Saturday, July 2, 2011

तुम्हरो मंत्र बिभीषण माना । लंकेश्वर भए सब जग जाना ।।  (17)
अर्थ : आपके उपदेश का विभीषण ने पूर्णत: पालन किया, इसी कारण वे लंका के राजा बनें, इसको सब संसार जानता है ।
गूढार्थ : तुलसीदासजी यहाँ लिखते है ‘तुम्हरो मन्त्र विभीषण माना’ । ‘मन्त्र’ अर्थात्् संकेत (Code word)। जिस संकेत के कान में पडने पर परिचय मिल जाता है-पहिचान हो जाती है । उसे ‘मन्त्र’ कहते हैं । व्यापारी सेफ डिपोजिट वॉल्ट में अपने आभुषण आदि मुल्यवान वस्तुओंं को रखते हैं। इसके लिए वे बैंकवालों से एक सांकेतिक शब्द (Code word) निश्चित कर लेते हैं, ताकि आवश्यकता पडने पर बैंकवाले उस शब्द को पूछ कर आश्वस्त हो सके कि यह वही व्यक्ति है और तभी वे बैंक के उस खाने को खोल देते है, जिसमें जेवर-जवाहरात आदि रखे होते हैं । इसी अर्थमें तुलसीदासजीने यहाँ ‘मन्त्र’ शब्द प्रयुक्त किया है ।

हनुमानजी ने विभीषण को कौनसा ‘मन्त्र’ दिया उसका वर्णन हमें रामचरित मानस में (सुन्दरकाण्ड में) मिलता है । जब हनुमानजी लंका में सीता माता की खोज कर रहे थे तब लंका मेंं तमोगुणी आचार-व्यवहार के बीच श्री हनुमानजी को प्रभु .पासे संत विभीषण का घर दिखलायी देता है ।
भवन एक पुनि दीख सुहावा । हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा ।।
रामायुध अंकित गृह    सोभा बरनि न जाई।
नव तुलसिका वृंद तहँ देखि हरष कपिराई ।।  (मानस 5/4 /4:5/5)
उस घोर तमोगुणी आचार-विचार से लिप्त नगरी में रामायुध चिन्हों द्वारा अंकित गृह और पवित्र तुलसी का झु्रंड महान आश्चर्य करा देता है! कपि हनुमान अपनी खोज के मध्य तर्क-वितर्क करने लगते हैं, उसी समय विभीषण जाग उठते हैं ‘राम राम’ का उच्चारण करते हैं । लंका की घोर प्रतिकुलताओं मे भी हनुमानजी को विभीषण मिल गये-
अब मोहि भा भरोस हनुमंता । बिनु हरि .पा मिलहिं नहिं संता ।।
संत को संत मिल ही जाते हैं । श्रीराम का नाम सुनते ही श्रीपवनपुत्र के मन में विश्वास हो गया कि ये निश्चय ही भगवद्भक्त पुरुष हैं। शरणागत वत्सल हनुमानजी तुरंत ब्राम्हण का वेष धारण कर भगवान का नाम लेने लगे।
‘राम’ नाम सुनते ही विभीषण तुरंत बाहर आए । उन्होने ब्राम्हण वेषधारी पवनपुत्र के चरणोंमे अत्यन्त आदरपूर्वक प्रणाम किया । फिर उन्होने पूछा- ‘ब्राम्हण देवता! आप कौन है? मेरा मन कहता है कि आप श्री भगवान के भक्तों मे कोई हैं। कृपया मुझे अपना परिचय दीजिए।
संसार-भय-नाशन श्री अंजनानन्दन ने अत्यन्त प्रेम पूर्वक मधुर वाणी में उत्तर दिया- ‘मैं परमपराक्रमी पवनदेव का पुत्र हूँ । मेरा नाम हनुमान है । मैं भगवान श्रीराम की पत्नी जगत्जननी जानकीजी का पता लगाने के लिये उनके आदेशानुसार यहाँ आया हूँ। आपको देखकर मुझे बडी प्रसन्नता हुई । कृपया आप भी अपना परिचय दीजिए ।’’
भगवान श्रीराम के दूत श्री हनुमानजी को सन्मुख देखकर विभीषण की विचित्र स्थिति हो गयी । उनके नेत्रों मे प्रेमाश्रु भर आये, अंग पुलकित हो गये और वाणी अवरुद्ध हो गयी । किसी प्रकार अपने को संभालकर उन्होने अत्यन्त आदरपूर्वक कहा-‘हनुमानजी! मै राक्षसराज रावण का अनुज अधम विभीषण हूँ। किंतु आज आपके दर्शन कर मैं अपने सौभाग्य की प्रशंसा करता हूँ। मैं तो इस असुर-पुरी में दाँतो के मध्य जीभ की भाँति जीवन के दिन व्यतीत कर रहा हूँ।
सुनहु पवनसुत रहिनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ।।
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा । करिहहिं .पा भानुकुल नाथा ।।
                                   (मानस 6/1)
विभीषण ने हनुमानजी से आगे कहा- ‘पवनपुत्र’! मैं राक्षसकुलोत्पन्न तामसिक प्राणी हूँ। मुझसे भजन होता नहीं, प्रभु के चरणों में मेरी प्रीति भी नहीं है । फिर कया दयाधाम सीतापति श्रीराम कभी दीन-हीन, असहाय, निरुपाय और सर्वथा अनाथ जानकर मुझ पर भी .पा करेंगे? क्या मुझे भी उनके सुर-मुनि-सेवित चरण कमलो की पावनतम रज प्राप्त हो सकेगी? इतना तो मेरे मन में सुदृढ विश्वास हो गया कि भवत्.पा के बिना संतोका दर्शन नहीं होता । आज जब करुणामय श्रीराम ने मुझपर अनुग्रह किया है, तभी आपने .पापूर्वक स्वयं मुझ अधम के द्वारपर पधारने का कष्ट स्वीकार किया है ।

भक्तानुकम्पी श्रीपवनपुत्र भक्त विभीषण की भगवत्प्रीति देखकर मन ही मन पुलकित हुए । उन्होने विभीषण से अत्यन्त प्रीतिपूर्वक मधुर वाणी में कहा-‘विभीषणजी! आप बडे भाग्यवान हैं । जिन करुणावतार प्रभु की भक्ति योगीन्द्र-मुनीन्द्रोंको भी सुलभ नहीं, वह प्रभु-चरणों में अद्भूत भक्ति आपको सहज प्राप्त है । भगवान श्रीराम जाति-पाँति, कुल, मान-बडाई आदि की ओर भूल कर भी दृष्टि नहीं डालते । वे तो बस, निश्छल हृदय की प्रीति-केवल शुद्ध प्रीति चाहते हैं और इस प्रीति पर वे भक्त के हाथों बिक जाते हैं । उनके पीछे पीछे डोलते हैं । आप देखिये न, भला मैने किस श्रेष्ठ वंश में जन्म लिया है । सब प्रकार से नीच चंचल वानर हूँ! यदि प्रात:काल कोई हम लोगों का नाम भी ले ले तो उसे उपवास करना पडे।
कहहु कवन मै परम कुलीना । कपि चंचल सबही बिधि हिना ।।
प्रात लेइ जो नाम हमारा । तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ।।
                                      (मानस 6/4)
इसप्रकार के मुझ अधम पर भी भक्तवत्सल प्रभु ने .पा की । उन्होने मुझे स्वजन और सेवक बना लिया। फिर आप तो उन्हे अपना सर्वस्व समझ रहे हैं; निश्चय ही आप तो उन्हे अपना सर्वस्व समझ रहे हैं; निश्चय ही आप पर उनकी अद्भूत .पा है आप बडे भग्यवान हैं । इस असुरपूरी में आपसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, यह भी मेरे स्वामी श्री रघुनाथजी की ही .पा का फल है ।’
सुनहु विभीषण प्रभु कै रीती । करहिं सदा सेवक पर प्रीती ।। (मानस 7/3)
यह ‘मन्त्र’ हनुमानजी ने विभीषणजी को दिया । भगवान राम शरणागत वत्सल हैं और उनकी शरण में जाने से मुझ जैसे अधम को भी जरुर स्वीकार करेंगे क्योंकि उनको हनुमानजीका दिया हुआ ‘मन्त्र’ का स्मरण था । विभीषणने रावण को अत्यन्त आदपूर्वक अनेकों बार समझाने का प्रयत्न किया किन्तु जब रावण नहीं माना तथा रावण ने विभीषण को धिक्कारते हुए उसका त्याग कर दिया तब विभीषन ने भक्त वत्सल भगवान राम की शरण में जाने का निश्चय किया । उनको हनुमानजी का दिया हुआ मन्त्र का स्मरण हुआ कि भक्तवत्सल भगवान शरणागतों को शरण देते है, उन्हे अपना लेते है । बस, विभीषण अपने मन्त्रियोंसहित श्री राघवेन्द्र की चरणों की शरण लेने चल पडे।

विभीषण अब भगवान राम की शरण में आते है तो राम सबसे पूछते है कि शत्रुराज्य का सचिव और रावण का भाई विभीषण को स्वपक्ष में लेना या नही? सभीने विरोधमें मत व्यक्त किया । सबसे पहले सुग्रीव जैसे प्रभावी वीर ने अपनी राय दी कि उसका स्वीकार करना यानी खतरा मोल लेना है। वह कदाचित् अच्छा भी होगा, हम उसे बुरा नहीं कहते परन्तु इस युद्ध के समय उसका स्वीकार करने में खतरा है । सभी का यह मत था । प्रभु राम ने अन्त में हनुमानजी से उनका मत पूछा । जिसे राम का दूसरा प्राण माना जाता है उस हनुमान से राम पूछते हैं कि विभीषण को स्वीकार करना चाहिए या नही? हनुमानजीने तुरन्त जबाब दिया विभीषण को स्वीकार करना चाहिए । सभी विरोध में होते हुए भी प्रभु रामचन्द्र ने विभीषण का स्वीकार किया।

सुग्रीव और विभीषण पर चाहे जितना अच्छा वर्णन करे, परन्तु लोगों की उनके लिए जो भ्रांत धारणा हो गयी है वह उनके चरित्र पर आवरण डाल देती है । उनकी सेवाबुद्धि और कर्तव्यपरायणता से प्रसन्न होकर प्रभु ने उन्हे राज्य प्रदान किया, परन्तु लोगों ने उनपर आक्षेप किया कि वे राज्यलोभ के कारण ही राम के आसपास रहते थे । राज्य तो दोनों को राम ने प्रसन्न होकर दिया था । इस प्रकार सुग्रीव और विभीषण को अपनी स्वच्छता सिद्ध करने के लिए अग्निशुद्धि जैसे प्रयत्न करने पडे थे ।

विभीषण राम का एकनिष्ठ अनुचर था और इसीलिए तो अधिक से अधिक निंदा-स्तुति का विषय बना है । भावूक जन उसकी स्तूति करते हैं जबकि दुसरे लोग उसकी निंदा करते हैं ।  उसपर ये आक्षेप लगाये हैं कि वह आत्मघातकी, राष्ट्रघातकी, .तघ्न, और विश्वासघातकी था । जब विद्वान उसका ऐसा वर्णन करते हैं तो समाज पर उसका प्रभाव होता है । उसके उपर अनेक आक्षेप किये गये हैं । उनमें मुख्य यह है कि जब लंका पर राम ने चढाई की, ऐसे राष्ट्रीय आपत्ति के समय मतभेद दूर करने की अपेक्षा प्रतिपक्ष में जाकर मिल गया, अत: वह स्वार्थी था । उसका यह .त्य अतिशय क्षुद्र था । इस प्रकार के राष्ट्रघातकी विचारों को स्थान न देते हुए राष्ट्रीय आपत्ति के समय राष्ट्ररक्षण के लिए उसे आत्मसमर्पण करना चाहिए था। कुंभकर्ण को भी सीताहरण मान्य न था; तभी तो उसने रावण की निर्भत्‍र्सना की थी । फिर भी लडाई के समय वह लंका की रक्षा के लिए ही रावण के साथ खडा रहा और नष्ट हो गया । इसलिए विभीषण स्वजनद्रोही, राष््रद्रोही और जातिद्रोही था । रावण ने केवल सीता का ही हरण नहीं अपितु अगणित दुष्.त्य किए थे, बहुतसी विवाहित स्त्रियों का हरण किया था । उस समय चुपचाप बैठने वाला विभीषण सीता हरण के बाद ही क्यों रावण को छोडकर चला गया? यह उसकी दुष्टता और .तघ्नता सिद्ध करने की समर्थ दलील है ।

विभीषण के चरित्र में एक विशिष्टता है । किसी भी व्यक्ति के विषय में मत, उपर से अध्ययन करके नहीं वरन् गहराई में उतरकर बनाना चाहिए, जिस प्रकार निष्पक्ष भाव से देखना चाहिए।

‘रामानुज राम ने भरत से कहा था, ‘दशरथ के बारे में यदि पूर्ण रुप से जानकारी नहीं है तो उनकी आलोचना मत कर । उन्होने तेरे नाना को वचन दिया था कि गद्दी तुझे मिलेगी’। इसलिए विभीषन का चरित्र विशिष्ट दृष्टिकोण से, विशुद्ध बुद्धि से, किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह बिना, अर्थात् निष्पक्ष भाव से देखना चाहिए।

‘रामानुज संप्रदाय’ विभीषण को प्रपन्न भक्ति का उत्.ष्ट उदाहरण मानता है । ‘विभीषणस्तु धर्मात्मा नित्यं धर्मव्यवस्थित:’। इत्यादि से वाल्मीकि भी उनका वर्णन उत्तरकाण्ड में करते है ।

प्रभु के चरणों में आत्मसमर्पण करना ही शरणागति है । जब प्रपन्न प्रभुको अपना सर्वस्व मानले और अपना मान-सन्मान, मन, वचन, कर्म सब समर्पित कर दें। जैसे एक कुलीन स्त्री अपने पति के सिवाय अन्य पुरुष से कोई अपेक्षा नहीं करती वरन् उसे अपना सर्वस्व दान कर उसी की सेवा में रत रहती है ठीक उसी प्रकार जीवात्मा रुपी कन्या का, भगवान रुपी पति को समर्पित हो जाना उन्हीं की सेवा करके जीवन-यापन करना सच्चे शरणागत का लक्षण है । प्रपन्न द्वारा अपना सर्वस्व शरण्य के चरणों मे अर्पित करके दुर्लभ कैंकर्य करने की आज्ञा माँगना और उसपर दृढ होना- यह प्रपन्न का कार्य है।

आज के चिकित्सक विचारकों को उनपर पहला आक्षेप यह है कि सीता का हरण रावण ने किया था यह पहला हरण नहीं था; इसके पूर्व कई स्त्रियों का हरण रावण ने किया था । तो विभीषण पहले यह सब क्यों सहन करता था ।

विभीषण उत्कृष्ट जाज्वल्य नैतिक निष्ठा माननेवाला, चरित्र संपन्न तेजस्वी व्यक्ति था। रावण परदेश में से कुलीन स्त्रियों को उठाकर लाता था उस समय विभीषन ने दु:ख और चिन्ता, भय, शोक इत्यादि से जिनके मुँह सूख गये है, ऐसी स्त्रियों को रावण के साथ देखते ही स्पष्ट भाषा में उसी स्थल पर बार बार निर्भत्सना की है ।
‘‘ईहशैस्त्वं समाचारै: यशोर्थकुलनाशनै: ।
धर्मणं प्रणिनां ज्ञात्वा स्वमतेव विचष्टसे ।।’’
इस प्रकार से कई श्लोकाें से वाल्मीकि रामायण में उत्तरकाण्ड मे विभीषण का मानस स्पष्ट समझाया गया है ।
कोई भी लडाई हो उसकी शुरुवात में मीटिंग तो की ही जाती है । कौटुंबिक लडाई में भी कितनी मीटिंगे होती है । अंतिम विचार-विमर्श के समय कुंभकर्ण और विभीषण बोलते हैं । हृदय टूटता था । उसने भी रावण को बहुत समझाने का प्रयत्न किया परन्तु उन्मत्त मंत्रियाें और इन्द्रजीत जैसे गर्विष्ठ लोगों के सामने उसकी एक न चली ।

इस प्रकार लंका के हित के लिए उसने अनेक प्रयत्न किये, मानापमान का विचार भी न किया, फिर भी जब उसका कुछ बस न चला तो लंका निवासियों के कल्याण के लिए वह राम से मिलने गया । वह यह जानता था कि राम राज्य के लोभी नहींं है, उन्हे तो सीता ही चाहिए । उन्होने बाली को मार कर राज्य सुग्रीव के हाथोंमे साैंप दिया और इस प्रकार अपनी चरित्रशुद्धता सिद्ध करके जगत को दिखा दी । इसलिए राम से मिलकर ही राक्षस राष्ट्र का कल्याण होना संभव है । ऐसा पूर्ण विचार करने के पश्चात् ही विभाषण राम के पक्ष में जाकर सम्मिलित हो गए थे।

युद्ध अगर दो राष्ट्रों के बीच होता तो जातिद्रोह, राष्ट्रद्रोह कहलाता; परन्तु यह तो मानवता और पाशविकता के बीच का युद्ध था । तभी तो मानवता से परिपूर्ण विभीषण राज्य की प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए राम के पक्ष में गया था । एक मानव ने मानवता का पक्ष लेकर युद्ध किया तो उसमें राष्ट्रद्रोह कहाँ से आया? लंकावासियों का कल्याण और राजगद्दी की प्रतिष्ठा कायम रखनेवाले मानवता वादी- कुलाभिमानी विभीषन के पास इसके सिवाय दूसरा कोई मार्ग ही नहीं था । उसे स्वजनद्रोही, राष्ट्रद्रोही कैसे कहा जा सकता है?  इसलिए उसके उपर किये गये आक्षेपों पर पूर्ण विचार करने के बाद ही उसके लिए समालोचकों को मत निर्धारित करना चाहिए ।

शासनसंस्था किसलिए निर्माण की गयी है, इस संबंध मे ग्रीक तत्त्ववेत्ता से लेकर माक्‍र्स तक सब एक ही उत्तर देंगे कि अन्याय के परिमार्जन के लिए, न्याय स्थापित करने के लिए और मानवता निर्माण करने के लिए राजसत्ता की आवश्यकता है । रावण ने इन तीनों सुत्रों को तोडकर राज्यनिष्ठा को समाप्त किया था । वहाँ राजद्रोह की बात विभीषण के लिए कहाँ से आएगी? रामायण में विभीषण का वर्णन एक मानवतावादी भव्य माहपुरुष के रुपमें किया गया है । अविरत खून का पानी बन जाए ऐसा परिश्रम करके उसने रावण को समझाने का प्रयत्न किया, अत: उसे राज्यलोभी अथवा स्वार्थी नहीं कहना चाहिए।

किसी भी काल और किसी भी देश की राजसत्ता के मूलभूत सिद्धान्तों को लेकर विभीषन का चरित्र घिसकर देखिए तो पता चलेगा कि वह असली सोना है, जिसको राम अपना समझे वह शुद्ध सोना ही होगा राम ने ‘My man’ कह दिया तो इस सर्टिफिकेट में ही विभीषण की दिव्यता आ गयी।

यदि हमें विभीषण की तरह अपने जीवन को प्रेमास्पद प्रभु के प्रेम में निमग्न करना है तो भगवान के द्वारा प्रतिपादित नियमों पर चलकर उन्हे प्राप्त करने का यथाशिघ्र प्रयास करना चाहिए । शरणागति के इन अंगो को आत्मसात करके भगवत्कैंकर्य प्राप्त कर अपना जीवन सफल बनाना चाहिए। हनुमानजी ने जो विभीषण को मंत्र दिया उस मंत्र को साधने का प्रयास करना चाहिए।

1 comment: