Sunday, July 3, 2011


चौपाई:-तुम्हरे भजन राम को पावै । जनम जनम के दुख बिसरावै ।।  (33)
अर्थ : आपका भजन करने से श्रीरामजी प्राप्त होते हैं और जन्म जन्मांतर के दु:ख दूर होते हैं ।
गूढार्थ : तुलसीदासजी लिखते हैं कि हनुमाजी का भजन करने से भगवान राम प्रसन्न होते हैं तथा सब प्रकार के दु:ख बिसरा कर सुख की प्राप्ति होती है ।यहाँ तुलसीदासजी का आग्रह है कि हमें संतो के भजन गाने चाहिए । भक्तो के भजन गाने चाहिए क्योंकि उसमें जीवन विषय तत्वज्ञान भरा हुआ होता है । जीवन समझाया गया होता है क्या होना है, क्या करना चाहिए तथा क्या बनाना चाहिए यह सब उन भजनों में होता है ।  आज तो भजन केवल लोकप्रियता प्राप्त करने का साधन मात्र बन गया है ।  कुछ लोग नये नये फिल्मी गानों पर तुकबंदी करके भजन बनाते हैं, उसमें कोइ्र भाव नहीं होता, न भक्ति होती है, केवल श्रोताओं को खुश करने का प्रयत्न होता है ।  भजन के पीछे कुछ निश्चित दृष्टि, निश्चित ध्येय होना चाहिए तभी उसे भजन कहा जाता है ।  उटपटांग भजनों के गायन से मनुष्य परतंत्र बुद्धि का बनता है । जो परतंत्र बुद्धि के बन जाते हैं, वे न कुछ सोंच सकते हैं, न कुछ कर सकते हैं ।  जहाँ विचार और .ति दोनो बंद हो जाते हैं वहाँ जीवन विकास कैसे होगा? जीवन-विकास के बारे में सोंचना पडेगा । भजन-जीवन विषयक, पथदर्शक, भाववर्धक और भक्ति संपन्न होना चाहिए ।

जो गाया जाता है वह टिकता है ।गद्य नहीं टिकता, पद्य टिकता है ।  आप प्रवचन सुनकर घर गये कि सब भूल जाते हैं, परन्तु एकाध लकीर पद्य में सुनी होगी तो उसे गुनगुनाते रहेंगे वह ध्यान में रहती है । गीता का तत्वज्ञान पद्य में है, वही उसकी महत्ता है कि वह गायी जाती है ।  जो तत्वज्ञान गाया जाता है उसे गीता कहते हैं ।  परन्तु केवल गाने से क्या लाभ?  भीतर से बदलने का प्रयत्न करना चाहिए । जो भजन हम गुनगुनाते हैं उस पर चिंतन कर उस अनुसार जीवन बदलने का प्रयत्न करना चाहिए ।  इसलिए तुलसीदासजी लिखते हैं कि आप भक्तों के भजन गाओ तो आपको प्रेरणा मिलती रहेगी, भाव बढेगा और धीरे धीरे जब उस अनुसार जीवन बदलेगा तो उससे भगवान को प्रसन्नता प्राप्त होगी, ‘तुम्हरे भजन राम को पावै।’

भजन भगवान को प्रसन्न करने के लिए होने चाहिए, न कि लोगों को खुश करने के लिए । सम्राट अकबर के दरबार मे नऊ रत्नों में तानसेन एक रत्न था ।  वह गायन सम्राट था ।  एक दिन बादशाह तानसेन का संगीत सुन रहे थे और उनका मन प्रसन्न हो गया, और प्रसन्नचित्त होकर उन्होने कहा, तानसेन सचमुच तुम्हारे संगीत में जादू है ।  मेरे विचार से इस संसार में तेरे जैसा संगीत, तेरे जैसा गायक मिलना दुर्लभ है ।  तानसेन प्रामाणिक था ।  तानसेन ने कहा, नहीं बादशहा सलामत! मैं आपके विचार से सहमत नही  हूँ ।  बादशहा ने पूछा, तेरे से भी अच्छा कोई गानेवाला है? उसने कहा, हाँ बादशहा मेरे से भी अच्छा  गानेवाला इस संसार में अभी मौजूद है ।  बादशहा की जिज्ञासा बढने लगी उसने पूछा वह कौन है? तानसेन ने कहा, वह है मेरे गुरुदेव, उनका संगीत आपने नहीं सूना यदि आप सूनते तो यह बात आप कदापि न कहते ।  बादशहा की अब तानसेन के गुरु का संगीत सूनने की इच्छा हुयी ।  तानसेन ने कहा, यदि आपको उनका संगीत सूनना है  तो वे यहाँ पर आपके दरबार में आकर गानेवाले नहीं है । आपको उनके पास जाकर ही सुनना पडेगा और आप यदि हुक्म देंगे तो भी वे गानेवाले नहीं है ।  आपको प्रतीक्षा करनी पडेगी और वे जब गायेंगे तभी आपको संगीत सूनने का सौभाग्य प्राप्त होगा।

अकबर और तानसेन दोनो वेष बदलकर जाते हैं, और गुरुदेव का  संगीत सुनने के लिए उत्सुक रहते हैं।  एक दिन प्रात:काल के समय सूर्य भगवान का उदय हो रहा है ।  सूर्य भगवान अपनी लालीमा बिखेर रहे थे ।  पाक्ष्ीाओंकी किलबिलाहट चल रही थी और गुरुजी भगवान गोपाल.ष्ण के मंदिर में, भगवान को रिझाने के लिए तान छेडते हैं तानसेन और अकबर दोनो छुपकर गुरुजी के संगीत का आनंद लेते हैं बादशहा अकबर गुरुजी का संगीत सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं और वे तानसेन से कहते है, तुमने बिलकुल सही कहा गुरुदेव का संगीत सूनने के पश्चात अब तेरे संगीत में थोडा कच्चापन महसूस होने लगा है । बादशहा ने कहा, तानसेन तुमको इतना अच्छा गुरु मिलने पर भी आपके संगीत में थोडी कमी कैसे रह गयी। तानसेन ने जो जबाब दिया वह सुनने लायक है ।  उसने कहा बादशहा उसका कारण है मेरा जो संगीत है वह दिल्ली के बादशहा को खुश करने के लिए है, और गुरुदेव का जो संगीत है वह इस जगत के बादशहा (भगवान ) को प्रसन्न करने के लिए है इसीलिए यह फर्क है ।

आज जो भजन होते हैं वे केवल मनोरंजन के हेतु से लोगों को खुश करने के लिए होते हैं, जबकि भजन भगवान को प्रसन्न करने के लिए होने चाहिए ।  भजन कौन करता है उसका मूल्य है ।  मान लीजिये, आपके द्वारपर आकर एक भिखारी आपका खूब वर्णन करता है तो क्या आप फुल जाते है? एकाध असंस्.त मनुष्य कहने लगा कि आप महान हैं, पवित्र हैं तो क्या आप खुश होंगे? उसी प्रकार जिसे कुछ मांगना है, लेना है वह यदि भगवान का गुणानुवाद गाता है इसलिए कुछ भगवान खुश नहीं होंगे ।  भगवान का भजन गाने के लिए आपके जीवन में कुछ कहने जैसा होना चाहिए ।  तो भजन में मजा आयेगा ।  जिस प्रकार वर्णन करनेवाला व्यक्ति भिखारी हो तो वह योग्य नहीं है, वैसे ही अनधिकारी, अज्ञानी होगा तो भी नहीं चलेगा ।  भगवान कब खिलते हैं? कहनेवाले व्यक्ति के जीवनमें कुछ कहने जैसा जीवन, सद्गुण या आचरण हो तो भगवान खिलते हैं ।  हमारे कर्म और गुण कहने के दो स्थान हैं ।  एक गुरु और दूसरा भगवान ।  भजन के द्वारा यदि स्वरों का आलाप ही प्रकट करके संगीत को ताल देना हो तो सुननेवाले को जरुर रंग चढता है, भगवान खुश नहीं होंगे ।  संगीत, वादन, स्वर इनका जो माधुर्य होगा उससे श्रोता व गायक खुश होंगे, भगवान खुश नहीं होंगे ।

जीवन में कुछ करार और बंधन होना चाहिए ।  जो तार है - बंधन है उसको कहीं बांध दो तो संगीत निकलता है ।  कहीं न कहीं अपने को बांध लो ।  जीवन में एक करार करो । उससे जीवन में संगीत निकलेगा ।  बिना बंधन का मनुष्य उन्मत्त साँड जैसा होता है ।  कुत्ते के गले में पट्टा हो तो उसको कोई मार नहीं सकता ।  यह पट्टा यानी भक्ति! मेरा कोई मालिक नहीं है ऐसा मत कहो ।  मेरा कोई मालिक है इसलिए यह अन्तिम साधना है ।  जीवन संगीत मनुष्य को निर्माण करना चाहिए ।

संगीत के तीन प्रकार है । साधना संगीत, विकास संगीत और प्रेम संगीत । ये तीन बैठके हैं । तीनों बैठकों पर अलग अलग व्यक्ति हैं । उस गहराइयों में जाना अच्छा है । साधना जीवन का एक भिन्न संगीत है ।  संगीत एक शास्त्र है ।  संगीत शास्त्र अध्यात्म में से निकला है ।  संगीत शास्त्र जीवन की उत्क्रांति (Evolution) दिखाता है ।  ‘सा.....रे.....ग.....म.....प......ध.... नि......सा’  पर संपूर्ण संगीत निर्भर है ।

जीवन विकास संगीत है ।  जीवन में उत्तरोत्तर विकास होना चाहिए ।  सा यानी सागरी प्राणी । रे यानी रेतपर चलनेवाला प्राणी ।  ग यानी गगनविहारी प्राणी ।  म - मनुष्य, केवल मनुष्य रहकर नहीं चलेगा ।  प यानी पराक्रमी, पवित्र! मनुष्यकों पराक्रमी, पवित्र बनना है, तभी जीवन में संगीत प्रकट होगा। दूसरे को पिघलाना नहीं है, दूसरों के लिए पिघल जाना है ।  उसमें उदारता है, संंगीत है ।  ध यानी धर्म से चलनेवाला ।  नि यानी नियमन करनेवाला और सा यानी जिसे साक्षात्कार हुआ है वह! इस प्रकार  अमीबा से प्रारंभ करके मनुष्य मुक्त होने तक का वर्णन ‘सा रे ग म प ध नि सा’ में हैं ।  यह जीवन संगीत बहुत सुन्दर है ।

प्रथम अमीबा ।  उसमे से उत्क्रांति के नियम ( Law of Evolution ) के अनुसार यह शरीर कैसा उत्क्रांत ( Evolve ) होता हेै उसका बहुत बडा शास्त्र है ।  परन्तु जो जीवन हम जी रहे हैं उसे जानने की भी हम परवाह नहीं करते ।  ऐसा वर्ग अपने को बुद्धिमान समझता है । सचमुच वह मूर्खता से समझ बैठा है कि ‘हम बुद्धिमान हैं।’  जीवन क्या है? किसलिये है? उसका रुप कैसा है? आदि बातें समझने के लिए हमारे पास समय नही है We have no time ऐसा कितने ही लोग कहते हैं कि हमारे पास मरने के लिये भी फुरसत नहीं है ।  परन्तु मरनेके लिये तो फुरसत निकालनी ही पडेगी ।  कदाचित्् यह देह फिर से नहीं मिलेगा ।  मरने के लिये फुरसत है या नहीं यह आपसे कोई नहीं पूछता ।  इस संबंध में आपको चुनाव की अथवा वाणी की स्वतंत्रता नही है । ( You have no choice and no voice ) ‘उठो’ कहने पर उठना ही पडता है ।  जीवन क्या है? यह समझ लेना चाहिये और जिसको जीवन समझ पडा वही बुद्धिमान कहा जाता है ।  फिर से यह खोेखा मिलनेवाला है अथवा नहीं, किसे मालूम?

‘सा रे ग म प ध नि सा’ यह उत्क्रांति है ।  प्रथम सागरी प्राणी क्यों होता है? पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कमेन्द्रियाँ, पंचप्राण, मन, और बुद्धि इन सत्रह तत्वों से लिंग देह बनता है, उसकी शक्ति कैसे पुष्ट करनी, मनकी ग्रहण शक्ति कैसे बढाना वह उत्क्रांति  है ।  अत: तुम ग्रहण करते जाओ ।  छोटा बच्चा कम ग्रहण करता है, बडा मनुष्य अधिक ग्रहण करता है ।  उसमें भी अमुक ग्रहण होता है, अमुक ग्रहण नही होता । उससे ही शक्ति का विकास होता है ।  इस जीवन में सागरी प्राणी, रेतपर चलनेवाला प्राणी, गननविहारी प्राणी इस तरह से विकसीत बना हुआ जीव यानी मनुष्य ।

‘दुर्लभं मानुषे जन्म’- फिर मनुष्य बनेगा? मनुष्य बनना है, तब पराक्रमी बनो। मनुष्य को रोते रहना नहीं चाहिए। ‘हुआ तो करुंगा’ नही! ‘मैं पाऊँगा ही’ इसको पराक्रम कहते हैं ।  कमाना है, होना है, बनना है यह आग्रह तुम्हारे जीवन में नही होंगा तो तुम मनुष्य नहीं ।  अब क्या पाना है? यह तुम्हारा विकास (Development) कितना हुआ उसपर निर्भर है ।  जितना विकास उच्च, उतनी प्राप्त करने की वस्तु भी उच्च! जितना बौद्धिक विकास निम्नस्तर का उतनी प्राप्य वस्तु भी निम्नस्तर की ! इसलिए पराक्रमी बनो। जीवन में आग्रह रखो । ‘मुसीबताें को दूर करके, उनका सामना करके मैं प्राप्त करुँगा ही’ इसको पराक्रमी कहते हैं ।  लोगों तथा विषयों के आक्रमणों के सामने  पराक्रम दिखाना होगा ।

संपूर्ण विश्व मेरा, प्रभु के प्रति भाव तोडने के लिए आयेगा, फिर भी मैं वह भाव बनाये रखूँगा, संभालूँगा।  भगवान! मैने 65 वर्षों तक भाव सँभाला, इतना ही नहीं, उसको वृद्धिंगत करके आया हूँ ।  ऐसा कहना बहुत कठीन है ।  हमारे आसपास का वातावरण नष्ट करना हमारा भाव नष्ट करने जैसा ही होता है। बचपन में मौसी पर कितना भाव होता है ।  मौसी को देखते ही आनन्द होता है, परन्तु बडा होने पर पता चलता है कि मौसी स्वाथ है, फिर भाव कम हो जाता है ।  इस प्रकार स्थान स्थान पर जो भाव था वह कम हुआ है ।  सत्तर साल का मनुष्य यानी भाव शूण्य मनुष्य! मैं भाव बनाये रखूँगा, सँभालूँगा,  बढाऊँगा इसका नाम पराक्रम!

जीवन पवित्र बनाओ ।  पवित्र कौन? जो घिसता है वह ।  स्वच्छ यानी पवित्र नहीं ।  गन्दा हो तो भी चलेगा, परन्तु वह घिसता होगा तो पवित्र! वेश्या का वस्त्र लाँड्री में धूला हुआ होगा तो भी पवित्र नहीं । परन्तु माँ का वस्त्र मलिन होगा, दस जगहों में थेगलियाँ लगाया हुआ होगा तो भी लडका  सँभालकर रखता है ।  माँ के स्मृति के रुपमें ओढता है ।  जो मेरे लिये घिसती थी उस माँ का वस्त्र पवित्र ।  लडके के लिये वह वस्त्र पवित्र ।  जो जिसके लिए घिसता है वह उसके लिये पवित्र ।  भगवान की दृष्टि में यह जीव पवित्र कब बनेगा? वह भगवान के लिए घिसता होगा तो पवित्र ।  भगवान के लिए घिसो ।  ‘ध’ यानी धर्म के अनुसार चलनेवाला ।  धर्म के लिए जीनेवाला धर्मपर अडिग श्रद्धा रखनेवाला ।  जीव के धर्म बदलते रहते हैं ।  धर्म की आज्ञा का पालन करना यह एक धर्म हो सकता हैं ।  भगवान को पहचानना यह जीव का दूसरा धर्म हो सकता है ।  भगवान का बनना यह भी जीव का धर्म हो सकता है ।  वैसे ही भगवान में मिल जाना यह भी जीव का  धर्म हो सकता है ।  उत्तरोत्तर धर्म बदलता है जितना हमारा विकास हुआ होगा उतना ही हमारा धर्म उच्च! एक परीक्षा उत्तीर्ण होकर अगली कक्षा में जाना । परन्तु हमको प्रत्येक कक्षा में once more ही मिलता है ।  गाने में once more अच्छा, परन्तु जीवन में once more अच्छा नहीं है ।  कितने ही विद्यार्थी अगली कक्षा में जाते ही नही    मानो वे शाला के आजीवन सदस्य ही हैं ।  जीवन में उत्तरोत्तर विकास होना चाहिए ।  धर्म उत्तरोत्तर बदलते रहो । ‘नि’ अर्थात नियमन! जीवन में नियमन आना चाहिए । 

शास्त्रनियमन, आत्मनियमन, ईशनियमन ऐसे भिन्न भिन्न नियमन हैं । आज आत्मनियमन ही नहीं रहा । मुझे अपने कोई नियम ही नहीं है ।  दूसरा कोई नियम बनायेगा वह नियम! मनुष्य के अपने लिये कोई नियम होने चाहिए ।  दूसरा कोई मुझे नहीं देखता हो, परन्तु मैं स्वयं तो अपने को देखता हूँ न? वेदान्त में एक कथा है- गुरु शिष्य को एक पक्षी देते हैं और कहते हैं कि इस पक्षी को ऐसे स्थान पर जाकर मारो कि कोई भी नहीं देखता हो ।  गाँवमे तथा गाँव  के बाहर कोई न कोई तो देखता ही है ।  जंगल में जाकर प्रयत्न किया तब भी लगा कि दूसरा कोई नहीं, परन्तु मैं स्वयं तो देख रहा हूँ, ऐसी ऐसी अवस्था में वह वापस गुरु के पास आता है । 

जहाँ किसी की सत्ता नहीं वहाँ अपनी सत्ता तो है ही ।  जहाँ किसी प्रकार के नियम नहीं होंगे वहाँ मेरे अपने नियम होने चाहिए । यह जिसने समझा है उसको विकसीत मनुष्य कहते हैं ।  आत्मसत्ता यह उन्नत मनुष्य का लक्षण है ।  हमारी सभी निष्ठा ‘दरोगा निष्ठा’ है ।  हम नियमित हैं । क्योंकि पुलिस खडी है इसलिये ।  पुलीस नहीं होगी तो हम नियमित नहीं रहेंगे ।  रात्रि के बारह बजे एक मोटार गाडी आती है ।  तब ड्राइव्हर से कहते हैं, इधर से चलो,  यहाँ पुलिस नहीं है । ‘पुलिस हो तो कानून का पालन करेंगे’ इसको ‘दरोगानिष्ठा’ कहते हैं ।

ऋषि जीवन समझाते हैं ।  वे मूर्खता नहीं समझाते ।  ऋषियोंने केवल आदर्श नहीं लीखे, परन्तु जीवन को आदर्श की ओर कैसे जाना यह समझाया ।  मैं अपना ही नियामक हूँ ऐसा जब तक नहीं लगता तब तक मनुष्य मनुष्य नहीं है ।  आत्मनियमन रहित मनुष्य बिना नथनी के बैल जैसा अथवा बेलगाम घोडे जैसा है ।  आत्मशासन यह बडे से बडा विकास है ।

‘सा रे ग म प ध नि सा’ यह महान संगीत है ।  जीवन उत्तरोत्तर प्रगति करता जाता है । ‘म’ तक हम आये हैं ।  मनुष्य बन गये ।  यहाँ तक क्रम (Rotation) के अनुसार तो आ गये ।  कतृ‍र्त्व के कारण आये अथवा  नहीं किसे मालूम? अब ‘म’ में पराक्रमी बनना है, अत: पराक्रमी बनो, पवित्र बनो। उसके लिये विकास साधना चाहिये ।  ‘देवं ज्ञात्वा’ देव को जानलो ।  ‘फिर ऐसा हुआ और वह मोह में फँस गया। ‘कैसे फँसा? मेरी अपनी निचित बैठक होनी चाहिए ।  मुझे कोई एकाध हरि नोट से विचलित नहीं कर सकेगा, पदच्युत, ध्येयच्युत नहीं कर सकेगा ।
आज किसी भी बुद्धिमान (Highly intellectual)  को कोई भी पूँजीपति ( Capitalist ) सौ रुपये का नोट दिखाकर खरीद सकता है ।  थोडा सा वेतन ज्यादा मिला कि फॅक्ट्री-नौकरी बदलना! ( हम मनुष्य खरीद सकते हैं ) We can purchase the person । पर मुझे कोई खरीद नहीं सकेगा ।  मेरी अपनी बैठक है ।  ऋषियों के  दिखाए हुए मार्ग से मुझे उन्नत-पराक्रमी मनुष्य बनना है ।

‘ध’ यानी तुम्हारे उत्तरोत्तर कोई धर्म होने चाहिए ।  सामान्य धर्म तो हैं ही ।  पुत्र का धर्म क्या है? पिता की आज्ञा का पालन करना ।  मैं यदि जीव हूँ तो मेरा धर्म भगवान की आज्ञा का पालन करना है । भगवान सर्जक हैं इतना ही नहीं, अपितु वे मुझे सँभालते हैं, सुलाते हैं, जगाते हैं । उनकी आज्ञा का पालन करना, उनको पहचानना, उनको प्रिय बनना, उनमेे विलीन होना ये मेरे धर्म हैं। ये धर्म उत्तरोत्तर वृद्धिंगत बनने चाहिये । धार्मिक बनो। मनुष्यमें अस्मिता होनी चाहिए। जिसके पास अस्मिता और समर्पण होता है उस व्यक्ति को धार्मिक कहते हैं ।

‘नि’ अर्थात् नियमन! तुम  अपने नियामक बनो। फिर ‘सा’ यानी  साक्षात्कार ।  जीव उत्क्रांत Evolve    होते होते साक्षात्कार तक पहुँचता है ।  किसका साक्षात्कार? प्रथम आत्मस्वरुप का साक्षात्कार मैं कोई हूँ और मैं कुछ काम के लिये आया हूँ ।  मुझे इतना वैभव बुद्धि मिली है ।  निश्चित ही भगवान का मुझ पर प्रेम है, आशा है, आकांक्षा है ।  मुझे  अपनी कल्पना के अनुसार दौडने की शक्ति नहीं दी है, इसलिए अंतमें आत्म साक्षात्कार होना चाहिए ।

आत्म साक्षात्कार होने पर प्रभु सम्बन्ध का साक्षात्कार ।  भगवान! मैं अधान्तर में नहीं हूँ ।  मेरी नब्ज आपके हाथ में  है ।  मैं आपके साथ जुडा हुआ हूँ ।  आपका हूँ ।  माँगना हो तो आपके पास ही माँगूँगा। पत्नी  पडोसी के पास माँगने जाती है तो पतिकी, घर की बेआबरु होती है ।  तुम्हारा भगवान के साथ सम्बन्ध होगा तो भगवान के पास ही माँगना चाहिये ।  इस प्रकार देव को पहचानकर जीव सब बंधनों से मुक्त होता है ।  इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दु:ख बिसरावै।’  इसप्रकार विकास  साधने पर जीव भगवान के धाम जाता है, तथा वह प्रभु भक्त कहलाता है, इस बारेमें तुलसीदसजी हमें अगली चौपाई में समझाते हैं । 

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