Sunday, July 3, 2011

चौपाई:- साधु संत के तुम रखवारे । असुर निकंदन राम दुलारे।। (30) Hanuman Chalisa


चौपाई:- साधु संत के तुम रखवारे । असुर निकंदन राम दुलारे।।  (30)
अर्थ : हे श्रीराम के दुलारे ! आप साधु और सन्तों तथा सज्जनों की रक्षा करतें हैं तथा दुष्टों का सर्वनाश करतें हैं ।
गूढार्थ :  तुलसीदासजी कहते हैं कि हनुमानजी साधु पुरुषों का रक्षण करते हैं और दुष्टोका नाश करते हैं । हनुमानजी का यह कार्य भगवान ने गीता में जो कहा है, ‘परित्रााणाय साधुनाम, विनाशायच दुष्.ताम’ का सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है । भगवान धरतीपर अवतार लेकर आते है वहीं काम हनुमानजी भी करते हैं ‘साधु संत के तुम रखवारे, असुर निकंदन राम दुलारे’ ऐसा तुलसीदासजी लिखते हैं । ‘परित्राणाय साधूनाम’ अर्थात् साधु (सात्विक एवं सज्जन) लोगों की सहायता रक्षण के लिए तथा उनको मिलने भगवान आते हैं । प्रभु का वचन है कि धर्म तथा मानवता का र्‍हास होगा तब उनके पुनरुत्थान के लिए मैं जन्म लूँगा । परन्तु कब? जिनको कुछ करना नहीं है और धर्म के लिए जिनको छटपटाहट नहीं होती ऐसे निष्क्रीय निस्तेज और पौरुषहीन आलसी लोग पुकारेंगे तब नहीं...... ऐसा वे कभी नहीं आयेंगे। यहाँपर भगवान के वचनों पर ध्यान देना आवश्यक है। भगवान प्रथम जो शब्द का उच्चारण करते हैं वह है ‘परित्राणाय साधुनाम’ और बादमें विनाशायच दुष्.ताम......जब सात्विक विचारों के लोग प्रभु कार्य करने लगेंगे अपना खून पसीना एक करने लगेंगे, कार्य करते करते थक जायेंगे, शक्तियाँ क्षीण होने लगेंगी तब उनकी पीठ पर हाथ फेरने के लिये, उनका हाथ पकडकर खडा करने के लिये और चलते चलते दुष्टोंका नाश करने के लिए प्रभु जन्म लेंगे। अन्यथा नहीं। प्रयत्नवाद के बिना अवतार नहीं होता । जिस समाज में अविरत परिश्रम होते हैं वहीं प्रभु को आने का मन होता है। रामनवमी, जन्माष्टमी अथवा एकादशी के दिन कितनी ही ऊँची आवाज में निष्क्रय और आलसी लोग गिडगिडायंंगे और प्रभु को अवतार लेने का उपदेश करेंगे फिर भी भगवान तक उनकी आवाज नहीं पहुँचेगी । जहाँ संस्.ति और नैतिक मूल्यों को बनाये रखने के लिए सात्विक समाज ने मशाल प्रज्वलित की है और अविरत प्रयत्न चल रहा है वहीं प्रभु पधारेंगे ।
मानव जीवन का सतत विकास और सांस्.तिक पुनरुत्थान आज के युग की मांग है । ऋते श्रांतस्य न सख्याय देवा:’ जब तक सात्विक लोग प्रभु प्रेम से प्रेरित होकर भगवान का काम करते करते थक नहीं जाते तब तक भगवान सहायता नहीं करते । इसलिये सात्विक लोगों को सात्विकता बढाने के लिए जितोड मेहनत करनी चाहिए।

कितने ही लोगों की ऐसी मुर्खतापूर्ण कल्पना होती हैं कि जब सम्पूर्ण सृष्टि भ्रष्ट हो जाएगी तो भगवान उसे ठीक करने के लिये अवतरित हो जायेंगे, परन्तु उनको इस बातका बोध नहीं है कि भगवान नालायक लोगों को सुधारने के लिये नहीं आते । यदि सम्पूर्ण मानव-जाति बिगड जाएगी तो भगवान सारी मानवयोनि को ही बदलकर मछली बना देंगे और मछलीयोंको मनुष्य बना देंगे । चौरासी लाख योनियोंमे लाखों जीव भगवान की प्रतिक्षा सुचि (Waiting list) में हैं । तो फिर भगवान कब आते हैं? गीता में कहा है-
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्.ताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय  संभवामि  युगे  युगे ।।
                      गीता 4-8)
भगवान क्या जगत में लीला करने आते है ? भगवान जगतमें क्यों आते है? भगवान के जगत में आने के तीन कारण हैं, सज्जनों को मदद करने, दुर्जनता हटाने तथा सम्यक्धर्म की स्थापना करने भगवान जगत्में आते हैं । भगवान को जगत में आने का कारण तथा मेरा जगत में आने का कारण एक होना चािहए ।
तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा में इस चौपाई में हनुमानजी का इसी कार्य का वर्णन किया है । यदि हमें सच्चे अर्थ में भगवान के साथ जुडना है तो भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि भगवान! जिस कारण तूं जगत में आता है उसी कारण मैं जगत में आया हूँ यह स्थिति आने के बाद भगवान के साथ योग होता है ।

भगवान तेरा और मेरा दु:ख एक, तेरे और मेरे आने का प्रयोजन एक, तेरा और मेरा संकल्प एक, तेरा और मेरा निर्णय एक, ऐसी एकता भगवान के साथ होनी चाहिए । भगवान! मेरे जैसा तू यह एकता नहीं है तेरे जैसा मैं यह एकता है । मैं ही भगवान के जैसा बनूँगा । मुझे भगवान के जैसा बनना हो तो साधना भी करनी पडेगी ।उसके लिए मुझे परिश्रम करना पडेगा । परिश्रम किये बिना भगवान के पास नहीं जाया जाता है ।

गीता में भगवान ने मनुष्य की व्याख्या की है । मनुष्य कौन है? जिस प्रकार हम किसी वस्तु की वयाख्या करते हैं उसी प्रकार ‘मनुष्य’ की व्याख्या होनी चाहिए । कोई कहेगा, ‘जिसके दो पैर हैं वह मनुष्य’! परन्तु यह बुद्धि में नहीं उतरता, क्योंकि कौए के भी दो पैर होते हैं । कोई कहेगा, ‘संसार करता है वह मनुष्य’! पशु-पक्षी भी संसार करते हैं । तो फिर मनुष्य कौन?

गीता में भगवान ने मनुष्य की व्याख्या की है । भगवान कहते हैं, ‘मम वत्‍र्मानुवर्तन्ते मनुष्या:...........’ अर्थात मेरे (भगवान के) मार्ग से जो चलते हैं वे ही मनुष्य हैं । इसका भावार्थ इतना ही कि जो भगवान के मार्ग से नहीं चलते हैं वे मनुष्य नहीं है । भगवान ने मनुष्य की ऐसी व्याख्या की है । सन्त भी कहते हैं कि जो भगवान के मार्ग का अनुसरण करते हैं उनको ही मनुष्य समझो। परन्तु  व्यवहार में हमें भिन्न ही चित्र देखने को मिलता है । लोग ईश्वर के शब्दों का श्रवण करते हैं, उनको रटते हैं, उनका अर्थ भी करते हैं, इतना ही नहीं, वह अर्थ लोगों को भी कहते हैं, परन्तु उसके अनुसार वे आचरण मात्र नहीं करते । इसलिए भगवान गीता में स्पष्ट कहते हैं कि जो मेरे मार्ग से आयेंगे वे ही केवल मनुष्य हैं ।

हम तो कहते हैं कि ‘न देवचरितं चरेत्’- भगवान नैतिक हैं और हम अनैतिक हैं । इतना ही नहीं, अपितु कोई भगवान के मार्ग से चलता है तो हम उसका मजाक उडाते हैं और कहते हैं कहाँ भगवान और कहाँ वह! भले ही भगवान कहते हैं कि ‘ममैवांशो जीवलोके.........।’ परन्तु देव सर्वज्ञ हैं और जीव अल्पज्ञ हैं । देव शक्तिमान हैं और जीव अल्पशक्ति हैं । देव ममत्व की दृष्टि से सबकी ओर देखता रहता है पापी में पापी दुष्टों की ओर भी देव ममत्व की दृष्टि से देखता है । परन्तु मनुष्य अपनी संकुचित सीमा के बाहर ममत्व तथा प्रेम की दृष्टि से नहीं देखता है । देव साधुओं की रक्षा करता है और दुष्टोंका शासन करता है । परित्रााणाय साधूनां विनाशाय च दुष्.ताम्।  परन्तु मनुष्य साधु-सन्तो की उपेक्षा करता है और दुष्टों को नमस्कार करता है ।  देव स्वयं घिसकर मनुष्य का योगक्षेम चलाता है । परन्तु मनुष्य अपने ही भाईयों का खून चूसकर अपना योगक्षेम चलाता है । देव अपने मित्रों के संकट में आनेपर स्वयं कूदकर उनकी सहायता करता है, परन्तु मनुष्य अपने मित्रों के संकट में आने पर मुँह फेरकर चला जाता है । कहने का तात्पर्य यह है कि प्रभु का वर्तन और हमारा वर्तन परस्पर विरुद्ध है । भगवान ने अपना वर्तन कैसा है यह दिखा दिया है और जीव से कहा कि तू भी सर्वशक्तिमान बन, ममत्व की भावना रख, साधु की रक्षाकर, दूसरों के लिए घिसता जा, मित्रों की सहायता करता जा ।  परन्तु हम इन बातों में से एक भी बात जीवन में चरितार्थ नहीं करते हैं ।  भगवान के दिखाये मार्ग से जाना कदाचित् कठीन लगता हो, इसलिए भगवान बनना सब के लिए संभव न हो, परन्तु कम से कम मनुष्य बन और पशु जैसा आचरण न कर ।

जो सच्चे वैष्णव हैं, सच्चे भागवत हैं वे भगवान के इस कार्य के लिए आगे आयेंगे । साधुओंका रक्षण करना है, सज्जनोंको सँभालना है, शक्ति देनी है, दुष्ट वृत्तियों का दमन करना है और धर्म की संस्थापना करनी है । इस कार्य के लिए भगवान आये । भगवान! मैं भी इस कार्य के लिए आया हूँ ऐसा कहेंगे, तब भगवान के साथ बैठनेवाले यात्री बन जायेंगे । आपका भगवान का टिकट एक ही है । तब कह सकते हैं, भगवान ! इस जगतमें आप जिस कार्य के लिए आते हैं वह हम भी करेंगे ।  आपका काम बडा होगा, हम छोटा

काम करेंगे उसमे क्या? काम तो वही रहेगा । हमारे जीवन में यही दृष्टि रहेगी कि हमें सज्जनों को शक्ति देनी
है, जगतमें सद्वृत्ति बढाने के लिये प्रयत्न करने हैं । देह की ममता ही हमारे ध्यान में नहीं आती । जो लोग सावधान तथा जागरुक हैं उनसे संबंध रखो।  सभी सोते हों तो उठायेगा कौन? कोई जागते होने चाहिए जो जागते हैं वे ऋषि हैं, वे हमें उठाते हैं । इसीलिए इसे अध्यात्ममें सत्संगति कहा जाता है । जो सत् के लिए काम करता है वह सज्जन है । जिसके जीवन में सत् ही काम करने लगे वह संत है ।

हम सज्जन किसे कहते हैं? जो ऐसा नहीं करता, वैसा नहीं करता, फलाना नहीं करता, सीधे ऑफीस जाता है, वापस घर आता है वह सज्जन है । जिसके जीवन में कोई हलचल नहीं, कोई प्रवाह नहीं ऐसे आदमी को दूसरा जन्म मिलेगा ही, कैसे कहा जा सकता है? तो सज्जन कौन? सत् का काम करनेवाला सज्जन है । इसलिए जो काम करो उसे सत् के लिए करो ।  जिसकी सत् सिद्धांतों पर श्रद्धा है वह सज्जन है ।  कुछ वैैवित् सिद्धान्त हैं । उनपपर जिसकी श्रद्धा है वह सज्जन है ।‘सत्यमेव जयते’ यह हमारा विश्वास है । इसका अर्थ यह है कि अन्त में सत्य की ही विजय होती है । कभी कभी सत्य सिद्धान्त को पराभूत भी होना पडता है । ऐसा होता भी है । रात्रि के दस बजे प्रकाश का पराभव ही होता है, परन्तु उसका अर्थ अंध:कार प्रभावी है ऐसा नहीं है । रात्रि में भले ही अंधकार होगा परन्तु सुबह प्रकाश आनेवाला ही है । इसीप्रकार सत्य सिद्धान्तों का कभी कभी प्रभाव कम हो जाता है । ऐसा लगता है कि क्या सत्य सिद्धान्तों में शक्ति नहीं है? कारण चारों ओर असत् का नृत्य दिखायी देता है । परन्तु अन्त में, सत्य की ही विजय होगी ऐसी श्रद्धा जिनमें है वे सज्जन हैं । ‘सत्’ को माननेवालों को भी सज्जन माना जाता है ।

भगवान को पहचानना सहज सरल है, परन्तु मनुष्य को पहचानना बहुत कठीन है । इसका कारण मनुष्य के अन्त:करण में छुपी हुई वासना कब दौडकर बाहर आयेगी वह नहीं कहा जा सकता । अत: सज्जन को पहचानना कठीन है ।

जो भगवान को नही मानता है वह कितना भी अच्छा होगा परन्तु वह सज्जन नहीं है । उससे डरकर रहना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, ‘हमने किसी की कभी चोरी नहीं की है, किसी को कभी दु:ख नहीं दिया है, देते भी नहीं, परन्तु हम दिन रात भगवान भगवान नहीं करते बैठते और भगवान को मानते भी नहीं।’ ऐसे व्यक्ति की छाया भी हम पर पडे तो ‘संचैलं स्नानमाचरेत्’ सवस्त्र स्नान करो । इसका करण उसके रोग के कीटाणु कब हमारे शरीर में प्रविष्ट हो जायेंगे, कहा नहीं जाता ।

सत्् अर्थात भगवान को माननेवाले जैसे सज्जन कहलाते हैं, वैसे ही सत् को उठाकर ले जाने जो लोग हैं वे भी सज्जन कहलाते हैं । सत् को उठाकर ले जाना यानी भगवान के विचार ले जाना । भगवान के विचारों को दूसरों के पास ले जानेवाले सज्जन हैं । यह सज्जन की व्याख्या है । जो भगवान और भगवान के विचााराें को उठाकर ले जाते हैं उनकी .ति को ‘.तिभक्ति कहते है । भागवत में भी उसका स्पष्ट उल्लेख है।
‘‘स्मरन्त: स्मारयन्तच’’  जो भगवान का स्मरण करता है और कराता है वह भागवत है । स्मरण कराना में .तिभक्ति आयी या नहीं! स्वाध्यायियों ने कोई नयी भक्ति नहीं निकाली है । पुरानी भक्ति चली गयी है उसे फिर से वे खडी करते हैं । स्वाध्यायी लोग जिर्णोद्वार करनेवाले लोग हैं? नया निर्माण करनेवाले नहीं है । क्योंकि ऋषि मुनियों ने यह सब कुछ करके दिखाया है । नया क्या है? बीच के समय में जो तत्व चले गये हैं, उनपर जो धूल चढ गयी है उसे हटाकर वे उनको फिर से स्वच्छ बना रहे हैं । यह अवश्य उनका भाग्य है ।

‘स्मरन्त:स्मारयन्ताच’- भागवत खोलकर आप देख सकते हैं कि स्मारयन्तच का अर्थ क्या होता है। जो भगवान का स्मरण करता है और कराता है वह भागवत है । इस प्रकार .तिभक्ति भागवत में है । इसकी यह भी व्याख्या हो सकती है कि जो भगवान का काम करता है वह सज्जन है । कोई भी व्यक्ति दूसरे ही दिन सज्जन या वशिष्ठ नहीं बन सकता ।गीता में भगवान ने कहा है-
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:।।
                  (गीता 9-30)
(प्रथम अत्यन्त दुराचारी व्यक्ति भी अनन्य भक्ति भाव से मेरी उपासना करेगा तो उसे शुद्ध ही समझना चाहिए, कारण उसकी प्रवृत्ति सन्मार्ग की और निश्चित होती है ।)

कुछ लोग आरोप लगाते हैं, ‘‘अजी देखे तुम्हारे स्वाध्यायी! वह तुम्हारा स्वाध्यायी भक्ति फेरी में जाता है, परन्तु घरवाली पर कितना क्रोध करता है, मालूम है तुम्हे? ऐसे ही है तुम्हारे स्वाध्यायी?’’ उनको कहना चाहिए, होगें! उसमें क्या है । पच्चीस वषे‍र्ांसे पत्नी पर गुस्सा करता आया है वह दूसरे दिन ही थेाडे ही सुधर जाएगा?  स्वाध्याय करते रहेंगे तो धीरे धीरे सुधर जायेंगे । लोगों को किसी की अच्छाइयाँ देखे नहीं जाती इसलिए लोग आरोप लगाते रहते हैं।

जिन लोगों को भगवान के विचारो का व्यसन लगा है, उनका जीवन अवश्य बदल जाता है । व्यसन शब्द अच्छा है, वह अच्छी  बातों में प्रयुक्त नहीं करते, परन्तु प्‍र्रयुक्त किया तो बुरा नहीं है ।  कहा भी है- ‘विद्याव्यसनं व्यसनमथवा हरिपादसेवनं व्यसनम्-।’ जिनको विद्या का तथा हरिपाद सेवा का व्यसन लगा उनका जीवन विकसीत होगा ही । सज्जनों के साथ मित्रता करनी चाहिए।

प्रभुकार्य के लिए संकल्प करना चाहिए । हमारे सभी कार्य देखो पुराने जमाने में विवाह करते समय संकल्प लेने को कहते, नहाते समय भी संकल्प लिया जाता था । संकल्प बहुत बडी बात है । इसलिए सत्!् के लिए एकाध काम तो रहने दो । मुझे कुछ नहीं चाहिए । बडप्पन नहीं चाहिए, कीर्ति नहीं चाहिए । भगवान! मैं तुम्हारे लिए काम करता हूँ ।  यद्यद् कर्म करोमि तद् तदखिलं शम्भो तवाराधनम् । ऐसी भावना सतत अन्दर रहनी चाहिए ।

जिसके जीवन में सत् ही काम करने लगे वह संत कहलाता है ।  हमें संत शब्द का अर्थ इतना ही पता है कि जो दूसरों के पास पैसे मांगता है और गरीबों को खिलाता है । हमारे देश में सारे संत लगभग ऐसे ही हैं । लोग कहते हैं : बाबाजी को कुछ नहीं चाहिए । जो आता है उसे रोटी खिलाते हैं । सन्त होना सरल हो गया है । बाबाजी सन्त है । आश्रम चलाता है, आश्रम शब्द का अर्थ ही इतना है कि जो आए-जाए उन्हे खिलाना ।

कुछ लोग कहते हैं-‘‘भगवान आयेंगे, राक्षसों को (दुष्टों को) मारेंगे और सबका दु:ख दूर कर जायेंगे जगत् से दु:ख दूर निकालने के लिए अवतार नहीं है । .ष्ण के समय भी जगत में दु:ख थे । दु:ख तो जगत का स्थायी भाव है । वे हमे रुचे या न रुचे, पर वे तो रहने ही वाले हैं ।  भगवान के आने में एक अंतर्गत कारण है और दूसरा बहिर्गत कारण है। विनाशायच दुष्.ताम- दुष्टोंका विनाश करना, वह बहिर्गत कारण है । अंतर्गत कारण कौनसा है? भगवान नाम की जो शक्ति इस जगत में प्रकट होती है तब सर्व सामान्य लोग जो न नास्तिक, परन्तु तनिक संशयी हैं, ‘भगवान हैं ही’ ऐसी जिनकी दृढ धारणा नही हैं परन्तु भगवान होने चाहिए ऐसी जिनकी कल्पना होती है उनकी आत्मशक्ति उत्तेजित होती हैं यह अवतार का अंतर्गत ( Inword ) कारण है।
केवल हनुमानजी के गुण नहीं गाने हैं तो उन गुणों को अपने जीवन में चरितार्थ करने का प्रयत्न करना है । भगवान जिस कार्य के लिए इस सष्टि में आते हैं, वही कार्य करने के लिए मैं भी आया हूँ ऐसा कहने की हिम्मत होनी चाहिए। उसके लिए सज्जनों को शक्ति देनी है, जगत में सद्वृत्ति बढाने के लिए प्रयत्न करने हैं ।

मनुष्य को दुष्टवृत्ति का दमन करना है ।  भगवान का जगत के प्रति प्रेम होता है ।  जितना प्रेम अधिक होगा, उतनी अधिक मात्रा में दुष्ट वृत्ति का प्रतिकार कर सकेंगे । दोष का प्रतिकार करना है, दोषी का नही! दोषी को मारना अलग बात है और दोष को मारना अलग बात है । समझो कि आपके पुत्र को बुखार आया है ।  तो दवा पिलाकर उसका बुखार (दोष) को शरीर से हटायेंगे । जब तक उसका बुखार नहीं हटता तब तक आप चैन से नहीं बैठेंगे । इसमें दोषी का तिरस्कार नहीं दोष का तिरस्कार है ।  इसीको दोष का प्रतिकार कहते हैं । जो जगत् में दोष देखकर भी चुपचाप बैठता है वह भागवत नहीं है ।

भगवान के जन्म, कर्म व गुण इन तीन बातों को देखकर हमें काम करना है । भगवान का जन्म किस कारण के लिए था उसी कारण के लिए हमारा भी जन्म है, यह हमे सिद्ध करना है ।‘जगत््मे सद््वृत्ति बढनी चाहिए’ ऐसा बोलने से काम नहीं चलेगा । जगत् मे सद्वृत्ति बढाने के लिए हमने अपनी शक्ति व्यय की है, वैसे ही दुष्ट वृत्ति का दमन करने भी हमारी शक्ति हमने लगायी है ऐसा भगवान को दिखाना पडेगा। हमें धर्म की संस्थापना करनी है, धर्म की स्थापना नहीं करनी है, वह तो वेदकाल से हो चुकी है । परन्तु धर्म में इधर-उधर से कुडा-कचरा प्रविष्ट होता है, उसे हटाकर धर्म का उद्धार करना है । भगवान .ष्ण किसलिए आये थे? अधर्म को ही धर्म समझकर लोग चल रहे थे, अधर्म ही हमारा धर्म है ऐसा बोलते थे, उनके विरोध में भगवान .ष्ण को खडा रहना पडा था । उन्होने कहा कि ऐसा नहीं चलेगा । यह तामस बुद्धि है उसे छोडना पडेगा । तामस बुद्धि के सम्बन्ध में भगवान कहते है।
अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता ।
सर्वार्थान्विपरीतांच बुद्धि: सा पार्थ तामसी ।।
                     (गीता 18-32)
(हे अर्जून! जो तमोगुण से आवृत बुद्धि है वह अधर्म को ही धर्म मानती है, तथा (और भी) संपूर्ण अर्थो को विपरीत ही मानती है वह बुद्धि तामसी है )

जो रुढिग्रस्त धर्म का पालन करनेवाले लोग हैं उनके विरोध में खडा रहना बहुत कठीन काम है । धर्म के प्रति प्रेम है, भक्ति के प्रति प्रेम है, परन्तु लीक से चलनेवाले धर्म का, भक्ति का प्रतिकार करना बहुत कठीन है । समाज उसका शीघ्र स्वीकार नहीं करता है । वह तो लीक से चलता आया हुआ, रुढिग्रस्त धर्म ही उठाता है । समाज में बहुसंख्य लोग मूर्ख होते हैं, इसीलिए वे लीक से चलने वाले धर्म को ही उठाते हैं।  व्यवहार में बहुसंख्यको का ही मानना पडता है, परन्तु शास्त्रमें, विज्ञान में कहीं भी Mejority नहीं चल सकती ।  समझो कि घरमें कोई व्यक्ति सख्त बीमार पडा है । परिवार के दस लोग कहते हैं कि मलेरिया है और डॉक्टर कहता है कि ‘टाइफाईड है’ तो किसका मानेंगे? डॉक्टर का ही मानना पडता है। दस लोगों का नहीं कारण शास्त्र में Mejority नहीं चलती ।  जिसके पास ज्ञान है, दूरदृष्टि है यानी जो तज्ज्ञ Expert हैं उसका ही माना जाता है ।
दुर्योधन लीक से चलनेवाले धर्म का पालन करता था । वह विष्णुयाग भी करता था, ब्राम्हणों को भोजन, दक्षिणा भी देता था, सब करता था । इसलिए वह धार्मिक है ऐसी उस समय के लोगो में मान्यता थी।  दुर्योधन यज्ञ करता था, परन्तु श्री.्‍र्रष्ण भगवान ने अलग यज्ञ खडे किये । यज्ञ क्यों करना है, कैसे करना है यह भी उन्होने समझाया गीता में उन्होने यज्ञ के विविध प्रकार बताये हैं । -
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाच यतय: संशितव्रता: ।।
                     (़गीता 4-28)
दुर्योधन लीक से चलनेवाले यज्ञ करता था । आज भी कितने ही लोग कहते हैं कि अमुक सेठ प्रत्येक पूर्णिमा के दिन सत्यनारायण की पूजा करता है, ब्राम्हणों को भोजन देता, वैसे ही द्वारका, श्रीनाथ, डाकोर आदि स्थानों में राजभोग के लिए पैसे भेजता है, सचमुच यह सेठ बडा धार्मिक है । यह सब करनेवाले सभी लोग धार्मिक ही हैं, परन्तु ऐसे लोगों को अधर्म धर्ममिति....कहकर अधार्मिक मानने की हिम्मत केवल .ष्ण भगवान में थी। कारण लीक से चलनेवाले ही धर्म को लोग उठाते हैं, उनके विरोध में खडा रहकर धर्म संस्थापना का अत्यंन्त कठीन कार्य कृष्ण भगवान को करना था । और वह उन्होने करके दिखाया ।  और हम जैसे लोगों को मार्गदर्शन किया कि हमें किस मार्ग से जाना है ।

जब-जब धर्म मे ग्लानि आयेगी, उसमें कूडा-कचरा आयेगा तब उसे हटाना पडेगा और धर्म को पूर्वरुप में लाना होगा यह समझाने के लिए कृष्ण भगवान आये थे और उन्ही के बताये हुए मार्ग से जो जाता है वह भागवत है । हम केवल कृष्ण, राम, हनुमानजी को मानते हैं, प्रतिवर्ष उनका जन्मोत्सव मनाते हैं, इतना ही प्रर्याप्त नहीं है । कृष्ण के विचारों को मानते होंगे तभी हम कृष्ण को मानते है ऐसा कहा जायेगा ।  कृष्णाष्टमी के दिन उपवास करके और ‘कृष्ण भगवान की जय’ बोलने से कृष्ण भगवान की जय कैसे होगी? कृष्ण भगवान के सब लडके मूर्ख, उपासक नादान बन जायेंगे तो उपास्य देव कृष्ण को जगत् में कहाँ से प्रतिष्ठा प्राप्त होगी? उनको जगत् में कौन महत्व देगा? किस माँ को जगत् में प्रतिष्ठा मिलती है? जिसका पुत्र तेजस्वी है उसे! जिसका लडका नीर बुद्धु , मूर्ख है ऐसी माँ को जगत् कोई प्रतिष्ठा नहीं है।

लीक से चलनेवाले धर्म के साथ .ष्ण भगवान को लडना था ।  पिताम्बर पहनकर वैवदेव करनेवाले जरासंध को उन्होने असुर ठहराया है ।  इसका कारण, धर्म का सत्व व स्वत्व निकालकर यदि आचरण किया जाता है तो वह धार्मिक आचरण कैसे कहा जाएगा? दुर्योधन, जरासंध आदि जिस धर्म का पालन करते थे उस धर्म में से सत्व, स्वत्व कभी का चला गया था ।  सत्व व स्वत्व जिसमें से चला गया है वह धर्म, धर्म नहीं है ऐसा बल देकर कृष्ण भगवान कहते थे ।  ‘अधर्म धर्ममिति.....सा पार्थ तामसी‘ कहनेवाले कृष्ण भगवान कितने क्रांतिकारी थे ।  इसीलिए कृष्ण के जन्म का श्रवण, कीर्तन व ध्यान करके उन्होने जैसा आचरण किया वैसा आचरण किया वैसा आचरण करनेवाला भागवत है ।

कृष्ण स्वयं भगवान थे, परन्तु ‘फु’ करके जादू करके किसी को नहीं बदला है, कारण संस्कृति रक्षण का, धर्म-संस्थापना का काम कैसे करना है इसको चरितार्थ करके समझाने के लिए वे आये थे। इसीप्रकार हनुमानजी ने कौन से कर्म किये, संस्.ति रक्षणार्थ कर्म किये इसीलिए तुलसीदासजीने लिखा है ‘साधुसंत के तुम रखवारे, असुर  निकंदन राम दुलारे’ उनका जैसा कार्य है वैसा हमारा होना चाहिए तभी हम सच्चे अर्थमें हनुमानजी के उपासक हैं ।

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