Sunday, July 3, 2011

चौपाई:- सब पर राम तपस्वी राजा, तिन के काज सकल तुम साजा।। (27) Hanuman Chalisa


चौपाई:- सब पर राम तपस्वी राजा, तिन के काज सकल तुम साजा।।  (27)
अर्थ :   तपस्वी राजा श्रीरामचंद्रजी सबसे श्रेष्ठ हैं, उनके सब कार्यों को आपने सहज में कर दिया ।
गुढार्थ : तुलसीदासजी लिखते है भगवान राम का चरित्र सर्व श्रेष्ठ है । रामचरित्र भावपूर्ण व ऐतिहासिक काव्य है । भारत क्या है -(What is Bharat) तो ‘राम’ कहने से पता चलता है। भारतीय संस्.ति को क्या बनना है यह रामचरित्र पढकर ध्यान में आता है । समर्थ रामदास स्वामी ने नैतिक स्तर ऊँचा करने के लिए प्रभु राम को नमस्कार करके उन्ही का चरित्र उठाया । इतना ही नही, यवनी सत्ता जब यहाँ बद्धमूल होने लगी व समाज का नैतिक स्तर गिरने लगा तब प्रात: स्मरणीय गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरित्र  को उठाकर भारत को खडा किया। राम का चरित्र हजारों वर्षों के बाद, वर्षों तक लाखों करोडों लोगों को प्रेरणा दे सकता है । उनको नमस्कार ही करना चाहिए । भारतीय लोगों की दृढ मान्यता है, कि यह देह छोडते समय जब ‘राम’ का उच्चारण निकलेगा तब उद्धार होगा।

इस बातमें संदेह नहीं कि भारत अपनी नीजी कमाई में कंगाल हैं । भारत के पास निजी कमाई नहीं है  जिससे  वह विश्व को मार्गदर्शन कर सके, परन्तु भारत की भूतकाल की तिजोरी में ऐसे कौस्तुभमणि और रत्न हैं  कि भारत विश्व को मार्गदर्शन कर सकता है । केवल राममन्दिर का निर्माण करके, चैत्र शुक्ल नवमी को रामनवमी के उत्सव में प्रसाद खाकर हमने राम नवमी मनाई इसका समाधान मानने वाले सभी लोग नहीं है । उनमें जो प्राणवान प्रवाह है, जीवन प्रवाह है, चैतन्यदायी प्रवाह है, जो उसको समझते है, जानते है, पूजते हैं ऐसे भी कुछ लोग हैं ।

जन्म लेकर प्रभु को कुछ समझाना था । प्रभु रामचंद्र के जीवन में बहुत सी बातें समझाने के लिए ही है । प्रभु रामचंद्र का स्मरण करते ही एक बात ध्यान में आती है वह है स्वार्थत्याग! दूसरी बात शब्दपालन, तीसरी बात भाईयों पर प्रेम चौथी बात पती पत्नीपर प्रेम भाव जो पारिवारिक जीवन में आवश्यक है । पांचवी बात सद्विचारों को प्रोत्साहान, छठी बात है दुष्ट वृत्तिका दमन, और सातवी बात तपस्वी जीवन। ये सभी बाते भगवान राम के जीवन में देखने को मिलती है । राम  कहते ही राजा शब्द ध्यान में आता है कृष्ण कहने पर नहीं आता क्योकि कृष्ण राजा नहीं थे परन्तु राम राजा थे । इसलिए हनुमान चालीसा में यहाँ पर तुलसीदासजी लिखते हैं कि ऐसे तपस्वी राजा रामचन्द्रजी के सारे कार्य हनुमानजी ने बडी कुशलता से किया।  यहाँ पर तुलसीदासजी का यह संकेत है कि भगवान राम का जीवन तपस्वी था और ऐसे तवस्वी भगवान के कार्य को तपस्वी हनुमानजी ने किया तो हमें भी जीवन में तपस्वीता लाते हुए प्रभु कार्य करना चाहिए ।

तप का अर्थ क्या है? जीवन में कुछ ध्येय हो तो उसके लिए जो सुख-दुख सहना पडता है । उसको तप कहते हैं । उसके लिए ध्येयनिष्ठ जीवन होना चाहिए तभी तप होता है । जो कुछ खाता नहीं है, अथवा दीर्घकाल तक धूप या पानी में खडा रहता है उसे तप नहीं कहते । ‘तपो द्वन्द्वसहनम्’ जीवन में ध्येय रखकर उसके लिए जो सुख दु:ख  सहन करता है वह तपस्वी है । दूसरी बात जो काम हाथ में लिया है उसको सातत्य से करता है वह तपस्वी है । सनक में आकर कोई किसी को दे देता है अथवा एकाध काम करता है वह तपस्वी नहीं है । ‘मैने सतत, बीस साल तक नियमीत रुपसे अमुक अमुक (वित्त, समय, शक्ति) दिया है ऐसा कह सकूं तो मैं तपस्वी हूं । कार्य में सातत्य होना चाहिए तभी तप का कुछ अर्थ है । ऐसा जीवन प्रभु रामचंद्र का था इसलिए तुलसीदासजीने ‘तपस्वी राजा राम’ ऐसा शब्द प्रयोग किया है ।

तप यानी क्या? ‘तपोद्वन्द्वसहनम्।’ तप यानी सुख-दुख जैसे द्वन्द्व सहन करना । निश्चित किए हुए ध्येय को प्राप्त करने के लिए तुम जो सुख-दुख सहन करते हो उसे तप कहते हैं । अत: तप करने के लिए जीवन में कुछ ध्येय लाना होगा । ध्येयहीन जीवन का कोई अर्थ नहीं है । भारतीय संस्.ति का इतिहास ध्येयवानों से भरा हुआ है । उसमे एकाद तत्व के लिए जीवन अर्पण किए हुए लोग दिखाई देते हैं । भारत में ध्येय की पराकाष्ठा देखने को मिलती है । जंगल में तो अनेक लोग जाते हैं । परन्तु राम वन में गये वह उनका तप था । वे जंगल में गये उसमें पिता की आज्ञापालन का ध्येय था । वे पिकनीक के लिए जंगल में नहीं गये थे । अनेक राजाओं को किसी के भय से जंगल में छिप जाना पडता था । परन्तु वह उनका तप नहीं था । राम जंगल में गये वह उनका तप था । क्यो? उसमें राम की ध्येयनिष्ठा थी । भारतीय इतिहास में ध्येयनिष्ठा की परम्परा दिखाई देती है ।

सत्य के लिए वन में गये हुए राम, वैराग्यमूर्ति शुक, निश्चयमूर्ति धु्रव, बालभक्त प्रल्हाद, सत्यमूर्ति राजा हरिश्चन्द्र, इच्छामरणी भीष्म इन सबमें ध्येय की पराकाष्ठा है । रंभा जैसी अलौकिक स्त्री, सौंदयै की खान सामने आकर खडी हुई पर उसकी ओर एक भिन्न दृष्टि से शुकदेव ने देखा। इतिहास में ऐसा उदाहरण नहीं मिलेगा। पिता पांच गांव देने के लिए तैयार हुआ तो निश्चममूर्ति धु्रव ने कहा, ‘देईल देवराय-भगवान देंगे।’ पिताने अग्नि में डाला, पर्वतपर से फेंक दिया, परन्तु "नारायण" का स्मरण किये बिना नहीं रहूँगा ऐसा प्रल्हाद ने कहा । स्वप्न में दिया हुआ वचन प्रत्यक्ष में साकारित करने के लिए राज्य छोडकर हरिश्चंद्र राजा जंगल में गया । हम तो प्रत्यक्ष में दिया हुआ वचन स्वप्न में भी पूरा नहीं करते । मृत्यु जगत में किसीसे पूछकर नहीं आती, परन्तु भीष्म से मृत्यु पूछती है, क्या मैं आऊ? ऐसी ध्येयनिष्ठा की परम्परा भारत में दिखायी देती है । प्रति पांच वर्षों के बाद अपना खजाना ईश्वरीय कार्य में अर्पण करनेवाला रघुराजा । ऐसे प्रात:स्मरणीय लोग इस देश में निर्माण हुए हैं । ये लोग जीवन में कुछ भिन्न ध्येय रखकर जीते थे।

हनुमानजी का संपूर्ण जीवन ध्येयनिष्ठ है । ऐसा ध्येयनिष्ठ जीवन आपको खोजने पर भी विश्व में नहीं मिलेगा । भगवान के कार्य के लिए उन्होने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया है । उसके लिए वे दिन-रात दौडे हैं । तथा भगवान के सभी कार्यों को उन्होने भगवान की .पासे सहजता से कर दिखाया है इसीलिए तुलसीदासजी लिखते है ‘सब पर राम तपस्वी राजा, तिनके काज सकल तुम साजा।’

राम और कृष्ण के जीवन तो अतिमानुषी हैं, परन्तु मानुषी जीवन देखेंगे तो भी धु्रव, प्रल्हाद, हरिश्चन्द्र, शिबिराजा इन सब ने एक-एक तत्व के लिए जीवन अर्पण कर दिया है । दानमूर्ति कर्ण की तो बात ही क्या करना? अपनी त्वचा के साथ संलग्न कवच-कुण्डल इन्द्र देवता माँगने आया तो निकालकर दे दिये। इन्द्रदेवता कवच-कुण्डल माँगने के लिए आनेवाले हैं यह चेतावनी पहले ही सूर्यनारायण ने कर्ण को दी थी। उस समय कर्ण ने कहा था, ‘‘त्रिभुवनाधीश इन्द्र भगवान मेरे द्वार पर भिखारी बनकर माँगने के लिए आता है, इससे अधिक मेरे जीवन में दूसरा क्या चाहिए?’

जीवन में ध्येय हो तो तप आता है । इसलिए सर्वप्रथम जीवन में ध्येय निश्चित करना चाहिए। यह काम बहुत कठीन है । प्रत्येक पिता को अपने पुत्र को ध्येय देना होता है । ध्येय भी केवल भौतिक होगा तो नहीं चलेगा, ध्येय का मुख मांगल्य, कल्याण, पावित्‍र्य की ओर होना चाहिए तभी उसे ध्येय कहा जाता है।

तप आया कि उसे साथ ध्येय आता ही है । बिना ध्येय के तप को को कोई अर्थ नहीं है । आज तप शब्द का अर्थ ऐसा हुआ है कि शरीर को कष्ट देना । कुछ लोग शीतकाल मे ठंडे जल में खडे रहकर शरीर को क्लेश देते हैं । वह कदाचित् प्रभुश्रद्धा वृद्धिंगत करने में उपयोगी बनता होगा, परन्तु तप शब्द को जो अर्थ ऋषियों को अनादि काल से अपेक्षित है वह उसमें नहीं बैठता । शरीर को क्लेश देना इसका अर्थ तप नहीं है । कुछ लोग उपवास का आग्रह रखते हैं ।  स्वास्थ्य के लिए जो उपयोगी होगा वह अवश्य करना चाहिए परन्तु उसीको तप समझा जाता होगा तो वह उचित नहीं है । कितने ही लोग एक पैर पर घंटो तक खडे रहते हैं, अपने को तपस्वी कहते हैं । गीताकार उनके सम्बन्ध में कहते है :-
कर्षयन्त: शरीरस्थं भूतग्राममचेतस: ।
मां चैवान्त: शरीरस्थं तान्विद्धयासुरनिचयान ।। (गीता 17-6)
(शरीर रुप से स्थित आकाशादि पंचमहाभूतों को और अन्त:करण में स्थित मुझ अन्तर्यामी को जो भी .श करनेवाले हैं, उन अज्ञानियों को तू आसुरी स्वभाववाले समझ)

शरीर को तकलीफ देनेवाले लोग अन्दर बैठे हुए मुझे ही क्लेश देते हैं । उनको असुर समझो। केवल शारीरिक क्लेश सहन करना तप नहीं है । किसी एकाद तत्व के लिए, ध्येय के लिए मनुष्य क्लेश सहन करता है तो उसको तप कहते है ।  ऐसे क्लेश शारीरिक, मानसिक अथवा बौद्धिक भी होते हैं । परन्तु क्लेश सहन करने को तप नहीं कहते।

कितने ही लोग पैसा कमाने का ही ध्येय रखते हैं और पैसा कमाने के लिए खून का पानी करते हैं और फिर कहते हैं कि हमने खून का पानी करके पैसा कमाया है और ये लडके मानचाही रीति से पैसा उडाते हैं । कोई बात मानते नही! परन्तु तुझे खुन का पानी करने को कहा था किसने? ऐसा उनको पूछना चाहिए । हमारे शास्त्रकार कहते हैं कि प्रतिदिन अमुक घण्टे पैसा कमाने के लिए निश्चित करो। छ घण्टे अर्थ का विचार, छ घण्टे धर्म का विचार, छ घण्टे काम का विचार और छ घण्टे नींद ऐसा विभाजन करो । धर्म बडा भाई है यदि अर्थ के लिए समय कम लगता हो तो दो घण्टे उससे ले लो और पैसा कमाने के लिए छ के बदले आठ घण्टे काम करो। उस समय पैसे के बिना दूसरा विचार ही न करो। परन्तु आठ घण्टे के बाद पैसे का विचार ही नहीं करना । मनुष्य चौबीस घण्टे पैसे का ही विचार करता है वह शास्त्रकारों को मान्य नहीं है ।

हमारे जीवन में एक बात निश्चित है कि जीवन मंगलमय बनना चाहिए, तेजस्वी बनना चाहिए, ज्ञानमय बनना चाहिए। हमें प्रभु को प्राप्त करना है । जिस बात से हमें प्रभु नहीं मिलेंगे उसको हम छोड देंगे। ’इसका अर्थ यह है कि ध्येय का मुँह मांगल्य, पावित्‍र्य, दिव्यता अर्थात् प्रभु की ओर होना चाहिए । ध्येय जीवन स्पर्शी होना चाहिए । जो मांगल्य की ओर ले जाता है वह ध्येय हो सकता है । इसलिए किसीकी जेब काटना यह ध्येय नहीं हो सकता । क्योकि वह क्रिया मांगल्य की ओर नहीं ले जाती । आप मंगलता की ओर जाने लगो कि पग पग पर अडचने आयेंगी ही। इसका कारण वह मार्ग संकीर्ण है । उस मार्ग से जानेवालों की संख्या भी बहुत कम होती है । उस रास्ते में स्थान-स्थान पर कंकड-पत्थर पडे होते हैं । जिस मार्ग से अनेक लोग जाते हैं उनके चलने से वह मार्ग भी अच्छा बन जाता है । मराठी में कहा है -‘द्वार किलकिले स्वर्गाचे सताड उघडे नरकाचे’ स्वर्ग का दरवाजा बहुत छोटा होता है । नरक का दरवाजा बडा और पूर्ण खूला हुआ होता हैं उसमें जाना बहुत आसान होता है ।

मांगल्य के मार्ग से जाने का बहुत कम लोग-‘सहस्त्रणांकचित्’ विचार करते हैं और उसमें एकाद व्यक्ति उस मार्ग पर अन्त तक टिकता है । निसर्गत: उस मार्ग में चलने से कष्ट होते ही हैं । आपने स्वाध्याय का एक छोटा सा व्रत लिया कि आपको कष्ट हाेंगे ही । वास्तव में मनुष्य स्वाध्याय करने लगता है तो कोई बडा शेर मारता है ऐसा नहीं है । वह तो बिलकुल प्राथमिक बात है । यदि स्वाध्याय सतत करते रहेंगे तो धीरे-धीरे जीवन विकसीत होगा, जीवन को सुगन्ध भी आयेगी । जीवन दिव्य व भव्य बनेगा । परन्तु स्वाध्याय में नियमित जाने के लिए भी कितनी असुविधाएं, कठिनाइयाँ उठानी पडती हैं । आयी हुई दिक्कतों मे मनुष्य दृढ रहेगा तो उसको तप कहते हैं । केवल शरीर को भस्म लगाने से कोई तपस्वी नहीं बनता । जनक राजा तपस्वी था ।  उसने किसी दिन अपने शरीर को भस्म नहीं लगाया था । श्री.ष्ण-अर्जून तपस्वी कहे जाते हैं । ‘तपस्वी’ शब्द बोलते ही हमारी दृष्टि के सामने विभूति (भस्म) लगाया हुआ मनुष्य खडा होता है । वह चित्र हटाने के लिए हमे ‘तप’ शब्द का अर्थ गहराई मे ढूंढना पडेगा । भगवान राम तपस्वी थे इसीलिए तुलसीदासजीने लिखा है ‘सब पर राम तपस्वी राजा।’

जीवन में प्रत्येक मनुष्य सुख-दु:ख सहता ही है । संसार करते हुए किसी का जवान बेटा मर गया तो उसको दु:ख सहना ही पडता है ।  परन्तु वह, मनुष्य द्वारा जीवन की भव्यता अथवा समाज की भव्यता के लिए अपने पर ओढा हुआ दु:ख नहीं है ।  एकाद जवान बेटा कुछ ध्येय रखकर काम करने लगता हैं तो आसपास के लोग भी कहते है, ‘अरे! तू दौडधूप किसलिए करता है? उसकी अपेक्षा शान्ति से सो जा । चाहिए तो कुछ पढ सुबह शाम को भगवान की पूजा कर, परन्तु बेकार की दौड धूप मत कर। तुझे ऐसी खटपट करने को किसने कहा? जो मनुष्य अमुक एक ध्येय निश्चित करके दु:ख ओढ लेता है उसे तपस्वी कहते हैं।

जो आया हुआ दु:ख सहन करते हैं उनको संसारी कहते हैं । परन्तु जो किसी निश्चित ध्येय के लिए दु:ख के सामने चलकर उसको अपने पर ओढ लेते हैं, शान्ति का जीवन अकारण अशान्ति में डालते हैं उनको तपस्वी कहते हैं ।
प्रल्हाद पागल था । उसके पिताने उसे जो कहा वह उसने नहीं माना । वह यदि उसने माना होता तो उसको कितना वैभव मिलता! बचपन से ही उसकी कितनी व्यवस्था की गयी होती! अपना लडका भगवान का नाम लेता है, केवल इसीलिए कोई पिता उसे फेंक नहीं देता । उसे पागल समझकर अपनी गोद में बिठायेगा। तो फिर हिरण्यकशिपु नें प्रल्हाद को क्लेश क्यों दिया? उसपर इतना क्रेाध क्यों किया? हमारे पुराण हम ठीक तरह से नहीं पढते। अनीश्वरवादी और भोगवादी लोगों के विरोध में प्रल्हाद ने एक पद्धतिनुसार संघटना तैयार की थी । वह देखकर उसका बाप चिढ गया । उसको लगा कि मेरा लडका होकर मेरी विचारधारा के मूल पर प्रहार करता है तो कैसे चलेगा?
हिरण्यकशिपु के पास प्रल्हाद के गुरु शुण्डाकर्म तकरार लेकर आये कि प्रल्हाद हमारा नहीं मानता है और सब युवक प्रल्हाद को पूर्णत: साथ देते हैं । आपके निश्चित किए हुए विचार हम लडकों को पढाते हैं तो सबके बीचमें हमारी बेआबरु करता है कि हम गलत सिखाते हैं । यह सुनकर हिरण्यकशिपु को लगा कि प्रल्हाद मेरा ही दुश्मन बनकर खडा है । यदि वह ईश्वरवादी विचार प्रभावी रीति से युवकों को कहेगा तो फिर मेरा भोगवादी राज्य उसके सामने कैसे टिकेगा? इसीलिए हिरण्यकशिपु प्रल्हाद का नाश करने के लिए तैयार हुआ । उसे प्रल्हाद अपना शत्रु लगता था।

प्रल्हाद पिता के विरोध में खडा रहा इसीलिए उसे कष्ट हुए । पिता की हां में हां मिलाता तो प्रल्हाद को कष्ट नहीं होते । पिता के मर जाने के बाद राज्य तो उसका ही था । परन्तु वैसा न कर प्रल्हाद ने सुख का जीवन दु:ख में डाला । प्रल्हाद ने स्वयं अपने उपर दु:ख ओढ लिया था और वह भी एक निश्चित ध्येय सिद्ध करने के लिए । इसीलिए उसकी वह तपस्या कही जाती है ।

व्यक्तिगत जीवन में मनुष्य जो सुख-दु:ख सहन करता है उसको तप नहीं कहते । अन्यथा सभी वृद्ध सुख-दु:ख सहते सहते अपने बाल सफेद बनाते ही हैं । उनको कोई तपस्वी नहीं कहता। जीवन में कुछ ध्येय होना चाहिए । पिता को अपने लडकों को कुछ दौलत देनी हो तो ‘ध्येय’ दे। उसके लिए पिता के स्वयं के जीवन में भी कुछ ध्येय होना चाहिए, अन्यथा क्या देगा? लडका ध्येयनिष्ठ होगा तभी उसके जीवन में आनन्द रहेगा । लडके को रेडीयो अथवा टी.वी. देरी से दिया तो चलेगा, परन्तु सर्वप्रथम उसको ध्येय दो । लडके को ध्येय के पीछे पागल बनना चाहिए । उसे ध्येय नही देंगे तो वह पत्नी के पीछे पागल बनेगा। ऐसा होने के बाद बूढा सिर पर हाथ रखकर कहेगा कि लडका घरवाली के पीछे पागल बना है, मेरी ओर देखता ही नहीं । परन्तु उसमे दोष किसका है ? पिता का ही दोष है । पागल बनना यह गुण युवकों के रक्त में ही है । तुम योग्य ध्येय नहीं देंगे तो वह चाहे उसके पीछे पागल बन जायेगा । पागल बनकर सारे विश्व को भूल जाने में मनुष्य के जीवन का एक आनन्द है । लडके अच्छी तरह सुखी बनने की इच्छा हो तो उनको ध्येय देना चाहिए।

मनुष्य स्वाध्याय करेगा तो जीवन में ध्येय निश्चित कर सकेगा । जीवन में ध्येय आया कि तप आया ही। मनुष्य को देवपूजा करनी चाहिए, परन्तु देवपूजा के साथ ध्येय पूजा भी होनी चाहिए । ध्येयपूजा के बिना देवपूजा में रस ही नहीं रहता । कुछ लोग कहते हैं कि हमारी चितैकाग्रता नहीं होती । परन्तु ध्येयपूजा के बिना चितैकाग्रता कैसे होगी? ध्येय पूजा करो फिर चितैकाग्रता होती है या नहीं वह देखो!

मनुष्य हाथों से कुछ कर्मयोग नहीं करता होगा, हृदय  भाव से नहीं भरा होगा तो उसका मन प्रभु के पास किस प्रकार पहुँचेगा? चितैकाग्रता करने के लिए साधन सामग्री जुटाकर देवपूजा करनी हो तो जीवन में ध्येयपूजा होनी चािहए । प्रत्येक मनुष्य ध्येयपूजा करके तपस्वी बन सकता है ।
देवपूजा करनेवालोंसे पूछना चाहिए कि राम-कृष्ण के विचारों का प्रचार करने का ध्येय क्या तुम्हारे जीवनमें है? उनके विचारों के लिए क्या तुम पागल से बनते हो? न बनते हो तो कृष्ण के विचार झोपडी-झोपडी में नही ले जा रहा हूँ, तो मुझे बैचेनी होनी चाहिए, अस्वस्थता लगनी चाहिए कि भगवान! आपके विचार पहुँचाने में मेरी शक्ति कम पडती है । जाते-जाते और बन सकेगा उतना काम करनेवाले सब ‘भगत’ है उनको ‘कृष्णभक्त’ नहीं कहा जाता।

पिता स्वयं कृष्ण भगवान का काम करता ही नहीं, और जवान लडका काम करने लगता है तो उसे मना करता है । ऐसे मना करनेवाले कितने ही पिता है । पिता मन्दिर में दर्शन करने जाता है । वह पिता अपने पुत्र से कहता है, ‘बेटा! इस उम्र में तू भगवान का काम करने दौडेगा तो तेरा संसार बिगड जायेगा । इस पिता से पूछना चाहिये कि, क्या तुम्हारे लडके को भी तुम्हारे जैसा मुर्दे का संसार करना है?

ईशवरनिष्ठा ध्येयनिष्ठा से आती है । ईश्वरभक्ति करनी है तो मनुष्य को जीवन में ध्येय रखना चाहिए। ध्येय के पीछे पागल बनकर शेष सब भूल जाना चाहिए । आँखों के सामने ध्येय आता है तो मनुष्य खाना-पिना  भी भूल जाता है । ऐसा हो तभी ईश्वर भक्त हो सकता है । ईश्वरभक्त ध्येय के पीछे पागल बने हुए होते हैं । सभी ऋषियों का चरित्र देखेंगे तो दिखाई पडेगा कि वे निश्चित ध्येय के  पीछे पागल बने हुए थे । इसीलिए वे चितैकाग्रता करके पूर्णता की अनुभूति ले सके । शेरनी का दूध सोने के ही बरतन में टिकता है । ऐसा कहते हैं कि अन्य किसी बरतन में शेरनी का दूध रखा तो बरतन टूट जाता है । उपनिषद भी वह कहते है-‘नायमात्मा बलहीनेन लभ्य:। बलहीन व्यक्ति आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता । क्षुद्र और मृत जीवन जीनेवाले को आत्मज्ञान प्राप्त नहीं होता । जीवन में ध्येय होना चाहिए । ध्येय हो तो तप आता है।

गीता का आग्रह है कि मनुष्य को स्वाध्याय करना चाहिए । मनुष्य यदि नियमित स्वाध्याय करेगा तो उसके जीवन की समस्यायें हल होगी ।  स्वाध्याय लोग भूल गये हैं । वह फिर से खडा करना चाहिए । स्वाध्याय के लिए मनुष्य तैयार होना चाहिए । प्राणवान मनुष्यों को स्वाध्याय करना चाहिए । अन्त:करण में एक दूसरे के प्रति प्रेम रखकर विचारों का आदान-प्रदान करने के लिए एकत्र बैठो। तभी आपको स्वाध्याय की दिव्यता व मधुरिमा चखने को मिलेगी । मनुष्य-मनुष्य में एक दूसरे के प्रति प्रेम बढेगा। अमीर-गरीब, विद्वान-अनपढ इनके बीच झगडे नहीं रहेंगे । वे एक दूसरे से दूर नहीं रहेंगे । मानव-जीवन में ध्येयनिष्ठा और जीवननिष्ठा निर्माण करके जीवन में जीने जैसा कुछ है ऐसा विचार निर्माण कर भारतीय संस्.ति  के उत्थान में अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष, युवक-वृद्ध, विद्वान-अनपढ सबको एक प्रेम-सुत्र में पिरोकर एक दूसरे के प्रति आत्मीयता निर्माण करनेवाली श्रीमद् भगवद्गीता पाठशाला, माधवबाग, मुबई, आज विश्व में अद्वितीय तीर्थस्थान बन चुकी है । इस पाठशाला में चल रही सभी प्रवृत्ति के प्रेरक प्राण हैं-- पूजनीय पांडुरंग शास्त्रीजी आठवले! वे इस पाठशाला में गीता, उपनिषद, पातंजल-योगदर्शन और अन्य वैदिक वाड़मय का स्वाध्याय करते हैं और कराते हैं ।

आदर्श व उन्नत मानव जीवन के महान् शिल्पी पूजनीय पांडुरंग शास्त्रीजी की पवित्र छायामें ‘स्वाध्याय’ वृत्ति समाज के नस नस में उतरने लगी है । पूजनीय शास्त्रीजी जैसे महान विभूति के तप के परिणाम स्वरुप श्रोतावर्ग भी केवल  श्रवण-भक्ति न  कर  कृतिभक्ति करने लगा है । उसमें कृतिभक्ति की भावना जागृत हो उठी है । प्रभु की गीता के उन्नत, दैवी, तेजस्वी और भावपूर्ण विचार गाँव गाँव  में जाकर नि:स्वार्थ भाव से कहना ही कृतिभक्ति है । आज असंख्य स्वाध्यायी भाई-बहने प्रभु के विचारों को गांव गांव में पहुँचाने के लिये अपने घर के बाहर निकले हैं । एक विशिष्ठ ध्येय, आदर्श, विश्वास, दृढता से कटिबद्ध बना हुआ यह वर्ग बीसवी सदी का महान आश्चर्य है ।

गाँव-गाँव में जाकर भगवान के विचार कहने वाले स्वाध्यायी मानते हैं कि धर्म यानी मानव में सुप्त अस्मिता एवं भाव को जागृत करना। । प्रभुकार्य करनेवाले स्वाध्यायी वैचारिक भूमिकासे प्रभुकार्य के लिए दौडते है । उनको प्रभु कार्य बोझरुप नहीं लगता । कारण उनकी दृढ धारणा रहती है कि यह कार्य मेरा है, अपने विचारों को दृढ करने के लिए, अपने जीवन विकास के लिए केवल उपासना की दृष्टि से प्रभु के विचार कहने के लिये गाँव-गाँँव घुमता हूँ।  इसी को भक्ति फेरी कहते है ।

मुझे घरमें बैठकर शांति से चाय, नास्ता, खाना मिलता है । घर के बाहर निकलते ही जाने के लिए मोटारगाडी भी है । फिर भी मै यह सब छोडकर भक्ति फेरी मे जाता हूँ, पैदल चलता हूँ। अपने हाथ से भोजन बनाकर खाता हूँ। यह सब दु:ख मैने जानबूझकर उठाया है । उसकी आवश्यकता नहीं थी फिर भी उठाया है । उसी को तप कहते हैं ।  आया हुआ दु:ख सहन करना श्रेष्ठता है, पर उठाया हुआ दु:ख ‘तप’ कहलाता है । भागवतकार  कहते हैं कि जिसे भागवत बनना हैं उसे तप करना चाहिए ।  तुलसीदासजी  भी इस चौपाई द्वारा हमें यही समझाना चाहते हैं कि रामजी का जीवन तपमय था हनुमानजी का जीवन भी तपमय था तो हनुमानजी के उपासकों को भी तप करना चाहिए । जिस प्रकार हनुमानजी ने प्रभु कार्य किया उसी प्रकार हमको भी प्रभुकार्य करनेे के लिए तप करना चाहिए।

जिनका जीवन सुखी है ऐसे लोग गाँव-गाँव में जाते है, घुमते हैं, घर-घर जाकर लोगों से मिलते हैं । उनको लोगों से कुछ लेना देना नहीं है, फिर भी वे जाते हैं । सभी इस दृष्टि से देखते हैं कि ये लोग क्यो? आये होंगे? वे कदाचित् इन लोगों को पागल भी मानते होंगे । कुछ लोग पूछते है कि ‘‘स्वाध्यायी’’ गाँव-गाँव मे क्यों घुमते है? यह समझना हो तो आपको उनके साथ घुमना चाहिए तभी पता चलेगा। लोगों को आश्चर्य होता है कि लेना देना कुछ नहीं है, चंदा इकठ्ठा करना नही है, न मत मांगना है, न बडप्पन की अपेक्षा है, गाँव में कुछ सम्मानपत्र भी नहीं पाना हैं तो फिर ये लोग गाँव-गाँव में क्यों घूमते है? यह स्वाध्यायीयोंका तप है । उनकी कौनसी प्रेरणा (Incentive) है, उनकी कौनसी उत्तेजना (Inspiration) है? ‘तप’ ही उनकी प्रेरणा, उत्तेजना है। जिस प्रकार हनुमानजी भगवान रामचंद्र का काम करते थे उसी प्रकार स्वाध्यायी भी भगवान का काम करने गाँव-गाँव जाते हैं ।
जो लोग भगवत्कार्य के लिए दु:ख उठाते हैं, उन्हे वह दु:ख लगता ही नहीं । बाहर के लोगों को वह दु:ख लगता है यह भिन्न बात है । भक्तिफेरी में जानेवालों को इतना आनन्द होता है कि एकाध बार वे न जा सके तो उनको व्यथा होती है । जीवन में तप आवश्यक बात है । जिसने तप नहीं किया उसके साथ हनुमान चालीसा, रामायण, और गीता बोलेगी भी कैसे? हम भले ही रात-दिन इन ग्रंथों का पाठ करते होंगे परन्तु अन्त में स्वीकार करना पडता है कि ये ग्रंथ हमें अभी तक समझ नहीं पडे । इन ग्रंथों की गहराई में जाकर चिंतन, मनन और स्वाध्याय करना चाहिए।
कुछ लोग कहते हैं, हम चार महिने से स्वाध्याय कर रहे हैं, परन्तु हममें कोई बदलाव ( Change ) नहीं हुआ । ‘अरे भाई! लोहे पर बहुत जंग चढ गया हो तो उसको छ महिने मिट्टी के तेल में रखना पडता है , तभी उसका जंग जाता है । एकाध बार मिट्टी के तेल में डुबाने से उसका जंग नहीं जाता । उसी प्रकार अनेक जन्मों से जंग खाया हुआ मन और बुद्धिवाला मनुष्य चार महिने स्वाध्याय करेगा तो स्वच्छ और शुद्ध कैसे बनेगा? मनुष्य बहुत उतावला है । पन्द्रह-बीस वर्षों पूर्व चौथी मंजील पर जाना हो तो मनुष्य धीरे धीरे सीढियाँ चढकर जाता था । आज तो चौथी मंजील पर जाने के लिए उसे लिफ्ट हो तो बटन दबाया कि मनुष्य उपर ! मनुष्य को अध्यात्म भी तूरंत चाहिए । वह पैसंठवे वर्ष गीता पढना प्रारंभ करता और सतसठवे वर्ष में उसे साक्षात्कार चाहिए । पता नही, कौनसा साक्षात्कार वह चाहता है ।  फिर मनुष्य बोलने लगता है, हाँ! मैने आँखे बंद करली कि मुझे कुछ लाल-लाल दिखाई देता है ।  यह लिफ्ट जैसा है । मनुष्य को साधना नहीं करनी है । जीवन में सभी गुण स्वाध्याय से आयेंगे, परन्तु उसके लिए क्या चाहिए? तो गीता कहती है, ‘तप’ चाहिए।

मनुष्य को सुख भी सहन करना आना चाहिए ।  वास्तव में दु:ख सहन करने से सुख सहन करना कठीन है । एक व्यक्ति को हृदय रोग था । भाग्यवशात् उसे लाटरी में इनाम मिला, वह भी दस लाख रुपये का! परन्तु यह समस्या खडी हुयी कि रोगी को यह बात कैसे कही जाय? कारण बात सुनते ही हर्षातिरेक से हृदय की गति बंद पडने की संभावना थी । डॉक्टर ने कहा ‘यह कार्य मुझपर सौंप दो, मैं धीरे धीरे यह बात उसे कह दूँगा। आप उससे कोई मत बोलो।’ डॉक्टर ने बातो बातों में रुग्ण से कहा, भाई! धन्दे में तुम्हे दस हजार रुपयों का लाभ हुआ तो? रुग्ण ने कहा अच्छी ही बात है । फिर डॉक्टर ने कहा, ‘‘तुम्हे एक लाख का लाभ हुआ तो? रुग्ण ने कहा, तो पचास हजार रुपये दान धर्म में व्यय करुँगा। ‘‘डॉक्टरने धीरे धीरे उसका मनोबल बढाता हुआ कहा परन्तु मान लीजिये, तुम्हे दस लाख मिले तो?  रुग्ण ने कहा तो पांच लाख रुपये आपके! यह सुनते ही डॉक्टर का हृदय बंद पड गया, कारण उसको मालूम था कि रुग्ण को दस लाख की लॉटरी लगी है । इस प्रकार डॉक्टर से सुख सहन नहीं हुआ । इसी कारण तप की व्याख्या ‘तपोद्वन्द्वसहनम्’ की है । सुख और दु:ख दोनो सहन करने का नाम तप है । सुख मे राम काम करना कठीन है । मनुष्य कदाचित् कीर्ति के लिए समाज का काम करेगा परन्तु निष्काम भाव से भगवान का काम नहीं करेगा । द्रोपदी का कौतुक यहीं पर है । सुख की परमोच्च अवस्था में थी तब और दु:ख के पहाड गिर पडे तब भी वह कृष्ण को नहीं भूली । सुख-दु:ख में ध्येय निष्ठा बनाये रखना ही तपस्विता है और हनुमानजी से प्रेरणा लेकर इसप्रकार तपस्वी बनना चाहिए ।  इसप्रकार जो तपस्वी बनता है वो ही हनुमानजी का सच्चा उपासक है ऐसा होगा यही बात तुलसीदासजी इस चौपाई द्वारा हमें समझाते हैं ।

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