Saturday, July 2, 2011

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा । राम मिलाय राज पद दीन्हा ।।  (16)
अर्थ : आपने सुग्रीवजी को श्रीराम से मिलाकर उपकार किया जिसके कारण वे राजा बने ।
गुढार्थ : तुलसीदासजी लिखते हैं कि हनुमानजी ने सुग्रीव पर उपकार कीया । ‘उपकार’ किया याने क्या किया? ‘उपकार’ याने क्या? ‘उपकार’ का अर्थ है ‘उप’ यानी पास में और ‘कार’ यानी कृति । पास लेकर .ति करना यानी अपना बनाना ! मैने किसी पर उपकार किया इसका अर्थ; मैने उसे अपने पास लिया-अपना बनाया पराया नही समझा!  आज व्यवहार में हम बोलते हैं कि ‘मुझे किसी के उपकार नही चाहिए’ । अर्थात् किसी के दबाव के नीचे मुझे नहीं आना है । उपकार=उप+कृति यानी जिसपर उपकार किया उसे पास में लिया - अपना बनाया और फिर उसकी सहायता की । इस प्रकार उपकार में ‘अपना बनाने’ का प्रयत्न है ।

भगवान श्रीराम-सुग्रीव मैत्री के स्थापन में हनुमानजी की मुख्य भुमिका थी । यदि सुग्रीव को हनुमान जैसे कुशल, दूरदर्शी, नीतिज्ञ, मेधावी, शुरवीर और राजनीतिज्ञ मंत्री का सानिध्य प्राप्त नहीं होता तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि कभी स्वप्न में भी बलशाली बालि के रहते सुग्रीव को किष्किन्धाका राज्य, अपहृत पत्नी और राज्य वैभव प्राप्त होता । यहाँ वे एक श्रेष्ठ राजदूत के रुपमें श्रीराम-सुग्रीव-संधि स्थापित करवाकर उभय पक्ष के हिताहित का बराबर ध्यान रखते हुए उत्तम मध्यस्थ की भुमिका का समुचित निर्वहन करते हैं । यह पवनपुत्र हनुमानजी की विशेषता है कि सुग्राीव के प्रति श्रीराम के हृदयमें अच्छे मित्र के संवरण का आकर्षण उत्पन्न हो सका । उन्ही के सत्प्रयास का परिणाम था कि श्रीराम सम्पन्न वानरराज बालिकी उपेक्षा कर के दर-दर भटकते, प्राण बचाते, ऋष्यमूक पर्वत पर छिपे सुग्रीव को अपनाते हैं ।

यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि उस समय राक्षस और वानर ये दो जातियाँ थी । हमारी आज की कल्पना के अनुसार वानर का अर्थ होता है जंगली, जंगल में रहनेवाला, एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर कूदनेवाला तथा वस्त्र हीन होकर घुमनेवाला । रामायण में वानर की यह कल्पना नहीं है । उनके पास बंगला, महल, आचार, नैतिक मूल्य इत्यादि थे, जिसका वर्णन रामायण में है । वे वस्त्रहीन नहीं घूमते थे। हमारी तो कल्पना है कि उनके एक अतिरिक्त पूंछ होती थी जो Evolution के सिद्धान्त के अनुसार घिस गयी है । उनके शरीर पर बाल होते थे और वे मनुष्य की अपेक्षा अपने को कनिष्ठ जाति का समझते थे।

वानरराज सुग्रीव एक अभागा जीव है । अपने भाई वाली पर उसका सच्चा प्रेम था वह किष्किंधा के राजा बाली का एकनिष्ठ अनुचर और प्रेमी था । किष्किंधा में एक दैत्य को मारने के लिए बाली उसके पीछे गुफा के अन्दर गया । सुग्रीव को उसने कहा कि, ‘‘जब तक मै लोट न आऊं तब तक यहीं खडे रहना ।’’ सुग्रीव भाई की प्रतीक्षा करते करते एक वर्ष खडा रहा, ऐसा वर्णन है । बाद मे गुफा में से रक्त निकला हुआ देखकर उसने यह मान लिया कि बाली की मृत्यु हो गयी है । इस कारण से सुग्राीव को कर्तव्य के नाते गद्दी पर बैठना पडा । मंत्रिमंडल अराजकता के भय से उसे राज्यपर बिठाता है । बाली दैत्य को मार कर वापस आता है, तब उसे भ्रान्त धारणा हो जाती है। बाली के वापस आते ही वस्तुस्थिति का विनम्रता के साथ वर्णन करते हुए सुग्रीव राज्य की बागडोर उसके चरणों पर रख देता है । परन्तु भ्रान्त धारणा के प्रभाव के कारण बाली उसकी दलीलो को समझ नहीं सका । परिणाम यह होता है कि उस पर अन्याय होता है । बाली ने सुग्रीव को राज्यसिंहासन के नीचे फेंक दिया और देश से निकालने का दंड भी दिया उस पर यह अन्याय होता हुआ देखकर राम ने उसके साथ मैत्री-संबंध स्थापित किया और इस कार्य के लिए हनुमानजी ने मध्यस्था की भुमिका निभायी।

यह सत्य बात राम को ज्ञात हुई और इसीलिए राम अन्याय का निवारण करने के लिए उसे सहायता देने तैयार हुए । हनुमानजी ने अग्नि के समक्ष सुग्रीव-राम की मित्रता स्थापित करायी । भगवान राम ने अग्नि के समक्ष सुग्रीव का हाथ पकडा । दोनों ने अग्नि को साक्षी मानकर मित्रता की नींव डाली । आजकल तो केवल विवाह में हाथ पकडते समय अग्नि को साक्षी माना जाता है । आजकल मैत्री करते समय यदि अग्नि होता है तो एक दूसरे के मुख में (सिगरेट के रुप में) होती है।

हनुमानजी के माध्यम से भगवान श्रीराम ने सुग्रीव पर ‘उपकार’ किया याने उसे अपना बनाया है।  जो अपेक्षारहित प्रेम करनेवाले हैं वे प्रत्युपकार की अपेक्षा नहीं रखते । इसमें दो प्रकार है । एक सन्तो, साधु पुरुषोंका है ।  ये लोग हमपर प्रेम करते हैं इसका पता नहीं चलता । जिस प्रकार भगवान दिन रात हमारा जीवन चलाते हैं, शरीर में रक्त बनाकर उसे घुमाते हैं फिर भी उनको कोई अपेक्षा नहीं है । भगवान चौबीस घण्टे और तीन सौ पैंसठ दिन अविरत हृदय चलाते हैं । हृदय की एक घडकन भी रुक जाय तो मनुष्य मर जाता है । भगवान और संत पुरुष हम पर क्यों प्रेम करते हैं यह मालूम नही पडता । वे हमपर अकारण प्रेम करते हैं ।

संत हमपर प्रेम करते है। ऐसे संतोंको धर्म प्राप्ति होती है। ऐसा भागवत मे लिखा है। प्रत्युपकार की अपेक्षा रखे बिना प्रेम करनेवाले दूसरे माँ-बाप है । उनको सुखप्राप्ति होती है । सन्ताेंको धर्मप्राप्ति होती है और माँ-बाप को सुखप्राप्ति होती है । क्यो? माँ-बाप वात्सल्य से अपनी सन्तान पर प्रेम करते है । वे दूसरों की सन्तान पर प्रेम नहीं करते । माँ-बाप को वात्सल्य प्रेरणा (Incentive) है । इसलिए माँ-बाप को सुख प्राप्ति होती है और संतो को धर्मप्राप्ति!

आज व्यवहारमें कृतज्ञता का अर्थ इतना ही है कि किये हुए उपकार को याद रखो। मगर केवल किये हुए उपकार को ही याद नहीं रखना है बल्कि किए हुए प्रेम को भी याद रखना है । सभी लोग हम पर तो उपकार नहीं करते। पिता ने मुझे छोटे से बडा बनाया, यह उपकार नहीं है, प्रेम है । जो किए हुए प्रेम को और किये हुए उपकार को याद नहीं करता है, उसे .तघ्नी कहते हैं। किया हुआ प्रेम टिकाना चाहिए । 

छोटे बच्चे से हम कहते हैं कि माँ को नमस्कार करो, परन्तु उनसे यह कहने की जरुरत नहीं है, क्योंकि उन्हे पता है कि माँ ही उनके लिए सर्वस्व है ।  जब वह स्कूल से घर आता है तब उसके लिए नाश्ता माँ ही तैयार करके रखती है ।  उसे लू चाहिए तो वह उसे माँ के पास से ही मिलता है ।  जब तक आवश्यकता रहती है तब तक माँ पर प्रेम रहता है ।  अब लडका बडा हो गया है, उसकी शादी हो गयी है ।  अब चाय देने के लिए या लू देने के लिए माँ की जरुरत नहीं है ।  तभी मातृदेवो भव की असली आवश्यकता है । 

आवश्यकता होती है तब तक उसे किसी से माँ का प्रेम नहीं कहते। किया हुआ प्रेम याद करना संस्कृति है ।  जो पुराना है उसे याद रखने का नाम संस्कृति है ।  ऋषियोंने हमारे लिए कुछ किया है, खून पसीना एक किया है, उसी के कारण मानवता खडी है ।  उन्हे याद करना, उनका तर्पण करना संस्.ति है ।  मनुष्य देह धारण किया तो जीवन में कृतज्ञता होनी चाहिए ।

जैसे कृतज्ञता होनी चाहिए वैसे परोपकार भी होना चाहिए। परोपकार में एक अधिष्ठान है। हमारी शक्ति दूसरे के काम आए तो हमें आनंद होना चाहिए। ‘मेरी गाडी दूसरे के काम आए तो मुझे आनंद होना चाहिए’ । मेरा वित्त दूसरे के उपयोग में आता है तो मुझे आनंद होना चाहिए। जो अपनी शक्ति दूसरों की भलाई में उपयोग नहीं करता है वह परोपकारी नहीं है ।

‘मैं केवल अपने ही लिए नहीं हूँ’ ऐसी विचारधारा परोपकार में है, ‘मैं केवल मेरे लिए हूँ’ यह राक्षसी विचार है। ‘इस सृष्टि में मैं केवल अपने लिए ही पैदा नहीं हुआ हूँ, बल्कि मैं दूसरो के लिए भी हूँ ’यह जीवनमें उन्नतता है।” ‘मेरा जीवन दूसरों के लिए होना चाहिए यह अभ्यास है।’ मेरी शक्ति दूसराें के काम आनी चाहिए यह परोपकार का अर्थ है ।

उपकार का क्या अर्थ है?  मानो मैं तुमसे कोई अपेक्षा रखता हूँ और इसलिए तुम्हारा काम किया, तो क्या यह उपकार है?  अपेक्षा रखकर किसी का काम करें तो उसे उपकार कैसे कहें?  उसे तो व्यवहार कहा जाता है । मैं जब मुसीबत में पडूं तो उसे मदद करने आना चाहिए। मेरा नाम होना चाहिए तो वह उपकार नहीं कहा जाता बल्कि व्यापार कहा जाता है । 

अपेक्षारहित काम होता भी नहीं है, यह आगे की बात है। फायदे का विचार पहले किया जाता है और उसे उपकार माना जाता है। वास्तव में अपेक्षारहित काम को ही उपकार माना जाता है। एकाध काम ऐसा करना चाहिए जिसमें कोई अपेक्षा न हों, मन को इसकी आदत डालनी चाहिए।

उपकार शब्द का अर्थ है उन्नत परोपकार। प्रभु का जो भी अपेक्षारहित काम किया जाता है वह परोपकार है। यही परोपकार का अंतिम अर्थ है। दूसरे का काम करना, यहाँ से परोपकार की शुरुवात होती है। ‘पर’ यानी श्रेष्ठ, भगवान! तुम श्रेष्ठ हो। भगवान का अपेक्षारहित काम करने को ही उपकार कहते हैं ।  संत तुकाराम महाराज ने यही बात अभंग में लिखी है : ‘आता उरलो उपकारा पुरता’। परता, श्रेष्ठता, अपेक्षारहितता को परोपकार कहते हैं ।

जो महत्वाकांक्षी हैं, आत्मप्रत्ययवान हैं, कृतज्ञ हैं, परोपकारी हैं वह ‘नर’ है। शंकराचार्य कहते हैं कि ‘नर’ बनो । ऐसे नर हनुमानजी थे जिन्होने सुग्रीव पर उपकार किया यानी उन्हे अपना बनाया तथा भगवान से मैत्री कराकर उनसे प्रभु कार्य करवा कर उन्हे राज्य दिलवाया इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘ तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा राम मिलाय राजपद दीन्हा’ ।

सुग्रीव ने भगवान का हथियार बनकर प्रभु प्रभु कार्य के लिए कटिबद्ध होकर प्रभुकार्य किया ।  हनुमानजी ने जो सुग्रीव पर उपकार किया उसका स्मरण रखकर उन्होने प्रभुकार्य किया तथा भगवान ने प्रसन्न होकर उन्हे राज्य दिया ।  हम पर भी भगवान के अनंत उपकार हैं ।  क्या कोई भगवान द्वारा किए हुए प्रेम का स्मरण करता है?

भगवान ने हमपर प्रेम किया है यह बात क्यों हमारे मस्तिष्क में नहीं आती? हम भगवान के प्रेम की वर्षाे में नहाते है, चौबीस घण्टे रक्त का अभिषेक चल रहा है, हमारा श्वासोच्छ्वास अखण्ड चल रहा है । यह सब कौन करता है? इसका विचार भी हमारे मस्तिष्क में नही आता । हम श्वास लेते है तब उसके द्वारा प्राणवायु (ऑक्सीजन) हम अंदर लेते है । परन्तु प्राणवायु क्या है यह क्या हमें मालूम है? फिर भी हम श्वास लेते ही हैं । हमें पता न होते हुए हमारा जीवन चल रहा है । वह भगवान के प्रेम के कारण चल रहा है । हम कैसे बोलते है यह क्या आपको मालूम है? ‘ट’ का उच्चार कैसे करना यह भी हमें मालूम नहीं है । परन्तु वर्षों से हम उसका उच्चारण करते आये हैं । यह किसकी शक्ति है इसका विचार हम कभी नहीं करते । इतना होते हुए भी हम घण्टों तक बोलते रहते हैं । इसीलिए ख्रिस्त ने कहा है, तू नही बोलता है, तेरे भीतर बैठी हुई शक्ति बोलती है, (It is not ye that speak but the spirit thy father that speaketh in you) यह केवल भाव नहीं है, यह हकीकत है । ये केवल प्रेम से कहे हुए शब्द नहीं है, यह बौद्धिक, तर्कसम्मत (Rational) कथन है । कैसे बोलना, बोलते समय किसी शब्द का उच्चारण करना हो तो कहाँ जीभ लगाने पर उस शब्द का उच्चार होता है इसका हमें ज्ञान नहीं है। फिर भी हम बोलते हैं । यह किसका प्रेम है? भीतर बैठे हुए भगवान का यह प्रेम है । भगवान हम पर प्रेम या उपकार क्यों करते है इसका कोई विचार भी नही करता है । इतने वे मुर्ख है, पागल है, इन लोगों की संख्या बहुत बडी है।

भगवान ने शरीर दिया, जीवन दिया, चलाया, केवल जीवन देकर भगवान अलग नहीं हुए । पूरा जीवन वे हमारे साथ ही रहते हैं और मनुष्य के साथ ही वे जायेंगे । भगवान का ऐसा प्रेम मुर्ख लोग नहीं समझते । मातापिता ने प्रेम से बडा किया, परन्तु यह बात आज कौन समझता है ? किसकी सदिच्छा व प्रेम के कारण बडा हुआ है यह वह भूल जाता है। ‘मै छोटा था, गैलेरी में घुमता था, अब बडा हुआ हूँ इसका कारण किसीके प्रेम से भीना होकर ही मैं बडा हुआ हूँ। ये सब बाते मैं भूल जाता हूँ।’ यह भूलने वाले लोग मूर्ख हैं । तुलसीदासजी ने जो लिखा है ‘तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा, राम मिलाय राजपद दीन्हा‘।  इसका अभिप्राय यह है कि जिसप्रकार हनुमानजी ने सुग्रीव पर उपकार किया उसी प्रकार भगवान के हम पर भी अनंत उपकार हैं । वे बिना किसी अपेक्षा के हमपर प्रेम की वर्षा सतत करते हैं । सुग्रीव ने भगवान का हथियार बनकर प्रभुकार्य के कटिबद्ध होकर प्रभुकार्य कीया। हमपर भी भगवान के अनंत उपकार है । क्या कोई्र भगवान द्वारा किए हुए प्रेम का स्मरण करता है? हमको यदि हनुमानजी का भक्त बनना है, भगवान का बनना है तो उसके लिए जीवन को स्वच्छ करना पडेगा । भगवान के हाथ का हथियार बनना हो तो उसके लिए वर्षों की तपचर्या आवश्यक है । जीवन को पैना बनाना होगा । ‘‘हमको कुछ बनना है’’ यह वास्तविकता है । तभी हम निमित्त बनेंगे, भगवान के हाथ का हथियार होंगे । भगवान के हाथ का हथियार बनने पर ही भगवान के कार्य का निमित्त बन सकेंगे । जो लोग इस प्रकार निमित्त मात्र बनते हैं वे ही परमोच्च पुरुषोत्तम हैं।

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