Sunday, July 3, 2011


चौपाई:- और मनोरथ जो कोई लावै । सोई अमित जीवन फल पावै।।  (28)
अर्थ : जिस पर आपकी .पा हो, ऐसा जीव कोई भी अभिलाषा करे तो उसे तुरन्त फल मिल जाता है, जीव जिस फल के विषय में सोंच भी नहीं सकता वह फल मिल जाता है, अर्थात सारी कामनाएं पूरी हो जाती है।
गूढार्थ : तुलसीदासजी इस चौपाई द्वाjरा यह समझाना चाहते है कि हम जो मनोरथ (मन के संकल्प) करते हैं भगवान उस अनुसार हमें जीवन में फल देते हैं । हमें भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि, भगवान मेरे मन के मनोरथ दिव्य और भव्य हो, संकल्प तेजस्वी हाें ।

मानव जीवन में मनका एक अनन्य असाधारण स्थान है । मनुष्य का मन यदि अल्प भी घबडा गया तो उसका शरीर शिथिल पडता है ।  मनुष्य की छाती में थोडा दर्द हुआ तो उसे लगता है कि हृदयरोग ( heart attack ) का दौरा तो नहीं हुआ? यह विचार मन में आते ही उसका शरीर शिथिल पड जाता है । डॉक्टर कार्डियोग्राम लेकर देखता है और कहता है । ‘कुछ नहीं है, वायु  (Gasses़) की तकलीफ थी ।’ यह सुनते ही स्टे्रचर पर लाया गया मनुष्य स्वयं अपने पैराें से चलकर घर जाता है । कहनेका तात्पर्य यह है कि मनका शरीरपर परिणाम होता है । एक बार मन भयभीत हो गया कि तुम्हारी सम्पूर्ण शारीरिक शक्ति व्यर्थ बनती है । इसलिए मनका शरीर में असाधारण स्थान है । ऐसा होनेपर भी, भौतिक जीवन जीनेवाले लोग मन की ओर उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं ।
मन को शक्तिशाली ( Powerfull ) सुसंस्कारी, स्थिर तथा समाधानी बनाना चाहिए । इन बातों की, भौतिक जीवन जीनेवाले लोग उपेक्षा करते हैं । ये लोग शरीर ( Body ) को जाँचते हैं, विटामिन्स देते हैं, परन्तु मन को पुष्ट बनाने सम्बन्ध में उपेक्षित दृष्टि से देखते हैं । विद्यालयों मे भी शरीर का ही ध्यान रखने को पढाया जाता है । इतना ही नहीं अपितु यह भी पढाया जाता है कि पैसे कमाना और व्यय करना भी शरीर के लिये ही है। परन्तु मन को तेजस्वी, शक्तिशाली तथा दैवी बनानेका विचार ही नहीं किया जाता । जीवन में मन का अनन्य, असाधारण महत्व है, इसीको लोग भूल गये हैं । इन लोगों को सच देखा जाय तो जीने का ही अधिकार नहीं है ।जीवन के 1/4 भाग के लिए ही सब कुछ व्यय कर, मानवी शक्ति, बुद्धि और वित्त भी उसके लिये ही व्यय कर जीवन के 3/4 भाग को अज्ञात रखनेवाले लोगों का यह बौद्धिक दिवालियापन ही है। मन के दो भाग है - ज्ञात और अज्ञात । फ्राइड का ‘lectures on phycho-Analysis’ पढेंगे तो भक्ति बहुत अच्छी तरह से समझ में आ जायेगी । वह कहता है कि मन का 3/4 भाग अज्ञात है मनका 1/4 भाग ही हमको ज्ञात है यदि हम अत्यन्त सावधानी और विवेकबुद्धि से अंतर्मुख हो कर मन को संयमित भी करेंगे तो केवल 1/4 भाग को ही कर सकेंगे । शेष 3/4 भाग में जन्म जन्मान्तरों से लाये हुए वासना के पोटले भरे पडे हैं । वे कब उछलकर बाहर निकल पडेंगे यह कहा नहीं जा सकता । इस 3/4 भाग को कैसे बदलेंगे और किस प्रकार उसका शुद्धिकरण करेंगे यह मुख्य प्रश्न है।

मानव जीवन में मन का ऐसा अनन्य, असाधारण स्थान है कि उसको कोई अमान्य कर ही नहीं सकता। मन का अद््भूत सामथ्‍र्य है । संस्कारों की अक्षय स्मृति-मंजूूषा अर्थात् मन। मन संस्कारों को संभालता है और उसके पास अक्षय स्मृति-मंजूषा है । केवल इस जन्म के ही नहीं, अपितु जन्मजन्मांतर के संस्कारों की स्मृति-मंजुषा अर्थात मन । मनके मनोरथों और संकल्पों पर जीवनलक्ष्मी का प्रभाव होता है ।
हम मनोरथ के सम्बन्ध में विचार नहीं करते । परन्तु मन में निर्माण होनेवाले मनोरथ और संकल्प जीवन बनाने में बहुत बडी भूमिका अदा करते है । हमारा सम्पूर्ण जीवन ही संकल्प और मनोरथों से बनता है। इसलिए मेरे मनोरथ देवों को अच्छे लगनेवाले व ऋषियों को रुचनेवाले होने चाहिए । इसीलिए तुलसीदासजीने लिखा है ‘‘और मनोरथ जो कोई लावै, तासु अमित जीवन फल पावै’’
महत्वाकांक्षा और मनोरथ कैसे होने चाहिए? महत् बनने की आकांक्षा अर्थात् महत्वाकांक्षा। आज महत्वाकांक्षा शब्द इतना सस्ता हो गया है कि उसको चाहे जिस जगह प्रयुक्त करते हैं । एक विनोदी कहानी है । एक भाई ने विवाह किया । कुछ समय के बाद उसकी पत्नी का देहांत हुआ। वह दुसरी पत्नी कर लाया । वह भी चल बसी । इस प्रकार उसने छ: विवाह किये और छटी पत्नी भी मर जानेपर उसने सातवे विवाह की तैयारी की । तब उसके िमत्र ने कहा, ‘अरे पागल! तूने यह क्या चलाया है? तू तो महान यम देवता ही दिखता है । छ: बार विवाह कर चुकने पर अब तू सातवी बार विवाह करने जा रहा है?’ उस भाईने जबाब दिया, ‘तू चुप रह! मेरी एक महत्वाकांक्षा है ।’ मित्र ने पूछा, ‘कौनसी?’ तो वह कहता है, मैं विधुर रहकर नही मरुँगा, विधवा छोडकर ही मरुँगा! कहने का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार की कहीं महत्वाकांक्षा हो सकती है? इसप्रकार व्यक्ति को महत्वाकांक्षा शब्द का अर्थ क्या है यही मालूम नहीं है । वास्तव में महत् बनने की आकांक्षा यानी महत्वाकांक्षा। ‘मै एक बंगला बनाऊँगा, या एक मोटर खरीदूँगा,’ यह कोई महत्वाकांक्षा नहीं कही जाएगी। ‘मै विश्वंभर का पुत्र बनूँगा’ इसको महत्वाकांक्षा कहते हैं ।
इसलिए ऋषि कहते हैं, ‘मेरा मन कहाँ है, और किसमें वह रममाण होता है इसका ही मुझे पता नहीं है। मेरा मन मेरे हाथ में नहीं है । डॉक्टरों को भी ‘मन’ के विषय में कुछ पता नहीं है । इसका कारण, जब तक शरीर जीवित होता है तब तक शरीर को चीरकर मन को नहीं शोधा जा सकता और मरनेपर शरीर से मन चला जाता है ऐसा हमारा शास्त्र कहता है ।

इसलिए मन कौनसा पदार्थ है, वह कहाँ रहता है, शरीर का कौनसा भाग वह व्याप्त करता है, इसका आज भी डॉक्टरों को पता नहीं  है । इसपर भी मन है, इसमें कोई सन्देह नहीं है । इतना ही नही जीवन का 3/4 भाग यह मन ही चलाता है । मनुष्य के मरनेपर पंचज्ञानेन्द्रियाँ, पंचकर्मेन्द्रियाँ, पंचप्राण, मन व बुद्धि इन सत्रह तत्वों की लिंगदेह शरीर से चली जाती है । उसके बाद वह डॉक्टरोंको चीरने के लिए दी जाती है, इसलिए डॉक्टरों को मन नहीं दीखता है । डॉक्टर मन के विषयमें न लिखते हैं न बोलते हैं ।

ऋषि भगवान को पुकारकर कहते हैं, ‘भगवान! बडे बडे लोगों को मन अर्थात् क्या है इसका पता नहीं चलता तो मुझे कहाँ से चलेगा? मेरे मनोरथ कैसे होने चाहिए यह तुम कहो। भगवान ! मैं तुम्हारी गोद में बैठूँगा, इसलिए मुझे कौनसे मनोरथ करने चाहिए यह तुम ही निश्चित करो । भगवान, मुझे कैसे संकल्प करने चाहिये, यह तुम ही कहो ।

संकल्प अर्थात् क्या? ‘होना ही चाहिये’ ऐसी वृत्ति यानी संकल्प । मनुष्य संकल्प करता है, मैं बी. ए. करुँगा ही, मैं विद्वन बनूँगा ही, मैं धनवान बनूँगा ही । मनुष्य सुबह से शाम ऐसे संकल्प करता ही रहता है संकल्प में हमारा यह जीवन व मरणोत्तर जीवन ऐसे दोनो जीवन बनाने की शक्ति है ।

मनुष्य को लगता है कि खाओ, पीओ और मौज करो ( Eat drink and be merry ) इसीका नाम जीवन है और जीवन वैसा ही होना चाहिए ऐसा संकल्प करके मनुष्य ने जीवननिष्ठा बाँधकर चैतन्य के आसपास वैसा वलय खडा किया तो मरने के बाद वैसा ही जीवन मिलता है । खाओ, पिओ, और मौज करो ऐसा जीवन यानी कौनसा जीवन? जिस जीवन मे चिंता नही है, फिक्र नहीं रहती, उत्तरदायित्व नहीं होता, पिताजी की देखभाल नहीं करनी होती, माँ के पैर नहीं दबाने होते हैं । पशु अकेला ही होता है । उसको नीति की आवश्यकता नहीं है । पशु जीवन में मियाँ-बीवी का आपस में बना तो ठीक है नहीं बना तो छोड देने की छूट है । मनुष्य को ऐसा पशुजीवन की अच्छा लगता है । आज हम जीवन की इच्छा रखते है, माँगते है, जिसे पढने के लिए अरबों रुपये व्यय कर शिक्षण संस्थाओंका निर्माण किया जाता है, वह जीवन बिना पढे लिखे गधों और कुत्ताें को भी प्राप्त होता है । गधों और कुत्तोंको क्या किसी नीति की जरुरत होती है? आज एक ऐसी विचार धारा निर्माण हुई है कि, प्रत्येक व्यक्ति को अधिकार है (Every individual has right), मुझपर किसीका उत्तरदायित्व नहीं, वे कहते हैं, ‘हमारी समाज व्यवस्था में पत्नी पत्नीका देखें और पति पतिका देखें प्रत्येक जन स्वतंत्र है । यह आगे बढी हुई ( Advanced ) (?) समाजव्यवस्था है । मनुष्य को देव बनाने का तत्वज्ञान कहाँ और मनुष्य को पशु-गधा बनाने का तत्वज्ञान कहाँ? इसमें जो फर्क है वही मनुष्य को नहीं समझता । ऐसी समाजव्यवस्था और कुत्तों की समाज व्यवस्था में क्या अंतर है?  कुत्तों की समाजव्यवस्था में बन्धन ही नहीं है । कुत्ता-कुत्तिया का बनता है तबतक ठीक है, नहीं तो लात मारकर एक दुसरे को छोड देते हैं । लोग आज भूल गये हैं कि जीवन में हम जो संस्कार सिंचन करेंगे, जो विचार दृढ करेंगे, जो संकल्प निश्चित करेंगे, उसपर ही हमारा दूसरा जन्म निर्भर हैं । पुनर्जन्म यह निसर्ग का नियम है ।यह अटल सिद्धान्त ( Rebirth is the law of nature ) है । आजका विज्ञान भी ऐसा कहता है कि जड पदार्थ नहीं बदलता, उसका रुपान्तर होता है और चेतन का वेषान्तर होता है । पुनर्जन्म यह तो जागतिक नियम ( Universal law ) है ।  जीवात्मा वेषान्तर करती है तब वह कौनसे कपडे परिधान करेगी? यह कौन निश्चित करता है? जीवात्मा स्वयं वह निश्चित करती है । इसमें चित्रगुप्त को देखने की जरा भी आवश्यकता नहीं है ।

हमारे पूर्वज कहते हैं, ‘चित्रगुप्त दूसरा जन्म निश्चित करता है।’ इसलिए लोग ऐसा समझते हैं कि चित्रगुप्त यानी भगवान के मुनीमजी! वह सबके हिसाब-किताब रखता है । परन्तु भगवान को ऐसा मुनीमजी रखने की आवश्यकता ही नहीं है । ‘चित्रगुप्त’ शब्द को उलटा लिखा तो ‘गुप्त चित्र’ शब्द बनता है । हम हमारे रोज के संस्कारों से एक गुप्त चित्र खडा करते हैं । उस चित्र के अनुसार, उन वासनाओं के अनुसार दूसरा जन्म मिलता है । ‘वासना’ बहुत बडी शक्ति है । वह मनुष्य में पूर्णतया व्याप्त रहती है । मनमें स्थित वासना की शक्ति अर्थात् मनोरथ व संकल्प । इसलिए मनुष्य का दूसरा जन्म उसके संकल्प ही निश्चित करते हैं । यह जन्म तो जाने दो- वह तो वासना से, संकल्प से निश्चित हुआ है, परन्तु आनेवाला जन्म भी उनसे ही निश्चित होता है ।

मन ऐसा संकल्प करता है, परन्तु मन कहाँ है इसका हमें पता नहीं है । पंडित नहीं बताते और हमे पता नहीं चलता । फिर भी हमारे मन, मनोरथों और संकल्पो की ओर किसकी नजर रहनी चाहिए । भगवान की! मानव अपनी दुर्बलताओं और मर्यादाओं को समझेगा तभी वह भगवान के चरणों के निकट जायेगा । मनुष्य को अपनी मर्यादाओं को जानना चाहिए । जबतक मनुष्य अपनी मर्यादा को नहीं पहचान सकता, तबतक दैवी जीवन का प्रारंभ नहीं होता । इसलिए तुलसीदासजी भगवान से  प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभो! मेरे मनोरथों और संकल्पों की प्रभा को बढने दो, उसका तेज बढने दो, दीप्ति बढने दो!

पुनर्जन्म का सिद्धान्त शास्त्रीय है, तर्कनिष्ठ है, गत जन्म के कर्मोका फल इस जन्म में मिलता है । कुछ लोग पूछते है, ‘पिछला जन्म था तो इस जन्म में उसकी स्मृति क्यों नहीं है, अथवा अगला जन्म क्यों नहीं समझ पडता? जो समझ पडता है उसी को मानते हैं । हमें इलेक्ट्रिीसिटी दिखाई नहीं देती, इसका अर्थ यह नहीं है कि इलेक्ट्रिीसिटी नहीं है ।  उसके द्वारा प्रकाश मिलता है, पंखा तथा हिटर चलता है, वह उसका कार्य है ( Functioning ) है ।  इलेक्ट्रिसिटी का रुप नहीं दिखता परन्तु उसका अस्तित्व है । तात्पर्य यह कि पुनर्जन्म हमें दिखता नहीं परन्तु यह शास्त्रीय सिद्धान्त है उसपर हमें विश्वास करना चाहिए । जीव की खडी की हुई वासनायें वह कर्मफलोपभोग भगवान सँभालकर रखते है और वे सब के सब जीव को उसके अगले जन्म में दे देते है ।
जीवन जन्मजन्मांतर की कमाई लेकर ही आता है । अत: माता-पिता अच्छे हों तो उसको अच्छा वातावरण मिलता है और उसको माता पिता उपयोगी सिद्ध होते हैं । परन्तु संस्कार प्रत्येक जीव लेकर ही आता है । तब आत्मिक गुण अनुवंश से उत्क्रांत नहीं होते । शंकराचार्य महान तत्ववेता थे, परन्तु उनके पिताजी महान तत्ववेता थे ऐसा वर्णन नहीं है । कालिदास अथवा शेक्सपियर के पिता महान कवि नहीं थे । आत्मिक गुण, बुद्धि के गुण प्रत्येक जीव प्रत्येक जन्म में साथ लेकर आता है । इसलिए वेदान्त शास्त्र अतिशय प्रांजलता से कहता है ‘एक; प्रजायन्ते जन्तु: एक एव विलीयते ।’ प्रत्येक जीव अकेला जन्म लेता है व अकेला ही जाता है । माता-पिता भाई-बहन, पत्नी-पुत्र आदि सब साथी हैं । साथी अच्छे हाें तो जन्मान्तर के संस्कार उद्दीपित होते हैं और अच्छे न हों तो संस्कार दब जाते हैं । कम होते हैं, वैसे कभी बढते भी हैं । तुकाराम महाराज ने भगवान सेे कहा, भगवान! आपने मुझे ऐसी झागडालू, कलह-प्रिय पत्नी दी, इसके कारण मैं आपके चरणों में आकर चिपक बैठा हूँ। यदि आपने अच्छी पत्नी दी होती तो कदाचित्् मैं उसमे ही रंग गया होता । तात्पर्य यह है कि "वायुर्गन्धानिवाशयात्"  वायु जिस प्रकार सुगन्ध लेकर आता है वैसा प्रत्येक जीव संस्कार लेकर आता है ।

मन और बुद्धि जीवात्मा के साथ जन्मान्तर में साथ आनेवाली है । अत: दूसरा सब कुछ बिगड गया तो हानी नहीं है, परन्तु मन और बुद्धि नहीं बिगडनी चाहिए ।  बुद्धि जन्मजन्मान्तर का साथी है इसलिए हमारे शास्त्रकार कहते हैं कि बुद्धि के स्वभाव को पहचानो, उनके गुण दोष समझलो । विनोदमें कहना हो तो हमारी बुद्धि आदिवासी है । आदिवासी मनुष्य कैसे होते हैं? उनके पास ऐसे कुछ वस्त्र नहीं होते । लंगेाटी पहनते हैं । हमारी बुद्धि इस प्रकार की आदिवासी है । शास्त्रकार कहते हैं । हमारी बुद्धि नग्न है । उसको भक्ति के वस्त्र से आच्छादित करो। ‘संकल्प’ बुद्धि की शोभा है । इत्र लगाना बुद्धि की शोभा नहीं है। हम अपने जीवन में कौनसे संकल्प करते हैं इसपर से हमारी बुद्धि की शोभा बढी है या नहीं इसका पता चलता है । इसीलिए तुलसीदासजी लिखते हैं जैसे हमारे मन के मनोरथ (संकल्प) वैसा हमें जीवन फल (अगला जन्म) मिलता है।

मन को किसके संपर्क में रखना? सत्पुरुषों के, उसी को सत्संग कहते हैं । एकाध स्थान पर भजन चलता हो तो वहाँ जाकर बैठने का नाम सत्संग नहीं है । मनको तृप्त करो । मन को तृप्त करो यानी भक्ति का वस्त्र पहनाओ व उसका सत्संग कराओ ।  मन व बुद्धि दोनों हमारे साथ आनेवाले हैं । मन-बुद्धि प्रमुख हैं और शेष पंद्रह तत्व पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रियं, व पंचप्राण उनके साथ आते हैं । प्रमुख में परिवर्तन हुआ तो अन्यों में परिवर्तन होने में विलंब नहीं लगता। जिनके नेता मुर्ख होते हैं उनके अनुयायी भी मुर्ख होेते हैं । समाज में सत्तर प्रतिशत लेाग अनुयायी होते हैं ।  तीस प्रतिशत लोग बुद्धिशाली होते हैं । उनमे से आधे राक्षसी विचारों के होते हैं और आधे सात्विक विचारों के होते हैं, जिनको हम देव कहेंगे। देव प्रभावी बने तो शेष सत्तर प्रतिशत लोग उनका अनुकरण करते हैं और यदि राक्षस प्रभावी बने तो लोग राक्षसों का अनुयायित्व करते हैं । जिनका नेतृत्व प्रभावी होता है वैसा समाज बनता है । इसीलिए राम काल में भी पन्द्रह प्रतिशत लोग राक्षसी विचारों के थे ही ।

कलियुग में पन्द्रह प्रतिशत लोग सात्विक रहेंगे ही, परन्तु उनमें इतनी शक्ति नहीं होगी कि शेष लोग उन्हे पकडकर रहेंगे । राक्षसी विचारों के पन्द्रह प्रतिशत लोग उन्हे सहजता से पकड रखेंगे। इसलिये कलियुग आता है । देव दुर्बल बनते हैं तब ऐसी परिस्थिति निर्माण होनेवाली ही है । उस समय सात्विकोंको गर्दन नीचे झुकाकर बैठना पडता है । इस दृष्टि से बुद्धि नेता है, सारथी है । सारथी यदि शराबी होगा तो? उसको -ड्रायव्हर को गाडी नहीं चलाने देते ।  उससे गाडी की चाबियाँ वापस ली जाती है । शराबी को गाडी चलाने कौन देगा? मूल बात यह है कि मन और बुद्धि को शक्तिशाली बनाना है । उनके शक्तिशाली बनने पर इन्द्रियाँ उनका अनुकरण करेंगी ही ।
संकल्प अच्छे करो यह एक बात और संकल्प भव्य करो यह दूसरी बात ।  मनुष्य जब भव्य संकल्प करता है तब भगवान खुश होते हैं ।  भगवान आते हैं और ऐसे जीव से कहते है, चल उठ, उठ! बाजू । तुझे गाडी चलाने का अकारण कष्ट हो रहा है, ला, मैं गाडी चलाता हूँ ।  ऐसा कहकर एक पिता की तरह वे महान जीव के जीवन में स्वयं ही संकल्प करते हैं । उसी को ‘गतसंकल्प’ कहते हैं । अर्थात्् वह संकल्प रहित नहीं, अपितु संकल्प उसका नहीं रहा, उसके जीवन में प्रभु संकल्प करते हैं । यहाँ संकल्प प्रभु का और दौडता है वह ।  इसप्रकार उसका जीवन रथ चलता है ।  उसी को योगी कहते हैं ।  उसकी बाहर प्रवृत्ति दिखायी देती है और भीतर निवृत्ति होती है । परन्तु यह कब होता है? भगवान उसकी गाडी का स्टीअरींग व्हील हाथ में लेंगे तब ।  किसी जीव का भव्य संकल्प देखकर भगवान पागल से बनते हैं तभी यह शक्य होता है । उसके जीवनमें सफलता आये या असफलता, वह भगवान की! व्यवहार में गाडी की दुर्घटना हुयी तो जबाबदार ड्रायव्हर को माना जाता है, गाडी में बैठे हुए लोग नहीं! इस रीति से जीवनरथ चलाने वाला उत्तरदायी होता है । रथमें बैठनेवाला रथी नहीं! इसीको कहते हैं बाहर प्रवत्ति और भीतर निवृत्ति! जो कृति करते हैं, परंतु संकल्प भगवान का होता है उनको योगी कहते है । जिनके जीवन में कृति भी भगवान की और संकल्प भी भगवान का वे योगीश्वर कहलाते हैं । ऐसे महापुरुषों को वेद भी प्रथम नमस्कार करते हैं योगीश्वरं याज्ञवल्क्यं नारायणं नमस्कृत्यं और बाद में नारायण को नमस्कार करते हैं।

महापुरुष अपने जीवन में संकल्प भगवान के हाथ में सौप देते हैं । वे भगवान से कहते हैं भगवान! मुझे कैसे रहना है यह आप ही निश्चित करें ।  आप मुझे झोपडी में रखना चाहते हो तो झोपडी में रहुँगा । महल में रखना चाहते हो तो महल में रहुँगा । मुझे झोपडी न मिले ऐसी इच्छा मैने नहीं की है । और महल मिलने के लिए प्रयत्न भी नहीं किया है । आपको जहाँ रखना हो वहाँ रखो मेरी तैयारी है । एक भजन मे भी लिखा है जो बहुत प्रचलित है--
सीताराम सीताराम सीताराम कहिए
जांहि विधि राखे राम तांहि विधि राहिये
जिन्दगी की डोर सोंप, हाथ दीनानाथ के
महलों में राखे चाहे, झोपडी में वास दे.......
जीवन में दो पैसे मिले इसलिए मैने एक पग भी नहीं उठाया है । मेरी जीवनपोथी आपके पास है । आप, जाँचकर देखिये । मुझे तो आपकी इच्छा के अनुसार ही रहना है । इसको कहते है जांहि विधि राखे राम तांहि विधि रहिये ।  हम तो जीवन में ऊब जाने के बाद, आगतिक होनेपर कहते है ‘‘जाहि विधि राखे राम तांहि विधि रहिये’’।  वे महापुरुष कहते है कि ’’ मैने इच्छा ही नहीं की है । मैने क्या कभी अपके पास माँगा है?
हमारा माँगा हुआ हमें मिलता है, इसलिए शास्त्रकार कहते हैं कि इच्छा ही मत रखो, सब भगवान पर छोड दो, अन्यथा यह नहीं कहा जा सकता कि हमारे मन को कब क्या रुचेगा।

एक करोडपति की पत्नी अपने बंगले की गॅलरी में खडी थी । उसके सामने एक नये मकान का निर्माण हो रहा था । बहुत से मजदूर काम कर रहे थे । दोपहर बारह बजे का घण्टा बजा और मजदूरोकों खाने की छुट्टी मिली । सभी मजदूर खाने के लिये गये । एक मजदूर की पत्नी रोटी लेकर आई । दोनों जने हाथ पैर धोकर एक पेड की छाँव में बैठ गये । मजदूर की पत्नी ने रोटियों की पोटली खोली और दोनों परस्पर हास्य-परिहास तथा विनोद करते हुए लहसुन की चटनी के साथ बाजरे की रोटी  खाने लगे । करोडपती की पत्नी इस दृश्य को देख रही थी । उसके पति की चार फॅक्ट्रियाँ थी और व्यस्तता के कारण उसे साँस लेने की भी फुरसत  न थी । अत: उसका पति और वह कभी भी एक साथ बैठकर भोजन न  कर सकते थे । पति को जब समय मिलता, भोजन करने आता, रसोईया भोजन परोसता और वह जल्दी में भोजन करके वापस कारखाने में चला जाता था । सेठानी ऐसे जीवन से उकता गयी थी । इस मजदूर दम्पति के जीवन को देखकर उसे लगा-‘‘वास्वतमें यही सच्चा जीवन है ।’’ उसने कहा ‘‘भगवान! जीवन हो तो ऐसा ।’’ भगवान ने उसकी प्रार्थना को अंकित कर लिया और अगले जन्ममें उसे वैसी ही स्थिति प्रदान कर दी । परंतु तब वह भगवान को कोसने लगी और गाली देने लगी । वह इस बात को भूल गयी थी कि उसने स्वयं ही भगवान से ऐसा जीवन मांगा था । तात्पर्य यह कि हमारा मांगा हुआ ही हमको मिलता है ।

धनी लोग शहर में अच्छे-अच्छे बंगलो और फ्लैटों में रहते हैं, परन्तु जब कभी हवाखोरी के लिए गाँवो में जाते है, तो लिपी-पुती हुई सुन्दर घास-फूस की झोपडी, खूला आंगन, पूर्णिमा की रात्रि, खुला आसमान स्वच्छ शीतल पवन और शांत ग्रामीण जीवन देखकर कहते हैं -‘‘भगवान। यही श्रेष्ठ जीवन है । नगर का जीवन भी कोई जीवन है । यदि जीवन हो तो ऐसा ही हो। ’’ भगवान उसकी माँग को नोट कर लेते है और दूसरा जीवन वैसा ही देते है । भगवान ना क्यो करे? परंतु ऐसा जीवन पानेसे लोग दु:खी होते है, और फिर भगवान को ही गाली देने लगते है । मूल बात यह है कि मनुष्य को दु:खों की ओर किस दृष्टि से देखे इसकी अक्ल न हो तो जगत में उसे कोई भी सुखी नहीं कर सकता । भक्त दु:ख का स्वीकार करता है इतना ही नहीं यह दु:ख मेरे भगवान ने भेजा हुआ है, यह समझकर उसका स्वागत भी करता है उसके बाद उस दु:ख में ही उसको ईश दर्शन होता है ।

जीवन में झूठी महत्वाकांक्षा मत रखो । झूठी महत्वाकांक्षा से मन मारा जाता है । भगवान ने महत्वाकांक्षा को रबड के समान बनाया है । उसे परब्रह्म तक खींचा जा सकता है । ‘‘मै भगवान का बनूँगा’’ यहाँ तक महत्वाकांक्षा बढ सकती है । क्योंकि वह भगवान की दी हुई है । परन्तु झुठी महत्वाकांक्षा मत रखो । ऎसा समाज निर्माण करना चाहिए कि उसमें झूठी महत्वाकांक्षा का स्थान ही नहीं रहेगा। हम झूठी महत्वाकांक्षा रखते हैं और उसकी पूर्ति नहीं होती, तब  ‘‘दैव’’ को मानने लगते है और कहते है, हमारा भाग्य ही ऐसा है तो क्या करे? फिर लगता है कि भाग्य हमारे हाथ में नहीं है, वह किसी अव्यक्त देवता के हाथ में हैं । इसी कारण फिर व्यक्ति किसी भी देवता की पूजा करने लगता है । आपत्ति आनेपर मानव भगवान के पास जाता है और आपत्ति दूर नहीं होती तो भगवान को ही छोड देता है । फिर जिस प्रकार पिशाच का भय लगता है वैसे ईश्वर भय ( Fear of God ) के कारण भगवान को नहीं छोडता । परन्तु उसका मन भगवान में नहीं लगता । इसलिए उसके जीवनपर कोई प्रभाव नहीं पडता । ‘‘मै कौन हूँ? क्या बनूँ और कैसे रहूँ ?’’ ये बातें यदि मनुष्य ने निश्चित नहीं की तो फिर वह मनुष्य रुपमें जन्मा ही किसलिए? इसलिए महत्वाकांक्षा चाहिए किन्तु मिथ्या महत्वाकांक्षा नहीं होनी चाहिए।

भगवान! मैं आपको अच्छा लगूँगा ऐसा संकल्प करो। भगवान! मैं आपका काम करुँ ऐसा संकल्प करो, जिसके जीवन में भगवान संकल्प करते हैं वह अति उच्च स्थिति है । वह योगी है । उसके जीवन में बाहर प्रवृत्ति और भितर निवृत्ति है ।

तुलसीदासजी इस चौपाई में हमें यही समझाते हैं कि हमको मन के संकल्प उच्च रखने चाहिए हमारे मनोरथ अच्छे होने चाहिए और जितने उच्च हमारे मनोरथ होंगे उतना ही उच्च हमें जीवनफल (जन्म) मिलेगा। इसलिए मनुष्य श्रेष्ठ संकल्प करके भक्ति पथ की ओर अग्रसर होने का प्रयास करना चाहिए ।

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