Sunday, July 3, 2011

चौपाई:- और देवता चित्त न धरई । हनुमंत सेई सर्व सुख करई ।। (35)
अर्थ :हे हनुमानजी ! आपकी सेवा करने सें सब प्रकार के सुख मिलते हैं, फिर देवता की पूजा करने की आवश्यकता नहीं रहती ।
गूढार्थ : उपासना में अनन्यता की आवश्यकता है ।  तुलसीदासजी इस चौपाई द्वारा शास्त्रीय मूर्तिपूजा का महत्व समझाते हैं ।   मूर्तिपूजा वैदिक ऋषियों के द्वारा मानव को प्रदत्त अनुपम भेंट है ।  विश्व का मानव चित्त शुद्धि कर आपना भौतिक, सांस्.तिक एवं अध्यात्मिक विकास कर सके, इहलोक एवं परलोक का श्रेय सिद्ध कर सके इस दृष्टि से हमारे ऋषियों ने सरल, व्यावहारिक, बुद्धिगम्य एवं शास्त्रीय मूर्तिपूजा की आवश्यकता समझायी है । मूर्तिपूजा एक पूर्ण शास्त्र है । ( Murtipuja is a perfect science ) वह चित्त शुद्धि के लिए पूर्ण शास्त्र ( perfect science ) है । मानव अपने विकाराें को परख ले, उन्हे क्रमश: कम करे, शुद्ध करें, उदात्त करें और अन्त में विचार और विकार रहित स्थिति में रहकर ‘‘स्व’’ का सुख प्राप्त कर सके इस दृष्ट से मूर्तिपूजा की नितान्त आवश्यकता है । मूर्तिपूजा मनुष्य को मोक्ष तक ले जाती है ।

मन को पुष्ट करने के लिए सबेरे से शाम तक चलने वाली आज की गतानुगतिक मूर्तिपूजा क्या उपयोगी हो सकती है? भोग, आरती एवं प्रसाद में समाप्त होनेवाली आज की भक्ति विचारों एवं विकारों को दूर कर चित्त शूद्धि कर सकेगी? इन सारी बातों का हमें विचार करना चाहिए । ‘‘छोटे बच्चों के घर घर के खेल जैसी मूर्तिपूजा चल रही है’’ मूर्तिपूजा में अद्भूत शक्ति भरी हुई है, वह केवल प्राथमिक अवस्था का साधन नहीं है पर अध्यात्म के चरम बिन्दु तक ले जानेवाला अनमोल मार्ग है, जिससे मनुष्य अपना सर्वांगीण विकास कर सकता है ।

आज अनेक लोगों के मन में मूर्तिपूजा यानी भगवान की खुशामद करना यही ख्याल है । मूर्तिपूजा करनेवालों को एवं उसका विरोध करनेवालों को भी वह क्यों है इसकी कल्पना ही नहीं है । मूर्तिपूजा यानी केवल भगवान की खुशामद करना नही है ।  इतना बडा विश्व ( Universe ) उसमें एक पृथ्वी का गोला, उसपर तीन भाग पानी और एक भाग जमीन, उसमें एक एशीया खंड, उसमें भारत एक छोटा देश, उस देश में एक संविभाग का मैं एक मंन्त्री ।  मैं भी हरेक की फाईल देखकर ही न्याय करता हूँ। मेरी कोइ्‍​र्र खुशामद करे यह मुझे पसन्द नहीं है तो फिर इतने बडे विश्व के सर्जक भगवान की कोई खुशामद करे तभी वह खुश हो सकता है यह बात तर्कसंगत नहीं है ।  आज की मूर्तिपूजा द्वारा लोग केवल भगवान की खुशामद कर रहे हैं ऐसा ही लगता है।
आज शास्त्रीय भक्ति की जरुरत है ।  आज की वर्तमान मूर्तिपूजा में तूलसीदल या बिल्वपत्र चढाना या अगरबत्ती या दीप प्रज्वलित करना और नैवेद्य लगाना भक्ति है, ऐसी धारणा प्रचलित है ।  इस कर्मकाणड का भी महत्व अवश्य है लेकिन भक्ति इतने में ही समाप्त हो जाती है यह मानना कहाँ तक उिचत है?
पूज्य दादा समझाते है कि मूर्तिपूजा तक सम्पूर्ण शास्त्र है (Idol worship is a perfect science)। यह बात बुद्धि से किसी को समझायी जाएगी तो आज की गतानुगतिक मूर्तिपूजा में क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा और मूर्तिपूजा विरोधी भी दिल और दिमाग से समझ लेंगे तो उनका विरोध तो रहेगा ही नहीं लेकिन संभव है कि उनका भक्त हृदय मूर्तिपूजा करने लगेगा ।

सर्वव्यापक भगवान को मूर्ति के रुप मेे ग्रहण कर मूर्तिपूजा करने की क्या आवश्यकता है यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है। मूर्ति की आवश्यकता मूर्तिपूजा के लिए है। मूर्तिपूजा द्वारा ही चित्त की एकाग्रता संभव है ।

चित्त की एकाग्रता क्या है? सामान्यत: आम धारणा यह है कि किसी भी वस्तु को एक नजर से देखने का नाम चित्त की एकाग्रता है लेकिन चित्त की एकाग्रता का इतना ही सीमित अर्थ हो तो उसमें क्या जीवन विकास संभव है? जीवन विकास का आधार मन है । ‘‘मन: एवं’ मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयो:’’। जीवन विकास करने के लिए मन पर परिणाम होना जरुरी है ।

चित्त एकाग्रता भौतिक नहीं है मानसिक है । क्योंकि चित्त जिसमें एकाग्र करना है उसीका आकार मन-चित्त को ग्रहण करना है ।  दूसरे शब्दों में कहें तो मन ही आकार खडा करता है ।  इसलिए मन यदि सर्वगुण संपन्न मूर्ति का आकार ग्रहण करे तभी मन में मूर्ति के गुण संक्रात हो सकते हैं ।

जीवन में मन काफी महत्वपुर्ण है ।  मन है तो सुनना है, मन है तो बोलना है, मन है तो सब कुछ है। मन को शांत करने पर ही नींद आती है ।  इस प्रकार इन्द्रियों के साथ मन होना चाहिए ।  इसलिए जीवन की प्रत्येक क्रिया में मन आवश्यक है ।  भोगार्थ भी मन है और मुक्ति के लिए भी मन है ।

गीता में भी भगवान ने कहा है ‘‘मन्मना भव’’ ।  व्यवहार में भी वक्ता श्रोता, पत्नी, पुत्र अधिकारी सभी  मन मांगते हैं ।  मन के बिना अनुशासनपूर्ण जीवन यान्त्रिक है । जीवन-विकास के लिए मन का शुद्धिकरण अत्यन्त आवश्यक है ।

मन को समर्थ शक्तिशाली, प्रगतिशील एवं संवेदनशील ( powerful, progressive, and scientific ) बनाना होगा ।  ऐसा मन किस प्रकार बनायेंगे? उसके लिए मन का  रंग बदलना पडेगा ।  मन जहाँ से आया है   वहाँ यानी भगवान में जोड देने से, उसका रंग बदल जाएगा ।

मन के दो भाग है।  एक ‘‘ज्ञ’’ (Experienced state of mind) दूसरा ‘‘अज्ञ’’ (Inexperienced state of mind ) मन का केवल एक चतुर्थांस भाग का हमें पता चलता है, तथा मन का तीन चतुर्थांस भाग अज्ञात है ।  मन के तीन चतुर्थांस की शुद्धिकरण के लिए शास्त्रकारों ने चित्त एकाग्र करने की सलाह दी है ।  इस प्रकार जीवन-विकास के लिए मन का शुद्धिकरण, मन का रंग बदलने के लिए मूर्तिपूजा की आवश्यकता ऋषियोंने आचार्यों ने समझायी है ।  मूर्तिपूजा भगवान की खुशामद (Flattery) नहीं है । ऋषियों ने मन को बदलने के लिए मूर्तिपूजा और उसके द्वारा चित्त-एकाग्रता का मार्ग दिखाया है । मन ही मूर्ति का आकार लेता है तब उसे ही एकाग्रता कहते हैं ।  ऐसी एकाग्रता अधिक समय तक टिकनी चाहिए ।  मन जब मुर्ति का आकर लेगा तभी मूर्ति के-भगवान के गुण मन में संक्रात होंगे।  फलत: मन शुद्ध होगा ।  चित्तएकाग्रता से चित्त-शुद्धि होनेपर जीवन का विकास भी होता है ।

मनुष्य सुख और विकास इन दो बातों की हमेशा अपेक्षा करता है ।  सुख के दो प्रकार हैं एक वस्तुनिष्ठ सुख (Objective happiness) और दूसरा आत्मनिष्ठसुख (Subjective happiness) वस्तुनिठ सुख (Objective happiness) में सुख का आधार व्यक्ति के सामने स्थित वस्तु या व्यक्ति है ।  इस सुख में लाचारी है, क्योकि सुख का आधार अन्य वस्तु या  व्यक्ति है । पत्नी को मुस्कराती देखने के लिए दिन-रात प्रयत्न करना पडता है ।  इतनी लाचारी के बाद भी यदि वह सुख प्राप्त हो तो हमारा अहोभाग्य! इस प्रकार वस्तुनिष्ठ सुख में लाचारी है, पराधिनता है ।

मानव की बुद्धि का विकास ( Intellectual development ) हो तभी पराधीनता पीडित करती है । मनुष्य को सुख चाहिए नियमित सुख चाहिए, कभी समाप्त न होनेवाला सुख चाहिए, ये सभी सुख की उत्तरोत्तर अपेक्षाएं हैं ।  बौद्धिक विकास के बाद ही मनुष्य अंतिम स्वाधीन सुख की अपेक्षा करता है । मनुष्य को टैक्सी से अपनी कार ज्यादा पसंद होती है उसमें स्वाधीनता का सुख हैै। ‘‘ मै चाहू तब प्राप्त कर सकता हूँ’ यह भाव स्वाधीन सुख है ।

मनुष्य को आत्मनिष्ठ सुख ( Subjective happiness ) किस तरह मिल सकता है इसका अनुभव कराने के लिए भगवान के नींद बख्शी है ।  नींद मे हमें आत्यान्तिक सुख ( Absolute happiness ) जैसा ही सुख प्राप्त होता है ।  नींद का अर्थ इतना ही है कि ( We want to forget every thing ) नींद में कुछ भी नहीं रहता ।  न पैसा, न संबंध न घर ‘‘मैं’’ भी नहीं यह सब चला जाता है, तभी नींद आती है ।

नींद में कुछ भी नहीं, खाते-पीते नहीं, फिर भी हम सुखी रहते हैं ।  ‘‘सारे विषयों को फैंककर तू आनन्दमय हो सकता है। ‘‘इसका मार्गदर्शन करने के लिए भगवान ने नींद बख्शी है ।  परन्तु सुप्तावस्था का यह सुख है ।  ऐसा ही आत्मनिष्ठ सुख ( Subjective happiness ) जागृत दशा में प्राप्त करने के लिए मूर्तिपूजा, चित्त-एकाग्रता है ।

इस प्रकार मूर्तिपूजा की आवश्यकता आध्यात्मिक, सांस्.तिक एवं भौतिक दृष्टिसे है ।  समग्र विश्व के विषय छोडकर चित्त एकाग्र करने से मनुष्य आत्मनिष्ठ सुख ( Subjective happiness ) प्राप्त करता है । और साथ ही साथ मन को भगवान में एकाग्र करने से उसका मन भगवान के गुणों को पकड कर शक्तिशाली, प्रगतिशाील एवं संवेदनशील ( Powerful, progressive, sensitive ) बनता है । फलत: जीवन का सर्वांगीन विकास होता है ।

मनोविज्ञान कहता है कि मन ग्रहणशील ( Receptive ) है ।  मन जिसमें लगता है वैसा ही होता है । जो सतत पैसे का चिन्तन करता है वह जड बनता है ।  जो स्त्री का चिंतन करता है वह स्त्रैण बनता है। वेदान्त के कीट-भ्रमर न्याय के अनुसार मनुष्य का मन जिसका चिंतन करता है, उसके समान ही हो जाता है ।  ‘‘अमृतोस्मि’’ कहकर अमृत का चिन्तन करनेवाला अमृतवृत्ति प्राप्त करता है । जबकि मुर्देका चिन्तन करनेवाला मृत बनता है ।
कीटो भ्रमर संयोगे भ्रमरो भवित धुवम् ।
मानव: शिव योगेन शिवो भवति निश्चितम् ।।
‘‘कीट सतत भ्रमर का चिन्तन करने से भ्रमर बन जाता है ।  उसी प्रकार शिव के सहवास से मनुष्य शिव बन जाता है ।  भगवत्स्वरुप में मन स्थिर कनेवाला मनुष्य दिव्य बनता है ।’’

रामायण में एक दन्त कथा है ।  सीता माता अशोक वृक्ष के नीचे विचार में खोई बैठी थी । उस समय त्रिजटा उसके पास जाकर पूछती है, ‘‘क्या विचार कर रही है? ’’सीता जवाब देती है, ‘‘हाँ मेरे सामने एक समस्या है ।  यदि वेदान्त का कीट-भ्रमर न्याय सत्य हो तो, सतत राम का चिन्तन करने से मैं राम बन जाऊँगी तो क्या होगा?’’ त्रिजटा कहती है, ‘‘बहुत अच्छी बात है! आप यदि राम बन जायेंगी तो राम को यहाँ आने की जरुरत ही नहीं पडेगी’’ तब सीता कहती है, ‘‘यह कैसे हो सकता है? मैं राम हो जाऊँगी तो हमारा दाम्पत्य सुख चला जाएगा । मुझे राम नहीं बनना है ।  मुझे राम की होकर रहना है । ‘‘त्रिजटा होशियार थी ।  वह कहती है, आपकी यही समस्या है न? तब आपको चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नही है ।’’ सीता ने कहा क्यो ?’’ उसने कहा, जिस प्रकार आप यहाँ राम का चिन्तन करती हैं । उसीप्रकार राम वहाँ आपका चिन्तन करते होंगे ।  फलत: राम सीता हो जाएंगे और आप राम हो जाएंगी ।  राम सीता होंगे इसलिए आपका दाम्पत्य सुख नष्ट नहीं होगा ।
इसप्रकार मन को यदि भगवान जैसा बनाना हो तो भगवान का ध्यान धरना जरुरी है ।  भगवान ने मूर्तिपूजा का महत्व (सगुण साकार भक्ति का महत्व ) गीता के बारहवे अध्याय में बहुत ही अच्छी तरह समझाया है ।
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता: ।।
                         (गीता 12-2)
(‘‘जो मुझमें मन लगाकर और सदा समान चित्तवाले रहकर परम श्रद्धा से मेरी उपासना करता है, वह मेरी (सगुण साकार भक्ति का महत्व ) गीता के बारहवे अध्याय में बहुत ही अच्छी तरह समझाया है ।
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता: ।।
                          (गीता 12-2)
(‘‘जो मुझमें मन लगाकर और सदा समान चित्तवाले रहकर परम श्रद्धा से मेरी उपासना करता है, वह मेरी दृष्टि से सबसे श्रेष्ठ योगी है।’’)

उपर्युक्त श्लोक में भगवान ने मूर्तिपूजा का सम्पूर्ण रहस्य बता दिया है । ‘‘मयि मन: आवेश्य’’ इसमें ‘‘मयि’’ (मुझमें) शब्द सगुण साकार के संदर्भ में ही प्रयुक्त हुआ है ।  निराकार में चित्त एकाग्र करना कठीन है । ‘‘हमारे घर की कुर्सी’’ ऐसा बोलते ही तुरन्त हमारे ध्यान में कुर्सी आ जाती है, क्योंकि उसमें गुण और आकार है परन्तु ‘‘हमारे घर का आकाश’’ ऐसा कहने के बाद कुछ  भी दृष्टि समक्ष खडा नहीं होता ।  केवल विचार में भी चित्त एकाग्र करना हो तो भी परेशानी होती है ।  तो फीर अलौकिक शक्ति में सरलता से चित्त एकाग्र कैसे हो सकता है? उपर्युक्त श्लोक में भक्ति का मेरुदण्ड दर्शाया गया है ।

मूर्ति में हमें एकाग्र होना चाहिए ।  जिसमें हम एकाग्र होते हैं उसे सर्वगुण संपन्न मानना चाहिए ऐसा आग्रह है ।  क्योंकि उसका प्रभाव हमारे मन पर होनेवाला है ।  इसी कारण विभिन्न मूर्तियोंं की उपासना और अर्थ समझाया गया है ।  ‘‘उपास्यानामनियम:। साधनानामकेता’’।

मूर्ति कौनसी लेनी चाहिए इसका निर्णय करने के लिए उपासक (साधक) स्वतंत्र है ।  एक मार्ग निश्चित कर लेना चाहिए ।  हमें कहां तक जाना है और कौनसा रास्ता पकडना है ।  इसका विचार किया जाना चाहिए ।  छोटे स्टेशन में एक ही प्लेटफार्म होता है ।  इसलिए चढने-उतरने की झंझट नहीं रहती । सभी बराबर चढेंगे कोई छूटेगा नहीं, परन्तु बोरीबन्दर जैसे स्टेशन में अनेक प्लेटफार्म हैं । वहाँ निश्चित करना पडता है कि हमें कहां जाना है ।  हार्बर लाईन से या मेन लाईन से कसारा तक या कर्जक तक । किस तरफ जाना है इसका निर्णय करके ही ट्रेन में बैठना होता है ।  इसी प्रकार जीवन-विकास के लिए एक निश्चित मूर्ति लेकर मन के शुद्धिकरण की आवश्यकता रहती है ।  मन के शुद्धिकरण के लिए सर्वगुण सम्पन्न मूर्ति में चित्त एकाग्र करना चाहिए ।  हम यदि हनुमानजी के उपासक हैं तो हमें केवल हनुमानजी की मूर्ति में ही चित्त एकाग्र करना चाहिए तो ही हममें हनुमानजी के दिव्य गुण संक्रात होंगे तथा हमें परमोच्च सुख की प्राप्ती होगी ।  इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है ‘‘और देवता चित्त न धरई, हनुमत सेई सर्व सुख करई’’।  इसमें तुलसीदासजी का एक ही देवता का इष्ट रखने का आग्रह है ।  चित्त एकाग्र करते समय एक ही रुपमें चित्त एकाग्र करो ।

हम किसी दिन अकेले बैठते ही नही! बैठते हैं तब भूत, भविष्य या वर्तमान लेकर ही बैठते हैं ।  कितने ही लोग भूतकाल तथा भविष्य काल में ही मग्न होते है, मनोराज्य में ही मग्न होते हैं । अकेला बैठकर भूत, भविष्य, वर्तमान को भूलना पडेगा तब कहीं मानसिक मूर्ति बना सकोगे ।  उस मूर्ति में सारी शक्ति होगी यह मानसिक कल्पना है ।  मन की यह मानसिक स्थिति (pshycological treatment) है। इससे मन प्रभावी बनेगा ।  इसीको कहते हैं पार्थिव पूजा! आज पार्थिवपूजा का इतना अर्थ रह गया है कि गणेशमूर्ति बनाना, उसकी पूजा करना और फिर विसर्जन कर देना ।  यह पार्थिव पूजा नहीं है ।

इस सृष्टि में मूल में सत्व, रज और तम ये तीन गुण हैं ।  इसी कारण मनुष्य भी त्रिविध प्र.ति के होते हैे ।  कुछ सात्विक वृत्ति के, कुछ राजसी वृत्ति के तो कुछ तामसी वृति के ।  भिन्न भिन्न प्र.तिवाले मनुष्य भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण लेकर चलते हैे ।  अत: इनकी ईश अर्चना भी उनकी प्र.ति के कारण भिन्न भिन्न होती है इसलिए इस संसार मेे मनुष्य भिन्न-भिन्न देवताओंका पूजन करते हैं ।  महिम्न स्तोत्र में पुष्पदंत कवि कहते हैं- ‘‘रुचीनां वैचित्‍र्याऋजु कुटिल नानापथजुषां’’ लोगों के रुचि-वैचित्‍र्य के कारण ही वे भिन्न-भिन्न देवताओंका पूजन करते हैं । लोगों की प्रकृति में अंतर होने के कारण उनकी ईश-कल्पना में भी अन्तर रहेगा ही ।  इसलिए किस आकार में, किस स्वरुपमें ईश्वरका पूजन करना चाहिए इस सम्बन्ध में शास्त्रकारोंने कोई आग्रह नहीं रखा ।  हमारे शास्त्रकार कहते हैं, ‘‘आपके दिल में जो बसे वही मूर्ति ले लीजिए और श्रद्धा से भक्ति कीजिए ।  हमारी संस्कृति में यहाँतक स्वातंत्‍र्य है कि बाप शैव हो तो पुत्र वैष्णव हो ।  इसके फल स्वरुप कुछ लोग शिव को मानंगे और कुछ लोग विष्णु को ।  अज्ञान के कारण उनके बीच झगडा होता इस झगडे को मिटाने के लिए भगवान कहते हैं कि-
यो यो यां यां तनु भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धा तामेव विद्धाम्यहम् ।।
सतया श्रद्धय युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हितान् ।।
‘‘जो व्यक्ति जिस देव का भक्त होकर श्रद्धा से उसका पूजन करने की इच्छा करता है उस व्यक्ति की उस देव के प्रति श्रद्धा को मैं दृढ करता हूँ’’  ‘‘श्रद्धा दृढ होने पर वह व्यक्ति उस देव का पूजन  करता है और मेरे द्वारा निर्धारित उस व्यक्ति की वांछित कामनाएँ  उसे प्राप्त होती है ।’’ इस दृष्टि से देखने पर मूर्ति को परम्परा का समर्थन प्राप्त है ऐसी हमारे आराध्य देव की मूर्ति में ही चित्त सरलता से एकार्ग हो सकता है ।

शास्त्रकार का कथन है कि हमारे मन का बहुत बडा भाग अज्ञात है ।  ज्ञात मन का छोटा हिस्सा भी हम अपने अपने निमंत्रण में नहीं रख सकते, तो विशाल अज्ञात मन पर कैसे नियंत्रण कर सकेंगे? मनोनिग्रह कितना कठीन है यह बात गीता में अर्जुन ने भी भगवान के समक्ष प्रस्तुत की है ।
चंचल हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।
                        (गीता 6-34)
‘‘ हे कृष्ण! मन बलवान, चंचल, बलपुर्वक खींचनेवाला और आसानी से वंश में नहीं हो सकता। इसलिए मन को नियंत्रण में रखना वायु को रोकने के बराबर है।’’ अर्जुन के इस प्रश्न का जवाब देते हुए भगवान  कहते हैं ।
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृहते ।।
                   (गीता 6-33)
हे महाबाहु अर्जून! सचमुच मन चंचल है एव निग्रह करने में कठीन है ।  फिर भी सतत अभ्यास एवं वैराग्य से हे कुन्तीपुत्र! उसे वश में किया जा सकता है ।  योगदर्शनकार ने इस प्रकार के दृढ अभ्यास को बहुत ही महत्व दिया है ।  मन को विशुद्ध करने का अभ्यास सतत दीर्घकाल पर्यन्त एवं सद्भावपूर्वक चलना चाहिए ।  यह अभ्यास कैसे किया जाय यह एक बडा प्रश्न है । इस अभ्यास योग में पाँच बातें अपेक्षित है- 1) आदरबुद्धि 2) दृढता 3) सातत्य 4) एकाकीभाव और 5) आशारहितता

1) आदरबुद्धि :- प्रभु के लिए आत्यन्तिक प्रेम होना चाहिए ।  इसी प्रकार चित्त एकाग्रता के साधन मार्ग पर भी अन्त:करण का सच्चा भाव होना चाहिए ।
2) दृढता :- दृढ मनोबल एवं निश्चय ही अभ्यासयोग में सहायक तत्व है । कितने ही प्रलोभनों के बीच अभ्यास चालू रखना महत्वपूर्ण है । ‘‘चित्तएकार्ग करने के लिए मै बैठूंगा ही’’ ऐसा आग्रह होना चाहिए।
3) सातत्य- अभ्यास में सातत्य रहना चाहिए ।  सफलता जल्दी नहीं मिलती इसलिए थककर सातत्य तोडना नहीं चाहिए ।  किया हुआ परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता ।  स्वल्पमस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्- इस गीता वाक्य पर दृढ श्रद्धा होनी चाहिए ।
4) एकाकी भाव:- अकेले बैठने की आदत डालनी चाहिए ।  भूतकाल (विगत स्मृति) एवं भविष्यकाल छोडकर बैठना भी आना चाहिए ।  नि:सर्ग भगवान के बाद ( Next to god ) विशुद्ध तत्व है, इसलिए ऋषि निसर्ग में जाकर बैठते थे ।
5) आशारहितता :- भावी स्वप्नों में खो जाना मन का स्वभाव है । इसलिए आशारहित होने के लिए कर्म करने के बाद उसके फल भगवान को सौंप देना चाहिए ।  गीताकार ने सारी बाते संक्षेप में समझायी है-
योगी युंजीत सततम् आत्मानं रहसि स्थित: ।
एकाकी   यतचित्तात्मा   निराशीरपरिग्रह:  ।।
योगी को एकान्त में स्थिर बैठकर अकेले रहना चाहिए और मन, इन्द्रिय तथा शरीर को नियमन में रखकर, सर्व तृष्णाओं से रहित होकर एवं संग्रह-वृत्ति से दूर रहकर आत्मा को निरन्तर परमात्मा में सावधानी से एकाग्र करना चाहिए अर्थात् परमात्मा के साथ  अपनी एकता स्थापित करने का प्रयत्न करना चाहिए । ऐसा दृढ अभ्यास जब होगा तभी मन शुद्ध हो सकेगा ।  ऐसा शुद्ध मन और बुद्धि भगवान में जो स्थिर करता है उसका विकास निश्चित ही है। उसमें संशय रखने की गीताकार भी स्पष्ट ना कहते हैं ।

जब तक मन कमजोर हो तब तक भुक्ति, भक्ति और मुक्ति भी संभव नहीं है ।  मन को स्वस्थ समर्थ बनाने का, शुद्धकरनेका, विकारों के उध्‍र्वीकरण (Sublimation) का एक ही रास्ता है-शास्त्रीय मूर्तिपूजा ! मूर्तिपूजा के बिना मन:स्वास्थ्य संभव ही नहीं है ।
जैसी जिसकी मन:स्थिति, वैसी उसकी ग्रहणशीलता ।  इसलिए मन:स्थिति स्थिर होनी चाहिए । अत: एक घंटा चित्त एकाग्र करना हो तो चौबीस घंटे मन की ओर ध्यान देना पडेगा ।  इसलिए ही प्रात:काल सबसे पहले मूर्ति का ध्यान धरना आवश्यक है ।  इसीलिए तुलसीदासजी लिखते हैं कि हनुमानजी के उपासकों को केवल हनुमानजी की मूर्ति में चित्त एकाग्र करना चाहिए उसके लिए उपरोक्त बातों का मनन चिंतन कर उसके लिए अभ्यास करना चाहिए तो ही हमें आत्मनिष्ठ सुख की प्राप्ती होगी ।  इसलिए लिखा है ‘‘और देवता चित्त न धरई । हनुमंत सेई सर्व सुख करई।’’

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