Monday, July 4, 2011

दोहा : पवनतनय  संकट  हरन,    मंगल मूर्ति रुप ।
           राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप ।।
अर्थ : हे संकटमोचन पवनकुमार !  आप संकट दूर करने वाले तथा, आप आनन्द मंगल के स्वरुप हैं ।  हे देवराज आप श्रीराम लक्ष्मण और सीताजी सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए ।
गूढार्थ : तुलसीदासजी हनुमानजी से प्रार्थना कर रहे हैं कि हे हनुमानजी ! आप राम लक्ष्मण और सीता सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए ।  इस बात के पीछे गहरा अर्थ छुपा हुआ है ।  यहाँ पर भक्त श्रेष्ठ के रुप में हनुमानजी है तथा राम, सीता और लक्ष्मण, ज्ञान भक्ति और कर्म के रुपमें हैं ।  भक्त कैसा होना चाहिए? वह ज्ञान भक्ति और कर्म युक्त होना चाहिए । उसके जीवन में ज्ञान भक्ति और कर्म का समन्वय होना चाहिए ।  हनुमानजी का जीवन-ज्ञान भक्ति और कर्म युक्त है, इन तीनोे बातोंका समन्वय उनके जीवनमेे दिखाई देता है ।  ऐसे भक्त को हृदय मेे धारण करने से उनके सामीप्य के ज्ञान से जीवन मेे सतत उनसे प्रेरणा प्राप्त होगी ।  यह बात समझाने के लिए तुलसीदासजी लिखते हैं कि आप राम लक्ष्मण और सीता सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए, ‘राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप।’

दूसरी बात, भगवान मेरे भीतर बैठे हैे यह बात वे समझाना चाहते हैे ।  भगवान उपर आकाश मेे नहीे है, वे मेरे भीतर बैठे हुए है, इस समझ से जीवन को नया मोड मिलेगा ।  हमारे शास्त्रकारों ने भगवान को भीतर बिठा दिया है और उनका मानने को कहा है ।  उनका मानने से जीवन को नया मोड मिलेगा ।  जीवन आत्मविश्वासपूर्ण बनेगा ।

योगकला से हृदयपुष्प खिलना चाहिए । सर्व प्रथम, भगवान अन्दर है यह जानना चाहिए । वह ज्ञान प्राप्त करने की भी सीढी है ।  किसीको मानकर, समझकर और अनुभव से उसके पास जाना चाहिए ।  महानुभावों का मानना चाहिए, जिन्होने अपने भीतर स्थित भगवान को देखा है वे महानुभाव हैं ।
नयनोंकी की करी कोठरी  पुतली पलंग बिछाय ।
पलकों की चिक डारि के  पिय को लिया रिझाय ।।
ऐसे अनुभव लेनेवाले महानुभाव का मानना चाहिए ।  ‘स्‍र्वस्व चाहं हृदि संन्निविष्ट:’ ऐसा भगवान ने गीता में कहा है ।  वे कहते हैं मैं तेरे हृदय में आकर बैठा हूँ इसलिए तेरा जीवन चलता है ।

महानुभावों का मानना पडेगा यह प्रथम बात है ।  भगवान भीतर है यह मानना पडेगा, भगवान को समझना होगा ।  यह दूसरी सीढी है ।  उसके बाद उसके तत्व के समीप जैसे जैसे आयेंगे वैसे वैसे उसकी सुगंध आयेेगी ।  उसके लिए उसको जीवन में लाकर समझना चाहिए और फिर उसका अनुभव लेना चाहिए ।  इसीलिए तुलसीदासजी लिखते हैं, ‘राम लखन सीता सहित हृदय बसहुं सुर भूप।’

तुलसीदासजी इस अंतिम दोहे की शुरुआत ‘पवननमय संकट हरण’ से कर रहे हैं उसके पीछे भाव यह है कि हम जब भक्ति मार्गपर आगे बढने लगते हैं तो भगवान हमारी परीक्षा लेते है । उस समय सावधानी की आवश्यकता है इसलिए हे पवनकुमार ऐसी संकट की घडी में आप हमारी सहायता कीजिए ।  भक्त जैसे जैसे विकास करते जाता है भगवान बीचमेे हमारी परीक्षा लेेते है, उसके लिए सावधानी चाहिए ।  थोडा विकास होने लगा कि मानव को नैसर्गिक सुख-वैभव मिलने लगता है, पैसे मिलने लगते हैे, कीर्ति मिलने लगती है ।  अत: भक्त की उपर की पकड कम होने लगती है, उसके लिए सावधानी चाहिए ।

भगवान करुणामय है, समर्थ हैं और मेरे हैं ऐसा विश्वास निर्माण होना चाहिए ।  भक्त कैसा होना चाहिए? भक्त के जीवन में तीन बातें आनी चाहिए ।  ‘मुझे मालूम नहीं है’ यह भक्ति में पहली बात है और ‘मैं नहीं करता’ यह दूसरी बात है तथा ‘मेरा कुछ नहीं’ यह तीसरी बात है ।  ये तीनों बातें जीवन में खडी केसे करनी है? यह बडा प्रश्न है ।  परन्तु ये तीनों बाते खडी करनी है ।

पहली बात ‘मुझे मालूम नहीं है’ यह बात परिपक्व हो तो भगवान के पास मांग ही नहीं होती ।  आज एकाध बात से हमें सुख मिलता हो तो कल उस बात से दु:ख भी मिलेगा ।  हम मनौती करते हैं, उससे भगवान प्रसन्न होते हैं । हम भगवान से पैसे मांगते है और भगवान पैसे देते हैं । उसमे हमें सुख लगता है, परन्तु कल दु:ख भी लगेगा ।  तब आदमी चिढकर कहता है; ‘देखो इन पैसों से आज लडके बिगड गये हैं इससे तो भगवान पैसे न देते तो अच्छा होता ।’ इसका अर्थ कल सुख बदल जाएगा । भगवान ने जब पैसे भेजे तब उसे सुख लगता था ।   उन्ही पैसों के कारण लडकों का प्यार गुमाने के बाद वही सुख उसे दु:ख लगता है ।  यह शक्य है ।  मेरा सुख किसमे है? यह मुझे मालूम नहीं है ।  यहीं से भक्ति शुरु होती है ।  अर्थात् श्ुरुआत में मनुष्य भगवान के पास मांगने के लिए जाता है ।

‘मुझे मालूम नही’ यह वृत्ति निर्माण करने के लिए किसी के उपर दुर्दम्य ​ विश्वास बैठना चाहिए ।  भगवान पर दुर्दम्य विश्वास हो तभी ऐसी वृत्ति तैयार होती है ।  भगवान के साथ आत्मीयता और दुर्दम्य विश्वास इन दोनो बातों का पक्का रस मनमें तैयार हो तभी यह बात शक्य है ।  जो भगवान के उपर विश्वास रखनेवाले हैं, उनके विशाल हृदय की कल्पना होनी चाहिए । इतना ही नहीं उनके हृदय तक पहुँचने की वृत्ति तैयार होनी चाहिए ।  जगत में अदृश्य शक्ति (Unseen power) पर विश्वास रखने वाला भक्त मिलना चाहिए ।  शायद तभी उसके सानिध्यमें रहकर भगवान पर हमारा थोडा बहुत विश्वास बैठे इसीके लिए हमारे यहाँ सत्संग की महिमा गायी गयी है ।  भगवान के सामीप्य की अनुभूति आने के लिए ही तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘राम लखन सीता सहित हृदय बसहुं सुर भूप।’

भक्त कहता है मेरे सुख किसमें है यह मैं नहीं जानता हूँ, आपको ही वह मालूम है, आप जो करेंगे मैं उसका स्वीकार करुँगा ।  ऐसा कहकर भक्त अपनी इच्छा ही भगवान को सौंप देता है । उसीको ‘यदृच्छालाभसंतुष्टो............. कहते है । यह भक्त की अंतिम अवस्था है । इच्छा भगवान को सौंप दो ।

जैसे ‘मुझे मालूम नहीं’ यह वृत्ति जीवन मे आनी चाहिए । उसी तरह ‘मै नही करता हूँ’ यह वृत्ति भी आनी चाहिए ।  ‘मै करता हूँ ।  इसमे से ‘मै’ निकालना है, परन्तु ‘मैं’ शीघ्र नहीं निकलता है ।  इसलिए हमारे ऋषिमुनियों ने जो मार्ग दिखलाया है, स्वाध्याय परिवार ने उसका स्वीकार किया है ।   कौनसा मार्ग ?  वह मार्ग है ‘यज्ञ’ यज्ञमें ‘मै करता हूँ’ यह भावना नहीं है । ‘हम करते है’ यह भावना है ।  ‘मै’ के स्थान पर ‘हम’ शब्द आ गया ।  ‘हम’ शब्द बहुत अच्छा है, उसमें ‘मै’ भी रहता है और ‘तु’ भी रहता है ।  ‘मै’ के स्थान पर ‘हम’ लाओ, उसमें ‘मै’ रहता है और तकलीफ नहीं होती ।

शुरुआत में ‘मैं करता हूँ’ यह हमारी भूमिका है, मैं काम करता हूँ, गृहस्थी चलाता हूँ मैं पैसा कमाता हूँ ऐसी सभी की भूमिका रहती है, उसके बाद मैं करता हूँ मे से मैं मेरा काम करता हूँ परन्तु मेरे सामथ्‍र्य से करता हूँ इस सीढी पर आदमी आता है ।  इसमें मेरा और मै कायम रहते हैं ।  बाद में भगवान के सामथ्‍र्य से करता हूं यह  भूमिका आती है ।  माध्वाचार्य इत्यादि आचार्यों का ‘तेन तत्वमसि’ का यही अर्थ है ।  मैं मेरे लिए करता हूँ परन्तु भगवान के सामथ्‍र्य से करता हूँ उसके बाद भगवान, मैं तुम्हे अच्छा लगनेवाला काम करता हूँ यह तीसरी सीढी है । ये सब ‘मै’ निकालने की सीढीयाँ है ।
भगवान! मैं आपके लिए करता हूँ यह ‘मै’ निकालने का मार्ग है । ‘मै आपका हूँ आपका कार्य करता हूँ, आपके लिए करता हूँ । परिवार चलाता हूँ । इतना कहनेपर मेरा कुछ नही, मै भी अपना नही हूँ यह भक्त की भूमिका है ।
भगवान! वित्त भी आपका है-
विष्णु पत्नीं क्षमां देवींं माधवीं माधवप्रियाम् ।
लक्ष्मीं प्रियं सखीं देवीं नमाम्यच्युत वल्लभाम्  ।।
भगवान! वित्त आपका! आपकी लक्ष्मी मेरे पास है, परन्तु वह आपकी धरोहर है । यह भागवत का दर्शन है ।  अत: भक्ति में तीन बातें पक्की करनी है, ‘मुझे मालूम नहीं है’,‘मै नही करता’ ‘मेरा कुछ नहीं है’ ।  जिसके जीवनमें ये तीन बातें पक्की हो गयी वह भक्त है ।  भक्त बनने के लिए वृत्ति बदलने का प्रयत्न चाहिए ।  मानव को लगना चाहिए, ‘कुछ नहीं बनना है’ की अपेक्षा वैष्णव बनना है, मुझे कुछ बनना है ।  मुझे हनुमानजी जैसा भक्त बनना है ऐसी हमारे जीवन में अभिलाषा निर्माण हो इसीलिए गोस्वामीजी हनुमानजी को अपने हृदय में निवास करने के लिए प्रार्थना करते है ।  एक बार हनुमानजी का सामीप्य का ज्ञान हो जाए तो जीवन को एक नया मोड प्राप्त होगा । मनुष्य को सतत हनुमानजी के चरित्र का अभ्यास करके उनसे प्रेरणा प्राप्त करनी चाहिए तभी हम भक्ति मार्ग पर आगे बढ सकेंगे तथा हमारा जीवन विकास होगा और तभी मनुष्य का जीवन पुष्प खिलता है ।

तुलसीदासजी आगे भगवान के गुणों का वर्णन करते हुए लिखते है कि भगवान ‘मंगल मूरति रुप’ हैं।  भगवान पर जब भाव खडा होता है तब एक अलग ही विश्व खडा होता है ।  भगवान का मेरे उपर असीम प्रेम है वह बुद्धि से पता चलता है, दृढ होता है, आईलपेंट के समान होता है, तब ऐसी स्थिति आती है कि सारा मंगल ही मंगल हो जाता है। उसे भगवान मंगल रुप लगते हैं ।
मंगला मंगल यद् यद् करोतीति ईश्वरो ही मे ।
तत्सर्वं  मंगलायेति  विश्वास: सख्यलक्षणम्  ।।
मंगल या अमंगल, प्रभु जो कुछ करेंगे वह मेरे मंगल के लिए ही होगा ऐसा विश्वास होना चाहिए ।  मुझे क्षणिक जो मंगल लगता है वह कदाचित्् मेरा मंगल नहीं भी होगा, उसी प्रकार जो मुझे क्षणिक अमंगल लगता है वह मेरे मंगल के लिए भी होगा ।  ऐसा विश्वास होना बहुत बडी बात है ।  ऐसा विश्वास होना सभ्यता का लक्षण है    इसलिए तुलसीदासजी भगवान को मंगल मूरति रुप कहते है ।  भगवान आप मंगल मूरति रुप हो इसलिए आप मेरे हृदय में निवास कीजिए ।  भगवान मेरे लिए जो कुछ कर रहे हैं या जो कुछ करेंगे वह मंगल ही है ऐसा विश्वास भगवान पर होना चाहिए ।

तुलसीदासजी आगे लिखते है, ‘राम लखन सीता सहित हृदय बसहुं सुर भूप’ यानी ज्ञान, प्रेम और .ति (कर्म) ! अर्थात्् ज्ञान, भक्ति और कर्म जब एक ही शरीर में आते हैं और क्रीयाशील बनते हैं, तब ब्रम्हदेव बना जाता है ।
ज्ञान, भक्ति और कर्म का जिसके जीवन में संगम हुआ वह ब्रम्हदेव ।  समाज में कितने ही लोग केवल काम ही करते रहते हैं, वहाँ न भक्ति का ठिकाना होता है, न ज्ञान का पता । कितने ही केवल भजन ही गाते रहते हैं, उनमें ज्ञान नहीं होता और कुछ काम नहीं करते । ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ बोलना, माला फेरना, पर कुछ करना नहीं, इतनी ही भक्ति के संबंध में उनकी कल्पना है ।  वैदिक दृष्टि में वह भक्ति नहीं है, उपासना है ।  भक्ति और उपासना में जो फर्क है वही ये लोग नहीं जानते । कितने ही लोग केवल ज्ञानी होते हैं ।  हमको कुछ करना नहीं है, केवल ब्रम्ह की चर्चा ।  सेवा, पूजा करने की क्या आवश्यकता है? अत: जिसमें कर्म, ज्ञान और भक्ति पूर्णतया एकत्रित हुए है वह ब्रम्हदेव ।  ये तीनों बाते अपने जीवन में लाने का प्रयत्न करना चाहिये ।  इसीलिए तुलसीदासजी लिखते हैं  ये तीनाें बातों के प्रतीक ‘राम लखन सीता’ के रुपमें आप मेरे हृदय में निवास कीजिए ।

पूर्णज्ञान, पूर्णभक्ति ओर निरन्तर कर्मयोग जीवन में होने चाहिए ।  अनेकों को लगता है कि कर्म करने से वासनाएँ बढती है, वासनाओं के बढने से ही कर्म संग्रह होने लगता है ।  आनेवाले जन्म में ये कर्म भोगने पडेंगे, अत: कर्म न करना ही अच्छा है ।  ऐसा निर्णय करके वे कुछ कर्म करते ही नहीं ।  कुछ लोग कर्म में ही इतने मग्न हो जाते हैं कि ज्ञान का ठिकाना ही नहीं होता ।  गीता में ज्ञान, भक्ति और कर्म इनका त्रिवेणीसंगम किया और कहा कि उसमे ब्रम्हदेव है । देव अर्थात्् अमर व निर्जर वृत्ति के लोग! जिनकी वृति अमर, आशा अमर, इच्छा अमर, वासना अमर, श्रद्धा अमर, वैसी ही जिनकी भक्ति अमर व प्रभु के प्रति प्रेम अमर वे देव! ऐसे ही देव हनुमानजी है, जिनके जीवन में यह बातें हमे देखने को मिलती है, इसीलिए तुलसीदासजी हनुमानजी से प्रार्थना करते हैं कि आप राम लक्ष्मण और सीताजी सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए जिससे ज्ञान, कर्म और भक्ति की प्रेरणा सतत मिलती रहे ।

अमरनाथ जाते समय क्षण में एक हजार फिट उपर चढते हैं तो दो हजार फिट नीचे उतर जाते हैं, फिरसे उपर चढते है ।  ऐसा ही हमारी निष्ठा का होता है । चार दिन अंधकार, असत्य, तमोगुण नाचते हुए देखते है तब निष्ठा डिग जाती है, मन गिर जाता है, वृत्ति हार जाती है । किसी भी प्रसंग में हमारी ‘सत्यमेव जयते’ और ‘न मे भक्त: प्रणश्यति’ पर अटूट निष्ठा रहनी चाहिए ।  बुद्धिपर दृढ विश्वास रखकर भक्ति पथ की ओर चलने लगो ।

असत्् लोगों की क्षणिक विजय देखकर सर्वसामान्य भेड-बकरे जैसे लोग खिंचे जाते हैं । समाज में ऐसे भेड-बकरों की संख्या अधिक मात्रा में हैं ।  सिंह बहुत कम होते हैं । जीवन में जिस प्रकार रुढिग्रस्त लोग दिखाई देते हैं वैसे भक्ति में भी ऐसे ही लोग होते हैं ।  पीछे से आया आगे धकेल दिया ।  कुछ विचार ही नहीं करना है ।  अराजक के जैसी राक्षसी वृत्ति नाचती हुई देखने पर अमर श्रद्धा के प्रति विश्वास नहीं डिगना चाहिये ।  अंत में तो सत्यमेव जयते और वैदिक तत्वज्ञान की ही विजय होनेवाली है ऐसी दृढ निष्ठा होनी चाहिए ।  बिना पेंदी के लोटे जैसे इधर के चार लोग मिले, उधर के चार लोग मिले और बोलने लगे कि यह भी अच्छा  है, वह भी अच्छा है, सो ऐसे (बिना पेंदीके) लोग कुछ काम नही कर सकेंगे ।  इन लोगोंका श्रद्धा, विश्वास, आत्मविजय अथवा मन-किसीपर भी नियंत्रण नहीं होता ।

आज के समय मे इस प्रभु कार्य की आवश्यकता नही है इसलिये वह योग्य नहीं है, ऐसा कहनेवाले लोग होंगे फिर भी मै विचलित नही हूँगा ।  विश्वके विरोध में खडे रहने की हिम्मत मनुष्य में होनी चाहिये ।  प्रभुका काम करना यह आलसियों का काम नहीं है ।  आलसी व्यक्ति के सामने लकडी आडी रखी तो वह दूसरी ओर से चलने लगता है, पीछे रखी तो आगे चलने लगता है ।  इस प्रकार के लोगों को किसी का प्रमाण नहीे मानना होता है, परम्पराका स्वीकार करना नहीं होता, किसी के अनुभव से ज्ञान लेना नहीं होता और अपनी अक्ल भी नहीं चलानी है । ये सब प्रवाहपतित कुछ भी नही कर सकेंगे ।

कर्म भक्ति और ज्ञान जो जानता होगा वह ब्रम्हदेव है ।  विश्व में व्याप्त जो चैतन्यशक्ति (Universal power) है उसका ही नाम ब्रम्ह है । वह शक्ति जब क्रियात्मक बनती है, तब उसको ब्रम्ह कहते हैं, प्रेमात्मक होती है तब उसको विष्णु कहते हैं, जब वह शक्ति ज्ञानात्मक होती है तब उसको शिव कहते हैं ।  शक्ति तो एक ही है ।  इन तीनों को जो जानता है वह ऋषि है ।  जो कृतात्मा है, जिसके जीवन में साफल्य है, किसी प्रकार की बैचेनी नहीं है, आत्मविश्वासपूर्ण जीवन जिसका होता है वह ऋषि।  उसी प्रकार जिसको विषय नहीं हिलाते इतना प्रशांत होता है वह ऋषि । ‘क्या मिलेगा?  इस वासना से जो नहीं चलता वह ऋषि! हमें तो पैसा अथवा कीर्ति या पूण्य चलाता है, हम स्वयं नहीं चलते हैं ।  जिस दिन हम स्वयं चलने लगेंगे, उस दिन प्रशान्तात्मा बन जायेंगे । जिसके इंद्रियाँ, मन और बुद्धि ईश्वरीय कार्य के लिये दौडते रहते है वह ऋषि ।
परन्तु, यह ईश्वरीय कार्य यानी क्या है? ईश्वरीय कार्य यानी ‘ईशावास्य मिदं सर्वं’ समझकर, जगत में निर्माण हुई आत्माकी विस्मृति और ईशश्रद्धा का अभाव ये दो दुर्गुण जहाँ जहाँ होंगे, वहाँ से उनको हटाने का प्रयत्न करना! आत्मस्मृति और ईश विश्वास फिर से खडा करना । मुझे अपनी स्वयं की स्मृति चाहिये और मेरा अपने निर्मातापर विश्वास चाहिये ।  ये दो बाते जीवन में दृढ होगी तो ईश्वर तक पहुँचने में मुझे कोई रोक नहीं सकेगा ।  इसलिये ये दो बातें समाज में जो दृढ करने के प्रयत्न करते रहते हैं वे ऋषि ।  ऋषि लोगों का जन्मजन्मांतर का हित देखता है ।  ऐसे ऋषि स्वाध्याय कराते हैं, उसके लिए ज्ञान की प्याऊ के पास जल पीना होता है ।  स्वाध्याय केन्द्र ज्ञान की प्याऊ है ।  ज्ञान के लिए स्वाध्याय केन्द्र में जाने से जीवन में नियमितता और विनम्रता आती है ।  इस लिये हमारे ऋषियों ने महामंत्र दिया, ‘स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम््।’

धर्मजिज्ञासा,  ब्रम्हजिज्ञासा और आत्मजिज्ञासा के लिये मन की भ्नि्न-भिन्न बातें मनुष्य जान लेगा तो अध्यात्म में आत्मिक आनन्दतक वह जा सकता है ।  भय, दु:ख वहम नहीं आयेंगे इस तरह से काम और मन एक साथ घुमेंगे ऐसी व्यवस्था हो सके इसलिए जीवनपर धर्म ने अंकुश  रखा है ।  मन की दृढता के लिए सहजावस्था बनी रहनी चाहिये ।  वाणी से भी योग्य शब्द निकलने  चाहिये ।  उसका परिणाम हमारे मनपर होता है ।  वाणी का परिणाम तो दूसरों पर होता ही है, इसलिए योग्य बोलना चाहिये ।

अनेक लोग कहते है जितना .ति- (Action) में उतर सके उतना ही बोलना चाहिये ।  यह बात भी गलत है ।  वाणी में तो अधिक आना चाहिये कारण .ति में उसमे से थोडा ही आनेवाला है ।  हमारे शरीर के कपडे शरीर के प्रमाण में तनिक बडे ही होने चाहिए ।  शरीर के माप के ही होंगे तो न पहन सकेंगे, न निकाल सकेंगे ।  अत: .ति की अपेक्षा विचार बडा होता है ।  विचार और .ति के संबन्ध में शास्त्रकारोंने बहुत विचार किया है ।  जितना .ति में आयेगा उतना ही बोलना यह अशास्त्रीय बात है। इसलिये अधिक बोलना, योग्य बोलना, अच्छा बोलना, दैवी बोलना ।  कृति से हलका नहीं बोलना चाहिये ।

सर्वसामान्य व्यक्ति बात बात में कहते हैं, ‘हम किस कामके है? हम पापी हैं । पापोहम्् पापकर्माहम््.. पापमें डूबे है, माया में फँस गये हैं, हमसे क्या होनेवाला है? बोलने से .ति तनिक हलकी हुई तो उसमें मनुष्य पराधीन है यह समझ पडता है ।   इसलिये बोलना भव्य होना चाहिये ।  ‘मुझे भव्य करना है’ ऐसा मनुष्य सतत बोलता रहेगा और पुण्योहम्् पूण्यकर्माहम् । पूर्णस्य पूर्ण मादाय....... जैसी भाषा बोलता रहेगा तो वह भाषा योग्य होगी ।  केवल शुभचिन्तन नही चाहिये, परन्तु मनको ऐसा योग्य, भव्य बोलने की समझ देनी चाहिये ।  निरन्तर अच्छी, उच्च भाषा बोलते रहेंगे तो तुम्हारे मन को वैसी आदत होगी की मुझे इस देहमें किस प्रकार रहना है? सतत दैन्य का ही स्वीकार किया जायेगा तो मन भी समझेगा कि इसको दैन्य ही अच्छा लगता है । इसलिये सतत दैवी, उच्च और योग्य बोलना यह बहुत बडी बात है ।  हनुमानजी की वाणी ऐसी भव्य थी, उनकी वाणी से भगवान राम भी प्रसन्न हो गये थे ।  हमें जीवन को उच्च, दिव्य एवं भव्य बनाने के लिये हनुमानजी से सतत प्रेरणा लेनी चाहिये । उनकी तरह जीवन में ज्ञान भक्ति और कर्म का हमारे जीवनमें समन्वय होना चाहिए ।  भगवान हमारे हृदयमें विराजमान हैं ।  इसका सतत हमें चिन्तन होना चाहिए ।  भगवान के सामीप्य का ज्ञान यदि हमें हो जाएगा तो हमारे जीवन को दिशा प्राप्त होगी इसीलिए तुलसीदसजी हनुमानजी से प्रार्थना करते हैं कि आप राम लखन और सीताजी सहित मेरे हृदयमें निवास कीजिए जिससे मैं भी अपने जीवन को आपकी तरह बना सकूँ तथा प्रभु का प्रिय बन सकूँ ।
तुलसीदासजी द्वारा रचित ‘हनुमान चालीसा’ मानव जीवन के लिए बहुमूल्य कल्याणकारी देन हैं ।   हनुमान चालीसा के विचार संपूर्ण मानव जीवन को प्रकाशीत करते हैं ।  तुलसीदासजी  ने हनुमान चरित्र द्वारा हनुमानजी के दैवी गुणों का चित्रण किया है ।  उन गुणों को आम जनता द्वारा आत्मसात किया जा सके तथा व्यवहार में लाया जा सके, इसी उद्देश्य से गोस्वामीजीने हनुमान चालीसा की रचना की है ।

हनुमत चरित्र उच्चतम आदर्श तथा श्रेष्ठ भक्ति का जीता जागता प्रतीक है और सब के लिए अनुकरणीय है ।  हनुमान चालीसा से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं ।  ‘हनुमान चालीसा’ का हमने आज तक गहराई से चिंतन करने का प्रयास नहीं किया ।  हनुमान चालीसा के गूढतम विचारों को एक नये दृष्टिकोण से देखने यह प्रयास किया गया है ।  हनुमान चालीसा के तत्व को प्रतिपादन करने में हो सकता है कही त्रुटि रह गयी हों तो कृपया क्षमा करें क्योंकि यह केवल प्रयास मात्र है ।  इसमें जो विचार आपको अच्छे लगे उनको आप ग्रहण कीजिए तथा त्रुटिपूर्ण विचारों को मेरी अपनी भूल समझकर क्षमा कीजिए ।

हनुमान चालीसा के विचारों को आत्मासात करने तथा आदर्श जीवन तथा भक्तिपथ पर अग्रसर होने की शक्ति हनुमानजी सब को प्रदान करें, यही अभ्यर्थना ।

4 comments:

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  2. बहुत ही सुन्दर

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