Saturday, July 2, 2011

चौपाई :- सब सुख लहै तुम्हारी सरना । तुम रच्छक काहू को डरना ।।   (22)
अर्थ :  जो भी आपकी शरणमें आते है उन सभी को आनन्द एवं सुख प्राप्त होता है और आप रक्षक है, तो फिर किसी का डर नहीं  रहता ।
गूढार्थ :  तुलसीदासजी यहाँ भगवान की शरणमें जाने के लिए कह रहें। शरणागति एक महान साधन है। किसी की शरण जाओ, किसी का बन जाओ। उसके बिना जीवन में आनंद नहीं है। भगवान आधार है। गलतियोंको कहने का स्थान अर्थात् भगवान। शरणं यानी गति। भगवान हमारी गति हैं। दूसरे किसकी शरण जायँ ? एक कवि ने कहा है :-
जीवन नैया डगमग डोले तू है तारनहार, कन्हैया तेरा ही आधार
जीवन नौका डगमग डोल रही है । तनिक इधरसे प्रचुरता या अभाव अथवा दु:ख का सुख का झोंका आता है तो हमारा शरीर इधर उधर डोलने लगता है । ऐसी जीवननौका का आधार, गति और शरण भगवान हैं ।  जो उनको पकडे रहते हैं उनका कुछ बिगडनेवाला नहीं है । ‘सब सुख लहै तुम्हारी सरना, तुम रच्छक काहु को डरना’।, ऐसा तुलसीदासजी ने लिखा है ।

एक बार संत कबीर रास्ते से जा रहे थे । उसी रास्ते से एक और साधु चले जा रहे थे । साधु ने एक स्त्री को चक्की चलाते हुए देखा । वह स्त्री गेहूँ चक्की में डालती थी व पीसती थी । वह देखकर साधु रोने लगा। अनेक लोग इकठ्ठा हुए। वे रोने का कारण पूछने लगे। परन्तु साधु कुछ नहीं बोलता । इतनेमें कबीर वहाँ आये और रोने का कारण पूछा तो साधु ने उत्तर दिया क्या कहूँ, ये सुन्दर साबित गेहूँ चक्की के अन्दर गये और आटा बन गये, यही देखकर रोता हूँ। कबीर ने उस स्त्री से चक्की का पाट उठानेके लिए कहा । स्त्रीने पाट उठाया । उसे देखकर साधु तुरंत हँसने लगा । कबीर ने कहा-  देखा, जिन्होने किल का आश्रय लिया है, वे साबित ही रह गये हैं ।  ऐसा ही इस जगत्में चल रहा है- ‘यंत्रारूढा निमायया।’ हमारा आटा बनता जाता है ।  परन्तु कबीर के कहने के अनुसार जिसने कील ( भगवान ) को पकडा है, वह साबित रह जाता है । दूसरोंका आटा बन जाता है । जगतमें हमारा आधार कौन ? भगवान !

शरणम् यानी रक्षण (Protection) सहायता (Help) और बचाव (Defence)। ‘भगवान! मेरी रक्षा करनेवाला तू है, ‘तुम रक्षक काहु को डरना’ ऐसा तुलसीदासजी लिखते हैं। मेरी रक्षा भगवान ही करते हैं। बचाव भी वही करते हैं तथा सहायता भी वही देते हैं। मेरी असली शरण भगवान ही हैं। आश्रय भगवान ही हैं।

‘शरणागति’ याने मेरा कुछ नहीं है, सब तुम्हारा है। मन बुद्धि और अहम् भी मेरे नहीं है। शरणागति के लिए अंग्रेजी में (Surrender) शब्द है, परन्तु यह शब्द अच्छा नहीं है, इसमे अगतिकत्ता होती है। अगतिक बनने पर जो दिया जाता है उसे शरण ( Surrender) होना, ऐसा कहा जाता है। भक्त की ऐसी स्थिति नहीं है, वह अगतिक नहीं है। वह जो मन, बुद्धि, अहम् भाव से देता है, उसे समर्पण कहते है। ‘भगवान ! मन, बुद्धि, अहम् ये सब मेरे नहीं है, आपके हैं और आप मेरे हैं। अत: संपूर्ण विश्व मेरा है।’ मेरा कुछ नहीं है यह प्रथम बात है और आप मेरे हैं, अत: संपूर्ण विश्व मेरा है ऐसी स्थिति आती है, तब उसे हम ‘शरणागति’ कहते हैं।

एक महापुरूष ने कहा ‘श्रीकृष्ण: शरणं मम’- यह महान मन्त्र है। यहाँ ‘शरण’ शब्द का अर्थ है संरक्षण (Protection-Defence) और मदद (Help) करना, पोषण करना। शब्दकोष में देखिये ‘शरण’ शब्द का अर्थ क्या है। नहीं तो अर्थ क्या होता है ? ‘श्रीकृष्ण: शरणं मम’ यानी श्रीकृष्ण मुझे शरण आ गये, ऐसा अर्थ होता है। जिनको संस्कृत नहीं आती है, वे ऐसा अर्थ करते हैं।

 ‘श्रीकृष्ण: शरणं मम’। ‘मम’ यानी मेरा । मेरा रक्षण करने वाले, पोषण करने वाले व मदद देने वाले श्रीकृष्ण है। मुझे किसी की हाथ की मदद मिलती होगी, परन्तु वह उन्होने ही दी है, उसे भगवान ने ही भेजा है। स्वकर्म से पोषण नहीं बल्कि अज्ञात की कृपा से पोषण है। आज तक किसी की कृपा स्वीकार नहीं की परन्तु भगवान ! आपकी .पा स्वीकार करने में मुझे आनंद है। साधक अवस्थामें किसी की .पा नहीं लेनी है और सिद्ध अवस्थामें प्रभु की .पा स्वीकारनी है।

मानव की कुछ मानसिक आवश्यकताएं  हैं  जिनकी पूर्ति करने के लिए योगदर्शन का कथित पुरूष विशेष: ईश्वर: जरूरी है। साकार प्रभु ही मानव की निम्न लिखित आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है। हमारा पोषण, सरंक्षण भगवान ही करतें हैं।

1) पोषणेच्छा :- अपना, अपने परिवार का एवं समाज के अन्य लोगाें का पोषण करने की ईच्छा मनुष्य मात्र में रहती है। आत्मीय जनाें के पोषण में पारिवारिक भावना है जबकि अन्य जनो के पोषण में सांस्कृतिक दृष्टि का विकास दृष्टिगोचर होता है।

इसी प्रकार मन का भी पोषण होना चाहिए। पुष्टिमार्ग का वास्तविक अर्थ यही है। भावपुष्टि हुए बिना भक्ति करना संभव नही है। पुष्टि तदनुग्रहम् पुष्टि भगवद्कृपा है।

2) संरक्षणेच्छा :- मनुष्य को सतत लगता है कि मेरा संरक्षण कोई करे और किसी का सरंक्षण मैं करूँ इसीलिए ही तो अपना सामथ्‍​र्य बढाने के लिए वह व्यायाम करता है। इतना ही नही दैवी शक्ति भी उसके पीछे खडी रहे, इस भावना से वह उपासना भी करता है। इसके लिए हनुमान उपासना विशेष कर लोग करते हैं।

स्वास्थ्य बनाये रखने के लिए सच्ची भूख लगना या गहरी निंद मिलना बहुत जरुरी है।  केवल पैसे से भूख या नींद प्राप्त नहीं होती।  इसलिए मनुष्य ईश्वर का अवलम्बन लेता है और उनकी शरण में जाता है।
शरणागति भक्ति का महान साधन है। परन्तु ज्ञान मार्गमें मनुष्य जैसे जैसे बढता है, वैसा उसे पुरुषार्थ का नशा चढता है।  एक बार कैफ चढ गया कि शरणागति एक महान साधन है इस बात की विस्मृति हो जाती है।  इस अहंकार को निकालने के लिए भगवान की शरणागति आवश्यक है।  इसलिए तुलसीदासजी लिखते है कि, भगवान की शरणागति में ही सुख है, ‘सब सुख लहै तुम्हारी सरना’।

हम मुहँसे बोलते हैं :- अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम! एकमात्र आपही मेरी शरण हैं और कोई नहीं है ।  और उसी समय जेबमें जन्मपत्री भी रखते हैं ।  फिर हम उनकी शरण क्यों आये है ?  भगवान निचित ही विचार करते होंगे, इसका अर्थ यह कि, भगवान ! यदि आपसे बना तो ठीक है, अन्यथा मैं ज्योतिषी बाबा से जाकर पुछूँगा कि, कौनसा गृह विपरीत है । उसका जप करुँगा । अन्यथा शरणं नास्ति कहते समय हम समझते हैं, भगवान को संस्.त आता नहीं है अथवा हमारे जेबमें जन्मपत्री है, यह उनको दिखाई नहीं देता ?  भक्त को कठोर प्रतिज्ञ रहना चाहिए । कठोर प्रतिज्ञ यानी मुझे केवल आप ही चाहिये, मैं प्रत्येक स्थिति में आपसे जुडा हूँ।  मुझे दुसरा कोई नहीं चाहिए ।  इसमें अनन्यता है ।  मुझे जिस स्थिति में रखना हो उस स्थितिमें रखो।  भक्त ऐसा होता है ।  हम काहे के भक्त हैं !

प्रारब्ध, भाग्य, भविष्य, देखनेवाले लोग भी अहंकारी है।  अर्थात् प्रारब्ध भाग्य नहीं होते ऐसा मैं नहीं कहता हूँ मगर उससे अहंकार आता है।  भगवान का प्रसाद मानकर चलेंगे तो उसमें अलौकिक आनंद है।
प्रारब्ध से पैसे मिलते हैं ऐसा लगने पर .ति का अहंकार कम होता है। मगर प्रारब्ध का अर्थ क्या है?  गत जन्ममें कुछ कर्म किये, उससे जो जमा हुआ होगा उसीका नाम प्रारब्ध है।  अन्तमें भाग्य का अहंकार आता हैं।
हमारे पूर्वजों को पता था कि, भाग्य मानकर भी अहंकार आता है।  इसीलिए पैसा मिलने पर वे कहते थे कि, बडों के आशीर्वाद से पैसे मिले।  बडों के पुण्य से, आशीर्वाद  से धन मिला, ऐसा बोलने से कर्म या भाग्य का अहंकार नहीं आता है,  इसी वजह से अहंकार कम होता है।  सचमुच पुराने जमाने के लोगोंने जो पध्दति स्वीकारी थी वह बहुत अच्छी थी।  बडों का पुण्य फलित हुआ है, ऐसा कहने में, समझनेमें, अहंकार कम होता है।

प्रारब्ध से मिला, ऐसा कहते हैं मगर प्रारब्ध कौैैन देखता है ?  कौन संभालता है? भगवान।  वह भगवान के हाथ में हाथ दे देता है।  वह भगवान के साथ विवाह कर लेता है। शादी के बाद स्त्री का प्रारब्ध नहीं रहता।  क्योंकि वह पति के साथ जुड जाती है।  उसका स्वतंत्र प्रारब्ध नहीं रहता।  पुराने जमाने की स्त्री अपनी जन्मपत्रिका, प्रारब्ध किसीको नहीं दिखाती थी।  इसका कारण ‘मैने अपने पति के हाथ में अपना हाथ दे दिया है, अब मेरा स्वतंत्र भविष्य रहा ही नहीं ।  अब जो कुछ मिलेगा वह पति के कतृ‍र्त्व से मिलेगा ऐसा वह मानती थी।

वास्तव में इसी के प्रारब्ध से मिलता होगा मगर वह मानती थी कि, पति के कतृ‍र्त्व से मिलता है ।  हम देखते हैं कि कितनी ही लडकियाँ इतनी अच्छी होती है कि जिस घर में वे जाएं उस घर की उन्नति (आर्थिक दृष्टि से) होने लगती है ।  उसी का प्रारब्ध फलता फूलता है मगर स्त्री वैसा बोले तो घर का आनन्द खत्म ‘मेरा भाग्य ही ऐसा है कि मुझे गाडी मिली’ ऐसा बोलने में अहंकार है ।  स्त्री ऐसा ही समझती है कि, मैने अपना हाथ तुम्हारे हाथमें दे दिया है ।  अब मेरा कोई प्रारब्ध नहीं है।  अब जो मिलता है वह तुम्हारे कतृ‍र्त्व से, प्रारब्ध से मिलता है।  ऐसा बोलने में काव्य है, मेरे भाग्य से मिला ऐसा बोलने में अहंकार है ।

लडका बाप से कहता है, ‘पिताजी, आपकी .पा से मिला, आपके आशीर्वाद से मिला, आपके प्रेम से मिला’ उसमें आनन्द है ।  ‘भगवान ! यह आपका प्रसाद है’ ऐसा बोलने में अहंकार नहीं है ।
जिस दिन जीव अपना हाथ भगवान के हाथ में सौंपता है उस दिन से उसकी हस्तरेखाएं मिट जाती है । उसकी जन्मपत्रिका भी मिट जाती है।  वह अपनी जन्मपत्रिका किसी को नहीं दिखाता, उसकी दृढ भावना होती है
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम ।
तस्मात् कारुण्य भावेन रक्ष रक्ष परमेश्वर ।।
तुलसीदासजी भी यही बात कहते हैं, और गीता भी यही बात कहती है कि हाथ में हाथ देने की तैयारी होनी चाहिए, तो ही भगवान हाथ स्वीकार करेंगे।  कोई भी आदमी हाथ में हाथ दे तो भगवान थोडे ही उसे स्वीकारेंगे ?  भगवान को अच्छा लगे ऐसी स्थिति आने पर ही भगवान उसका हाथ स्वीकारेंगे, श्रीमद्आद्यशंकराचार्य, वल्लभाचार्य, रामानुजाचार्य, याज्ञवल्क्य वगैरह के हाथ भगवान ने अपने हाथ में लिये है, अत: उन्हे अपना प्रारब्ध नहीं है।

क्या ऐसे महापुरुषों के जीवन में दु:ख आयेंगे ?  जरुर आयेंगे, मगर उसके पिछे कोई कारण होंगे।  कदाचित सुख दु:ख आने पर जीवन कैसा जीना यह जगत को दिखाना होगा, इसी कारण दु:ख आते होंगे।  उनके दु:ख प्रारब्ध के कारण नहीं आते।  उनकी जन्मपत्रिका ही नहीं होती।

लोग तो श्रीकृष्ण की जन्मपत्रिका निकालते हैं । फिर कहते हैं कि उनकी जन्मपत्रिका में योग ही ऐसा था कि उनका जन्म जेलखाने में हुआ।  महान आचार्यों के जीवन में जो सुख दु:ख आये, क्या वे गत जन्म के प्रारब्ध से आये थे ?  नहीं ।  उन्होने अपने हाथ भगवान के हाथ में सौंपे थे, अत: उन्हे प्रारब्ध नहीं था।  भगवान को जैसे उन्हे रखना हो वैसे वे रहते थे । भगवान ने स्वयं गीता में कहा है :
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप ।।
                    (गीता 4/5)
(हे अर्जून मेरे और तेरे कई जन्म व्यतीत हुए हैं, मैं उन सब को जानता हूँ । हे परंतप, तुम नहीं  जानते)

इस प्रकार इन महापुरुषों के कई जन्म होते हैं, मगर किसलिए? वे वैश्विक आवश्यकता (Universal necessity) के रुप में जन्म लेते हैं।  भगवान भी जन्म लेते हैं तो आचार्य, ऋषि, सन्त जन्म क्यों न ले ?  मगर न उनकी जन्मपत्रिका होती है, और न उनका कोई प्रारब्ध होता है।  उनके जीवन में जो कुछ सुख दु:ख आते हैं वे भगवत्प्रसाद के रुप में आते हैं।  इस दृष्टि से धीरे धीरे उत्तरोत्तर अहंकार कम होता जाता है।

अति उच्च स्थिति पर पहुॅंंचा जीव कहता है कि, ‘मुझे प्रारब्ध का पता नहीं, मैने अपना हाथ भगवान के हाथ में दे दिया है।  अत: मेरे हाथ की रेखाएं मिट गयी है।  अब मेरे जीवन में जो कुछ भी आयेगा वह भगवान द्वारा भेजा हुआ होगा।  ऐसी शरणागति अपेिक्षत है ।

भगवान !  ‘मैं तेरा हूँ ’ यह अहंकार नहीं कहा जाता है।  भगवान तेरा भेजा हुआ प्रसाद स्वीकारता हूँ, ऐसा अहंकार रखकर भी मनुष्य निर्भयता से जगत में रह सकता है।  उनका जीवन सच्चे अर्थ में  तुष्यन्ति च रमन्ति च  है ।

सभी के पास एक ही, केवल स्वार्थ की आँखे हैं। भगवान के हजारों नेत्र हैं।  उनके विशुध्द वात्सल्य के नेत्र हैं, विशुध्द कारुण्य के नेत्र हैं, स्वार्थरहित वात्सल्य, स्वार्थरहित कारुण्य भगवान के पास हैं।  इसलिए भगवान को पकडना चाहिये ऐसा तुलसीदासजी का आग्रह है ।

एक धनवान व्यक्ति था, तनिक सात्विक था ।  वह एक संन्यासी के पास गया व उसको नमस्कार किया ।  तब संन्यासी खडा होकर उस धनवान व्यक्ति को नमस्कार करने लगा ।

धनवान व्यक्तिने कहा, ‘महाराज ! आप मुझे नमस्कार क्यों करते है ? ‘तब संन्यासी ने पुछा, ‘तुमने मुझे नमस्कार क्यों किया ? ’धनवान कहने लगा,‘ हम तो माया में पडे हैं, यह चाहिये, वह चाहिये, करते करते हमारा जीवन बिता रहे हैं।  आपने सब कुछ छोड दिया है, महान त्यागी हैं, इसलिए मैने आपको नमस्कार किया।

तब संन्यासी ने पूछा, ‘ तुम भगवान को मानते हो या नहीं ? ’ धनवान ने कहा, मानता तो हूँ! परन्तु अबतक क्या करना है यह मालूम नहीं हुआ है, मालुम हुआ तो भी तत्काल वैसा बन नहीं पाता।  ऐसा अनेकों का होता है। दुर्योधन ने यही कहा है -
जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति:।
जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्ति:।।
( दुर्योधन ने कृष्ण से कहा था, ‘ मैं धर्म जानता हूँ परन्तु उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती। अधर्म क्या है यह भी मैं जानता हूँ, परन्तु उससे मैं निवृत नहीं होता हूँ। )
धनवान व्यक्ति ने भी वही कहा, ‘ सत्कर्म करना चाहिये परन्तु वह हो नहीं पाता। ’
संन्यासी ने पूछा, ‘ तुम भगवान को मानते हो न ? ’ तो बताओ, भगवान कौन है? ‘भगवान इस विश्व के कर्ता हैं,’ धनवानने उत्तर दिया।

सन्यासी ने कहा, ‘ भगवान विश्व के कर्ता हैं तो इस विश्व से वे महान हुए या नहीं ?’
धनवान बोला, भगवान इस इस विश्व से महान तो हैं ही। ’                                     

तब संन्यासी ने समझाया, ‘ मैने तो विश्व का त्याग किया है परन्तु तुमने तो विश्वंभर, जो विश्व से भी बडे हैं उनको ही छोड िदया है । अत: तुम मुझसे बडे त्यागी हो, इसलिए मैने तुम्हें नमस्कार किया। तात्पर्य - भगवान को नहीं छोडना चाहिए ।

‘भगवान मैं तेरा हूँ’, ‘श्रीकृष्ण: शरणं मम’। यह बहुत बडा मन्त्र है । श्रीकृष्ण: शरणं मम यह मन्त्र महान भक्त के जीवन में से आया है । यह मन्त्र शब्द नहीं है । यह मन्त्र ज्ञान है, अनुभव है । यह मन्त्र भगवान पर रहा विश्वास है। यह मन्त्र भगवान पर रही प्रीति है। शरणं शब्द का अर्थ क्या है ? आधार, आश्रय तथा मदद। तू मेरी शरण है । मेरी रक्षा करनेवाले मेरी देखभाल करने वाले तुम हो, प्रभु ! जैसे जैसे मेरे पास तुम्हारे प्रवाह की शक्ति आने लगेगी वैसे वैसे कई लोग उसका दुरूपयोग करने के लिये मुझे हिलाते रहेंगे, विवश करते रहेंगे। वे मुझे मूर्ख बनायेंगे और मैं मूर्ख बन जाऊँगा । भक्त को इस बात का दु:ख रहता है। इसलिए भक्त को आधार (Protection) चाहिए।

व्यवहार में आधार कौन देता है ? प्रभु देते हैं। श्रीकृष्ण: शरणं मम यह विश्व एक दूसरे को स्वार्थ से देख रहा है। दुनिया को स्वार्थी मानकर हँसने का कारण नहीं है, क्योकि तुम भी उतने ही स्वार्थी हो। पत्नी स्वार्थी है, अत: प्रेम करती है। तेरा भी कहाँ, पत्नी पर नि:स्वार्थ प्रेम है ? इस स्वार्थी जगतमें स्वार्थी प्रेम है। ‘ स्वार्थी विश्व सकल यह, तू ही सखा सच्चा ’ ऐसा हम आरती में बोलते है। इ्स स्वार्थी प्रेम में तुम ही मेरी देखभाल करने वाले हो, तुम मेरी देख भाल करते हो, मेरी मदद करते हो ।

किसान गणपति की पूजा करतें है। भाद्रपद सुद चौथ के दिन घर घर में गणपति की पूजा होती है। क्यों ? लाखों रूपयो की जायदाद खेत में पडी है, उनके पैसे बैंक में नही, घर में नही, बल्कि कीचड में है। तब इस फसल की रक्षा कौन करेगा ? तुम कितनी रक्षा करने वाले हो ? उस दिन गणपति की पूजा करते हैं। यह सरंक्षण यंत्रणा (Defence mechanism) है। सबको आधार किसका है ? भगवान का आधार है, वही सब के संरक्षक है। हमें उनकी शरण चाहिए। दूसरा हमें मदद देने लगे तब हमें लगता है कि भगवान ने इसे निमित्त बनाया है। करनेवाला कोई आदमी नहीं बल्कि भगवान हैं।

श्रीकृष्ण: शरणं मम यह अनुभव में से, ज्ञानमें से, भाव में से आैर भक्ति में से निकले उद्गार हैं। महापुरूषों के श्रीमुखसे निकला यह मन्त्र व्यवहारिक जीवन के लिए है। साथ ही साथ जीवन विकास के लिए भी है। निद्रा से जागृति, निर्बलता में से बल, अप्राप्ति में से प्राप्ति ये तीन बातें जीवन विेकास के लिए आवश्यक है।

समान्य व्यवहार में हमें निद्रा में से कौन जगाता है? प्रभु जगाते है । हम हांक सुनने के बाद उठते हैं यह बात सच्ची है मगर उस समय कर्णेन्दिय काम करती है। तुम सोये थे तब कर्णेन्दिय पर तुमहारा नियंत्रण न था इसीलिए अन्दर हुए स्पर्श का पता ही न चला। एक देवता है मगर समझने के लिए प्रत्येक इन्द्रिय के अलग अलग देवता माने गये है। सरकार एक ही होती है वही शासन चलाती है।
निद्रा से जाग्रति बडी बात है। रोज रात को हम सोते हैं और सुबह उठते हैं, यह ईश्वर की कृपा है। ‘घेतो झोप सुखे फिरूनी उठतो ही ईश्वराची दया’ ऐसा संतोने कहा है। भगवान ! मैं जीवन में सो गया हँू। ‘पीत्वा मोहमयीं प्रमादमदिरां उन्मत्तभूतं जगत्’ मोहरूपी मदिरा पीकर उन्मत्त हो गया है। अब क्या चाहिए ? लडके अच्छे हैं, सद्गुणी हैं, पिताजी का कहा मानते हैं, पैसे है, पत्नी अच्छी है, परन्तु पीत्वा मोहमयीं प्रमाद मदिरां उन्मत्तभूतं जगत् इस नींद मे से मुझे कौन जगाएगा ? कोई जगानेवाला चाहिए, कितने ही लोग आते हैं और मुझे डराते हैं। आज संपत्ति है और कल चली जाएगी तो ? मेरे अन्दर का अहंकार जागृत होकर कहता है, जिस बुध्दि से मैने कमाया उस बुध्दि से मैं संभालँूगा। मुझे डर दिखाकर भगवान के पास ले जाने वाला नहीं चाहिए बल्कि प्रेम दिखाकर भगवान के पास ले जानेवाला चाहिए। मुझे जगाने वाला चाहिए। भगवान ! तुम ही मुझे जगाओ। हम अध्यात्मिक तथा व्यवहारिक तौर पर सोये ही है। सामने आकर मृत्यु खडी रहेगी। किसे पता है ? न जाने जानकीनाथ प्रभाते किं करिष्यसि ऐसी मस्ती है। यह मस्ती उन्मतता है। मस्ती समझी जा सकती है। उन्मतता के पीछे अविवेक है।

अघ्यात्म में विकास के लिए निद्रा में से जागृति चाहिए वैसे ही निर्बलता में से बल चाहिए। मैं निर्बल हँू। मेरा बल कौनसा है ? किस बल से भगवान का बनँूगा ? भगवान बहुत ऊँचे हैं। वे कितने ऊँचे है किसे पता ? भगवान कब झुकते हैं? माँ बालक को उठाने के लिए झुकती हैं।

भगवान की वायु शक्ति कितनी बडी हैं। वह कभी गुस्सा नहीं होती। कभी बैठे बैठे वायुशक्ति थक जाती है तो थोडा लम्बे पांव करती है। वह लम्बे पांव करती है तब जबरदस्त तूफान आता है। चक्रवात (Cyclone) आता है ।  जिसने गृहस्थी बराबर की हो उसे अध्यात्म में मुसीबत नहीं आती । एकाध आदमी कहता है : ‘कयों भाई, कल स्वाध्यायमें नहीं आये थे? वह भाई कहता है क्या कहूँ? देहली तक आया था, चप्पल पहने, इतने में मेरे पौत्र ने आने नहीं दिया, पकडकर रखा ।  क्या मुझे बेवकूफ बनाते हो ? Dont deceive वह कहता है, तीन वर्ष का बालक धोती पकडता है तब दादा को बैठना ही पडता है ।  तब किस शक्ति से बालक ने दादा को रोके रखा ? प्रेम शक्ति ने This is not physical power प्रभु !  तुम्हे पकडे रखना है उसके लिए शक्ति चाहिए, निर्बलता में से बल प्राप्त करने के लिए भगवान की आवश्यकता है ‘‘निर्बल के बल राम’’ ।

भगवान! तेरा स्थान चाहिए ।  बाकी सब मांगा जा सकता है मगर क्या किसी का स्थान मांगा जा सकता है? सेठ के पास धन मांगो तो देगा, परन्तु सेठ के पास उसकी गद्दी (जगह) मांगो तो क्या वह देगा ?  क्या वह अपनी गद्दी पर बैठने देगा ?  यहाँ तत्त्वमसि शब्द का अर्थ ही यह है । तू उतर और मैं बैठूं ।  यह अप्राप्य स्थान है उसे प्राप्त करना है ।  उसके लिए यह मन्त्र है -‘श्री.ष्ण शरणं मम’ तथा तुलसीदासजी ने लिखा हुआ मन्त्र है ‘सब सुख लहै तुम्हारी शरणा’ ।  निद्रामें से जाग्रति, निर्बलता में से बल, और अप्राप्ति में से प्राप्ति कौन देगा ? भगवान!  प्रेम का बल भगवान देंगे। इस जगह तुम ही खींच ले जाओगे ।  प्रेम हो तो ही यह होगा ।  किसी पर प्रेम हो तो सेठ अपनी खूर्सी पर कभी बिठा भी दे ।  तुम मालिक हो, तुम कहाँ अपनी खुर्सी पर बिठाते हो ? भगवान तुम अगर उठकर मुझे बिठाओगे तो ही मैं तुम्हारी जगह पर बैठ सकूंगा । अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति तुम्हारी .पा से ही होती है। 

हम अध्यात्म के बारेमें सोए हुए हैं ।  जीवन विकास के लिए निद्रा में से जाग्रति, निर्बलता में से बल, अप्राप्ति में से प्राप्ति - ये तीन बातें चाहिए ।  भगवान ! ये तीनों बातें तुम्हारी मुठ्ठी में हैं ।  तुम मुठ्ठी खोलो और मुझे दो ।  कारण ये तुम्हारे पास से ही मिलेंगे ।  दूसरे किसी बाजार में नहीं मिलेंगे ।  तुम कभी मुठ्ठी में चाकलेट लेकर जाओ, बच्चोंको मन से खिलानेवाला बाप तुरन्त नहीं देगा। बाप पहले दिखाएगा, उसे देखनेपर बच्चा इधर उधर दौडेगा ।  पिताजी! दो न, ऐसा कहेगा । बाप मुठ्ठी नहीं खोलेगा ताें बालक कदाचित् चला भी जाएगा ।  बाप मुठ्ठी खोलकर जैसे आज तक लडके को देता था उसी तरह भगवान भी मुठ्ठी खोलकर जाग्रति, बल और प्राप्ति इन तीनों चिजों को जीवन विकास के लिए देंगे ।  इन तीनों बातों को दूसरा कोई मुझे देनेवाला नहीं है और ये किसी बाजार में भी मिलनेवाली नहीं है । प्रेम करने की शक्ति मुझमें नहीं है ।  मैं जो प्रेम करता हूँ वह मेरा विकार है ।  मैं कहता हूँ कि मेरा उसपर प्रेम है क्योकि मुझे उसके पास से कुछ मिलता है।  कल उसके पास से मिलना बंद हुआ तो प्रेम भी बन्द हो जाएगा ।  एकाध दिन मि़त्र न देखे तो ? देख लिया, ऐसे तो बहुत सारे देखे, हम ऐसा कहते हैं ।  इसे व्यापार कहते हैं । शुद्ध प्रेम है-God is love and love is God ‘‘सा तु प्रेमरुपा अमृतस्वरुपा च’’ मगर यह कौन देगा?

भगवान !  मैं मेरे जीवन विकास के लिए तुम्हारी शरण में आया हूँ । विकास करना होगा तो आत्मनिरीक्षण करना चाहिए ।  प्रभु ! आत्मनिरीक्षण करने में आधार कौन है? - ‘श्रीकृष्ण शरणं मम’ तुम ही मेरा आधार हो ।  इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है ‘सब कुछ लहै तुम्हारी शरणा, तुम रक्षक काहु को डरना।’’                    
भगवान ! यह मेरी शिकायत नहीं है, परन्तु यह एक आत्मनिरीक्षण है ।  प्रभो इस मार्ग से चलते हुए कितनी ही कठिनाइयाँ आती है, कितने गड्ढों को पार करना होता है यह मैं कहता हूँ ।  अजी !  एकाध छोटे डबरेमें भी पैर फिसल पडा तो भी वह पैर मरोड जाता है । एकाध छोटासा पत्थर मार्ग में आ जाए उससे मेरा पैर टकरा गया तो मैं गिर जाता हूँ और मेरी बत्तीसी गिर जाती है, ऐसी अवस्था होती है ।   

इतना आगे बढनें पर भी शरणगति की भावना बनी रही तो मनुष्य निश्चित आगे बढता है, उन्नत बनता है ।  वह महान व्यक्ति कहलाता है । परन्तु इस मार्ग पर चलते हुए कितनी कठिनाइयाँ आती है ।  भगवान !  यह मेरी शिकायत नहीं, अपितु आत्मनिरीक्षण है । 

जो प्रयत्नशील होते हैं, उन्हें कठिनाइयाँ नहीं आती हों तो वे अवश्य प्रयत्न करेंगे । परन्तु प्रयत्न करने के लिए शक्तियाँ कम पडती है, वे उन शक्तियोंको कहाँ से लायेंगे ?  ये सब शक्तियाँ होनी चाहिए और साथ ही शरणागति दैवी तत्त्व आना चाहिए ।  परन्तु वह नहीं आता ।  श्रीमद्आद्यशंकराचार्य की महानता है वह यही है कि वे बहुत विश्वास साध कर आगे बढे परन्तु उन्होने भगवान की शरणागति मान्य की ।  उन्होने जगदम्बा से कहा :
मत्सम: पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समानहि ।
एवं ज्ञात्वा महादेवी यथायोग्यं  तथा कुरु ।।
( हे जगदम्बे !  मेरे समान कोई पापी नहीं है और तुम्हारे समान कोई पाप का नाश करनेवाला नहीं है। यह जानकर जो उचित लगे, योग्य लगे वह करो! )

मेरी रक्षा भगवान ही करते हैं ।  बचाव भी वही करते हैं तथा सहायता भी वही वही देते हैं ।  मेरी असली शरण भगवान ही हैं ।  मानव को अपना आश्रय निश्चित करना चाहिए तथा उसका जीवन गतिमान होना चाहिए इस बारेमें तुलसीदासजी अगली चौपाई में हमें समझाते हैं ।

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