Saturday, July 2, 2011

दुर्गम काज जगत के जेते । सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ।   (20)
अर्थ : संसार में जितने भी कठीन से कठीन काम हैं, वे सभी आपकी .पासे सहज और सुलभ हो जाते हैं ।
गूढार्थ : तुलसीदासजी इस चौपाई्र द्वारा हमें दैवी प्रयत्नवाद समझाते हैं । प्रभु के उपर अटूट विश्वास, पुरुषार्थ  और पराक्रम साथ में मिल जाएंगे तो कोई भी काम असंभव नही रह जाएगा, इसीलिए उन्होने लिखा है ‘दुर्गम काज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।’ रघुराजा ने अपने बाहुबल से संपत्ति प्राप्त करके कौत्स को दी। एकलव्य ने बनमें जाकर तप करते हुए स्वप्रयत्न से विद्या प्राप्त की । उसी प्रकार हनुमानजी ने भी प्रभु पर अटूट विश्वास रखते हुए अपने पुरुषार्थ से कठिन से कठिन काम को भी सहजता से कर दीया।
आदमी की कमजोरी यही है कि वह ‘अशक्य’ समझकर जीवन-विकास की अधिकतर बातें छोड देता है। नेपोलियन के शब्दकोष में ‘अशक्य’ शब्द ही नहीं था।

तुलसीदासजी यह कहना चाहते हैं कि मनुष्य को प्रयत्न करना चाहिए, परन्तु प्रयत्न से ही काम होगा ऐसा मत समझ ।  प्रयत्न कर और भगवान को पुकार यह दैवी प्रयत्नवाद है । केवल प्रयत्न से ही सफलता मिलेगी ऐसा नहीं है उसके साथ प्रभु स्पर्श भी आवश्यक है । भगवान की .पा से ही तुझे सफलता मिलेगी, ‘सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।’

केवल प्रयत्न करने लगेगा तो रावण  हो जाएगा और केवल पुकारेगा तो मुर्ख (Idiot) बुद्धु समझा जाएगा । इसलिए प्रयत्न कर अौर फिर सहायता मांग । तुम प्रयत्न करोगे, काम करोगे तो तुम्हें सफलता मिलेगी।

सफलता पचती है तो सुगन्ध निर्माण करती है और न पचे तो दुर्गन्ध निर्माण करती है । अन्न का वैसा ही है । खाया हुआ अन्न पच जाय तो उसका खून, मांस इत्यादि बनकर शरीर को पुष्टि मिलती है, मगर न पचे तो दुर्गन्ध फैलाता है । शरीर को नुकसान पहुँचाता है । जीवन में सफलता न पचे तो दुर्गन्ध फैैलाती है । जन्मजन्मान्तर का नुकसान होता है। सफलता मिलने के बाद समतोल संभालना चाहिए । उसी के लिए पुराने जमाने के लोग कहते थे कि सफलता मिले तो भगवान को नमस्कार करो, अहंकार न बढे उसके लिए वह परहेज है।

पुराने जमाने के लोग कहते थे कि तुम्हे सफलता मिली है वह वृद्धो के आशीर्वाद से मिली है, अत: वृद्धों को नमस्कार करो । वृद्धो के आशीर्वाद से सफलता मिली वह सत्य नहीं है, गलत बात है। आशीर्वाद से क्या होता है? जो सफलता मिलती है वह परिश्रम से मिलती है । लडका एम.बी.बी.एस. की परीक्षा में प्रथम श्रेणी मे उत्तीर्ण हुआ । इतना होने पर भी उसका बाप कहता है कि वृद्धों के आशीर्वाद से तूं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ, उन्हे नमस्कार कर । पुराने जमाने के लोग ऐसा कहते थे कि वृद्धो के आशीर्वाद से सफलता मिली कारण मनुष्य में अहंकार न आयेगा।

आज तो हमे सफलता मिली तो हम मिठाई लेने दौडते हैं । सफलता मिली तो वृद्धों के पास जाना चाहिए । भगवान के पास जाना चाहिए वृद्धों के आशीर्वाद से तूं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण् हुआ, उन्हे नमस्कार कर । पुराने जमाने के लोग ऐसा कहते थे कि वृद्धो के आशीर्वाद से सफलता मिली कारण मनुष्य में अहंकार न आयेगा।
सफलता मिली तो वृद्धों के पास जाना चाहिए, भगवान के पास जाना चाहिए और कहना चाहिए कि तुम्हारे आशीर्वाद से सफल हुआ इसलिए नमस्कार करता हूँ ।

ऋषि, संत संपूर्ण समाज के लिए विचार करते थे, इसीलिए ऐसी बाते सहजता से रख दी थी। उनकी आँखो के सामने सामान्य मनुष्य का कल्याण था । पची हुयी सफलता सुगन्ध फैलाती है और न पची हुयी दुर्गन्ध फैलाती है । सफलता पचे तो उसकी सुगन्ध से अन्दर बैठे भगवान खुश होते हैं। भगवान की खुशी से हमें खुशी होती है ।

सफलता से दो बातें होती है - उत्साह बढता है और अहंकार बढता है । उत्साह बढता है वह अध्यात्मिक आवश्यकता है और अहंकार बढता है वह गलत बात है । अहंकार के कारण आँखो के सामने आँधी आती है, कितने ही लोग जन्मत: सफल होते हैं उन्हे प्रत्येक काम में सफलता मिलती है। सफलता मिलने के बाद आँधी आती है और आँधी आने के बाद मनुष्य का पतन होता है और जन्मजन्मान्तर तक तकलीफ देता है । अध्यात्म में सब विचार करना पडेगा । इसका कारण वह जन्मजन्मान्तर का प्रश्न है, वह एकाध जन्म का प्रश्न नहीं है । एकाध जन्म में बिमारी आये तो दवाई से शारीरिक तकलीफ मिट जाती है, परन्तु मानसिक बिमारी आये तो दस जन्मों को हैरान करती है ।

जीवन में यदि हमें अपनी मंजील एक पहुँचना है, सफलता प्राप्त करना है तो उसमें पुरुषार्थ के साथ भगवान पर अटूट विश्वास आवश्यक है । भगवान की सहायता के बिना हमारा कल्याण नहीं होगा, इसलिए जीवन उन्नत करने के लिए हम प्रयत्न अवश्य करेंगे, फिर भी भगवान की सहायता की जरुरत है । उनकी सहायता से ही हम आगे बढ सकेंगे, दौड सकेंगे ।

भगवान! हम प्रयत्न करते हैं, उसके बाद ही आपकी सहायता मांगते हैं । जो प्रयत्न नहीं करता उसे मदद नहीं मिलती यह सृष्टि का नियम है । यह भगवान की प्र.ति है स्वभाव है । इसीलिए तुलसीदासजीने लिखा है कि संसार मे कोई भी काम दुष्कर नहीं है  प्रयत्न कर और भगवान से सहायता मांग तो उसकी .पा से ही तुझे सफलता मिलेगी ‘सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते’

जीवन में हमको ध्येय कौनसा रखना है इसका विचार करना पडेगा । जगत में भगवान ने दो बातें रखी है, एक तरफ विषय रखे ओर दूसरी तरफ वह स्वयं है । विषय यानी विषयानंद  (Objective Happiness) एक तरफ और भगवान दूसरी तरफ है तब उसे आत्मिक आनंद (Subjective Happiness) कहते हैं । तुम्हे भगवान की तरफ जाना है, मगर तुम्हारा मन विषयों की तरफ जाता है। अत: मन को खींचना पडेगा । उसके लिए मनोनिग्रह करना चाहिए ।

सुखलालसा छोडे बिना मनोनिग्रह को आवश्यक शक्ति नहीं मिलती । क्योंकि शक्ति सुख के लिए इस्तेमाल होती है। भगवान ने हमें इच्छा शक्ति दी है । मनोनिग्रह के लिए प्रबल इच्छाशक्ति चाहिए । ‘फलाना होगा तो करुँगा । ऐसा बोलने में इच्छाशक्ति की जरुरत नहीं पडती, ‘करुँगा ही’ बोलने के लिए जबरदस्त इच्छाशक्ति चाहिए।’ ‘फलानी तकलीफ है तो मैं कैसे करुँ’ ऐसा बोलने वाला आदमी किस काम का? कितने ही लोगों काे सरल, सीधा जीवन अच्छा लगता है । वे किसी भी बात को पूरी करने का आग्रह ही नहीं रखते। ‘हो सका तो देखूँगा’ ऐसा वे बोलते हैं । उनका मन उन्हे जन्मान्तर तक तकलीफ देगा यह उनको पता नहीं है ।

विजेतव्या लंका चरणतरणीयो जलनिधि ।  र्विपक्ष: पौलस्त्यो रणभुवि सहायाच कपय: ।।
तथाप्येको राम: सकलमवधीद्राक्षसकुलं ।  क्रियास्दि्धि: सत्वे भवति महतां नोपकरणे ।।
लंका को जीतना है, कौनसी लंका? संपूर्ण विकसित, सभी संसाधनों से सुसज्ज उसमें भी सागर पार करके जाना था। उस समय वह अशक्य था । शत्रु कौन है? रावण जैसा शत्रु है और उसके साथ लडने के लिए राम के पास साधन सामग्री क्या थी? बंदर युद्ध में सहायता करनेवाले थे यानी सभी तलवारें लकडी की थी । ऐसा होते हुए भी राम अकेले खडे हुए और राक्षस कुल का विनाश किया । इसका कारण क्या है? शास्त्रकार कहते है कि क्रियासिद्धि मनुष्य के सत्व से होती है । साधन इके  करने से ही सिद्धि मिलती है यह धारणा गलत है । राम में निहित इच्छाशक्ति की बदौलत ही राम को सिद्धि मिली। मनुष्य के पास दुर्दम्य इच्छाशक्ति होनी चाहिए।

मनुष्य को विचार करना है कि उसे विलास की तरफ जाना है या विकास की तरफ? भगवान ने इन्द्रियाँ दी है, विषय दिये है तथा भगवान है । भगवान द्वारा दी हुई सारी शक्तियाँ यदि हम विलास या सुखोपभोग के पीछे इस्तेमाल करते हैं तो इच्छाशक्ति कमजोर हो जाती है । परिणाम स्वरुप हमें मनोनिग्रह के लिए प्रबल इच्छाशक्ति नहीं मिलती । इच्छाशक्ति को विलास में इस्तेमाल करके वह कमजोर हो जाती है । इच्छारुपी पूंजी कितनी इस्तेमाल करनी है, कहाँ इस्तेमाल करनी हैं इन सब बातों को मनुष्य को निश्चित करना है ।

यदि मनुष्य अपनी शक्ति का योग्य इस्तेमाल करे और मनोनिग्रह करे तो उसका विकास होता है । सारी शक्ति यदि विलास में ही इस्तेमाल की गयी तो विकास कैसे होगा? हम सब विकास के विषय में लापरवाह है । विलास के बारे में कोई लापरवाह नही है । सुबह जल्दी उठकर भगवान के पास बैठना हो तो मनुष्य कहता है ‘मुझसे सुबह जल्दी उठा नहीं जाता! तुम भगवान की पूजा सुबह जल्दी मत रखो। मगर सुबह जल्दी चाय के लिए दूध लाना हो तो, या कोई अपने स्वार्थ के काम से सुबह जल्दी गाँव जाना हो तो यही आदमी सुबह चार बजे उठ जाता है । उसकी सारी इच्छा  शक्ति विलास में इस्तेमाल होती है । विकास के लिए शेष नहीं रहती । उसके कारण आदमी ढीला पडता है यह नैसर्गिक बात है । मनुष्य को इस विषय में पूरा विचार करने की आवश्यकता है ।

निश्चयशक्ति अथवा प्रयत्नशक्ति भगवानने यह शक्ति अन्दर रखी है । स्मृति से संकल्प होते है, संकल्प के बाद प्रयत्न की अभिलाषा न हो तो संकल्प व्यर्थ हो जाता है । उसे कोई अर्थ नही रहता। भगवान ने हममे प्रयत्न शक्ति रखी है उसी के कारण हमें कुछ करने की इच्छा होती है । हमें प्रयत्न शक्ति बढानी पडेगी।
भगवान द्वारा दी हुई प्रयत्नशक्ति को आलस खत्म करती है । उसके कारण बिना प्रयत्न किये पाने की इच्छा होती है । गीता हमें प्रयत्नवाद समझाती है । किसी बाबा के आशीर्वाद से तुम्हे अमुक मिलेगा ऐसा गीता में नही लिखा है । इतना ही नहीं, जिसके पास से भगवान को काम लेना था उस अर्जुन को भी भगवान आश्वासन नहीं देते हैं कि मै बिना प्रयत्न के ही तेरा उद्धार कर दूंगा । गीता तो कहती है: ‘उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्’- उद्धार होने में संयम लगता है, कितना? तो कहते है ‘बहूनां जन्मनामन्ते’ परतत्त्वमें मिल जाना शास्त्रीय प्रक्रिया  (Scientific process) है । उसमें किसी की .पा आने का सवाल ही नहीं उठता है ।

गीता का कहना है कि प्रयत्न के बिना किसी भी वस्तु की इच्छा रखना व्यर्थ है । प्रयत्न के बिना कुछ नहीं मिलता है ं महाराष्ट्र के संत तुकाराम महाराज ने लिखा है: नाही देवा पासी मोक्षाचे गाठोडे आणुनि निराळे द्यावे हाती भगवान के पास मोक्ष की पोटली नहीं है कि तुम्हारे हाथ में दे दे। मोक्ष बौद्धिक विकास (Intellectual development) है ।

कोई भी वस्तु देखने से बुद्धि पर आघात होता है । उदाहरण स्वरुप उपनिषद की पुस्तक देखने से बुद्धि पर आघात के कारण पसंद-नापसंद (Likes and dislikes) खडे होते हैं । बुद्धि को उपनिषद पसंद न आया तो कहती है  यह मेरे लिए व्यर्थ है । दूसरे की बुद्धि को अच्छा लगे तो वह कहता है कि उपनिषद अच्छा है, उसके बिना हमारा उद्धार नहीं होता । प्रत्येक वस्तु या व्यक्ति देखने पर वह बुद्धिपर आघात करता है और उसीसे ऐसे पसंद-नापसंद खडे होते हैं । बुद्धि इतनी विकसीत होनी चाहिए कि वस्तु या व्यक्ति उस पर आघात करे तब भी उसमें पसंद-नापसंद नहीं होने चाहिए । उसी को मुक्ति कहते हैं । मनुष्य को ऐसी बुद्धि बनाने का प्रयत्न करना चाहिए यही उसकी साधना है । जब तक बुद्धि में चाहिए नही चाहिए इत्यादि बातें रहती है  तब तक भगवान भी उन्हे मोक्ष नहीं देते हैं । मोक्ष ऐसा बौद्धिक विकास है । बुद्धि को ऐसी बनाना है कि उसमें पसंद-नापसंद न रहे । साधना में उतावली नहीं चलती। मुझे प्रयत्न के बिना कुछ नहीं चाहिए । यह वृति प्रथम होनी चाहिए।

इस देश में गया गदाधर पैदा हुआ । यह गयागदाधर दूसरे किसी देशमें पैदा होता तो उस देश के लोग उसे सन्त ही मानते । कदाचित् भगवान भी मानते, परन्तु इस देश के लोगों ने उसे असुर ठहराया । क्यो? गया गदाधर ने मूल सिद्धांत के साथ छेडकानी की है । सृष्टि का मूल सिद्धान्त यह है कि प्रयत्न के बिना कुछ नहीं मिलता है । गया गदाघर की तपस्या से भगवान प्रसन्न होकर उसके पास आये और वर मांगने को कहा । गया गदाघर ने क्या मांगा होगा? (कोई आदमी भगवान प्रसन्न होने पर मोक्ष मांगता है। भले ही वह ऋषि हो तो भी ) गया गदाधर ने मोक्ष नहीं मांगा । उसका मन दूसरे के लिए जलता था । उसने भगवान से कहा, ‘भगवान लोग भावमंद, बुद्धिमंद और कर्ममंद हैं, प्रयत्नमंद भी हैं, वे तुम्हारे पास नहीं आ सकते । अत: तुम मुझे ऐसा आशीर्वाद दो कि मैं जिसे तुम्हारे पास भेजंू उसे मुक्ति मिले। पुराण में ऐसी कथा है । पुराणों की कथा कुछ समझाने के लिए होती है।

पितृश्राद्ध करते समय गया गदाधराय नम: कहकर काशी विश्वेश्वर को नमस्कार करने की विधी है । गया गदाधर इतना पवित्र जीव था फिर भी भगवान ने उसे मारा है । ‘प्रयत्न के बिना, किये बिना कुछ नही मिलता है’ इस सिद्धान्त की अवहेलना करनेवाला गदाधर कितना भी करुण रहा हो फिर भी उसे राक्षस ही माना गया है । यही हमारी संस्.ति है । इसी कारण हमारी संस्.ति श्रेष्ठ मानी जाती है ।

बिना प्रयत्न के हमें कुछ नहीं चाहिए । भगवान को कल्पतरूवाद मान्य नहीं है । कल्पतरु के नीचे बैठा आदमी इच्छा करे तो तुरन्त वह पूरी होती है । गीता में स्वर्ग का वर्णन करते समय लिखा है: ‘क्षीणे पुण्ये मत्‍र्यलोकं विशन्ति’ तुम्हे उपर जाना होगा, विकास करना होगा तो तुम्हे स्वयं ही मेहनत करनी पडेगी । जो विचारधारा प्रयत्नशक्ति को तोडती है वह भक्त की विचारधारा नहीं है, भगवान सब करेंगे, भगवान की इच्छा होगी, ऐसा बोलनेवाले लोग सामान्य लोगों को महान भक्त लगते है, परन्तु ये सारी बाते अभक्त की है।

आत्मशक्ति भगवद्शक्ति के साथ ही पैदा होती है । जो सारी जिम्मेदारीयां भगवान पर डालना चाहते हैं । उन्हे आत्मशक्ति पर विश्वास नहीं है । आत्मशक्ति + ईशशक्ति = परमशक्ति, आत्मशक्ति को आहत करनेवाला विचार भले ही वह भजन हो या कोई और, तो भी वह अधर्म ही है । इसीलिए भगवान ने गीता में कहा है:
अधर्म  धर्ममिति  या  मन्यते  तमसावृता ।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धि: सा पार्थ तामसी ।।
                    (गीता 18-32)
ऐसे लोगाें को धार्मिक समझा जाता है, परन्तु वे अधार्मिक हैं ऐसा कहने की शक्ति क्रांन्तिकारी .ष्ण में थी । जीवन में धर्म को स्थान है, धरम को नहीं । फलाना हमारा धरम है ऐसा बोलकर नहीं चलेगा । जो विचार भगवान को मान्य है उनको उठानेवाला धार्मिक है।

‘किये बिना नहीं मिलता’ यह गीता का सिद्धान्त है । प्रयत्नवाद एक रसायन है और इसे गीता ने पुष्ट किया है । गीता इस रसायन का प्रतिपादन करती है: (1) किये बिना कुछ नहीं मिलता (2) किया हुआ व्यर्थ नहीं जाता। (3) काम करने की शक्ति तुझमे है । (4) काम करता जा, पुकारता जा, मदद तैयार है । इन चार बाताें का एकीकरण जब जीवन में होगा तब तुम प्रयत्नशील बनोगे।
गीताकार ने लिखा है : स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्-तेरा एक भी प्रयत्न व्यर्थ नहीं जाएगा। ऐसा आश्वासन भगवान ने दीया है । इस जन्म में प्रयत्न करके जितना विकास किया होगा, वह विकास जैसा का तैसा तुम्हे मिलेगा। तुम्हे दूसरे जन्म से आगे बढना है । गीता में अर्जुन ने भगवान से प्रश्न पूछा है:
अयति: श्रद्धयोपेतो योगाच्च्लित मानस: ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ।।
                      (गीता 6-37)
भगवान उसका जवाब देते हैं ।
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् ।
यतते च ततो भूय: संसिद्धौ कुरुनन्दन ।।
                      (गीता 6-43)
तेरे द्वारा किये प्रयत्नों का फल तुम्हे ही मिलेगा ।  किया हुआ व्यर्थ नहीं जाता ।

हम प्रयत्न करने की शुरुवात करते हैं और हमें तुरन्त फल चाहिए । तुरन्त फल न मिले तो तुरन्त प्रयत्न की पकड (Grip) ढीली पड जाती है । फिर आदमी कहता है कि मैने प्रयत्न करके देखा, परन्तु निष्फल गया, ऐसा नहीं चलता है । बार बार प्रयत्न करना चाहिए । प्रयत्न रोक कर सिद्धि नहीं मिलती है। एक भी किया हुआ प्रयत्न व्यर्थ नहीं जाता है । प्रयत्न करने से हमारी मजबुती बढती है । सावधानी भी बढती है । किया हुआ व्यर्थ जाता हो तो साधना को कोई अर्थ ही नहीं रहता है । साधना क्या है? संकल्प किया, .ति की शुरुवात की परन्तु ध्येय तक पहुँचने में समय लगता है । तब तक .ति का सातत्य टिकाए रखने को ही साधना कहते है । इच्छा और फल प्राप्ति के बीच जो अन्तर है, उस दरम्यान .ति चालू रखना ही साधना है । इच्छा करने के बाद तुरन्त फल मिला है यह ठीक नहीं है । बीच में समय जाना ही चाहिए और उस दरम्यान साधना होनी चाहिए । यश पाने में समय लगता ही है, परन्तु यश जरुर मिलेगा । ऐसा विश्वास न हो तो आदमी प्रयत्नशील ही नहीं बनता है । इसीलिए तुलसीदासजी ने ‘दुर्गम काज जगत के जेते’ इस चौपाई द्वारा हमें साधना करने के लिए कहते है । संसार मे कोई भी काम दुष्कर नहीं है परन्तु उसके लिए प्रयत्न और साधना करने की नितांत आवश्यकता है ।

जैसे किया हुआ व्यर्थ नहीं जाता है वैसे करने की शक्ति तुझमें है यह बात दृढ होनी चाहिए। ‘मै दुर्बल हूँ’ कमजोर हूँ, क्षुद्र हूँ ऐसा जब तुम्हे लगता है तब तक तुम प्रयत्न करने की शुरुआत नहीं करते हो । अध्यात्म के क्षेत्र में लोगों को ऐसा लगता है कि ‘मै दुर्बल हूँ’ गुरुकृपा के बिना अध्यात्म के रास्ते नहीं चला जा सकता है । ’ गुरुकृपा क्यों चाहिए? यही हमे मालूम नहीं है । लोगो को ऐसा लगता है कि गुरु को खुश रखेंगे तो हम जल्दी उपर जा सकेंगे । ऐसी समझ के कारण ही अध्यात्म में गंदगी घुस गयी है । लोग लालची बन गये हैं, जीभ चाटते बैठे है कि कोई गुरु मिल जाएगा । इसका मतलब यह नहीं है कि गुरु की आवश्यकता नहीं है । गुरु की क्या आवश्यकता है कोइ्र इसका विचार नहीं करता है ।

‘काम करने की शक्ति तुझमे है’ ऐसा कहकर गीता प्रयत्नवाद खडा करती है। इस सृष्टि में मेरा ‘स्थान’ कौन सा है? गीता कहती है,‘ तू छोटा नहीं है और बडा भी नही है। तंू महान होनेवाला है । बडा बनने से गुरुग्रंथि (Superiority complex) आती है और छोटा बनने से लघु ग्रंथि ( Inferiority complex ) आती है । ‘मै महान होनेवाला हूँ’ ऐसी वाणी साधक की होनी चाहिए । भगवान गीता में कहते है: ‘काम करने की शक्ति तुझमें है, तू काम करता जा पूकारता जा, मद्द तैयार है । कितने ही लोग केवल प्रयत्न ही करते है और कितने ही लोग कुछ न करते हुए भगवान को पुकारते हैं । ये दोनाें ठीक नहीं है । गीता कहती है, काम करता जा, पुकारता जा, मदद तैयार है ।  तुलसीदासजी भी यही बात इस चौपाई द्वारा हमें समझाते हैं, ‘दुगर्म काज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते’ । इस प्रकार हमें भगवान पर विश्वास रखकर कार्य करना चाहिए तो सफलता हमें अवश्य प्राप्त होगी ।

तुम्हारे पास निश्चय न होगा, विश्वास न होगा, प्रयत्न की कल्पना न होगी तो तुम अपने बच्चे को स्कूल में भर्ती नहीं करोगे। तुम अपने लडके को स्कूल में भर्ती करते हो क्योंकि इन शक्तियों पर तुम्हारे अन्त:करण में विश्वास है । तुम्हे पन्द्रह वर्ष बाद उसका फल मिनेवाला है, फिर भी तुम अपने बालक को आज स्कूल भेजते हो, मगर उसे कहाँ स्कूल जाना है? उसे अच्छा नहीं लगता है । लडका कहता है कि मुझे स्कूल जाना अच्छा नहीं लगता है । तब बाप कहता है: ‘तुझे भले अच्छा नहीं लगता है, परन्तु मुझे अच्छा लगता है इसलिए तू स्कूल जा।’ ऐसा ही इस सृष्टि में चलता है । कितनी ही बातें मुझे अच्छी नहीं लगती, परन्तु भगवान को अच्छी लगती है इसलिए वे हमारे पास भेजते है । फिर हम कहते हैं ‘भगवान, मुझे दु:ख क्यों है? मेरा मन मजबूत हो इसलिए भगवान मुझे दु:ख देते हैं । हम अपनी इच्छा से लडके का पालनपोषण करते हैं, उसी तरह भगवान अपनी इच्छा से ही हमारा पालन पोषण करेंगे, हमारी इच्छानुसार नहीं करेंगे । अमुक बात हमें अच्छी नहीं लगती हो तो भी हमें करनी ही पडती है । ऐसा करनेवाला ही भक्त है ।

जिसे भगवानपर विश्वास है, जो रोता नही, फरियाद नहीं करता है, वह भक्त है, फरियाद करनेवाला और रोनेवाला भक्त नहीं है । हमें अपना निश्चय पक्का करके भक्ति मार्ग में आगे बढना चाहिए क्योंकि रास्ते में कोई कठिनाइ्र आई तो सहायता करने के लिए हनुमानजी तैयार हैं, इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेेते’ । इसलिए हमें प्रयत्नशील रहना चाहिए तथा भगवानपर पूर्ण विश्वास रखना चाहिए यही बात तुलसीदासजी इस चौपाई द्वारा हमें समझाते हैं ।

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