Saturday, July 2, 2011

जम कुबेर दिगपाल जहां ते । कबि कोबिद कहि सके कहां ते ।।  (15)
अर्थ : यमराज, कुबेर आदि सब दिशाओं के रक्षक, कवि, विद्वान, पंडित, या कोई भी आपके यशको पूरी तरह वर्णन नहीं कर सकते।
गूढार्थ : धर्मराज यम भगवान सूर्य के पूत्र हैं, इनकी माता का नाम संज्ञा है । यमी (यमुना) इनकी बहन हैं । भगवान सूर्य का एक नाम विवस्वान भी है, अत: विवस्वान (सुर्य) के पुत्र होने के कारण ये वैवस्वत भी कहलाते हैं । ये धर्मरुप होने के कारण और धर्म का ठीक-ठीक निर्णय करने के कारण धर्म या धर्मराज भी कहलाते हैं । यम देवता जगत् के सभी प्राणीयोंके शुभ और अशुभ सभी कार्यों को जानते हैं, इनसे कुछ भी छिपा नहीं है । ये प्राणियों के भूत-भविष्य, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष में किए गये सभी शुभाशुभ कर्मों के प्रत्यक्ष साक्षी हैं, ये परिपूर्ण ज्ञानी हैं । नियामक होने के कारण इनका नाम यम है । महाराज यम दक्षिण दिशा के स्वामी हैं । दस दिक्पालो में इनकी गणना है । ये शनिग्रह के अधिदेवता हैं । शनिकी अनिष्टकारक स्थिति में इनकी आराधना की जाती है । इसीप्रकार दीपावली के दूसरे दिन यम द्वितीया को यम दीप देकर तथा अन्य दूसरे पवों‍र्पर इनकी आराधना करके मनुष्य इनकी   .पा प्राप्त करता है ।  प्रत्येक प्राणियों के शास्ता एवं नियामक साक्षात्् धर्म ही यम हैं । वे ही धर्मराज अथवा यमराज भी कहलाते हैं ।

तुलसीदासजी लिखते है कि स्वयं धर्मात्मा यमराज, कुबेर, सभी दिक्पाल, पंडित कवि ये सभी हनुमानजी के गुणोंका तथा निर्मल यश का गुणगान करते हैं । इन सभी को हनुमत चरित्र सुंदर, आकर्षक, दिव्य एवं भव्य लगा तथा उन्होने हनुमानजी में अनन्त गुण देखे इसीलिए वे कहते हैं कि हम भी हनुमानजी के गुणोंका पूरी तरह से वर्णन नहीं कर सकते ।

हमे भी भगवान अच्छे लगते हैं । हमको भगवान किस तरह अच्छे लगते है? हमें भगवान के कौन से गुण अच्छे लगते है? कोई कहेगा, ‘भगवान मुझे खिलाते हैं, मुझे संभालते हैं, अत: भगवान अच्छे हैं,’ इसमें .तज्ञता का भाव है । कोई कहेगा भगवान शक्तीशाली है अत: अच्छे हैं । कोई कहेगा भगवान दीनदयालू है इसलिए अच्छे हैं । हमें आवश्कता के गुण भगवान में दिखाई देते है, इसलिए भगवान अच्छे लगते हैं । एकाद आदमी पाप से डर गया हो, उसे सतत लगता हो कि वह स्वयं पापी है, तो उसे क्षमाशील भगवान (Merciful god) चाहिए।

हमें हमारे अनुकूल भगवान अच्छे लगते हैं । तुम्हे भगवान खिलाते हैं यह भगवान का बहुत बडा गुण है । भगवान तो अरबो जीवों को खिलाते है, तो यह भगवान का बहुत बडा गुण नहीं है । भगवान  के पास तो अनन्त गुण है, उसी प्रकार हनुमानजी में भी अनन्त गुण है । महिम्न स्तोत्र मे पुष्पदंत कहते है-
असितगिरिसमं स्यात्कज्जलं सिन्धुपात्रे
सुरतरुवरशाखा   लेखिनी    पत्रमुर्वी
लिखति यदि गृृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीशं  पारं न याति
(समुद्र रुपी बर्तन में नीलगिरी पर्वत जितना काजल भरा हो, उसकी स्याही बनाकर, प्ृृाथ्वी जैसा कागज हो, कल्पवृृक्ष की कलम हो और इस कलम को पकडकर यदि सरस्वती स्वयं निरंतर लिखने बैठी हो तो हे ईश्वर! आप के गुणोंका अन्त नहीं होगा । इतनी आपकी महानता है।)

तुलसीदासजी ने जो लिखा है ‘यम कुबेर दिगपाल जहांते, कबि कोबिद कहि सके कहां ते’ उसके पीछे अभिप्राय यह है कि स्वयं धर्मराज ने हनुमानजी में अनन्त गुणोंको देखा उनकी श्रेष्ठ भक्ति को देखकर ही वे कहते हैं कि हनुमानजी की भक्ति सर्वश्रेष्ठ हैं । तथा हम भी उनके गुणों का वर्णन ठीक तरह से नहीं कर सकते ।
जो भगवान का बना है वह श्रेष्ठ है। भगवान का बना हुआ वह बंदर ही क्यों न हो, हम उसकी पूजा करते हैं। विश्व के लोग हमें पूछते हैं ‘आपके यहाँ क्या चल रहा है यह? monkey god, Tree God ! हनुमानजी को वे बन्दर समझते हैं । हम भी वैसा ही समझते हैं । गलती उनकी नहीं है , हमारी है । जो भगवान का बना है वह बन्दर ही क्यों न हो, परन्तु वह हमारी  दृष्टि में श्रेष्ठ है, पूजनीय है । केवल एकाध जीवन में यशस्वी बना होगा इसलिए हमने श्रेष्ठ नहीं माना है । कितने ही लोग अपने-अपने क्षेत्र में प्रथम श्रेणी (First class career) के होते हैं, उनमें कुछ सौजन्य के गुण भी होते हैं? कितने ही लोग भगवान को नहीं मानते, मन्दिर में नहीं जाते, फिर भी उनके पास ऐसे-एेसे गुण हैं ऐसा लोग कहते हैं । होंगे! गत जन्म के गुण लेकर आये होंगे वातावरण का परिणाम (Environmental effect) भी होगा । उनपर माता पिता के संस्कार होंगे । जगत में मनुष्य खडा है वह ऐसे ही खडा नहीं हुआ है । अलग अलग परिणाम उसपर हुए हैं । समाज का परिणाम है, मातापिता का परिणाम है, गत जन्मका परिणाम है, उसके लिए कितने ही लोग भगवान को न मानने पर भी सज्जन दिखाई देते हैं ।

उत्कृष्ठ डॉक्टर भी भगवान को नहीं मानता हो तो उसकी औषधी लेना-बेकार है, कारण डॉक्टर को भी भीतर से प्रेरणा भगवान ही देते हैं। परन्तु डॉक्टर को वह नहीं सुनायी देती । डॉक्टर को तो आस्तिक रहना ही चाहिए। मानवी जीवन उसके हाथ में होता है । डॉक्टर रोगी पर उपचार करता है । आठ दिन तक औषधी देता है, पर कुछ फर्क नहीं पडता है । नौवे दिन डॉक्टर कहता है, पहली औषधि छोड दो, अब नयी औषधि देता हूँ, यह लेकर देखो, अच्छे बन जाओगे और ठीक दो दिन में हम अच्छे हो जाते हैं । कैसे? भीतर कोई बैठा है, वही डॉक्टर को कुछ सुझाता है, परन्तु भीतरवाले का कौन सुन सकता है? जो उसे मानता होगा वही!

हमारे यहाँ तो इतना ही देखा जाता है कि डॉक्टर को अपने क्षेत्र में कितना ज्ञान है? पूर्ण है न ! वह शस्त्रक्रिया (opration) अच्छा करता है न? पर्याप्त हो गया। और क्या चाहिए? वह भगवान को मानता है या नहीं? यह देखने की आवश्यकता नहीं है । यह डॉक्टर ही हमारा भगवान है । ऐसा बोलनेवाला व्यक्ति अपने को ही धोका देता है (He is deceiving him self) । वह अपने को तो धोखा देता ही है, मगर दूसरे को भी धोखा देता है । जो भगवान को नहीं मानता वह श्रेष्ठ हो ही नहीं सकता इतनी स्वच्छ कल्पना भागवतों की होनी चाहिए । श्रेष्ठ पुरुषोेंं के प्रति आदर होना चाहिए, यह भागवत धर्म हमें समझाता है । तुलसीदासजी का अभिप्राय यही है ऐसे श्रेष्ठ पुरुष, श्रेष्ठ भक्त का यम, कुबेर आदि सभी गुणगान करते है उनके प्रति आदर व्यक्त करते है ।

श्रेष्ठ पुरुषों के प्रति आदर रखना चाहिए । परन्तु श्रेष्ठ पुरुष किसे कहते हैं? जीवन के अनेक क्षेत्रों मे जो लोग यशस्वी बने श्रेष्ठ है या नही? है ही । वे यशस्वी क्यो बने? उन्हे बुद्धि मीली, कतृ‍र्त्व मिला, उसे वे पिछले जन्म में कमाकर लाये हैं । जो लोग गत जन्म की यह कमाई, इस जन्म में ले आये हैं वे यशस्वी लोग श्रेष्ठ हैं, परन्तु उनमें से तेजस्विता, अस्मिता चली गयी हैं । जिनका आत्मविश्वास ही नहीं रहा, वे लोग श्रेष्ठ कैसे कहे जाते है?

हमारे इधर धनवान व्यक्ति को श्रेष्ठिन् कहते है । अब बनिया के लिए ‘शेठ’ शब्द प्रयुक्त करते हैं । ‘श्रेष्ठ’ से वह ‘शेठ’ बन गया है । समाज भी ऐसा है कि व्यक्ति जैसा बदलता वैसा शब्द भी बदल देता है । ‘श्रेष्ठ’ शब्द निकाल दिया और उसके स्थान पर ‘शेठ’ शब्द लाकर रख दिया । शेठजी! अब सब अपने सिर पर टोपी हटा देते हैं, वैसे ‘शेठ’ पर से टोपी निकल गयी ‘शठ’ रह गया है । ऐसी हमारी स्थिति है । यही हमारा विकास है । कलियुग का यह विकसित मानव है ।
जीवनमें यशस्वी बने हुए कितने ही लोग हैं । विश्वविद्यालय की परीक्षा मे प्रथम श्रेणी मे प्रथम आये हुए लोग क्यों श्रेष्ठ नहीं है ? वैसे ही व्यापार में लोग तीन-तीन, चार-चार मिलें- फैक्ट्रियाँ चलाते हैं, क्या वे यशस्वी नहीं है? साधारण घर चलाना मुश्किल है तो मिलें (मिल) चलाने मे कितनी तकलीफ होती होगी उन्हें? उनको रात्रि में नींद कैसे आती होगी उसका ही मुझे पता नहीं चलता । परन्तु जो लोक फैक्ट्रियाँ चलाते है, वे यशस्वी हैं । पुत्र है, पौत्र है, परिवार है, सुखी परिवार है, वे क्या यशस्वी नहीं है? क्या वे श्रेष्ठ नहीं है? वे श्रेष्ठ ही है यदि उन्होने भगवान को पकडा हो तो ! उनके जीवन में यदि भगवान को स्थान होगा तो! उन्होने भगवान को छोड दिया होगा तो वे श्रेष्ठ नहीं है । फिर वे भले ही कितने ही बडे होंगे, कितने पढे लिखे होंगे, कितने ही धन वैभव उन्होने कमाया होगा परन्तु उनके जीवन में भगवान भुला दिये होंगे तो वे श्रेष्ठ नही है ।

मनुष्य के जीवन में से भगवान घटा दिये तो उस मनुष्य का मुल्य शुन्य है । उसे कीमत-महत्व देने की आवश्यकता नहीं है । उसके पास चार पैसे होंगे, सत्ता होंगी, उसमे क्या है? बहुत लोगों के पास सत्ता होती है । सत्ता कैसे लानी है यह एक तरकीब (Tact) है । यह जिनके पास है वे सत्तापिसासु । उनके पास सत्ता आ जाती है। किसी भी रुपमें वे सत्ता प्राप्त करते हैं ।  सत्ता के लिए साम, दाम, दंड, भेद का उपयोग करके सत्ता प्राप्त करते हैं ।  उसके लिए सिंह भी बन जाते हैं, बकरा भी बन जाते हैं। वास्तव में उनका रुप न सिंह का है न बकरे का । सत्ता नहीं मिली तब तक वे बकरा, सत्ता मिल जाने के बाद वे सिंह बन जाते हैं ।  किसीको सिंह का रुप दिखाते है, तो किसी को बिल्ली का रुप दिखाते हैं, किसी को और कोइ्‍र्र रुप दिखाते हैं, ऐसे विविध रुप के दशमुखी रावण जैसे वे लोग होते हैं ।

आप श्रेष्ठ किसे कहेंगे ? प्रथम निष्कर्ष यह है कि वह व्यक्ति भगवान को माननेवाला होना चाहिए । वह कितना ही गुणवान, सम्मपत्तिवान क्यों न हो, परन्तु वह भगवान को न मानता हो तो वह श्रेष्ठ नही है । सन 1948 का एक किस्सा याद आता है । उस समय (टाईम्स) अखबार में एक लेख प्रकाशित हुआ था । उसका शीर्षक था ‘अमेरिका मे नास्तिक शिक्षक को नौकरी से हटा दिया’ (A theist teacher dismissed)। ऐसा लिखने की हिम्मत इस देश की भूमि (Soil) में नहीं है कि तू भगवान को नहीं मानता है इसलिए तू किसी में अच्छे गुण (Qualities) निर्माण करेगा इस पर हमारी श्रद्धा नहीं है । वह अमेरिका का अच्छा शिक्षक था।

आज हमारे यहाँ शिक्षक के सम्बन्ध में कहा जाता है, उसका गणित (Mathematics) देखो, यांत्रिकी (Engineering) ज्ञान देखो । वह भगवान को मानता है या नहीं मानता है यह देखने की कोई आवश्यकता नहीं है । जिसके हाथों मे लडकों को सौपना है । वह भगवान को मानता है या नही देखना चाहिए । अमेरिका के लोगों ने नास्तिक शिक्षक को नौकरी से हटा दिया और कारण भी स्पष्ट किया । हमारे यहाँ ऐसे शिक्षक हटायेंगे और हटाया भी तो भिन्न कारण दिखायेंगे । ‘नास्तिक मे कुछ गुण होंगे ही नही’ ऐसा कहना उचित नहीं है । अनेक नास्तिक लोंगो के पास बहुत अच्छे गुण भी होते हैं, परन्तु उसका एक भिन्न कारण है । उनमे ये गुण कहाँ से आये? कैसे आये? ये गुण जन्मान्तर की कमाई से आते हैं । परन्तु जो नास्तिक है, जो भगवान को नहीं मानते है वे श्रेष्ठ नहीं हो सकते यह भागवत की दृष्टि है ।

भागवत का कहना है कि जो भगवान को परिपूर्ण मानता है वही श्रेष्ठ है यह श्रेष्ठता का प्रथम लक्षण है । भगवान के उपर पूर्ण विश्वास होने पर मानव मन में ऐसा गर्व होता है कि जिसके साथ सम्बन्ध होना हो तो होगा, टूटना हो तो टूटेगा, मैं तो अपने मार्ग पर चलता ही रहूँगा । इससे भीति चली जाती है और मानव जीवन-विकास के मार्गपर अग्रसर होता चला जाता है ।

हमको यदि हनुमानजी की उपासना करनी है तो हमको हमारे जीवन में उनके अनंत गुणों में से एकाध गुण तो जीवन में लाने का प्रामाणिक प्रयत्न करना चाहिए । तथा हनुमानजी की तरह ज्ञान-भक्ति और कर्म का समन्वय जीवन में साधना होगा तो ही हम उनकी तरह प्रभु प्रिय बन सकेंगे तथा सच्चे अर्थ में हम हनुमानजी के उपासक हैं ऐसा कहा जाएगा ।

इस जगत में केवल भक्त दुर्बल है, ज्ञानी रुखा और कर्मकाण्डी शुष्क है । ज्ञानेश्वर महाराज कहते है: ‘ज्ञानियांच्या घरी भक्तिचा दुष्काळ’ ज्ञानी के घर में भक्ति का अकाल होता है । मात्र कर्मकाण्डी शुष्क होता है केवल स्वाहा करनेवाला ही कर्मकाण्डी नहीं है । आज जगत का समस्त शिक्षित वर्ग कर्मकाण्डी है । उसे कहो कि एक घंटा गीता सुनने चलो तो वह तुरंत कहेगा कि यह शक्ति और समय का अपव्यय है । इसके बजाय एक घंटे लोगों में फिर कर चंदा एकत्र कर गरीबों को सहायता करेंगे तो कितना लाभ है! आज सौलिसिटर, वकील, डॉक्टर आदि की विचारधारा ही कर्मकाण्डी है । भाव, भक्ति, ज्ञान, समझ इत्यादी का महत्व उनके ध्यान में नही आता । ये कर्मकाण्डी नीरस-शुष्क है।

गीता मे वर्णित मानव कर्म, भक्ति और ज्ञान की त्रिवेणी स्वरुप होता है । उसका अंत:करण भाव भक्ति से पूर्ण होता है । उसका हृदय और बुद्धि ज्ञान से परिपुर्ण होते हैं । वह सतत निरपेक्ष और निराकांक्ष रहकर कर्मयोग करता रहता है । भगवान के उपर उसका शतप्रतिशत नहीं, एक सौ एक प्रतिशत विश्वास होता है । ऐसे उन्नत मानव को हम संत कहते है । ये महापुरुष भगवान को अति प्रिय लगते हैं ।

जिनके जीवन मे ज्ञान, भक्ति और कर्म का त्रिवेणी संगम होता है, उनको हम ज्ञानी भक्त कहकर पूजते हैं, इसीलिए हमपर व्यक्तिपूजक का आरोप लगाया जाता है। परन्तु व्यक्ति जब तत्व बन जाता है, तब व्यक्ति निष्ठा स्वीकारनी पडती है । कोई भी तत्व व्यक्ति के द्वारा ही व्यक्त होता है, क्योंकि तत्व सूक्ष्मतम् और अज्ञात () है । केवल तत्व का कोई अर्थ नहीं है । केवल ‘भक्ति’ कहने से उसका अर्थ समझ में नहीं आएगा । परन्तु तुकाराम, याज्ञवाल्क्य का नाम लेते है, जिन्होने भक्ति तत्व को स्वीकारा है तो भक्ति तुरंत समझ में आती है, क्योंकि ये महापुरुष व्यक्ति न रहकर तत्त्वरुप बन जाते हैं।

याज्ञवल्क्य की व्यक्तिपूजा की एक विशिष्ट सुगंध है । सगुणोपासना व्यक्तिनिष्ठा ही है । हमारे जीवन में व्यक्तिनिष्ठा है । व्यक्ति होता है तभी जीवन प्रारंभ होता है । चित्र या प्रतििंबंब में जीवन नहीं है । घर में पत्नी का फोटो रखने से संसार (गृहस्थ) शुरु नहीं होता । इसके लिए जीवित पत्नी चाहिए । यदि चित्रो के साथ ही विवाह करना होता तो सभी घर में शकुन्तला का फोटो रखकर उसके साथ ही ब्याह करते ।

व्यक्ति व्यक्ति के पास जाता है, एक दुसरे को मिलते हैं, यही तो जीवन है । कितने ही लोगों ने व्यक्तिपूजा का अनुचित लाभ उठाया () किया है । इससे व्यक्तिनिष्ठा का दुरुपयोग हुआ और महत्व घटा है । अनधिकारी व्यक्तियों द्वारा जब पूजा होती है तो उसमे दोष आ ही जाता है । प्रत्येक वस्तु में अच्छाई होती है तो उसमे दोष भी आ जाते है, परन्तु इससे वह मुलत: खराब नहीं हो जाती । गैस का चूल्हा आया कि थोडी ही मेहनत में गरम पानी मिलने लगा, परन्तु इस यन्त्र की त्रुटि के कारण प्रारम्भ मे एक-दो व्यक्ति मर भी गए हों तो इसका अर्थ यह नही कि चुल्हा खराब है ।  इसी प्रकार वस्तुनिष्ठा, व्यक्तिनिष्ठा का दुरुपयोग हुआ है तो उसका परिणाम भी भोगना ही पडेगा ।

संतो के जीवन में ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग की त्रिवेणी होती है, इसीलिए उनके श्वासोच्छवास् भी पवित्र? हैं । हम संतो को महान मानते हैं ।
हनुमानजी के जीवन में यह सब बातें देखने को मिलती है इसीलिए तुलसीदास लिखते है कि हनुमानजी के चरित्र को देखकर यम, कुबेर, दिक्पाल, विद्वान कोई भी उनके गुणों का पूरी तरह से वर्णन नहीं कर सकता । ऐसी योग्यता हनुमानजी ने स्वयं अपने कतृ‍र्त्व से निर्माण की है ।
हमे भी यदि हनुमानजी की तरह प्रभु के प्रिय तथा श्रेष्ठ बनना हों तो जीवन में ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय लाना होगा। सचमुच सृष्टि में आकर जो लोग सृष्टि की शोभा रुप बन गये हैं वे ही सच्चे भक्त है, मानव है । बाकी हम सब तो ऐन्द्रिय सुख के पीछे दौडने वाले पशु ही हैं। प्रभु! हमको यह तो पता चल गया है कि हम पशु है । पर तू पशुपति है । हम हनुमानजी से प्रार्थना करेंगे कि हे प्रभो हमें सद्बुद्धि प्रदान करो तथा आपकी तरह भक्ति की लालसा हममें निर्माण हो। तथा हमे पशु से मानव तथा मानव से महामानव बना । हमको भी भगवान को प्रिय लगे ऐसा जीवन जीना है उसके लिए शक्ति प्रदान कीिजए ।

2 comments:

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  2. मैं ने हनुमान जी का चालीसा और उनके जीवन से जुड़े रहस्य को पढा मुझे बहुत आगे लगा

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