Monday, July 4, 2011


चौपाई : जो यह पढै हनुमान चालीसा । होय सिद्ध साखी गौरीसा ।।   (39)
अर्थ : भगवान शंकर ने यह हनुमान चालीसा लिखवाया इसलिए वे साक्षी हैं कि जो इसे पढेगा उसे निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी ।
गूढार्थ : भगवान शिव का रुप गुरु का रुप है ।  ज्ञानराणा शिव है, जिनके मस्तिष्क से अविरत ज्ञानगंगा का प्रवाह प्रवाहित होता रहता है । भगवान शंकर इस ‘हनुमान चालीसा’ के साक्षी हैं ऐसा इस चौपाई में उल्लेख है ।  भगवान शंकर की प्रेरणासे तुलसदासजी ने ‘हनुमान चालीसा’ की रचना की है । हनुमान चालीसा में हनुमत चरित्र पर पूर्ण रुप से प्रकाश डाला गया है । गुरु का मस्तिष्क ज्ञान से भरा हुआ रहता है । लोककल्याण के हेतु से तुलसीदासजी लिखते हैं कि इस ज्ञान को पढो, पढकर चिन्तन, मनन करो तो तुम्हे जीवन में अवश्य सफलता प्राप्त होगी ।

वाड़मय दो प्रकार का होता है ।  व्यावहारिक वाड़मय और आर्ष वाड़मय! व्यावहारिक वाड़मय कथा-उपन्यास के रुपमें होता है ।  कितने ही बार ऐसा होता है कि एकाध संघर्ष हमें अच्छा लगता है, परन्तु वह स्वयं अपने जीवन में आया तो उसे सहन करने की हमारी तैयारी नही होती ।  उस संघर्ष का दूसरे के जीवन में अनुभव करना हमें अच्छा लगता है । इसीका नाम उपन्यास-कहानियों का वाचन है ।  इसमें वह संघर्ष दूसरे के जीवनमें देखना नही होता, उसमे समरस होना होता है ।

दूसरा प्रकार आर्ष वाड़्मय का है ।  आर्ष वाड़्मय यानी ऋषिप्रणीत वाड़्मय । वाणी चार प्रकार की है। परा, पश्यन्ति, मध्यमा व वैखरी ।  हम बोलते हैं वह वैखरी वाणी है ।  परन्तु ऋषि, संत बोलते हैं वह परा अथवा पश्यन्ति वाणी ।  ऋषि जो बोलते जाते है उनकी वाणी के पीछे अर्थ दौडता आता है । वे अर्थ निश्चित करके वाणी प्रयुक्त नही करते । इसीलिए वाल्मीकि, तुलसीदास जैसे महापुषोंका वाड़्मय बुद्धिनिष्ठ तो है ही, परन्तु बुद्धि से भी परे जो प्रभु है उस सम्बन्ध में भी वह वाड़्मय कहता है ।  इसलिए वह प्रभु निष्ठ भी है ।  इस वाड़्मय को आर्ष वाड़्मय कहा जाता है ।

जीवन विकास चाहनेवालों को कौनसा वाड़्मय स्वीकारना चाहिए इस सम्बन्ध में शास्त्रकानोंने लिख रखा है । भौतिक दृष्टि से देखा जाय तो भारत से विदेश में कोई भी खाने की वस्तु भेजी जाती है तब उस वस्तु को ले जानेवाला स्टीमर किनारे से मीलों दूर खडा किया जाता है और वहाँ के लोग आरोग्य की दृष्टि से उस वस्तु का परीक्षण करते है । इधर से भेजा जानेवाला माल तनिक भी हलकी श्रेणीका लगा तो वे लोग उस माल को स्वीकार नही करते अत: अपने देशमें जो भी कोई वस्तु ले जानी है उसकी पूर्णतया जाँच किये बिना वे लोग उस वस्तु को अपने देशमें नही ले जाते इतनी सावधानी वे लोग रखते है ।  प्रत्येक माता पिता को इस प्रकार की सावधानी रखनी चाहिए ।  उनको विचार करना चाहिये कि कौनसी पुस्तके पढने से अपने बच्चों का मन व बुद्धि स्वस्थ रहेगी ।  परन्तु इस प्रकार की सावधानी स्वतंत्रता के नाम पर उडा दी जा रही है। लोग मन और बुद्धि की धर्मशाला बनाकर बैठे है ।  यह सयानापन है या पागलपन, इसे काल ही निश्चित करेगा ।

संत की वाणी में वाड़्मय का प्रसाद है ।  यह वाणी मनुष्यत्व का इनाम है ।  मधुरवाणी देवत्व का इनाम है और सारवाणी प्रभु की कृपा है ।  इन तीनों वाणीयों के संयोग से उत्पन्न वाणी को संतवाणी कहते हैं।

हमे वाणी मिली है यही एक मनुष्यत्व का ईनाम है ।  वाणीद्वारा हम विविध भावनाएं तथा विकारों का व्यक्तिकरण करते है। हमें अपने ज्ञान को दिखाने की जरुरत नही पडती ।  वात्सल्य, ज्ञान और मन के विकारों के लिए वाणी है ।  वासना के लिए भी वाणी है ।  विकारों का व्यक्तिकरण करो । गुस्सा आनेपर लकडी से मत मारो बल्कि गुस्सा निकाल दो ।  मुझे कई बार ऐसा लगता है कि जगत में जैसे किसीने प्रथम संस्.ति (First civilization) को खडा किया वैसे ही जिसने गाली देने की शुरुआत की, उस गाली को भी आध्यात्मिक मूल्य (Spritual value) है । इसका तात्पर्य ऐसा नही कहता हूँ कि तुम गाली देने लगो, परन्तु क्रोध आए या चीढ चढे तब हाथ में लकडी लेने के बदले गाली दे दो तो क्रोध शान्त हो जाएगा।

हमारा क्रोध विकारों का व्यक्तिकरण करता है ।  किसी जगह तुम क्रोध निकालने से स्वतंत्र हो जाते हो ।  मैं गालियों का समर्थन नही करता हूँ, परन्तु उन्हे भी कुछ मूल्य है ।  सामाजिक जीवन में भी उसे कुछ मूल्य है, नही तो आदमी लकडी हाथ में ले और किसी का सिर फोड दे ।  इसलिए विकार, भावना, वासना, ज्ञान आदि के व्यक्तिकरण के लिए वाणी है ।

हमारे वर्णाक्षरों (Alphabets) का सुसंबद्ध अर्थ है ।  वाणी की एक शक्ति है । शब्दशास्त्र बहुत बडा है । ‘स्फोट एव अर्थवान्’ इसलिए वाणी भगवानद्वारा दिया गया वरदान इस दृष्टि से जो देखता है वह मनुष्य है ।  अब तक मुझे पता नही है कि कहाँ जीभ के स्पर्श करने पर ‘ट’ का उच्चार होता है । इसीलिए ईसा मसीह स्पष्ट शब्दों में कहते है ; (The spirit of thy father that speaketh in you ) अर्थात् तू नहीं बोलता है बल्कि तेरे अन्दर की कोई शक्ति बोलती है ।  यह केवल भावना नही है । संत तुकाराम महाराज भी वही कहते है: ‘आपुलिया बळे नाही बोलवंत सखा .पावंत वाचा त्याची ।’ अत: प्रथम बात यह है कि वाणी भी भगवान की अनुपन वरदान है ।

दूसरी बात, मधुरवाणी देवत्व की प्रतीति है । आदमी का हृदय जितना मधुर होता है उतनी ही मधुर उसकी वाणी होती है ।  आदमी जितनी आत्मीयता से बोलने लगता है उतनी मधुरता आत्मीयता की वाणी मे है।  उसके अर्थ भी अलग अलग है ।  इन विधानों मे जो अर्थ है वह शब्द कोष (dictionary) में भी नही मिलता है ।  मैं कई बार कहता हूँ कि बालक कहता है, ‘माँ खेलने जाऊँ?’ माँ कहती है, बाहर धूप है, अभी खेलने मत जा ।’  बालक फिर से आग्रहपूर्वक कहता है, ‘माँ जाने दो न! मुझे खेलने जाना है तंग आकर माँ कहती है, ‘जा मर’ बालक मर जाए ऐसी इच्छा माँ नही करती । यहाँ अर्थ शब्दकोष के मुताबिक नही है ।  इसमे भाव प्रकट नही होता ।  अत: हृदय भी मालूम नही पडता है, शब्द को पकड कर चलने वाले शास्त्री जीवन नही बदलते ।  वे भले कानूनविद हो परन्तु वे भाव नही समझते और केवल बुद्धि को प्रधानता देकर संशोधन (research) करते रहते हैं ।  इसलिए भावशून्य संशोधन होते है ।  यदि आदमी को प्रेम करने की शिक्षा मिली हो तो भी उसकी वाणी मेे माधुर्य प्रकट होता है ।  इसीलिए वाणी दिव्यत्व की अनमोल भेट हैे ।

तीसरी बात, सार वाणी प्रभु की कृपा है ।  हमारी वाणी असार होती है ।  सारवाणी में मनुष्य को दूसरे को कुछ समझाना है, कुछ कहना है, उसका अन्त:करण जलता है और जीवन बदलना है, उसके लिए जो लिखा जाता है वह सार वाणी है ।  कितने ही लेखक कहते हैं कि लोगो ंको क्या चाहिए? क्या लिखोगे तो प्रकाशक लेगा? लोगों को जो चाहिए उसे हम लिखते हैं ।  उसमें लोगों को बदलने की ताकत नही है, उसमें हिम्मत नही है ।  युग बदलने की या आदमी की रुचि बदलने की मस्ती जिसके मगज में नही है वह सार वाणी नही है ।  बहुत लिखा जाता है वह लेखन नही, छपता है वह लेखन नही है। लोगों को बदलें, लोगों की रुचि बदलें, युग परिवत्रन करें, ऐसी सार वाणी प्रभु की .पा है ।

तुकाराम महाराज की वाणी  ‘अभंग वाणी’ के रुपमे प्रसिद्ध है ।  कही भी अभंग भंग नही है ।  किसी भी समय पढो, किसी भी स्थिति मे पढो, अक्कल तथा हृदय हो तो अर्थ मालूम पडेगा ।  नही तो नही पता चलेगा ।  गीता किसी भी समय पढो उस वाणी को भंग नही है ।  रामायण किसी भी समय पढो उस वाणी को भंग नही है उसी प्रकार हनुमान चालीसा भी है । इसीलिए वह अभंग वाणी कही जाती है । वाणी मनुष्यत्व का ईनाम है, मधुर वाणी दिव्यत्व का पुरस्कार है तथा सारवाणी ईश्वर की .पा है, इन तीनों के मिलने से जो वाणी होती है उसे संतवाणी कहते है ।  यह संत वाणी मानव को हंसते-हंसते सावधान करती है ।  मानवी जीवन को नया मोड देती है ।

संत तुलसीदासजी की हनुमान चालीसा भी एक वाणी है जिसके साक्षी भगवान शिव है ।  हनुमान चालीसा मानव जीवन को प्रकाशित करने में सक्षम है ।  इसलिए हनुमान चालीसा का गहराई से स्वाध्याय करना चाहिए जिससे मानव जीवन अवश्य प्रकाशित होगा तथा उसे जीवन में अवश्य सफलता प्राप्त होगी ।

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