Saturday, July 2, 2011

आपन तेज सम्हारो आपै । तीनों लोक होक तें कांपै ।।  (23)
अर्थ : आपके सिवाय आपके वेग को कोई नहीं रोक सकता । आपकी गर्जना से तीनों लोक कांप जाते हैं ।
गूढार्थ : तुलसीदासजी लिखते हैं कि हनूमानजी का जीवन गतिमान है, इसलीए उनमें तेज है तथा उनकी गति को कोई रोक नहीं सकता। तुलसीदासजी का अभिप्राय यह है कि मानव को अपनी गति, आपना आश्रय निचित करना चाहिए। मनुष्यको अपना सामथ्‍र्य निचित करना चाहिए। अपना मार्ग निश्चित करना चाहिए। इस विषयमें जिसने जीवनमें कभी विचार नहींं किया, देखा नहीं क्या वह आदमी है ? मनुष्य को विचार करना चाहिए। जो विचार नहीं करते उनका जीवन व्यर्थ है। मनुष्य के जीवन में गति होनी चाहिए ।

नदी को पवित्र माना जाता है। क्यों ? वह बहती है। फल की ओर उसका ध्यान नहीं है। इसलिए उसका कर्म पवित्र माना जाता है। निष्काम कर्म है उसका। उसका फल मिलता है। क्या निष्काम कर्म वाले को फल नहीं मिलेगा ? भगवान के दरबारमें क्या अंधकार है ? फल जरूर मिलेगा। निष्काम कर्म करनेवाले में पावित्र्य आ जाता है । नदी बहती रहती है । उसे इतना ही मालूम है कि ‘ मुझे बहते रहना है, सागर तक पहुँचना है। ’ वह वृक्षों को, पौधोंको जल पहुँचाती है, जलचरों को आश्रय देती हैं, भूमि तथा फूलों को पानी पहुँचाती है, किनारे पर रहने वालों की, हजारो लोगों की तृषा शान्त करती है। वह बहती है। वह कहती है, ‘ मुझे अपना काम करने दो ! जिसे जो लेना है वह ले ले नहीं लेना है तो न ले, मुझे अपना काम करना है। ’ ऐसा बोलने वाली नदी पवित्र है। नदी में कितना कूडा कचरा डाला जाता है। किनारे के गांव कितनी गंदगी करते हैं कि नदी का पानी पी नहीं सकते, फिर भी वह पवित्र है, शुद्ध है कारण गतिमान है, उसमें वेग है ‘नदी वेगेन शुद्धयति ’।
नदी वेग से शुद्ध होती है। तुलसीदासजी लिखते हैं कि नदी के समान ही हनुमानजी का जीवन शुद्ध एवं पवित्र है क्योंकि उनका जीवन गतिमान है। हमको भी यदि हमारे जीवन को शुद्ध एवं पवित्र करना है तो जीवन को गतिमान बनाना होगा ।

वेग यानी गति । जीवन गतिमान होना आवश्यक है । जीवन गतिशील (Dynamic) होना चाहिए । जीवनमें वही बातें बार बार आती हों तो उसमें स्वाद कैसे आए ? उसमें आनन्द भी नहीं हैं। जीवन गतिशील तथा छलछल बहते पानी के समान होना चाहिए। हमारा जीवन संग्रहित पानी के समान है इसीलिए उसमें मच्छर होते हैं।

हरेक को विचार करना चाहिए कि मेरा जीवन कैसा है ? जिसका जीवन गतिशील नहीं वह जीवन समझ नहीं सकता तो वह किस प्रकार भगवान को समझ सकता है ? जीवन समझने के लिए बुद्धि तथा मन की तैयारी होनी चाहिए, तो ही उसमें स्वयंज्योति, स्वयंप्रकाश प्रगटता है। यह प्रकाश मांगने से या किसी की कृपा से नहीं मिलता। उसके पाने के लिए मनुष्य को स्वयं ही विकास साधना चाहिए। भगवानने गीता में कहा है:
उध्दरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन: ।।
                                              (गीता 6-5)
वेग का दूसरा अर्थ है सामथ्‍र्य ।  मनुष्य को अपनी सामथ्‍र्य पहचानने. का प्रयत्न करना चाहिए ।
जैसे पुरुष में सामथ्‍र्य है, वैसे स्त्रीमें भी सामथ्‍र्य है।  सामथ्‍र्य का अर्थ पौरुष है और वह स्त्रीमें भी होता है।  मनुष्य को अपना सामथ्‍र्य जान लेना चाहिए कि कहाँ कूदना और कितना कूदना है।  यह बात जो नहीं समझते उन्हें जीवन का ज्ञान नहीं है ।
मेरे पास सामथ्‍र्य है या नहीं इसका पहले निर्णय होना चाहिए।  मेरे पास यदि सामथ्‍र्य है तो वह कौनसा है।  मानसिक, शारीरिक या बौध्दिक ?  मेरे पास जो सामथ्‍र्य है क्या उसे बढाने के लिए मैने प्रयत्न किये या नहीं, उसका विचार करना चाहिए ।

बचपन से मुझे मन मिला है।  बचपन में मेरा मन जैसा था आज साठवें वर्ष में भी वैसा ही है।  उसमें कोई फर्क पडा ?  सुभाषितकार कहता है ‘स्वभावो दुरतिक्रम:’ स्वभाव बदलता नही।  यदि मन को बदला नहीं जा सकता तो साधना निरर्थक है।  मन बदला जा सकता है।  इसीलिए साधना करने को कहा गया है।  गीता में भगवान ने कहा है कि, तुम अपनी प्र.ति बदल सकते हो।  यदि तुमने अपनी प्र.ति बदली न हो तो यह तुम्हारी भूल है।  तुम्हारा जीवन व्यर्थ है ।

मेरे पास शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक इनमें से कौनसा सामथ्‍र्य है ?  वह समझ लेना चाहिए।  मेरे पास सामथ्‍र्य किसका है ?  क्या वह मेरा अपना सामथ्‍र्य है?  बहुत सारे लोगों के पास सामथ्‍र्य होता है परन्तु वह किसका सामथ्‍र्य है वे उसे अन्ततक समझते नहीं।  समझने का प्रयत्न भी नहीं करते। इसीलिए तुकाराम महाराज पूछते हैं, ‘कोणाचिये सत्ते चाले हे शरीर’ यह शरीर किसकी सत्ता से चल रहा है ?  मनुष्य अंतर्मुख होकर जब सोचता है कि इस जगतमें मेरा अपना क्या है ?  उस समय उसका मुँह बंद हो जाता है।  कितने ही लोग ज्ञानी होते हैं परन्तु वे ज्ञानेश को समझने का प्रयत्न नहीं करते, तो वह ज्ञान किस काम का ?
जीवन गतिमान होना चाहिए।  अपना सामथ्‍र्य पहचानना चाहिए, वह सामथ्‍र्य किसका है यह समझना चाहिए और सामथ्‍र्य बढाने का प्रयत्न करना चाहिए।

वेग का तिसरा अर्थ है,  स्थान।  मेरा स्थान कहाँ है तथा मुझे कहाँ बैठना है ?  जगत में जिसका स्थान है उसी को कीमत है।  गीता में भी लिखा है: अधिष्ठानं तथा कर्ता..... गीता में प्रथम स्थान कर्ता को नहीं है, अधिष्ठान को है।  गीता जैसा मानसशास्त्र (Psychology) विश्व में नहीं है।  तुम्हारे पास कतृ‍र्त्व हो और तुम्हे अधिष्ठान न मिले तो ?  तुम्हारे पास वाणिज्य की बुध्दि है, मगर बाजार में जगह ही न मिले तो ?  अत: अधिष्ठान ही प्रथम बात है।

कितने ही लोग ऐसे अलौकिक होते हैं कि वे जहाँ भी बैठते हैं उसी स्थान को प्रधानता मिलती है।  उन्हें स्थान के कारण महत्व नहीं मिलता बल्कि उनके कारण वे जहाँ बैठते हैं उस स्थान को महत्व प्राप्त होता है।  ऐसे लोग विरल ही होते हैं । 

एक पौराणिक कहानी है। एक बार भगवान विष्णु शिवजी को मिलने गये। विष्णु का वाहन गरूड है। विष्णु भगवान को मिलने के लिए शिवजी बाहर आये। शिवजी के गले में नाग बैठा था वह गरूड को ललकारने लगा, यह देखकर गरूड ने उससे कहा:
स्थानं प्रधानं खलु योग्यताया:, स्थाने स्थित: कापुरूषोपिशुर:।
जनामि नागेन्द्र तव प्रभावं कण्ठे स्थितो गर्जसि शंकरस्य ।।
‘तेरा प्रभाव कितना है मैं जानता हँू, तू शिवजी के गले में बैठा है इसीलिए गर्जना कर रहा है। स्थान पाने पर कायर पुरूष भी शूर बन जाता है। ’ सुभाषितकार कहते हैं:
स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते दन्ता: केशा नखा: नरा: ।
इति  विज्ञाय  मतिमान्स्वस्थानं    परित्यजेत् ।।
( दान्त, बाल, नख और मनुष्य स्थानभ्रष्ट हाने के बाद शोभा नहीं देते। ऐसा समझकर समझदार व्यक्ति को स्थान नहीं छोडना चाहिए। )
स्थानभ्रष्ट की शोभा नष्ट हो जाती है। दान्त स्थानपर हों तो वे शोभा देते हैं। बाल सिरपर हों तब तक शोभा देते हैं। रोज बाल हम कंघी से संवारते हैं। मगर हजामत करने के बाद हम काटे हुए बालों को छूते भी नहीं। एक बाल भी कपडे पर रहा तो उसे झटक कर निकाल देते हैं। इसका कारण बाल स्थानभ्रष्ट हुए।
मानवी जीवन मिलने के बाद स्थान के विषय में विचार नही करेंगे तो कब करेंगे ? भगवान ! मुझे तेरी गोदमें बैठना है। वही मेरा

स्थान है और उसे प्राप्त करना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। उसे मै प्राप्त करके ही दम लूँगा।’ प्रभु की गोद ही निजधाम है। अपने यहाँ कोई मरे तो हम लिखते है कि ‘अमुक भाई निजधाम सिधारे’ वह निजधाम नहीं है। तुकाराम, ज्ञानेश्वर, तुलसीदास जैसे लोग निजधाम गये। उनका ‘स्थान’ जहाँ है वहाँ वे गये । मरने के बाद हम किस योनि में जाएँगे यह तय नहीं है। हम ‘जायस्व म्रियस्व’ वाले है। उत्क्रान्ति के नियम (Law of evolution) के अनुसार पुनर्जन्म मिलेगा । मनुष्य पशुतुल्य जीवन जिया हो तो उसे दूसरे जन्म में पशु ही बनना पडेगा। विनोद में कहना हो तो कुत्तें की सभा में उनका अध्यक्ष एकाध कुत्ते को ऐसा भी कहता होगा कि तू मनुष्य के जैसा नालायक क्यों बना ?  ऐसी गाली देता होगा,  हमें उनकी भाषा आती नहीं यह अच्छा है ।  हमें अपनी भाषा में गाली देनी हो तो हम ‘कुत्ते या गधा है’ ऐसा कहते हैं ।  जिस तरह हमारी भाषा में ये गालियाँ हैं उसी तरह उनकी भाषा में भी ‘ मनुष्य ’ गाली हो सकता है ।

अपना स्थान निचित होना चाहिए। जिस स्थान पर पहुँचकर वापिस आना नहीं है वह स्थान कौनसा है ? तद्विष्णो: परमं पदम्...... प्रभु की गोदमें परम स्थान है। मनुष्य को अपना स्थान निचित करना चाहिए और स्थानभ्रष्ट नहीं होना चाहिए। वेग का अर्थ गति है ।

वेग का चौथा अर्थ है मार्ग । मानव को स्वयं अपना मार्ग निचित करना चाहिए। क्या आज हमारा मार्ग निचित है? मरने का रास्ता निचित है। मेरे जीवनका मार्ग कौनसा है? मनुष्य को स्वयं ही मार्ग निचित करना चाहिए ।

जीवन में तीन मार्ग हैं भोगमार्ग, भावमार्ग और भक्तिमार्ग। उनमें से हमारा मार्ग कौनसा है हमारा जीवन किस मार्ग से जा रहा है। मुझे यहाँ से जाना है मगर वापिस आना भी हैै। मराठी तथा हिन्दी भाषा से गुजराती भाषा तात्त्विक (Philosophical) है। किसी के यहाँ लडका पैदा हुआ तो मराठी में कहते है मुलगा झाला ‘लडका हुआ’ ऐसा कहते है। परन्तु गुजराती भाषामें ‘छोकरो आव्यो’ लडका आया ऐसा कहते हैं इसका अर्थ यह है कि वह कहीं था वहाँ से आया है । हम जगतमें आते हैं तथा जगतसे जाते हैं। हमें परलोक का मार्ग निचित करना पडेगा।

किसीको मुंबई, दिल्ली जाना हो तो वह दिल्ली से आये किसी के पास से जानकारी हासील करता है कि वहाँ कौन सी हॉटल अच्छी है। खाना कहाँ अच्छा मिलता है वगैरह। इसी प्रकार हमने क्या उपर जाने के लिए वहाँ की जानकारी प्राप्त की ? मनुष्य को परलोक का मार्ग निचित करना चाहिए। तो ही ‘अच्छी गति मिली’ ऐसा कहा जाएगा। कोई मर जाता है तो व्यवहार में बोलते हैं कि गौरिशंकरजी को सद्गति मिली। गति का अर्थ है मार्ग। जाने वाले को रास्तेमें कोई तकलीफ न हो अत: शुभेच्छा व्यक्त करतें है कि सद्गति मिले।

मनुष्य को मार्ग निचित करना चाहिए। तुम जिस तरह का मार्ग अपनाओगे उस तरह की गति मिलेगी। यहाँ भोगमार्ग है, भक्तिमार्ग है, भावमार्ग है, उनमें से तुम कौनसा मार्ग अपनाते हो ? तुम जिस मार्ग को अपनाओगे उस पर से तुम्हारी परलोक की गति निचित होगी। मनुष्य को स्वयं परलोक की गति निचित करनी चाहिए। विश्वमें कोई भी वस्तु मांगकर नहीं मिलती। मनुष्य के जीवन में गति निचित होनी चाहिए।
“नदी वेगेन शुद्धयति” नदी वेग से शुद्ध रहती है। उसी तरह जिसके जीवन को वेग है, वह शुद्ध है। स्थिर, गतिहीन जीवन शुद्ध नहीं है। कितने ही लोग पचपन साठ वर्ष के होने पर भी वे झूले पर झूलते हुए पान चबाते रहते है।  उन्हे कुछ करना नहीं है, कुछ बनना नहीं है, क्या यह जीवन है ?  मुझे कुछ करना है, कुछ बनना है, यही जीवन है।

जिस जीवन में प्रवाहित्व है उसी जीवनमें शुचित्व है।  जीवन प्रवाह को भी वेगवान बनाना पडेगा।  जीवन मे तीन रस प्रवाही है-1) कामरस, 2) भावरस, और 3) ज्ञानरस।  इनमें से तुमने क्या खिलाया है ?
भाव की गहराईमें जाएंगे तो थोडा बहुत भाव मिलेगा।  मगर हमारे पास भाव ही नही है।  हम सब कामरसिक हैं।  हमारी दुकान है, फॅक्टरी है, हमारा धन्दा है, कुटुम्ब है, यह सब कामरस का परिणाम है।  उसमें जानेवाला कैसा है इसपर सभी आधारित है।  कामरस एक को ही अच्छा लगता है।  ज्ञानरस देनेवाले और लेनेवाले दोनों को अच्छा लगता है।  भावरस को जीवन्त रखना पडेगा, जीवनमें रखना पडेगा और फिर भगवान को देना पडेगा।  रसोईघर में रसोई बनानी है और भगवान को धरना है।  उसी प्रकार संसारमें भावरस तैयार करना है और उसे भगवान को देना है।

अतिमृत्युमेति जायस्व म्रियस्व में से छुटना होगा तो भगवान को जानना होगा, गति निश्चित करना पडेगा यह बातें हनुमानजी के जीवन से हमें सीखनी चाहिए, उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए।  इसीलिए तुलसिदासजी ने हनुमानजी की गति के बारेमें वर्णन करते हुए लिखा है, ‘आपन तेज सम्हारो आपै’ आगे उन्होने लिखा है, ‘तीनों लोक हांकते कांपै’।

तुलसिदासजी हनुमानजी के शौर्य का वर्णन करते हुए लिखते है, ‘उनका शौर्य कैसा है ?  ‘तीनो लोक हांकते कांपै’ यानी उनकी कीर्ति तीनों लोकों मे व्याप्त है।  हनुमानजी शौर्यवान, तेजोमय है, तो फिर उनके उपासक निर्बल और निस्तेज बुझे हुए कोयले जैसा मनुष्य उनके पास जा ही कैसे सकता है ?

शौर्य बडी में बडी बात है।  मन समृद्ध होना चाहिए।  शरीर बलवान होगा, परन्तु मन अगर दुर्बल होगा तो शौर्य का रुपांतर क्रौर्य में हो जाता है।  शौर्य में निर्भयता है, और क्रौर्य में कायरता है। मन यह बडी से बडी शक्ति है।  जीवन का दृष्टिकोण (out look) बदलेंगे तो सारा विश्व सुखी लगेगा तथा उसकी सुगंध हनुमानजी की कीर्ति की तरह तीनों लोकों तक फैलेगी ।

शौर्य बडी मे बडी बात है ।  वेद कहते हैं कि, समाज में युध्द पिपासु-वृत्ति रहनी चाहिए।  सम्पूर्ण समाज सुस्त नहीं रहना चाहिए।  अर्थात् क्या समाजम सतत लडाई की आग भडकाये रहना चाहिए ? ऐसा नहीं है।  युध्द पिपासु-वृत्ति के लिए कई गुणोंका विकास करना पडता है।  उसमें पहला गुण लडनेका है। मनुष्यको निसर्ग के साथ लडना पडता है। मनुष्य विरुध्द मनुष्य, मनुष्य विरुध्द समाज और मनुष्य विरुध्द निसर्ग (Man v/s man Man v/s society Man v/s nature) इन सभी लडाईयों को लडकर ही हम विकास साध सकते हैं।

खिडकी में बाहरकी हवा आती है, उसका हमारे शरीर पर परिणाम होता है। उसके लिए भीतर के कोषों (cells) को लडना पडता है।  भीतर के कोष ( cells ) जब ढीले पडते हैं तब जुकाम हो जाता है।  इसका कारण हम लडने में थोडे ढीले पड गये।  मनुष्य को लडना ही पडता है, लडे बिना मनुष्य जगतमें रह ही नहीं सकता।  युध्द से कायर की तरह भयभीत बनकर नहीं चलेगा।  हमारी संस्.ति युध्द से नहीं डरती है, उल्टे गीता रणांगन पर कही गयी है।  जब कर्मयोग थै थै नाच रहा था, तब गीता कही गयी है।  बहुतसे लोग संग्राम से डर जाते हैं और घबडा जाते है।  भारतीय संस्.ति कभी संग्राम से नहीं डरती, क्योंकि तुम्हे अगर समाज में युध्द पिपासु-वृत्ति टिकानी हो तो निर्भयता टिकानी पडेगी।  मनुष्य के पास निर्भयता न हो तो युध्द पिपासु-वृत्ति नहीं रहेगी ।

युध्द अर्थात दूसरे की गर्दन काटना नहीं है, बल्कि युध्दपिपासु वृत्ति समाजमें रहनी चाहिए।  ‘ताल ठोककर खडा रहूॅंगा,’ और भगवान के चरण स्पर्श कर काम मे लगूंगा ऐसी वृत्ति होनी चाहिए।  ऐसी वृत्ति हनुमानजी में थी तो हनुमानजी के उपासकों में भी यह वृत्ति रहनी चाहिए।  बाह शक्ति बडी कि, मेरे भीतर की चित्त्शक्ति बडी ?  किंतु आज निर्भयता चली गयी है।  हनुमानजी के उपासकों को हनुमानजी से निर्भयता का गुण आत्मसात करना चाहिए।  इसी प्रकार जीवन में दृढता होनी चाहिए। मनुष्य के पास दृढता न हो तो वह क्या कर सकेगा ?  मनुष्य दृढनिश्चयी होना चाहिए।  ‘ मैं अमुक कार्य को करुँगा ही ’ ऐसी वृत्ति निर्माण होनी चाहिए। 

जीवन में निश्चय होना चाहिए ये सब गुण युध्द पिपासु-वृत्ति में आते है।  निश्चय अर्थात् ’ करुँगा ’ ऐसा निश्चय।  हमारे जीवन में कोई निश्चय ही नहीं है।  किसी को तुम पूछो, ‘इस श्रावण मास में तुम श्रीसुक्त सुनोगे, या गीता पढोगे’ तो वह तुरंत कहेगा,‘ बन सका तो देखूँगा। ‘मै अवश्य श्रवण करुँगा या गीता पढंूगा’ ऐसा वह दृढता से नहीं कहता।  उसमें इतनी हिम्मत ही नहीं है, ऐसा मनुष्य भगवान के पास कैसे पहुँचेगा ?  हनुमानजी में यह सब गुण विद्यमान थे।  इसीलिए तुलसिदासजी लिखते हैं कि, यदि हमें भगवान तक पहुँचना है तो हमको इन गुणों को विकसित करने का प्रयत्न करना चाहिए।

आज मनुष्य के जीवन में निश्चय नहीं होता।  प्राचीनकाल के मनुष्यों के जीवन में निश्चय रहते थे कि, संध्या किये बिना भोजन नहीं करुँगा।  रामरक्षा स्तोत्र बोले बिना नहीं सोऊँगा।  मानवी जीवन में कुछ न कुछ निश्चय होना ही  चाहिए।

मनुष्य में निश्चय होना चाहिए, दृढता होनी चाहिए, निर्भयता होनी चाहिए ये सब गुण युध्द पिपासु-वृत्ति जागृत होगी तभी खिलते हैं।  वे समाज के प्रत्येक व्यक्ति में होने ही चाहिए क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को लडना है।
राजलक्ष्मी, ज्ञानलक्ष्मी, और आत्मलक्ष्मी ये सब लडाई से ही प्राप्त होती हैं।  मनुष्य को सभी सभी प्रकार की लक्ष्मी लडाई से मिलती है।  शुक महान हुए, क्योंकि रंभा के सामने आने पर भी वे हिम्मत से खडे रहे।  शुक लडे, किंतु छगनलाल भाई शरण जाता है।  रंभा ही क्यों ?  रंभा नाम की कोई स्त्री उसके सामने आयी तो वह उसकी शरणमें जाता है।  प्रत्यक्ष रंभा आयेगी तो उसकी क्या स्थिति होगी, इसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती।  क्योंकि उसमें लडने की शक्ति या दृढता नहीं है।  लडाई में दृढता होनी चाहिए।  अध्यात्म में भी लडाई है।

हमारे देशमें संस्कृति का अभ्यास करने की बहुत आवश्यकता है।  मानव जीवन में जो जो संस्.तियाँ हैं, उनमें से जो उच्चस्तर पर पहुँचती जाती है, वह हमेशा हीन संस्कृति के लोगों द्वारा मारी  जाती है।  हीन संस्कृति के लोग हमेशा उच्च संस्कृति  के लोगों पर आक्रमण करते हैं और उसे मारते हैं।  ऐसे एक हजार एक सौ आठ उदाहरण तुम्हे आदिकाल से देखने को मिलेंगे।  हीन संस्कृति के मनुष्य उच्च संस्कृति को मारते हैं, क्योंकि उच्च संस्कृति की अभिरुचि बदलती है।  उच्च संस्कृति की कुछ मुर्खता (!) बढती है, इसीलिए उच्च संस्कृति को स्वयं का रक्षण करने के लिए शक्ति की उपासना करनी चाहिए।

वेदव्यास ने भी अर्जून को रणांगण में विजयश्री प्राप्त करने के लिए, शक्ति प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया था।  ऋषियोंने ‘शक्ति प्राप्त करो’ ऐसा कहा है, परन्तु शक्ति प्राप्त होने पर तू राक्षस बनेगा इसलिए प्राप्त हुई शक्ति का भक्ति में उपयोग कर ऐसा भी कहा है।   हनुमानजी के पास भी अपार शक्ति थी वह उन्होने भगवद्कार्य के लिये लगाई इसलिए वे भक्त श्रेष्ठ हुए।  भक्ति को अध्यात्मिक मूल्य है, आधिभौतिक मूल्य है और आधिदैविक मूल्य है।  भक्ति का सभी जगह मूल्य है ।

भारतीय संस्कृति जैसी प्राचीन संस्कृति विश्वमें कोई और नहीं है।  कितनी ही संस्कृतियाँ काल कलवित हो गयी है।  केवल भारतीय संस्कृति ही एक ऐसी संस्कृति है जिसने उन्नत व गौरव पूर्ण काल का दर्शन सारे विश्व को कराया है।  ऐसी भारतीय संस्कृति आज करुण विलाप कर रही है।  अपनी यह संस्कृति फिर से गौरव के साथ खडी रहे इसके लिए क्या किसीको छटपटाहट होती है?  हनुमान भक्तों को यह अवश्य िवचार करना चाहिए।  हजारों वर्ष पुरानी संस्कृति जब सिसक-सिसक कर रो रही है तब ‘दयालू प्रभो ! सब का करो कल्याण’ ऐसा रोना रोते हुए बैठने से काम नही चलेगा।  ‘मेरे पूर्वजों ने जिसके लिए अपना खून बहाया है वह संस्कृति मेरी माँ है ।  उस संस्कृति को फिर से खडी करने के लिए मैं अपना खून-पसीना एक करुँगा’ ऐसी दृढ  निष्ठा खडी होनी चाहिए ।  हनुमानजी ने जिस संस्कृति के कार्य के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया था ।  हनुमानजी के उपासकों को उनसे प्रेरणा लेकर संस्कृति और नैतिक मूल्यों को बनाये रखने के लिये प्रयत्न करनेका दृढ संकल्प करना चाहिए तो ही वह हनुमानजी की सच्ची पूजा होंगी । 

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