Monday, July 4, 2011


चौपाई:-संकट कटै मिटै सब पीरा । जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ।।  (36)
अर्थ : हे वीर हनुमानजी ! जो आपका स्मरण करता है, उसके सब संकट कट जाते हैं और सब पीडा मिट जाती हैं ।
गूढार्थ : तुलसीदासजी लिखते है कि हनुमानजी के स्मरण से संकट कट जाते है ।  प्रभु का स्मरण! यह जितना होगा उतना जीवन उन्न्त बनेगा ।   प्रभु के स्मरण में भी एक स्वार्थी स्मरण है, और दूसरा मधुर स्मरण हैं ।  भगवान की दी हुई स्मृति की देन (Gift) भगवान के कार्य में प्रयुक्त नहीं की तो कैसे चलेगा? संकट के समय, दु:ख में यदि भगवान याद आये तो कदाचित वह स्वार्थी स्मरण होगा परन्तु वह हलका नहीं है ।  वीतराग, निरपेक्ष, निराकांक्ष ऐसे शंकराचार्य हमारा पक्ष लेकर कहते हैं-
आपत्सु मग्न: स्मरणं त्वदीयं
करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि ।
नैतच्छठत्वं मम भाव येथा:
क्षुधातृर्षाता जननीं स्मरन्ति ।।
‘भुख प्यास लगती है तब बालक को माँ की याद आती है, वैसे आपत्ति में भगवान! मैं आपका स्मरण करता हूँ तो इसमें मेरी लुच्चाई (शठता) नही है । आपत्ति तथा सम्पत्ति दोनो प्रसंगो में भगवान का स्मरण होना चाहिए ।  हे प्रभो! मेरी शक्ति नहीं है फिर भी आपने क्यों भेजा? मुझसे भी अधिक बुद्धिशाली लोग होते हुए भी मुझे ही क्यों? कुछ भूल तो नहीं हो रही है न?  फिर भी भगवान के हिसाब में भूल नहीं होती अत: भगवान से भूल नहीं हुई होगी, ऐसा समझकर सात्विक स्मरण करो ।  भगवान का  मधुर स्मरण यह बहुत बडी बात है ।  भगवान की दी हुई शक्ति प्रभुस्मरण और आत्मस्मरण में ही प्रयुक्त करनी चाहिए ।

प्रभु का स्मरण किस प्रकार करेंगे? प्रारंभ में प्रभु की स्मृति न्यायदाता के रुपमें हो सकती है । हमसे कुछ उल्टा-सीधा आचरण हुआ तो याद रखो ।  नरसी भगत कहता है, ‘भोयमां पेसी भोंयरे, करीए काली बात.........तो ते जाणे जगत्नो तात’ यानी तहखाने में बैठकर भी यदि बुरी बात की तो भी जगत पिता-भगवान उसको जानते है ।  अत: उसका न्याय देनेवाले भगवान हैं ।  इसी प्रकार सज्जन बनकर आचरण करते हैं तो ‘इस सज्जनता का फल मेरे अमुक तप के कारण मिला है, मैं सज्जन रहा, अच्छा रहा इसका यह फल है ।  ऐसा विश्वास होना चाहिए ।  ‘सत्यमेव जयते।’ इसपर हमारा अटूट विश्वास होना चाहिए ।  भगवान ने मेरा कर्म अंकित करके रखा ही है ।  खराब, बुरा काम करते समय भगवान को याद रखकर करो और अच्छा काम भगवान को ‘साक्षी’ रखकर करो, कारण दुनिया तो सब भूल जानेवाली है । एकाध दिन समाजमें हमने अच्छा काम किया तो लोग एकाध हार पहनायेंगे और दूसरे दिन भूल जायेंगे। लोगों की स्मरणशक्ति बहुत कम होती है ।  महान विजय पाने पर लोगोंने नेपोलियन का सम्मान करना चाहा ।  नेताने बरामदेमें आकर लोगों को दर्शन देने के लिए नेपोलियन से कहा, तब नेपोलियन ने उत्तर दिया, ‘जो लोग मुझे आज फूलोंके हार पहिनाना चाहते हैं वे कादाचित् कल मुझे गोलियोंसे मार भी देंगे, अत: उनके सम्मान की मुझे कोई आवश्यकता नहीं ।

सत्कर्म करना है तो भगवान का स्मरण रखकर, उनके भरोसे ही करना चाहिए ।  भगवान के नामपर भगवान के लिये और भगवान के भरोसे पर किया हुआ कर्म ही सत्कर्म कहा जाता है ।  हम तो लोग अंकित करते होंगे और ‘बहुत अच्छा’ ऐसी स्तुति करते होंगे तभी सत्कर्म करते हैं ।  इतनी हमारी हीनता है। फिर हम भक्त कैसे? ‘भगवान आप ही न्याय देनेवाले हैं, ऐसी स्मृति रहनी चाहिए ।  हमारे कर्मों को देखनेवाला भिन्न, लिखनेवाला संचित करके रखनेवाला भिन्न और देनेवाला भिन्न हैं ।  मेरे कर्मों का  फल समाज नहीं अपितु भगवान ही देनेवाले हैं ऐसी समझ हुई तभी भगवान की स्मृति रखी है ऐसा कहा जायेगा। मैं दुनिया के लोगों को मूर्ख बना सकूँगा, परन्तु भगवान! आपको नहीं !
दूसरी स्मृति होती है, ‘कर्मफलदाता’ के नाते ।  भगवान क्या हाथ में तराजू लेकर, तोलकर हम सब का न्याय करते हैं? एक हाथ में सजा के िलए लकडी और दूसरे हाथ में ईनाम, ‘यह अथवा यह?’ क्या इतना ही करते हैं? आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत इतनी ही कल्पना भगवान के संबंध में एक समय पचिमी देशों में थी ।  परन्तु वास्तव में भगवान ऐसे नहीं हैं ।  दाता है ।  भगवान कर्म का फल देनेवाले हैं ।  मैने जो कर्म किया होगा उसका फल तो भगवान देते ही हैं, पर कभी कभी ऐसा लगता है कि भगवान! आप तो किसी समय अधिक दे देते हैं ।  मैने जो किया नहीं है वह भी आप मेरे हाथ में दे देते है, फिर आपको ‘कर्मफलदाता’ कैसे कहना? केवल मेरे ही कर्मों का फल देते हो, तो बैंक में, मेरे खातेमें जो रक्कम जमा होगी उसे देखकर ही बैंक का क्लार्क चेक भूनता है, वैसा ही आपने किया है ऐसा कहा जाएगा।  बैंक का क्लार्क कुछ अधिक नहीं देता ।  कौंटरपर क्लार्क चेक जाँचता है, हस्ताक्षर देखता है, कितनी रक्कम जमा है फिर पैसे देता है ।  भगवान तो उससे कुछ अधिक देते हैं ।  अच्छे कमों‍र् के फल बढाकर देनेवाले भगवान हैं ।  अत: भगवान केवल न्याय देनेवाले नहीं है, अपितु दाता हैं ।  भगवान अपनी जेब में से देते है ।  स्वयं घिसकर हमारे कर्मों को सँभालते हैं।  इसलिए भगवान की इस प्रकार की भी एक स्मृति रहनी चाहिए ।

तीसरी बात, भगवान ‘पालयिता’ पालन करने वाले हैं ।  कितने ही लोग ऐसे हैं कि वे किसी को मदद देते हैं और छूट जाते हैं ।  भगवान ऐसे नहीं है ।  रास्ते में भिखारी मिला तो हम उसे दस पैसे देकर छूट जाते हैं ।  इस पैसों से उसने कुछ खाया या नहीं, पैसे खो तो नहीं गये, रात्रि में उसके पेट में दर्द होता है या नहीं या उसने पैसों से कुछ हरामखोरी तो नहीं की? आदि सब कुछ हम देखते नहीं बैठते! हम देकर छूट जाते हैं ।  भगवान ऐसे नहीे हैे ।  वे पालक है ।
वे केवल पालन करते है ऐसा नहीं है, वे मददगार भी हैं ।  एक एक सोपान चढते चढते स्मृति करते जाओ ।  किस सम्बन्ध से भगवान के पास जाना है यह निश्चित करो ।  ये सब भगवान के रुप हैं ।  इस रीत से भगवान की स्मृति करके दर्शन करने चाहिये ।  न्यायदाता, फलदाता, पालन कर्ता व मददगार । इनसे आगे बढकर पिता के नाते स्मरण होता है ।  भगवान केवल मददगार नहीं है ।  मदद की आवश्यकता होनेपर वे आयेंगे ही ।  ‘संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बल बीरा।’ ‘आपत्सु मग्न’: माँ मददगार के रुप में आती है ।  इससे आगे का सोपान यानी भगवान की पिता के रुपमें स्मृति रखो ।  प्रत्येक रुप की, प्रत्येक फूल की भिन्न भिन्न सुगंध है। सभी भक्त एक समान नहीं है । विकसित भक्त भिन्न भिन्न सुगन्ध ले सकता है ।
कोई भगवान की भक्ति करने लगा कि हम उसको गोपियों, नरसी मेहता, याज्ञवल्क्य, शंकराचार्य आदि की पंक्तिमे बिठाकर भक्त मानने लगते हैं ।  ये सब भक्त एक ही श्रेणी के नहीं है ।  प्रत्येक फूल की भिन्न भिन्न सुगन्ध होती है, वैसे ही भगवान भी इन सभी भक्तों के पास भिन्न भिन्न रीतिसे खिलते हैं । प्रत्येक के पास अलग अलग रहते है ।  मार्ग से चलते हैं तब भिन्न भिन्न व्यक्ति का स्मरण होता है । किसीका विद्वान के नाते, दूसरे का पुलिस के नाते, तीसरे का धनवान के नाते तो किसीका पिता के नाते स्मरण होता है ।  प्रत्येक स्मृति में फरक है ।  पिता माना कि भिन्न ही भाव आता है ।  पिता के नाते अद्भूत भाव है ।  परन्तु व्यवहार में इस पिता के नाते जो स्मृति होती है उसमे भी तनिक कडुवापन आ जाता है ।  गत पीढी में पिता-पुत्र में मतभेद रहता था वैसा आज भी है ।  ‘तुण्डे तुण्डे मतिर्भिन्ना।’ अपनी अपनी डफली अपना अपना राग रहेगा ! किसको किसमें समर्पण होना है- विलीन होना है- यह स्वतंत्र बात है ।

अब, भगवान की स्मृति पिता के नाते होती है, उसकी अपेक्षा -‘सखा’ के नाते हो तो उसमें अधिक आनंद है ।  इससे भी पति के नाते हो तो उसमे अधिक आनन्द है । ‘गतिर्भता प्रभु: साक्षी।’ भगवान का भिन्न भिन्न रुपसे स्मरण करना है यह मूल बात है ।  दो स्मृतियाँ करनी है ।  एक प्रभुस्मृति और दूसरी आत्मस्मृति । ‘स्मृति’ भगवान का दिया हुआ ईनाम होते हुए भी उसका योग्य उपयोग न होने से हमें आत्मस्मृति नहीं होती ।  सारी दुनिया का करते करते मैं अपने ही को भूल गया हूँ ।  भतृ‍र्हरि राजा कहता है-
परेषां चेतासि प्रतिदिवसमाराध्य बहुधा ।
प्रसादं किं नेतुं विशसि हृदय क्लेशकलिलम् ।।
प्रसन्ने त्वय्यन्त: स्वयमुदितचिन्तामणिगुणे ।
विविक्त: संकल्प: किमिव हि फलं पुष्यति न ते ।।
सब के मन सँभालते सँभालते मुझे अपने लिए कुछ संग्रह करना है यही मैं भूल गया हूँ और बहत्तर वर्ष का हुआ हूँ ।  पुत्र बादमें ‘पिताजी, पुज्य’ ऐसा कहते हैं परन्तु वे सब स्वार्थ के कारण कहते हैं, कारण उनको पिता से पैसे लेना होता है इसलिये ।  अन्यथा किसी को किसी के प्रति प्रेम नहीं होता । सबका करते-करते अपने लिये भी कुछ करना है ऐसी आत्मस्मृति नहीं रहती 

छोटे बालक जब प्रदर्शनी देखने जाते हैं तब वहाँ भिन्न प्रकार के खिलौने होते हैं, उनमें रम जाते हैं जापान के खिलौने तो बहुत ही अच्छे होते हैं ।  कुछ स्वयंचलित खिलौने हँसते हैं ।  तो कुछ रोते हैं । कुछ बोलते है तो कुछ मूक होते हैं ।  कुछ खिलौने अच्छा चलते हैं तो कुछ बैठे हुए ही होते हैं ।  यह सब लंबा चौडा प्रदर्शन देखने में लडकों को मजा आता है और वे भूख-प्यास सब भूल जाते हैं ।  ऐसे समय माँ याद दिलाती  है कि थोडासा खा लो ।  खाते खाते देखते जाओ ।  वैसे हमारे जीवन में दोपहर में तो आत्मस्मृति की भूख लगनी चाहिये न? हम इसका विचार ही नहीं करते ।  इस सृष्टि में भगवान के अनन्त फूल हैं, वृक्ष हैं, घर हैं, मनुष्य हैं ।  ये सब खिलौने ही हैं ।  प्रत्येक में भिन्न भिन्न भाव है ।  किसी में सुन्दर हरामखोरी दिखायी देती है ।  तो किसी मे सज्जनता! कोई बोलता है तो वह अच्छा लगता है । दूसरा बोलता है तो दुर्गन्ध फैलती है ।  इन सबकी हमें पहचान  करके हँसना है, बोलना है ।  भगवान! आपने इस सृष्टि सौन्दर्य को बहुत ही सुन्दर खिलाया है, परन्तु मुझे तो समय ही नहीं है । (No time) भुख ही नहीं लगती है ।  भगवान कहते हैं, ‘तू स्मरण कर व सँभल । ’ज्ञान तथा भाव की भूख लगती है इसलिये भगवान बीच बीचमें हमें हिलाते हैं ।  खिलौनों को देखने में तल्लीन होनेवालों को भूख  ही न लगे तो भगवान क्या करेंगे? एकाध विपत्ति भेजकर, दु:ख भेजकर तनिक झकझोरते हैं, हिलाते हैं, जगाते है। भगवान के पास हजारों मार्ग हैं ।  भगवान किस मार्ग से हिलायेंगे कह  नहीं सकते ।  सीधा सरल चल रहा संसार है, उसमें से लडका ही उठाकर ले जाते हैं ।  इसलिए भगवान कहते हैं, तू अपनी स्मृति रख वैसी मेरी भी स्मृति रख ।   आत्मा भूखी, प्यासी है ।

आत्मा को ज्ञान और भाव की भूख है ।  क्या भाव खिलाया? नही! अनेक बार वस्तु एक ही होती है परन्तु बनाने (Preparation) में फर्क के कारण रुचि में फर्क आ जाता है ।  खीर व रबडी में दूध, शक्कर, केसर होता है ।  वस्तुएं वे ही हैं पर उनकी बनाने की क्रिया से उनकी रुचि में फर्क आता है ।  इसी प्रकार व्यक्ति के प्रति हमारे भाव बदलते रहते हैं ।  कोई दलाल बाजार में मिलता है तब उसके प्रति भिन्न भाव से देखते हैं और वही दलाल सत्संग में मिलता है तब भिन्न भाव से उसे मिलते हैं ।  व्यक्ति एक होते हुए भी भाव में फर्क आता है ।  रास्ते में चलते हुए समधी मिलते हैं, फिर मित्र मिलता है ।  उसके बाद गुरु मिलते हैं ।  घर आने पर पत्नी को भी देखते हैं ।  इस प्रत्येक को देखने के बाद, मिलने के बाद भिन्न भिन्न भाव जागृत होते हैं ।  प्रत्येक में फर्क जरुर है ।   परन्तु यह भावोंका फर्क अभ्यास से जान लेंगे तो भाव के प्रति अवश्य प्रेम निर्माण होगा ।  इतना ही नहीं, अपितु कौनसा भाव रखना है ।  और कौनसा भाव वृद्धिंगत करना है यह भी समझ पडेगा ।  भाव को भी लगेगा कि इनके जीवनमें मेरी कद्र है, मेरे प्रति      (Appreciation)  है ।  भगवान के पास जैसे बैठते हैं वैसे भाव के पास भी बैठना सीखो ।  यदि जीवनमें भाव ही नहीं खिालया तो वृद्धवस्तावत्् चिन्तामग्न: जैसा जीवन सुखा जायेगा फिर ‘जगत लगा खारा रे..... कहते रहेंगे ।

जिसने जीवन में भाव का दरवाजा खोला ही नहीं उसको जगत अच्छा लगेगा ही नहीं ।  भाव को पहचानकर, उसको बनाये रखने की, वृद्धिंगत करने की, उसको लाड प्यार करने की, उसका उदात्तीकरण करने की जीवन में आवश्यकता है ।  अध्यात्म यानी ‘आत्मनि अधि इति अध्यात्मं।’

जीवन में भगवान की विविध रुपोंमें स्मृति रहनी चाहिये ।  वैसे ही आत्मस्मृति भी रहनी चाहिए, साथ ही  साथ भाव की स्मृति रहनी चाहिये ।  तुलसीदासजी लिखते हैं कि इस प्रकार उपरोक्त स्मृतियों को रखकरयदि हम भगवान का स्मरण करेंगे तो फिर हमे संकट से मुक्ति मिल जाएगी परन्तु उसके लिए भगवान का मधुर स्मरण करना चाहिए ।  तथा उपरोक्त विविध स्मृतियों को जीवन में लाने का प्रयत्न करना चाहिए ।  संकट में यदि हमें भगवान की सहायता चाहिए तो भगवान के प्रति भाव बढाकर उनसे संबंध स्थापित करना चाहिए ।  और फिर भगवान को पुकारो ।  उसका स्मरण करो तो भगवान तुरन्त दौडते आयेंगे और मदद भी करेंगे ।

आदमी को कोई न कोई दु:ख आता ही है ।  जब मुझ पर विपत्ति पडी तब जिसने मुझे उठाया, जिसने मुझे चलाया वे भगवान मेरी मदद करेंगे ।  द्रौपदी पर विपत्ति पडी तो उसने भगवान को पुकारा भगवान आये और उसे सँभाला । कोई कहेगा, यह पौराणिक कहानी है कि द्रौपदी की मदद के लिए भगवान आये और उसकी रक्षा की ।  उसके बाद क्या कभी भगवान आये हैं?

हम भगवान को पुकारते-पुकारते थक जाते हैं फिर भी वे नहीं आते, यह वास्तविकता है । कोई कहेगा, ‘भाई! भगवान को आर्तता से पुकारना चाहिए, तभी वे आते हैं, वे ऐसे थोडे आते हैं ।  जिस पर विपत्ति पडती है वह आर्तता से पुकारता है, फिर भी भगवान नहीं आते ।

कोई कहेगा, ‘भगवान को दिल से पुकारना चाहिए ।’ जब तक व्यक्ति दंभ से भरा रहता है तब तक भगवान कैसे आयेंगे? भगवान भी जांचते है कि क्या आदमी दंभ से तो नहीं पुकारता है?
भगवान! क्या आपको संभी दंभ से ही पुकारता है? भगवान! क्या आपको संभी दंभ से ही पुकारते हैं? द्रोपदी पर विपत्ति आयी तो उसने भगवान को आर्तता से पुकारा ।  कया इसी आर्तता से कितनी ही द्रोपदियोँ भगवान को नहीं पुकारती?

मैं काल्पनिक द्रौपदी का उदाहरण देता हूँ ।  एक विधवा स्त्री है । उसका पति मर गया है । इसलिए वह घर में अकेली है ।  उसका सात  वर्ष का एक ही लडका है ।  उसी पर आशा रखकर वह अपना जीवन चलाती है ।  एक दिन अचानक रात की बारह बजे उसका लडका बीमार पड गया ।  लडके को बुखार चढा है, वह होश में ही नहीं है ।  माँ लडके को गोद में लेकर बैठी है । उसने डॉक्टर को बुलाया ।  डॉक्टर ने लडके को जाँचकर कहा: ‘अब मेरे हाथ मे कुछ नही है   बस! अंतिम समय आ गया है इसलिए भगवान को याद करो ।  ऐसा कहकर डॉक्टर भी चला जाता है ।  चारों तरफ अँधेरा है ।  घर में वह अकेली ही है ।  लडके को गोद में लिया है ।  अंतिम क्षण है ।  कोई मदद करने नहीं आता । उस समय आँखों में प्राण लेकर रोते-रोते वह भगवान को पुकारती है ।  क्या यह दम्भ है?  क्या उसकी आवाज में आर्तता नहीं है? उसका दिल सच्चा है, जरा भी दम्भ नहीं है । ‘भगवान! अब केवल तुम्हारा ही सहारा है।’  इस प्रकार रोते हुए वह भगवान को पुकारती है ।  क्या भगवान आते हैं ? भगवान नहीं आते और लडका मर जाता है ।
भगवान को बुलाने में आर्तता होनी चाहिए ऐसा कहना आसान है ।  द्रोपदी के  भगवान आये थे ऐसा सुनानेवाला सुनाता है ।  और सुननेवाले सुनते हैं ।  द्रोपदी के लिए भगवान आये तो आज आर्तता से पुकारने पर भी भगवान क्यों नहीं आते है? मुझे तो लगता है कि इसका एक ही उत्तर है कि द्रोपदी की आवाज से भगवान परिचित थे, हमारी आवाज को भगवान नहीं पहचानते ।  इसके लिए ब्रम्हसुत्र पढने  की आवश्यकता नहीं है ।  कोई आदमी झूले पर बैठा हो ।  इतने में कोई नीचे से चिल्लाकर पुकारता है, परन्तु वह हिलता ही नहीं है ।  दूसरा एक भाई उसके साथ बैठा है, वह कहता कि भाई ! तुम्हे कोई बुला रहा है क्या तुमने सुना नहीे? तो वह कहता है, हाँ,! सुना न! परन्तु वह दूसरे किसी को बुला रहा है, मुझे नही । मैं बोनलेवाले की आवाज नहीं पहचानता ।

जबतक आवाज नहीं पहिचानी जाती तब तक हमारे जैसा आदमी भी झूले से नहीं उठता, तो भगवान हमारी आवाज न पहिचाने तो वे कैसे उठेंगे? हमारी आवाज भगवान को परिचित हो इसलिए ‘तस्मात् स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्’। स्वाध्याय में प्रमाद और आलस्य नहीं करना है ।   पाण्डुवों और द्रोपदी का जीवन ही प्रभु कार्य के लिए था ।  द्रोपदी ने खून की बूंद बूंद भगवद्कार्य के लिए इस्तेमाल की थी, इसलिए भगवान उसकी आवाज पहचानते थे ।  द्रोपदी के बुलाने पर भगवान तुरन्त दौडते आये। तुम्हारी आवाज भगवान से परिचित कर लो और फिर भगवान को पुकारो तो भगवान तुरन्त दौडते आयेंगे और मदद भी करेंगे ।

गीता के विचार गाँव-गाँव में पहुँचाने जानेवाले लोग अपनी आवाज भगवान से परिचित करने का प्रयत्न करते हैं ।  मेरी आवाज भगवान से परिचित होने के बाद ही भगवान को पुकारने पर तुरन्त आयेंगे इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है ‘संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरे हनुमंत बल वीरा।’

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