मन बनाओ ।  भगवान का मन उदार और कृपालु है तो मेरा मन भी उदार और कृपालु होना चाहिए ।  मन्मना भव का दुसरा अर्थ है मन में प्रभु आने चाहिए । 

बुध्दि में जिसका यह निर्णय पक्का है कि, भगवान मेरे है और मैं उनका हूँ , तथा नरायण ही सत्य है उसे सत्यनारायण कहते हैं । इस जगतमें नारायण ही सत्य है और उस पर विश्वास होना चाहिए । आज तो घर-घर में सत्यनारायण की पूजा होती है ।  जो सत्यनारायण की पूजा करने बैठता है , उसकी दृढ भावना होनी चाहिए कि, नारायण ही सत्य है , बाकी सब झुठ है ।  मेरा कौन है? नारायण !  वह मुझे सुलाता है, वही मुझे उठाता है ।  मैं जब सोता हूँ तब वह मेरे साथ रहता है और मेरे मरने के बाद भी साथ रहता है ।  वही नारायण सत्य है ।  मूल बात यह है कि, बुध्दि में नारायण ही सत्य है ऐसी दृढ भावना होनी चाहिए तभी सत्यनारायण की सच्ची पूजा कही जाएगी ।  मेरा स्वामी नारायण है, दुसरा कोई नहीं और वह मेरा है’ यह बात बुध्दि में निश्चित होनी चाहिए ।

चित्त में तीसरी बात अहंकार है ।  सभी में अहं है ।  जब तक द्वैत है तब तक अहं रहेगा ही, परन्तु उन्नत स्थिति पर पहूँचकर नाजुक अहं (Ego) रहेगा।  मैं किसीका हूँ  यह नाजुक अहं है।

मालिकी भावना (Sense of possession) सभी में है ।  मेरी पत्नी, मेरा पति, मेरा लडका, मेरा घर ऐसी मालिकी भावना का अहंकार हमें तकलीफ देता है, हैरान करता है। शा में अहंकार के विरुद्ध जो लिखा है वह इसी अहंकार को उद्देश्यकर लिखा गया है। परन्तु जब तक द्वैत है तब तक अहंकार रहेगा। अहंकार न हो तो द्वैत ही खत्म हो जाएगा, अर्थात् जीवन ही खत्म हो जाएगा।

‘मेरा कुछ है’ यह बात हैरान करती है, परन्तु मैं किसीका हूँ इसमें शोभा है, सौंदर्य है। एरिस्टोटल कहता है कि मैं सोक्रेटिस का हूँ , प्लेटो कहता है मैं एरिस्टोटल का हूँ। जनक कहते है मै याज्ञवल्क्य का हूँ, शंकराचार्य कहते हैं मैं गौडपादाचार्य का हूँ। इसमें आनंद है और ये हमें आनंद देते हैं। ‘ मैं किसी का हूँ ’ ऐसा हरेक को लगना चाहिए। सभ्यता (Civilization) आयी कि अपने नाम के पीछे पिता का नाम लिखना मानसशस्त्रीय (Psychological) है, ‘ मै किसीका हूँ ’ ऐसा अहं मनुष्य को तकलीफ नहीं देता। मै परिवार समूह, संघ संप्रदाय या देश का हूँ। ‘ मै देश का हूँ ’ मेरा देश नहीं ’ यह भावना आनी चाहिए । मै भगवान का हूँ, परन्तु भगवान के लिए मै क्या करता हूँ ?’ यह अहं अच्छा है, जो अहम् देने तैयार है वह अच्छा है। ‘

भगवान मेरे लिये क्या करते हैं ? यह अहं अच्छा नहीं है। खानदान वृत्ति होनी चाहिए। आदान प्रदान का नाम जीवन है। आदान का अर्थ है हक्क  (Rights) और प्रदान का अर्थ है कर्तव्य (Duty) केवल हक्क मांगनेवाला समुदाय आगे नहीं बढता। कितने ही लडके कहते हैं कि बाप को मुझे पैसे देने चाहिए, क्योकि बापसे पैसे मांगना मेरा हक्क है। उससे पूछा जाना चाहिए कि बाप के प्रति तेरा कोई कर्तव्य है या नहीं ? सभी खानसाहब बन गये हैं, कोई खानदान नहीं है। जो केवल हक्क सिखाता है वह खानसाहब है और जो कर्तव्य  सिखाता है वह खानदान है। खानसाहब में रहा अहम् तकलीफ देता है। ‘सब मेरा है’ ऐसा अहं तकलीफ देता है। ‘मै किसीका हूँ’ ऐसा नाजुक अहं होना चाहिए। ‘इस शरीर पर मेरी सत्ता नहीं’ भगवान की सत्ता है’ ऐसा समझने वाले को संत कहा जाता है ।

भारतीय संस्कृति मे संत एक वृत्ति है। ऐसे संत की संगति से हमारा निश्चय पक्का हाता है। संत कौन है ? जो प्रेम से भीगा है, कर्म से मजबूत है और ज्ञान से मधुर है जिसका हृदय मधुर और भाववान है वह संत है। उसके सिर की माला पहनने को भगवान का भी मन होता है। इसीलिए भगवान को कपाली कहते है। शिवजी गले में खोपडी की माला पहनते है। वह खोपडी किसकी है ? वह तुम्हारी या हमारी खोपडी नहीं है। हमारी खोपडी में क्या है ? हमारी खोपडी में भाव है, परन्तु वह बाजारभाव है। हमें यह एक ही भाव मालूम है। सुबह उठने पर सभी इसी बाजार भाव को देखते हैं। हृदय का भाव किसी के पास नहीं है। आदमी को अपनी पत्नी पर भी भाव नहीं है। मुझे सुख देती है तब तक ठीक है, जिस दिन नहीं देगी उस दिन तलाक (Divorce)!

जिसकी खोपडी ज्ञान से मधुर है और जिसके हृदय में मधुर भाव है, वह संत है। ऐसे संत हमें भगवान के पास पहुँचायेंगे। यह गणित ही अलग है?। व्यवहार मे 1+1 = 2  होता है, मगर अध्यात्म में 1+1 = 1 होता है। अध्यात्म का गणित ही अलग है, गणितज्ञो के दिमाग में यह बात नहीं आती है। जिसके पास भाव का राज्य है वह संत है और उसकी संगति करने से निश्चय पक्का होता है, प्रयत्न भी दृढ होता है। कौनसी संगति चाहिए? संत संगति अथवा गीता की संगति चाहिए। गीता भगवान कृष्ण द्वारा कही गयी है, और .ष्ण जगद्गुरू है। ‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरूम् । तुम्हारी संगति जितनी भव्य होगी उतने तुम दिव्य होेंगे। उतना तुम्हारा निश्चय पक्का होगा। संगति दुबली होगी तो वह तुम्हें कमजोर बनाएगी और तुम्हारा निश्चय ढीला पड जाएगा।  आज तो कोई भजन में जाता है तो कहता है कि सत्संग में गया है।  सत्संग का अर्थ इतना निम्न स्तर का होगा ऐसा ऋषियोंको भी नहीं लगा होगा।  सत्संग याने केवल दो-चार भजन गाना नहीं है।  जीवन दृष्टि बदलनी पडेगी।  भीतर से बदलना पडेगा।  भक्ति का रहस्य ही यह है और भक्ति का कहना भी यही है।  चोटी कितनी लंबी रखी अथवा तिलक कितना बडा लगाया है इसका भक्ति के साथ कोई संबंध नही है।  भक्ति एक वृत्ति है।  अपेक्षारहित स्नेह की परवरिश करने का अभ्यास करना होगा और मन को उसकी आदत डालनी पडेगी । 

एकाध जगह कोई भाई भजन गाने के लिए जाता है। उसकी आवाज अच्छी होती है और वह चार-पॉंच भजन गाता है। चार-पॉंच भजन गानेवाला यह भाई जब आता है तो सभी खडे होते हैं और उसको मार्ग देते हैं, बैठने के लिए आसन देते हैं।  त्वरित व सहज लोकप्रियता प्राप्त करने का साधन यानी धर्म !  लोगों को सहज व तुरन्त एकत्रित करने का साधन यानी भजन !  सत् कौन है?  जो स्वंय सत् न हो, परन्तु सत् पर प्रेम करें वह सत् है।  उसी तरह सत् का काम करनेवाला भी सत् है।  ऐसी सत्संगति करके निश्चय पक्का करके जीवन बदलने का प्रयास करना चाहिए ।
दो भजन गाये कि हो गये भगत ।  ऐसी भक्ति नहीं है । लोग कहते हैं, हमें ज्ञान नहीं चाहिए, हम तो भजन करेंगे (भक्ति करेंगे) । यह सुनकर आश्चर्य होता है ।  ज्ञान के बिना भाव भी खडा नहीं होता तो भक्ति कैसे होगी ? ज्ञान के बिना झरना कैसे फुटेगा? भक्ति आसान नहीं है ।

ईश्वर का गुणगान अवश्य करना चाहिए।  जीवन के विविध पहलुओं को स्पर्श करके जो पथदर्शक, जीवनविषय, भाववर्धक होता है वही भजन है।  ईश्वर के भजन गाने चाहिए। गायन व्यर्थ नहीं है।  आप क्या गातें हैं इसपर निर्भर है।  गायन का सुर के पिछे कुछ कहने जैसा न हो, कुछ समझाना, कुछ बदलना न हो तो उसमें खतरा है।  भजन के पिछे, काव्य के पिछे निचत दृष्टि, निचत ध्येय होना चाहिए।

‘भगवान है ही और वे समर्थ है’ ऐसी समझ पक्की होने के लिए सत्संगति चाहिए।  सिर्फ दो भजन गाने से ही सत्संगति नहीं होती।  सत् शब्द का बहुत बडा अर्थ है।  सत् शब्द का अर्थ प्रभावी तथा प्रकाशमान है। सत् अलग ही बात है, सत् कौन है?  जो भगवान के भरोसे पर चलता है। जिसे भगवान के सामथ्‍र्य पर विश्वास है, उसके अनुसार जो जीता है, वह सत्पुरुष कहलाता है।  उसके साथ संबंध रखने को सत्संगति कहते हैं।  उसका शारीरिक सानिध्य अपेक्षित है।  उसके विचारोंका संग भी अपेक्षित है।  सत्संग से भक्ति की भावना दृढ होती है।

हमारे स्वाध्यायी गावों में जाते है, वे भाव गीत गाते हैं, जो पाठशाला में दिये गये प्रवचनों पर बनाये गये होते हैं।  वह काव्य है, उसमें जीवन विषयक तत्वज्ञान भरा हुआ है, जीवन समझाया गया है ।  क्या होना चाहिए, क्या करना चाहिए, क्या बनना चाहिए, यह सब उन भावगीतों से मिलता है।  आज के भजन गायकों को कुछ बनना नहीं है, केवल तुकबन्दी करके फिल्मी गानों पर भजन बनाकर गायन करके केवल श्रोताओं को खुश करना है ।  उन्होने वाह! वाह! किया तो हो गया काम ! यह ठिक नहीं है ।  जीवन विकास की चाह रखनेवालों को ऐसे गायन से दूर ही रहना चाहिए ।  वे उससे लुुब्ध हुए कि परतंत्र बुध्दि के बनेंगे ।  जो परतंत्र बुध्दि के बन जाते हैं, वहाँं जीवन विकास कैसे होगा? जीवन विकास के बारे में सोंचना भी पडेगा। विचार करना भी पडेगा ।  दोनों की आवश्यकता है।  इसलिए संत संगति आवश्यक है । 

वेदकाल को मान्य संत महापुरुष ये सब सामान्य कोटि का जीवन जीते हैं।  जितना उनके पास जायेंगे उतना जीवन सामान्य लगता है।

भगवान !  हम कदाचित् ये कठिनाइयाँ लाँघकर बुध्दि को शुध्द और कामनारहित करेंगे, हमारी बुध्दि में जिज्ञासा निर्माण होगी। कदाचित् सत्संग अथवा संत का संग मिलकर योग्य मार्गदर्शन भी मिलेगा।  परन्तु हमें पुरुषार्थ का कैफ चढता है ।  जितना ज्ञान बढता जाता है उतना कैफ चढता है ।

भगवान! एक बार मैं ज्ञानमार्ग में आगे बढ गया कि, जैसा गीतामें कह रखा है उध्दरेदात्मनात्मानं... कोई मेरी सहायता नहीं करेगा।  मुझे ही आगे बढना होगा।  मैं आगे बढता हूँ तो भगवान मुझे पुरुषार्थ का कैफ चढता है, उसमें से मैं छुट नहीं सकता।  इसलिए उसके उपाय के लिए संत तुलसीदासजी आगे की चौपाई में भगवान की शरणागति स्वीकारने के लिए कहते हैं ।

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