Monday, July 4, 2011


चौपाई:- तुलसीदास सदा हरि चेरा । कीजै नाथ हृदय मह डेरा ।।   (40)
अर्थ : हे नाथ हनुमानजी ! तुलसीदास सदा ही श्रीराम का दास है। इसलिए आप उसके हृदय में निवास कीजिए ।
गूढार्थ : हनुमानजी तुलसीदासजी के गुरु हैं। तुलसीदासजी ने हनुमानजी को अपना गुरु माना है। उनके मार्गदर्शन के अनुसार ही उन्हे भगवान श्रीराम के दश्‍र्रन हुए ।  इसलिए तुलसीदासजी हनुमानजी से प्रार्थना कर रहे हैं कि, हे हनुमानजी । आप मेरे हृदय में निवास कीजिए । गुरु हो तो ज्ञान मिलता है, या सत्संग किया तो मार्गदर्शन मिलता है ।

साधक के जीवन में कभी कभी अंधकार छा जाता है ।  परन्तु अंधकार की रात्रि के बाद प्रकाश आने ही वाला है ऐसा विश्वास रखकर साधक को अध्यात्म मार्ग नहीं छोडना होता ।  साधक कहता है, मुझमें बहुत बडी बुद्धिमन्दता है, कर्ममन्दता है और भावमन्दता है । इन सब बातों के लिए साधक को मार्गदर्शन कौन करेगा? गुरु ही मार्गदर्शन करते हैं, इसीलिए तुलसीदासजी ने हनुमानजी को अपने हृदय में निवास करने के लिए प्रार्थना की है, ‘कीजै नाथ हृदय मह डेरा।’

बुद्धि उत्तम होनी चाहिए, दैवी होनी चाहिए, तभी अच्छा ज्ञान मितता है इस में संदेह नही है ।  परन्तु बुद्धिमन्द नही होनी चाहिए ।  बुद्धि मे एक प्रकार की किंकर्तव्यमूढता आती है ।  उस अवस्था में गुरु से मार्गदर्शन जरुरी लगता है ।

बुद्धि में कामनाग्रस्तता, संशयग्रस्तता और भयग्रस्तता ये तीन बातें घुसती है ।  मनुष्यको भय लगता है कि मेरा क्या होगा? मैं कहाँ से आया हूँ? मुझे कहाँ जाना है? मेरे साथ कौन आनेवाला है? इसमें से मनुष्य को किसी बात का पता नहीं चलता ।  उनके संबंध में मनुष्य जैसा जैसा विचार करता जाता है, उसकी बुद्धि बधिर बनती है और वह अधिकाधिक दु:खी बनता है । भयग्रस्त बुद्धि में यह महान दोष है ।

बुद्धि में ज्ञान को पकडकर मनुष्य भगवान तक पहुँच सके इतनी शक्ति है ।  बुद्धिमन्दता का अर्थ यह नही है कि हमारे पास बुद्धि की कमी है ।  हम गीता के अठारह अध्याय कंठस्थ करते हैं, हनुमान चालीसा मुखोद्गत करते है ।  हमें बैंकिग व एकौन्टन्सी इतनी अच्छी आती है कि हम भगवान को भी चकमा दे सकते हैं ।  इतनी हमारे पास जबरदस्त बुद्धि है ।  पिछले पाँच-सात वर्षों का हिसाब भी हमें पूरा याद रहता है, तो क्या हमारे पास अक्ल की कमी है? नहीं हमारे पास बहुत बुद्धि है परन्तु वह भयग्रस्त है ।

उसी प्रकार हमारी बुद्धि में अनन्त कामनाओंका निर्माण होने से वह इतनी कामनाग्रस्त बनती है कि उसमे ‘ज्ञान’ के लिये स्थान ही नही रहता वास्तव मे, बुद्धिपर सच्चा अधिकार ज्ञान का है, परन्तु बुद्धिमें अनन्त कामनाएं भर जाने से ज्ञान के लिए जगह ही नही रहती ।

बुद्धि में प्रथम विचार आता है तो वह है सुख का! उसमें सुख की कामना का निर्माण होता है । आनन्द-कामना और सुख-कामना में फर्क है ।  सुख व आनन्द भिन्न है । परब्रम्ह के वर्णन में सुख शब्द का प्रयोग नहीं करते, आनन्द शब्द का प्रयोग करते हैं ।  ‘चिदानन्द रुप: शिवोहम शिवोहम।’  इसमे सुख शब्द नही है, आनन्द शब्द है ।

मनुष्य को लगता है कि हम सुखी हों, इसीलिए वह अपनी बुद्धि का उपयोग सुख प्राप्त करने में करता है बुद्धि मेंं जिस प्रकार सुख की कामना होती है वैसी दूसरी स्वामित्व की कामना होती है ।  इन दो कामनाओं के कारण बुद्धि में अनन्त कामनाएँ निर्माण होती है ।  उसके पास बहुत बुद्धि है, इतना ही नहीं अपितु ऐसी शंका निर्माण होती है कि क्या पीढी दर पीढी मनुष्य में बुद्धि- अक्ल बढती ही जा रही है? परन्तु बुद्धि में इतनी कामनांए आकर बैठती हैं कि वहाँ ज्ञान के लिए जगह ही नही रहती ।

मनुष्य की बुद्धि में स्वामित्व की भावना रहती है ।   वस्तु अथवा व्यक्ति पर स्वामीत्व की धाक जमाने की उसमे कामना होती है ।  जो अपना बनकर रहता है वह मनुुष्य को अच्छा लगता है । उसको पत्नी अच्छी लगती है, कारण वह उसकी (मेरी) बनकर रहती है । लडका मेरा, पति मेरा, ‘यह स्वामित्व का आनन्द है । उसको गाडी का आनन्द नही, ‘गाडी मेरी है’ इसका आनन्द है । हमे कोई अपनी गाडी में बिढाता है तो हम बैठते है सच! परन्तु ‘हवा मे लटकते हुए’’ से बैठते है, मानो हमे एकाध बिच्छू काट रहा हो ।  परन्तु, हम अपनी गाडी में बैठते है तो उसका भिन्न ही आनन्द होता है ।  यह आनन्द गाडी का नही है, अपितु गाडी मेरी है ‘इस स्वामित्व की भावना का आनन्द है ।  एकाध बार शृंगारित आलीशान बंगले में हमे सोने को मिला तो उसमे उतना आनन्द नहीं होता, जितना हमें अपने बंगले में सोने से मिलता है ।  मनुष्य को निरन्तर ऐसा लगता है कि प्रत्येक वस्तु ‘अपनी’ होनी चाहिए तभी उसमे आनन्द है । स्वामित्व प्रत्यक्ष होना चाहिए । केवल मानसिक दृष्टि से माना हुआ स्वामित्व नही चाहिये ।  सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय  भगवान आकाश मे जो विविध रंग भरते हैं, उसमे आनन्द है, परन्तु मनुष्यको उसमें उतना आनन्द नही होता कारण ‘अमुक वस्तु मेरी है, तेरी नही है’ इसीमे उसे आनन्द मिलता है ।  आकाश में जो इंद्रधनुष्य दिखाई देता है, वह मेरा है ऐसा कहा तो क्या उसमें तुम्हे आनन्द मिलेगा? नही मिलेगा । ‘यह मेरा है, तेरा नही  भगवान आकाश मे जो विविध रंग भरते हैं, उसमे आनन्द है, परन्तु मनुष्यको उसमें उतना आनन्द नही होता कारण ‘अमुक वस्तु मेरी है, तेरी नही है’ इसीमे उसे आनन्द मिलता है ।  आकाश में जो इंद्रधनुष्य दिखाई देता है, वह मेरा है ऐसा कहा तो क्या उसमें तुम्हे आनन्द मिलेगा? नही मिलेगा । ‘यह मेरा है, तेरा नही है,’ ऐसा चार लोगों में कह सके तभी उसमें स्वामीत्व की भावना होती है और सुख होता है ।  यह स्वामीत्व की भावना आते ही मुक्ति व भक्ति अलग हो जाती है ।  इसका कारण किसी भी काल में भगवान पर स्वामित्व की भावना नही चलती । इस प्रकार हमारे पास बुद्धि है परन्तु कामनाओं के कारण ज्ञान के लिए स्थान नहीं रहता ।
प्रथम बात यह है कि अध्यात्म की जिज्ञासा निर्माण होनी चाहिये ।  वही हमें नही होती । हम कभी कभी गीता पढते हैं परन्तु जिज्ञासा से नही ।  गीता को पढने से कुछ पुण्य लाभ होगा और व्यापार में मुनाफा होने के लिए उसका आधार मिले इसलिए पढते हैं ।  गीता को पढने से संसार विकसित होता हो उसमें कुछ बुरा नहीं है । परन्तु उसमें जिज्ञासा नहीं यह समझ लेना चाहिये । आत्मज्ञान की जिज्ञासा कब निर्माण होती है? आवश्यकता लगी तो जिज्ञासा निर्माण होती है । कालेज की शिक्षा लेने की आवश्यकता लगती है इसलिए उसके प्रति जिज्ञासा भी निर्माण होती है ।  हमें आत्मज्ञान की आवश्यता नहीं लगती ।  इस प्रकार आवश्यकता में से जिज्ञासा निर्माण होती है ।
हमें जीवन में अध्यात्म की बिलकुल आवश्यकता नहीं लगती यह वस्तुस्थिति है ।  किसी के साथ इस संबंध में बात की तो वह यही कहेगा कि मेरी सात पीढियाँ संसार करते हुए इस जगत से चली गयी, उनमें से किसीका तुम्हारे अध्यात्म के बिना नहीं बिगडा ।  हमारे बाजार में सैंकडो व्यापारी है, पैसा कमाते है, मोटरे उनके पास है, बही-पूजन के दिन लक्ष्मी को नमस्कार भी करते है, नहीं करते ऐसा नही है, परन्तु इनमे से किसीका भी अध्यात्म के बिना कुछ भी नहीं रुका है । इस प्रकार जीवन में अध्यात्म की आवश्यकता ही नहीं लगती तो उसके प्रति जिज्ञासा कैसे निर्माण होगी?

भगवान! हमें अध्यात्म ज्ञानकी आवश्यकता नहीं लगती यह पहली बात है । यह हमारी दिक्कत है । हम प्रयत्न करते रहते है, परन्तु हमारे प्रयत्न अयोग्य मार्गपर है ऐसा आप कहते हैं ।  हमारा यह भी प्रतिवाद नही है परन्तु यह सामान्य व्यक्ति का आत्म-निरीक्षण है ।

दूसरा- जिज्ञासा निर्माण होने का कारण परिस्थिति होती है ।  आसपास की परिस्थिति वैसी हो तो मनुष्य में जिज्ञासा निर्माण होती है ।  कितनी ही बार ऐसी परिस्थिति निर्माण होती है कि मनुष्य को कुछ बातें करने पर ही छुटकारा मिलता है ।  उदाहरण स्वरुप अंग्रेजी पढना ही चाहिये ऐसी परिस्थिति निर्माण हुई तो मनुष्य अंग्रेजी पढता ही है ।  कारण वह अंग्रेजी न पढा हुआ हो तो उसकी प्रगति रुक जाती है ।  आज समाज ने ऐसी परिस्थिति निर्माण की है कि मैं कुछ पढ, लिख सका तभी समझदार! वास्तव में पढने लिखनेका व जीवन का क्या संबंध है? इस पढने-लिखने ने ही अनन्त दु:ख निर्माण किये है ।  क्या पढाई से सुख मिला है? मनुष्यने पढकर कल्पनातीत दु:खों का निर्माण किया है ।  पढने से क्या लाभ हुआ है? परन्तु ऐसी परिस्थिति खडी हुई कि लडकों को पढना ही चाहिये ।  अध्यात्मज्ञान अथवा भक्ति के लिए इस प्रकार की परिस्थिति निर्माण हो तो मनुष्य उस मार्ग से जायेगा ।  परन्तु उसके लिये तो उल्टी परिस्थिति है। इसलिये आज कोई्र अध्यात्म या भक्ति मार्ग पर चलने लगता है तो उसको जबरदस्त विरोध सहना पडता है ।  यह विरोध सहन करने की शक्ति होने पर भी वह इस मार्गपर टिकता है, अन्यथा नही टिकता ।

लडकों को पढना चाहिये इसलिये पूरा परिवार, सगे संबंधी, अडोसी-पडेासी, समाज सभी अनुकूल है।  परन्तु लडकों को ‘गीता पढनी चाहिये’ इसके लिये कोई अनुकूल नही है । माँ-बाप भी अनुकूल नही है तो दूसरे की बात ही क्या है! भूलकर एकाध लडका गीता पढने लगा तो आसपास के लोग उसकी नाक मे दम कर देते हैं ।
भगवान! जिस समाज में मै पाल-पोसकर बडा हो रहा हूँ, उस समाज में ऐसी परिस्थिति नहीं है कि मुझमें अध्यात्म ज्ञान की जिज्ञासा निर्माण हो!

जिज्ञासा निर्माण होने का तिसरा कारण है संस्कार! यदि संस्कार अच्छे हो तो अध्यात्म ज्ञान की जिज्ञासा निर्माण होती है ।  इसीलिये तो उपनिषदोंने कहा है-‘मातृवान् पितृवान् आचार्यवान् पुरुषों वेद! यदि संस्कार अच्छे हों तो बिना परिस्थिति के अथवा आवश्यकता के भी जिज्ञासा निर्माण होती है ।  अच्छी परिस्थिति, अच्छे माँ-बाप या अच्छे संस्कार मिलना, यह भगवान! आपके हाथ की बात है, मेरे हाथ की बात नहीं है ।  इसलिये कहा जाता है कि हम भयानक प्रारब्ध के हाथ में हैं ।  हमारा   प्रारब्ध हमें जहाँ खिंच ले जायेगा वहाँ हम जाते हैं ।  परिस्थिति, संस्कार और आवश्यकता इन तीनों बातों में हमारी लकडी कितनी निर्बल है, यह आप  समझ सकते हैं ।

सर्वप्रथम बुद्धि है ।  उसमें स्वामीत्व की भावना होती है, सुख कल्पनायें होती है, इसलिये अध्यात्म ज्ञान के लिये वहाँ स्थान नहीं है ।  उसके बाद जिज्ञासा निर्माण होने के लिए आवश्यकता नहीं लगती ।  परिस्थिति की अनुकूलता नहीं होती और संस्कार भी नहीं होते ।  इतना होने पर भी शायद जिज्ञासा निर्माण होती है ।  उस जिज्ञासा के आधारपर हम कुछ  ज्ञान प्राप्त करने लगे, दो चार शंकायें पूछने लगे तो तुम्हारे अध्यात्म के पथिकों के जो मार्ग हैं वे हमारी जिज्ञासा को मार डालते हैं ।  कारण शंकायें पूछनी नहीं होती और भगवान के संबंध में संदेह चलता नही!
दूसरी बात, जीवन में ज्ञान आने के लिये ग्रहण शक्ति चाहिये ।  कामनाग्रस्त व भयग्रस्त बुद्धि की ज्ञान ग्रहण करने की शक्ति ही चली गयी है ।  हमारी बुद्धि कुछ ग्रहण कर ही नहीे सकती ।  कदाचित् जिज्ञासा हुई तो भी ग्रहण शक्ति चाहिये । तलाब में जल भरा हुआ है वहाँ पानी लाने के लिये बर्तन लेकर गये, परन्तु उस बर्तन में यदि छिद्र हो तो उसमे जल कैसे भर सकते है? इसी प्रकार हमारे बुद्धि रुपी बर्तन में छिद्र पडा हुआ है ।  उसमें भूलचूक से गीता का जल भर लिया तो भी अन्तिम सीढी पर आने तक हमारा बर्तन रिक्त हो जाता है ।  हमारी बुद्धि में ग्रहण  शक्ति ही नहीं है तो हम कया करे? ज्ञानमार्ग में यह सब अडचने हैं ।

गुरु हो तो ज्ञान मिलता है, इसीलिए तुलसीदासजी ने गुरु को अपने हृदय में स्थान दिया है । उस समय सच्चे गुरु थे ।  आज के काल में सच्चा गुरु मिलना मुश्किल है, अत: आज यह समस्या है ।  जब तक योग्य गुरु जीवन में नही मिलते तब तक कृष्ण को गुरु मानो  ‘कृष्ण वन्दे जगद्गुरुम्’

कृष्ण भगवान चिरन्तन काल से गुरु हैं ।  कृष्ण केवल वैष्णवो के गुरु नहीं है, केवल भारत वासियों के ही नही, अपितु संपूर्ण विश्व के गुरु हैं और चिरन्तन काल तक गुरु है ।  वे विचार और जीवन के गुरु है ।  उन्होने जीवन जीकर और सोचकर जीवन के सभी कक्ष प्रकाशित किये हैं ।  कृष्ण की प्रत्येक कृित उनका उठाया हुआ प्रत्येक चरण दैवी ही था- ‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्।’ जीवन में कृष्ण भगवान ने दु:खों को स्वीकार क्यों किया? कृष्ण भगवान का अवतार सामान्य लोगों के लिए था यह नहीं भूलना चाहिए ।  एक भी सूुख ऐसा नहीं था कि जो कृष्ण के चरणों में नहीं था और एक भी दु:ख ऐसा नहीं था कि जिसे   कृष्ण ने नहीं स्वीकारा सुख या दु:ख के प्रसंग में जीवन कैसे जीना है यह उन्होने स्वयं जीकर दिखाया है ।  सुख व दु:ख की तरफ शान्ति से कैसे देखना, यह उन्होने समझाया है ।  प्रवृत्ति या निवृत्ति इन दोनो द्वन्द्वों में फँसे हुए मानव को मार्गदर्शन करनेवाला कौन है?

जो धर्म, व्यक्ति में ओज, तेज, उत्साह, साहस, पराक्रम नहीं भर सकता हो तो उसे धर्म क्यों कहना चाहिए? कौन उसे धर्म कहेगा? जिसमें प्रवृत्ति के गुण, उत्साह, तेज, उद्योग, साहस है वैसे ही तप, अनासक्ति, निरंहकारता ये निवृत्ति के भी गुण है उनको प्राप्त करने का मार्गदर्शन करनेवाला यदि कोई ग्रंथ होगा तो वह गीता है ।  गीता गानेवाले कृष्ण  हैं ।  इसी कारण ‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्’  कहकर कृष्ण को जगत का गुरु माना है ।

तुलसीदासजी का अभिप्राय यही है कि गुरु को हृदय में स्थान देना चाहिये तथा उनसे मार्गदर्शन प्राप्त कर जीवन विकास के लिये आगे बढना चाहिये ।  जब तक जीवन में सच्चा गुरु नहीं मिलता श्रीकष्ण को गुरु मानकर उनके बताये हुए मार्गपर चलकर जीवन विकास साधने का प्रयत्न करना चाहिये ।    

2 comments:

  1. Nice article. Jai Shri Ram Ji, Jai Hanuman Ji. You like to get pdf and lyrics of Shri Hanuman chalisa in Hindiin single article. Please do share your views in comment.

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