Sunday, July 3, 2011


चौपाई:-राम रसायन तुम्हरे पासा । सदा रहो रघुपति के दासा ।।   (32)
अर्थ :आप निरन्तर श्री रघुनाथजी की शरण में रहते हैं, जिससे आपके पास वृद्धावस्था और असाध्य रोगों के नाश के लिए  राम-नाम  रुपी औषधी है ।
गूढार्थ : तुलसीदासजी इस चौपाई में हनुमानजी का दास्यभाव पर प्रकाश डालते हैं, तथा भगवान राम के प्रिय बनने के लिए कौनसा रसायन चाहिए उसका वर्णन करते हैं ।  जिस प्रकार शक्ति संपन्न और कर्तृृत्ववान हनुमान का बाल भाव चित्रित किया गया है उसी प्रकार उनके उत्.ष्ट दास्यभाव भाव पर भी तुलसीदासजीने हनुमानचालीसा में प्रकाश डाला है ।

राम हनुमान से पूछते हैं, ‘‘तुझे क्या चाहिए?’’ तब हनुमान उत्तर देते हैं, ‘‘आपके उपर से प्रेम-भक्ति कम न हो, तथा राम के अतिरिक्त अन्य भाव निर्माण न हो, मुझे यही चाहिए।’’ उन्होने मुक्ति अथवा स्वर्ग नही मांगा ।  राम उनको वैकुण्ठ नहीं ले गये, यहीं छोड गये, परन्तु उनके दिल में राम ही है ।  ‘‘जहाँ तक राम कथा है वहाँ तक हनुमान अमर है ।  रामकथा जहाँ चलेगी वहाँ मारुतिराय की कथा चलेगी ही ।
कुलं पवित्रं जननी .तार्था वसंुधरा पुण्यवती च येन ।
अपारसंसारसमुद्रमध्ये लीनं  परे ब्रम्हणि यस्य चेत: ।।
उन्होने सारा कुल पवित्र कर दिया, माता की प्रसुति-वेदना का दु:ख भुला दिया; ऐसा बालक उत्पन्न हो जाए तो माँ स्वर्ग मे जाएं, नहीं तो दस बालकों को जन्म देकर भी क्या लाभ? भगवान को जिसकी आवश्यकता पडी, भगवान जिसे अपना कहे; उसकी माँ .तार्थ होनेवाली ही है । धन्य वह हनुमान, धन्य वह अंजनी जिसके पेट में इन्होने जन्म लिया। हनुमान एक कतृ‍र्त्ववान,  राजनीतिज्ञ पवित्र बाल भाव वाले, उत्.ष्ट दास्य भाव वाले भक्त साक्षात् मूर्तिमंत ज्ञानी थे। रामदास स्वामी ने दास मारुति और वीर मारुति ऐसी दो मूर्तियों की स्थापना की है ।
एक बालक से पूछा गया कि उसे दास मारुति अथवा वीर मारुति में कौन पसंद है ।  बालक ने उत्तर दिया ‘दास मारुति’ ।  जो दास हो सके वही वीर होता है ।  हनुमानजी का शौर्य उनके दास्यभाव में है । दास मारुति बनोगे तो वीर मारुति बन जाओगे ।  जो राम को जीत ले वह रावण को तो जीतेगा ही ।  दास मारुति में राम को जीतने का भाव है, राम को जीत लेने में ही महानता है, उसी में कुछ विशिष्टता है । राम अपने बिना एक कदम भी न चल सके ऐसी अपने जीवन की परमोच्च आवश्यकता हनुमानजी ने निर्माण की थी।  रामायण में से हनुमान को निकाल दो, सुन्दरकाण्ड को निकाल दो और फिर रामायण पढो तो रामायण का रस चला जाएगा ।  राम को जीतने में ही बुद्धि एवं शक्ति का वास्तविक कार्य है ।  राम को जीतने के लिए रावण को जीतने में कोई विशेषता नहीं है ।  इसलिए हनुमानजी ने राम को जीतकर अपनी महानता और कर्तत्व का परिचय दिया है, और इसीलिए हनुमानजी के जीवनमें एक विशिष्टता दीख पडती है, और वह है प्रभु के प्रति उनका दास्य भाव । पराक्रम का मूल, बुद्धि की नींव और विमोचन शक्ति का आरंभ प्रभु के दास्य भाव से होता है ।  परन्तु चरित्र, ज्ञान, पावित्‍​र्य, निर्भयता इत्यादि के बिना दास्य भाव नहीं आता ।

तुलसीदासजी लिखते हैं कि यदि हमें जीवन में हनुमानजी की भांति दास्य भाव लाकर भगवान की भक्ति करनी है तो उसके लिए राम रसायन चाहिए ।  यह राम रसायन क्या है?  चार बातों के मिश्रण से जो रसायण बनता है उसे राम रसायन कहते हैं ।  .तज्ञता, आत्मीयता की अनुभूति, वात्सल्य का अनुभव और विश्वास, इन चार बातों के मिश्रण से जो रसायण बनता है उसे भाव कहते हैं ।  यही राम रसायन है।  राम रसायन यानी भगवान राम के प्रति भाव निर्माण होने के लिए इन चार बातों की आवश्यकता है । हनुमानजी के जीवन में ये चारों बातें थी इसलिए उनका दास्यभाव भी उत्कृष्ट है। जिनके जीवन में यह चार बाते होती हैं वह हनुमानजी की तरह राम का दास बन सकता है ।
हम व्यवहार में कहते है कि माँ के लिए भाव है, पिताजी के लिए भाव है तथा भगवान के लिए हमारे मन में भाव है ।  यह भाव एक रसायन है ।  भाव नाम की कोई वस्तु बाजार में नहीं मिलती ।  भाव एक संयोजन है ।  चार बातों के मिश्रण से भाव उत्पन्न होता है ।  एक मेरे लिए किसीने कुछ किया है । अत: .तज्ञता खडी होती है, उसमें वात्सल्य की अनुभूति आती है । उसी तरह अन्त:करण में विश्वास निर्माण होता है । ये चार बातें मन में एकत्र होती है तब एक मानसिक रसायन उत्पन्न होता है, उसी को भाव कहते हैं, यही राम रसायन है ।  यह राम रसायन जिसने जीवन में अनुभव कीया उसके जीवन में भगवान के प्रति दास्य भाव निर्माण होता है ।  ऐसा तुलसीदासजी कहते हैं ‘राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा।’

सर्वप्रथम कृतज्ञता निर्माण होती है ।  जो कृति से उत्पन्न होती है उसका नाम कृतज्ञता है । यह स्थूल है ।  इच्छा से उत्पन्न हुई कृतज्ञता सूक्ष्म है ।  नजर से हुई कृतज्ञता पवित्र है । मेरे पास पैसा आया ।  मुझे पैसा कृति से मिला, किसीने मुझे कृति से मदद की अत: मुझे पैसे मिले। दलाल ने तुम्हे पैसे दिलाये हो तभी उसके प्रति तुम्हारे मन में कृतज्ञता होती है ।  उसी तरह भगवान ने तुम्हे पैसे दिये हैं ।  अत: भगवान के प्रति तुम्हारे अन्त:करण में कृतज्ञता रहती है ।  इन दोनाें कृतज्ञताआें में अन्तर है ।  दलाल के प्रति भी तुम्हारे अन्त:करण में कृतज्ञता है ।  भले ही दलाल ने आयमें से अमुक भाग लिया हो, कमिशन लिया हो मगर वह पैसा देता ही है ।  यदि दलाल ग्राहक न लाये तो धन्दा कैसे चलेगा?

किसीकी इच्छा से होनेवाली कृतज्ञता सूक्ष्म है और किसी की नजर से होनेवाली कृतज्ञता पवित्र है । उसमें आत्मीयता है ।  मनुष्य को ऐसा लगता है कि क्या किसीने मेरे लिये काम किया होगा? वास्तव में उसे मेरे पास से कुछ लेना नहीं है, उसे उसकी जरुरत भी नहीं है, फिर भी काम किया ।  जन्मान्तर के ऋणानुबन्ध भी यही भाव खडा करते हैं ।  आत्मीयता का अनुभव पानेपर वात्सल्य की अनुभूति होती है । मैने किसी से कहा न था फिर भी उस व्यक्ति ने मेरे लिए काम किया ।  उपकार शून्य, न मांगते हुए न कहे हुए फुटे झरने को वात्सल्य कहते है ।  वात्सल्य करनेवाला जिसपर वात्सल्य करता है, उसपर वह उपकार नहीं करता । उसमें जरा भी उपकार की भावना नहीं होती । उपकार करुँ तो पुण्य माना जाएगा, मैं किसीकी मदद करता हूँ मगर वात्सल्य से नहीं करता हूँ ।  वात्सल्य में एक अलग ही भाव है । वात्सल्य निष्कारण है ।  भगवान, गुरु तथा महापुरुष के लिए हमारे मनमें वात्सल्य का झरना फुटे तब हमारे मन में भाव उत्पन्न होता है ।

कृतज्ञता, आत्मीयता की अनुभूति और वात्सल्य का अनुभव तथा विश्वास, इन चार बातों के मिश्रण से जो रसायन बनता है उसका नाम भाव है । त्वमेव माताच पिता त्वमेव-ऐसा केवल वाणी से बोलना अलग और वहाँ से वात्सल्य का अनुभव पाना अलग बात है ।  भगवान है तो मेरा और भगवान का सम्बन्ध क्या है? यह सर्वप्रथम निश्चित होना चाहिए ।  सम्बन्ध निश्चित होनेपर भक्ति शुरु होती है । जो सम्बन्ध निश्चित होता है उसी के अनुरुप हमें ढलना चाहिए ।  भगवानने गीता में कहा है: ये यथा मां प्रपद्यन्ते तास्थैवभजाम्यहम्् ।  यहाँ भगवान कहते हैं कि तुम जैसे कपडे पहनोगे, उनके अनुकूल वैसे ही कपडे मैं भी पहनूँगा ।  सर्वप्रथम तुम कौनसी सीढी पर हो यह निश्चित करो ।  भक्ति में भगवान कैसे हैं उसे सुनना है और हमें कैसे बनना है उसका विचार करना है ।  यदि ये दो बाते न होती होगी तो भक्ति नहीं होती ।

भगवान मेरे मालिक हैं ।  भगवान मालिक, दाता, शासक, पालक, पिता, मित्र और स्वामी भी हो सकते हैं ।  गीता में अर्जून ने तीन स्थितियाँ बतायी है,-पितेव पुत्रस्य सखेव सख्यु: प्रिय: प्रियायार्हसि देव सोढुम ।  यह सब भक्ति की पूजा सामग्री है, उसे जीवन में लाना चाहिए, तो भक्ति की जा सकती है । भक्ति की यह वृत्ति जब दृढ होती है तब ‘सदा रहो रघुपति के दासा’ हो सकता है भावभक्तिचे लग्न लागे जरि तव .पा होई......भगवान, आपकी .पा हो तो ही भाव और भक्ति  का लग्न  (विवाह) होता है, मिलन होता है ।
भक्ति जिज्ञासा में से उत्पन्न होनी चाहिए ।  बुद्धि में कृति का निश्चय होना चाहिए ।  भक्ति वैयक्तिक जीवन में आश्रय है तो सामाजिक जीवन में आवश्यकता है ।  हम भक्ति का अर्थ स्तुति करना समझते हैं हम समझते है जो स्तुति करता है उसे मरने के बाद फायदा होता है, जो भगवान की ज्यादा प्रशंसा करता है वह भगवान को अच्छा लगता है मगर वास्तव में ऐसा नहीं होता ।
भक्ति भगवान की प्रशंसा करने के लिए नहीं है बल्कि मानवी जीवन बदलने के लिए है । सामाजिक जीवन में भी भक्ति की आवश्यकता है। तुम्हारी दूसरी कितनी भी चीजे हाें मगर जिसने हमें जन्म दिया, संभाला खडा किया तथा जिसके कारण हम जी रहे है- एते जीवन्ति येन उसके प्रति कृतज्ञता, आदर तथा भाव होने ही चाहिए ।

भगवान हम पर प्रेम करते हैं, उपकार करते हैं, उसका सतत स्मरण रहना चाहिए ।  भगवान हम पर वात्सल्य की वर्षा करते हैं, उसकी अनुभूति होनी चाहिए ।  तुम्हारा लडका तुम्हारे पास कपडा नहीं मांगता है, फिर भी तुम उसे कपडे पहनाते हो, तुम अपने स्वार्थ के लिए उसको कपडे पहनाते हो । इसीको वात्सल्य कहते है ।  भगवान के पास ऐसा वात्सल्य है ।  इसीलए भगवान ने हमें, लाखों रुपये देकर भी न मिल सके ऐसी अमूल्य आँखे, हृदय, जठर, कान नाक आदि अवयव दिये हैं ।  वही हमें संभालते हैं ।  यह सब वे क्यों करते हैं, वात्सल्य के कारण भगवान यह सब करते हैं ।  भगवान की हमपर आत्मीयता है, उसका अनुभव होना चाहिए ।  यह सब हमारे जीवन में हो तो भगवान के लिए अन्त:करण में भाव पैदा होता है ।

सर्जक ने जो जगत निर्माण किया है, शरीर बनाया है उसकी कद्र होनी चाहिए । वाह! क्या शरीर बनाया है ।  शरीर में अमुक प्रमाण में शक्कर चाहिए, यह प्रमाण किसने निश्चित किया? रक्तचाप (Blood pressure) 80 से 120 होना चाहिए तभी शरीर ठीक से चलता है । उसमें ज्यादा नहीं होना चाहिए ऐसा किसने कहा? क्या तुमने कभी इसका पता लगाया? यह बुद्धि चातुर्य है इसमें शंका नहीं है, परन्तु हमारा शरीर, यह प्र.ति इन सबको देखने के बाद जिसके अन्त:करण में इनके सर्जक के प्रति कद्र की भावना निर्माण नहीं होती वह भक्त नहीं हो सकता ।

जो केवल स्वार्थ या वासनापूर्ति के लिए मंदिर में जाते हैं वे भी भक्त नहीं है । सुबह उठने के बाद भगवान को नमस्कार करना लाचारी नहीं है बल्कि भगवान ने मुझे उठाया उसकी कद्र है ।  इसलिए सुबह उठते ही कराग्रे वसते लक्ष्मी करमूले सरस्वती .ति का आवेश है । इस प्रकार भगवान के प्रति .तज्ञता का गुण जीवन में लाने का प्रयत्न करना चाहिए।

आत्मीयता की अनुभूति होनी चाहिए ।  अनुभूति दो प्रकार की हो सकती है । एक सामीप्यानुभूति और दूसरी आत्मीय अनुभूती । तुम अपने लडके को देखते हो तब आत्मीयता का अनुभव करते हो ।  यह तुम्हारी आत्मीयानुभूति हुई ।  पडोसी के लडके को देखते हो तब तुमको आत्मीयता का अनुभव नहीं होता यह तुम्हारी सामीप्यानुभूति हुई । संस्कार आत्मीयता से अधिक दृढ बनते हैं । आत्मीयता निर्माण करो । आत्मीयता कैसे निर्माण होगी? ऋषियोंके संस्कारों की निर्मिति करनी हो तो उनके प्रति आत्मीयता निर्माण करो । ‘मै आपका पुत्र हूँ।’ यहाँसे प्रारंभ करना ।  आप मेरे पिता हैं ।  इसलिए गोत्र आया । लोग पूछते हैं, ‘एक ही गोत्र के हजारों लोग कैसे? एकाध परिवार ने निश्चित किया होगा कि अत्रि ऋषि से आत्मीयता साधनी है, इसलिए उन्होने ‘ अत्रि गोत्र के हैं ’ ऐसा जाहिर किया होगा ।  गीता के लिए आत्मीयता रखें। उत्.ष्ट संस्कार कराने होंगे तो ‘रामायण’ मेरी है, ‘भगवद््गीता मेरी है’ ऐसा लगना चाहिए ।  जो ग्रंथ पढना है उसके प्रति आत्मीयता और आदर होना चाहिए ।  ‘स्थान मेरा है’ ऐसा लगा तो आत्मीयता के संस्कार पडते है ।  कहनेवाला ‘अपना’ लगना चाहिए ।  इसलिए गीता पढने के पहले श्री.ष्ण चरित्र पढो। हनुमान चालीसा पढने के पहले हनुमत चारित्र पढो ।  रामायण पढने के पहले राम चरित्र पढो महाप्रभुवल्लभाचार्य ने भी कहा कि प्रथम श्रीकृष्ण चरित्र पढो ।  उसमें भाविवभोर बनकर सात दिनों के बाद यानी भागवत सप्ताह पूर्ण होने पर गीता का पारायण करना ।  अबतक वह रुढी चल रही है ।  अब गीता पढने के प्रति अरुचि हुई है ।  मूल बात यह है कि श्री.ष्णके प्रति आत्मीयता निर्माण हूई तो उसका कारण उनकी कही हुई गीता के संस्कार होंगे ।  मेरी गीता, मेरे कृष्ण भगवान, मेरी रामायण मेरे राम, मेरी हनुमान चालीसा, मेरे हनुमान इस प्रकार की विषय की जितनी आत्मीयता उतना उसका संस्कार दृढ होता है । आत्मीयता से संस्कार अधिक दृढ बनते हैं । आत्मीयता की अनुभूति हनुमानजीमें थी उसी प्रकार यह अनुभूति हमें भी रखनी चाहिए तभी हम राम के दास बन सकते हैं ।

पुराने  समय में ऋषि मुनियो ने इस सृष्टि की पुस्तक को पढा और पढकर जीवन विकसीत किया। उनको हिमालय जैसे उत्तंुग पर्वतोंने स्थैर्य, सागर ने गम्भीरता, आकाश ने व्यापकता, चन्द्र ने शीतलता और लता पल्लवों ने मार्दवता तथा कोमलता का ज्ञान दिया ।  निसर्ग एक महान शिक्षक है ।  मानवेत्तर सृष्टि का मानवाें के साथ सम्बन्ध आता है । इसलिए हमारे यहाँ वृक्ष आदि का पूजन होता है । वृक्ष की पूजा उपयुक्तता की दृष्टि से नहीं की जाती । वृक्ष हमको फल फूल देते हैं, छाया देते हैं इसलिए उनकी पूजा नहीं की जाती, अपितु उनके प्रति होनेवाली आत्मीयता की दृष्टि से उनकी पूजा होती है ।  निसर्ग जीवन्त गुरु है, और जिस प्रकार गुरु के पास शिष्य का मन खिलता है, उसी प्रकार निसर्ग के पास मनुष्य को खिलना चाहिए ।  जगत की ओर उपयुक्तता की दृष्टि रखने से जीवन विकास नहीं होता ।  इस प्रकार कृतज्ञता के साथ आत्मीयता का भाव मनुष्य में होना चाहिए ।  यह भाव निरन्तर बढना चाहिए तो ही हम हनुमानजी की भांति राम के दास हो सकते हैं ।

भक्तियुक्त अन्त:करण करने के लिए सर्जक पर विश्वास होना चाहिए ।  मेरा कोई सर्जक है, मुझे कोई सम्भालनेवाला है, वह करुणामय है, प्रेममय है ऐसा विश्वास होना चाहिए ।  हमेे कोई दु:ख हुआ तो इसके लिए भगवान को दोष देने का कोई कारण नहीं है ।  मानव के जीवन विकास के लिए कभी दु:खों की अपेक्षा होती है ।  उसी तरह आवश्यकता भी होती है ।  इसलिए सर्जक पर प्रथम विश्वास होना चाहिए। उसके कारुण्यपर, अस्तित्व पर पूर्ण विश्वास रखना बहुत ही कठीन है। यदि हमें भगवानपर विश्वास न हो तो? एकाध बार कोई काम हमारे मन के अनुसार न हुआ तो हमें भगवान के वात्सल्य पर शंका आती है । आदमी को तुरन्त लगता है कि भगवान ने ऐसा क्यों किया? उस समय विचार करना चाहिए कि क्या भगवान हमारा बुरा चाहेंगे? बुरा करने की बात तो दूर रही, कई बार जीवन में हमारे मन के अनुसार नहीं होता, हमारे मन के विरुद्ध होता है । परन्तु क्या मन के विरुद्ध नहीं होना चाहिए? जीवन संग्राम में मन को प्रभावी बनाना होगा तो उसके लिए कितनी ही बातों की जरुरत है ।  मन के विरुद्ध कुछ होना ही चाहिए ।

लडकों का शरीर सुदृढ बनाने के लिए पी.टी.शिक्षक उन्हे व्यायाम कराता है, मैदान में दौडाता है, खेल खिलाता है । वास्तव में लडकों को शान्त, स्वस्थ बैठकर गुलाबजामुन खाना पसंद है मगर शिक्षक उसे उठाकर व्यायाम कराता है, पसीना बहाकर वह क्यों खेल खिलाता है? किसलिए दौडाता है? लडके को ज्यादा भूख लगे और उसकी तबीयत अच्छी रहे तथा शरीर सुदृढ बनाना जरुरी है ।  जिस प्रकार शरीर को सुदृढ बनाना आवश्यक है उसी प्रकार मन को भी सुदृढ बनाना जरुरी है ।  उसी के लिए हमें अच्छी न लगनेवाली बाते, मन के विरुद्ध बाते जीवन में घटते रहती है ।  मुझपर, भगवान  का कमाल का प्रेम है इसीलिए भगवान इन सारी बातों को मेरे जीवन में लाते हैं ।
महाभारत में एक घटना घटी है ।  दुर्योधन को लगा कि पांडवों को हम मार नहीं सकते ।  अब क्या करें? उसे पांडवों की एकता भी मालूम थी कि एक पांडव मर गया तो सभी भाई देह त्याग करेंगे ।  उसने एक तरकीब निकाली उसने एक प्रचार मंत्री ( Propogonda minister ) को युधिष्ठिर के पास भेजा । पांडवो की कमजोर दुर्योधन को पता थी ।  चार्वाक माथे पर भस्म लगाकर ब्राम्हण का रुप धारण कर आता है ।  चार्वाक धर्मराज के पास आता है ।  धर्मराज उसका सत्कार करते हैं-‘आईये आप ब्राम्हण हैं न?’ वह कहता है हाँ, मगर मैं बहुत थक गया हूँ ।  पहले मुझे पानी पिला दो ।  मुझे प्यास लगी है । युधिष्ठिर ने पूछा ‘आप क्याें थके हो?
चार्वाक कहता है: ‘क्या कहूँ आपसे?’ मैं अभी अर्जुन तथा दुर्योधन का गदायुद्ध देखकर आ रहा हूँ ‘अरे, मुझे लगता है कि आपको कोई गलतफहमी हुई है ।  अर्जुन और दुर्योधन का गदायुद्ध कैसे शक्य है? अर्जुन गदायुद्ध में क्या जानता है? भीम और दुर्योधन का गदायुद्ध आपने देखा होगा’ युधिष्ठिर ने ब्राम्हण से कहा ।
चार्वाक कहता है, ‘नहीं, मैं प्रत्यक्ष देखकर आया हूँ ।  भीम मर गया तो अर्जून क्या करता? उसने धनुष्यबाण रख दिये और हाथमें गदा लेकर दुर्योधन के साथ गदायुद्ध करने लगा ।  अर्जून ने कहा भी कि जिस रास्ते से मेरा भाई भीम गया उसी रास्ते मैं भी जाऊँगा ।  ऐसा कहकर दुर्योधन के साथ गदायुद्ध कर रहा है ।  उसे मैं अपनी आँखोंसे देखकर आया हूँ ।

युधिष्ठिर की एक कमजोरी थी, उसे चार्वाक अच्छी तरह जानता था ।  ताऊ (धृतराष्ट्र) ने जुआ खेलने बुलाया इसलिए युधिष्ठिर जुआ खेलने गया, तो इतना पवित्र ब्राम्हण युधिष्ठिर से कह रहा है तो क्या युधिष्ठिर उसकी बात सच न माने? जरुर मानेगा ।

युधिष्ठिर ने चार्वाक की बात मान ली ।युधिष्ठिर को लगा कि भीम के जाने के बाद अर्जून गदा युद्ध में दुर्योधन के सामने कहाँ टिकेगा? वह भी मर जाएगा ।  अब क्या करे? मैं भी जीकर क्या करुँ? युधिष्ठिर ने कहा, ‘चलो अग्नि जलाओ मुझे जलती लकडी भक्षण करके मरना है ।  अग्नि जलाने के लिए तथा मंत्राग्नि बोलने के लिए ब्राम्हण चाहिए ।  चार्वाक ने कहा, मैं बैठा हूँ न? उसने मनमें कहा, इसीलिए तो मैं आया हूँं ।

सारी तैयारियाँ हो गयी ।  युधिष्ठिर जाते जाते सभी को अन्तिम सूचनाएं देता है । अन्त में युधिष्ठिर कहता है, ऐसा तो शक्य नहीं है, फिर भी शायद अर्जुन विजयी हुआ तो उसे मेरा संदेश अवश्य पहुँचाना ।  अकरुणां क्षात्रपदवी मा गा: अतिशय भयंकर, निष्ठुर आैर निर्दय क्षत्रिय जीवन का तू मत होना।  तुम यादवों के घर जाकर रहना, अथवा जंगल में रहना, परन्तु एक बात ध्यान में रखना, तुम्हे तो पता ही है कि दुर्योधन ने भीम को कैसे मारा ।  मुझे तो यकीन था कि भीम गदायुद्ध में मर ही नहीं सकता। इसका कारण भीम इस तरह से मरने के लिए नहीं जन्मा है ।  या तो बलराम ने दुर्योधन को इशारा किया, उसके मुताबिक दुर्योधन ने प्रहार किया और उसीसे भीम मरा है ।  इसलिए भीम के इस प्रकार मरने में बलराम कारण है ।  शायद कृष्ण की वैसी इच्छा रही होगी ।  अब अगर तू जीवित रहे तो बलराम पर क्रोध मत करना ।  इससे पाण्डवों का भगवान पर प्रेम दिखाई देता है ।  सर्वस्व चला गया फिर भी भगवान के विरुद्ध एक शब्द भी उनके मुँसे नहीं निकला ।  इसके विपरीत, भगवान को क्या लगेगा इसीका वे विचार करते थे ।  इन लोगाें ने कैसे अन्त:करण बनाये होंगे! जरा भी हमारे मनके मुताबिक न हुआ तो तुरन्त हम भगवान से कहते हैं ‘ तू देखता है या नहीं ’ क्या तेरी आँख फूट गयी है? जरा दु:ख आया तो हम ऐसे बोलते हैं ।  यहाँ युधिष्ठिर पर तो दु:ख का पहाड टूट पडा है, उसका सर्वस्व चला गया है । उस समय भी उसका भगवान के ऊपर का प्रेम अंशमात्र भी कम नहीं हुआ ।  महाभारत में ऐसे कितने ही भाव प्रसंग हैं ।

भगवान पर दुर्दम्य विश्वास होना चाहिए, भक्तिमें यह अत्यावश्यक बात है ।  हमारे पास सब कुछ होता है मगर भक्ति न हो तो अन्दर से अस्वस्थता उत्पन्न होती है ।  श्रीमद््आद्यशंकराचार्य कहते हैं-
सुरुपं शरीरं नवीनं कलत्रं, धन मेरुतुल्य वचस्चारु चित्रं ।
हेरर​िड़्घ्रपे मनश्चेन्न लग्नं, तत: किं तत: किं तत: किं तत: किं ।।
शरीर सुरुप है, युवानी है, सुन्दर पत्नी है, मेरु पर्वत जितना धन है, यह सब मेरे पास हैं फिर भी तू अस्वस्थ है, उसका कारण क्या है? क्या तुझे पता है? हरि के चरणों में तुमने अपना मन एकाग्र नहीं किया, भक्ति नहीं की ।  फिर क्या होगा?

जगत के निर्माता और संचालक के लिए अन्त:करण में .तज्ञता नहीं, भगवान के वात्सल्य की समझ नहीं, उसकी आत्मीयता का अनुभव नहीं और भगवान के ऊपर दुर्दभ्य विश्वास नहीं है ऐसा आदमी जब भक्ति करने बैठता है तब उसके पास पूजा सामग्री ही नहीं होती ।  उसके पास कौनसी पूजा सामग्री होती है? वह चन्दन, अक्षत, फूल वगैरह पूजा के साधनों को लेकर बैठता है ।  तो भक्ति कैसे होगी? उसके जीवन में भगवान के प्रति भाव खडा नहीं होता तो वह भक्ति कैसे करेगा? वह राम का दास कैसे होगा?

भगवान को मानना चाहिए ।  भगवान है और वे समर्थ‍र् हैं ऐसा दृढपूर्वक जो मानता है उसे डर नहीं लगता ।  भगवान समर्थ हैं और वे अत्यंत प्रेमल भी है ।  उन्होने मन बनाया है, वही खून बनाते हैं, वही मुझे उठाते हैं, मगर मै इतना .तघ्नी हूँ कि उन्हे याद भी नहीं करता ।  मैं विचार ही नहीं करता कि जिसने मुझपर इतना प्रेम किया है, मुझे संभाला है, वह क्यों मारेगा?
नव परिणीत युवक-युवती समुद्र में घुमने के लिए नांव में बैठे, सभी लोग खुशमिजाज होकर बातें कर रहे थे ।  इतने में चक्रवात आया ।  नांव हिलने डुलने लगी ।  नांव में बैठे सभी यात्री घबरा गये, मगर वह युवक शान्त बैठा रहा ।  वह तो पवन के कारण समुद्र में उछली लहरों को देखने में तल्लीन था । थोडी देर में चक्रवात शान्त हो गया ।  उसकी पत्नी ने उससे पूछा, ‘अभी आये चक्रवात से नाव की स्थिति देखकर हम सब तो घबरा गये थे ।  ऐसे संकट की घडी में भी तुम शान्ति से बैठे थे ।  नांव उलटी तो हम डूब जायेंगे ऐसा तुम्हे डर नहीं लगा? युवक ने कहा, ‘काहे का डर? भगवान मेरा बुरा क्यों करेंगे? कदाचित् उलटा पुलटा करें तो उसमें मेरा कल्याण ही तो करेंगे ।  वे हमारा कभी बुरा नहीं करेंगे।

युवक ने एक बडा चाकू नव परिणीत वधू के गरदन के पास रख दी, सब डर गये पर वह न डरी उलटे वह हँसने लगी ।  उसका करण क्या था? नववधू ने कहा, ‘तुम थोडे ही चाकू से मारनेवाले थे? सामान्य प्रेम में इतना विश्वास हो तो भक्त का प्रभु पर कितना िवश्वास होगा ।
‘भगवान मुझे क्यों डुबाएंगे?’ भगवान पर ऐसा दुर्दम्य विश्वास होना चाहिए ।  मनुष्य के पास राम रसायन की ये चार बातें होनी चाहिए ।  मनुष्य के पास .तज्ञता होनी चाहिए । भगवान की वात्सलता पहचाननी चाहिए ।  उसकी आत्मीयता की अनुभूति आनी चाहिए ।  इतना करके नहीं चलता उसपर दृढ विश्वास होना चाहिए ।  तथा भगवान मुझ पर इतना प्रेम बरसाते हैं तो मुझे क्या करना चाहिए? भगवान को अच्छा लगूँ ऐसा मुझे बनना चाहिए ।  यह राम रसायन जो ग्रहण करता है वह राम का दास बन सकता है। हनुमानजी के जीवन में यह रसायन था इसलिए वे राम के दास बन गये ।  यदि हमको भी राम का दास बनना है तो इन चार बातों को जीवन में लाने का प्रयत्न करना चाहिए ।  फिर भगवान का भजन करने से जन्म जन्म के दु:ख मिट जाते हैं इस बारे में तुलसीदासजी अगली चौपाई में हमें समझाते हैं ।

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