Saturday, July 2, 2011

जुग सहस्त्र जोजन पर भानू । लील्यो ताहि मधुर फल जानू ।।  (18)
अर्थ : जो सूर्य इतने योजन दूरीपर है कि उसपर पहुंचने के लिए हजारों युग लगें । उस हजारों योजन दूरीपर स्थित सूर्य को आपने एक मीठा फल समझकर निगल लिया ।
गुढार्थ : सुमेरु नाम के स्वर्ण पर्वतपर केसरी राज्य करते थे । अंजनी और केसरी का वायुदेव के प्रसाद से जन्मने वाला पुत्र हनुमान है । उन्होने जन्म लिया तब प्रभात का उगता हुआ सूर्यबिम्ब देखा और उसे पकडने के लिए छलांग मारी । कवियों और लेखकों ने इस पर अनेक रुपक लिखे हैं । कुछ लोग कहते है : ‘फल सोंचकर ही सहज स्वभाव के अनुसार वानर हनुमान कुदे थे ।’ ‘किरातार्जुनीय’ में ठीक ही कहा है कि--
‘किमपेक्ष्य फलं परोधरान् ध्वनत: प्रार्थयते मृगाधिप: ।
प्र.ति: खलु सा महियसां सहते नान्यसमुन्नतिं यया ।।’
बादलों की गडगडाहट सुनकर सिंह गुफा के बाहर आता है और उपर देखता है कि उससे बडा कौन है? बडे लोग जन्म से ही शौर्यवान और कतृ‍र्त्ववान होते हैं । हनुमानजीने इसीलिए सूुर्यबिम्ब देखते ही छलांग मारी थीं।
इस संबंध में पौराणिक कथायें प्रचलित हैं । हनुमान के छलांग मारते ही सूर्य को बचाने के लिए इन्द्रदेव ने हनुमान पर वज्रप्रहार किया, जिसके फलस्वरुप हनुमान मुर्छित हो गये । वायुदेव को क्रोध आ गया और फिर तो पूछना ही क्या? अन्न, जल के बिना चल सकता है, परन्तु वायु बिना कैसे चले? बादमें इन्द्रदेव ने वायुदेव को मनाया और हनुमानजी को शक्ति प्रदान की । सूर्य ने अपने अंश का तेज उन्हें प्रदान किया, जिससे वे प्रखर बुद्धिमान हुए यम, वरुण इत्यादि प्रत्येक देवता ने कुछ न कुछ दिया । इस प्रकार सबके पास दिव्य बातें लेकर शक्ति संपन्न और बुद्धि संपन्न हो जानेवाली विभूति हनुमानजी हैं ।

‘अभयं सत्वसंशुद्धि’ अभय, तेज इत्यादि सभी दैवी गुण उन्हें प्राप्त हो गये थे।  बचपन से ही उन्हे किसीका डर नहीं था । शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक सामथ्‍र्य उन्हें प्राप्त था तभी तो वे बाल्यावस्था मे खेलकूद मे ऋषियों को भी कष्ट देने लगे । उनके आश्रमों मे जाते और उन्हे सताते । ऋषियों कों लगा कि उनके उपर नियंत्रण रखना चाहिए । एक सामान्य लडका घर को सिर पर उठा लेता है तो फिर ऐसे असामान्य की बात ही क्या? ऋषियों ने श्राप दिया: ‘तु अशक्त रहेगा, तुझे तेरी शक्ति की विस्मृति हो जाएगी-दूसरों को तेरी शक्ति तुझे स्मरण करानी पडेगी । इससे हनुमानजी को आत्मविस्मृति (Failure of memory) हो गयी थी । यह श्राप हनुमानजी को संयम की लगाम रखने के लिए ही दिया गया था । उसके पीछे कोई दुष्ट हेतु नहीं था । श्राप के कारण ही उन्हे समुद्र फांदते समय कहा गया है कि ‘तुझमे ऐसी शक्ति है।’ उत्तरकाण्ड में उनका वर्णन है । वे बलवान, बुद्धिसम्पन्न थे । उनको मानसशास्त्र, राजनीति, साहित्य, तत्वज्ञान इत्यादि का गहरा ज्ञान था । उन्हे ग्यारहवां व्याकरणकार और रुद्र का अवतार माना जाता है ।
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानरयूथमूख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ।।
यह उनका संक्षेप में वर्णन है । उनके अन्दर प्रचंड विद्वता थी । वे ‘बुद्धिमतां वरिष्ठम्’ थे । सामान्य रुप से शरीर सामथ्‍र्य वाले में बुद्धि कम होती है ऐसी मान्यता है, परन्तु यहाँ मान्यता बेकार हो जाती है ।

सामथ्‍र्यवाले हनुमान बुद्धि में वरिष्ठ थे । उनके अन्दर खूब वक्तृत्वशक्ति थी । उनको पूर्ण रुपसे पहचानने के लिए बारह वर्ष तप करना पडेगा । हमें तो केवल बोलना आता है । ऐसा कहते है--
शतेषु जायते शूर: सहस्त्रेषु च पण्डित: ।
वक्ता दशसहस्त्रेषु दाता भवति वा न वा ।।
सूर्यग्रास का आध्यात्मिक रहस्य :- श्रीयूत् रामचंद्र शंकरजी टक्की महाराज लिखते हैं कि, ‘श्री हनुुमानजी यह देखकर कि सूर्यरुप ज्ञान को राहूरुप अज्ञान ग्रस रहा है तथा यह जानकर कि ज्ञान और अज्ञान दोनों मायानिर्मित है, उनपर झपट पडे।
सूर्य पृथ्वी से हजारों मील दूर है तुलसीदासजी ने लिखा ‘‘जुग सहस्त्र योजन पर भानु’’ तब भी हम उसकी ओर नहीं देख सकते इतना वह तेजस्वी है । हनुमानजी ने उन्हे एक मीठा फल समझकर निगल लिया तो हनुमानजी कीतनें तेजस्वी होंगे?

तुलसीदासजी यहाँ जो वर्णन करते हैं कि हनुमानजी ने सूर्य को मीठा फल समझकर निगल लीया इसका अभिप्राय यह है कि हनुमानजी तेजोमय हैं । हम सूर्योपासक है । ‘तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमाहि धियो यो न: प्रचोदयात् ।’ हमें तेज की उपासना करनी चाहिए । सूर्य के पास उपकारता, प्रकाशमयता, निर्लेपता और निष्कामता आदि गुण हैं ।  हमारे जीवन में भी ये गुण आने चाहिए । सूर्य के पास से यह शिक्षा लेने के लिए हम सूर्योपासक बने हैं ।

सूर्य के पास से नियमितता लेनी चाहिए । उसका जीवन इतना नियमित है कि जिस समय जो होना है वही होता है सूर्य के पास से यह शिक्षा लेंगे और जिस उम्र में जो करना चाहिए वही करेंगे। ‘कौमारं यौवनं जरा........’ में वैसी नियमितता होनी चाहिए । आज कुमार बूढा बन गया है और बूढा कूमार के जैसा वर्ताव करता है । कौमार्य, यौवन और जरा ये तीन अवस्थायें हैं । त्रिगुणं त्रिगुणाकारं.......... इन्हें विकसित करना चाहिए। किस उम्र में क्या करना चाहिए यह निश्चित होना चाहिए । अभी कितनी उम्र हुई? पचास के हुए! आधा जीवन चला गया । किसे मालूम आधा गया कि कितना गया! हम बोलते हैं, आधा गया! इसके बाद हमें क्या करना चाहिए? कुछ निश्चित है? कुछ करतें है? वही व्यंजन खाना वही बातें करना इसके शिवाय दूसरा कुछ नहीं है जीवन में? जिस जीवन में जो करना चाहिए वह नियमितता है । यह शिक्षा सूर्य से लेनी है । कौमारं, यौवन, जरा इन तीनों को जिसने जीवनमें विकसित किया है वही नियमित है । हम प्रकाश के उपासक है।

आज सब संकीर्णता और स्वार्थ के गुलाम बन गये हैं। हम संध्या में दीप प्रज्वलित करने पर नमस्कार करते हैं । वैसे ही पूजा के समय प्रथम दीप का पूजन करते है । दीप की पूजा याने प्रकाश की पूजा है । मेरी बुद्धिमें जो प्रकाश है वह रहना चाहिए।

हम प्रकाश के उपासक हैं, प्रकाश की पूजा करते हैं । दु:ख की बात है कि जिस संस्.ति ने प्रकाश की पूजा समझायी है वहाँ तम-अन्धकार की पूजा चल रही है । सब द्वेष, दैन्य, गुलामी के अन्धकार से भरे हुए हैं । उनके पास आशा, उल्हास, प्रेम का प्रकाश ले जाना है । यह सूर्य की उपासना है । सूर्य सर्वत्र जाता है और सब काम करता है ।

हमारी बुद्धि संकीर्णता से भरी हुई है । वह कल का देख ही नहीं सकता । कल का भी देखने वाला पागल मानव कलियुग में ही पैदा होता है। आज, ‘मुझे जो चाहिए वह मिल गया है न? बस् पर्याप्त हुआ’ यह प्रवृत्ति बन गयी है । परन्तु कलका कोई विचार नहीं करता। उससे पूछना चाहिए कि श्मशान में कितने लोगों को तू जलाकर आया है? तुझे भी मरना होगा या नही? उसका क्या तुने विचार किया है? उसके लिए तूने क्या किया है? क्या उठाया है? इस सम्बन्ध में कुछ भी न सोच कर मनुष्य शान्ति से बैठा रहता है और कहता है -‘I am sixty eight not out’ बैटिंग करनेवाला तो कोई और ही है और स्कोर यह अपने नाम चढाता है । उसका जीवन स्वार्थ और संकीर्णता से भरा हुआ है। यह अंधकार है । प्रकाश के उपासक हम सब तम-अंधकार के उपासक बन गये हैं । द्वेष-मत्सर से हम भरे हुए हैं । दो बातें है- द्वेष और मत्सर ! इनसे हमे बडा प्रेम है ं पडोसी के पास कुछ नयी वस्तु आयी कि द्वेष निर्माण होता है, और उसका अच्छा हुआ, यह देखकर हम मत्सर करने लगते हैं । मनुष्य के मनमें द्वेष आता है परन्तु वह किसी को नहीं दीखता ।
किसी से पूछो, क्या! दीवाली कैसे गयी? तो कहेगा, ‘बहुत अच्छी गयी,’ परन्तु वह भीतर द्वेष से भरा हुआ है। इसलिए भगवान ने अपना स्थान सभी के भीतर रखा है, जिससे भीतर निर्माण हुआ द्वेष-मत्सर देख सकेंगे।
द्वेष-मत्सर से भरे हुए मानव के जीवन मे दैन्य-दास्य का अंधकार आ गया है । उसके पास आशा, उत्साह तथा प्रेम का प्रकाश ले जाना है । आशा व उत्साह पहले हमारे जीवन में आने चाहिए। उसके लिये ‘स्वाध्याय’ करना चाहिए । स्वाध्याय से किसी दिन निराशा नहीं आती, निरुत्साह नहीं आता । स्वाध्यायी यानी आशा से, उत्साह से भरा हुआ व्यक्ति । रात-दिन हमारा उत्साह कम होता है । हमारे हृदय में आशा व उत्साह भरने स्वाध्याय में जाने की आवश्यकता है।

जीवन में अंधकार है, उसे हटाना होगा । सूर्य के पास से प्रकाशमयता, अपकारिता, उत्साह, चैतन्य, आशा, प्रेम, निष्कामता जैसे गुण लेने पडेंगे । तभी मनुष्य का जीवन उन्नत होगा । हमारे पूर्वजोंने इसीलिए सूर्य की उपासना करने को कहा है । सूर्य का दर्शन करो । सूर्य के पास निष्कामता है ं वह किसी से कुछ नहीं मांगता  और निरन्तर काम करता है । आप उसे नमस्कार करतें है या नहीं करते, यह वह नहीं देखता। सूर्य को आप नमस्कार करेंगे तो भगवान के पास आपकी कृतज्ञता अंकित की जाएगी । सूर्य को आपसे कुछ लेना नही है । सूर्य ने आपसे कुछ नही मांगा है आपसे उसे नमस्कार की भी अपेक्षा नही है, और काम कर रहा है । आप भी वैसा कुछ काम करो ।

कितने ही लोग सेवानिवृत होने के बाद सामाजिक काम करते हैं, और कहते हैं, ‘हम मान (Honorary) काम करते हैं । परन्तु उसमें (Honour) मान की मांग रहती है। कोई एकाध काम ऐसा करके दिखाओ कि जिसके पीछे स्वार्थ नहीं है, मांग या अपेक्षा नहीं है तभी आप सूर्य के उपासक हैं ऐसा कह सकते हैं ।
सूर्य के पास से निष्कामता लेनी हैं । ‘निष्कामता’ शब्द बहुत बडा है । भक्ति की दृष्टि आयेगी तो ही निष्कामता आयेगी । निष्कामता प्राप्त करने के लिए भक्ति उठानी चाहिए मनुष्य एकाध काम निष्कामता से करेगा तो वह सूर्य की उपासना है । हमारा स्म्पूर्ण जीवन निष्काम नहीं बन सकता कारण हम कामना से भरे हुए है, परन्तु एकाध काम निष्कामता से करके दिखाना चाहिए।

सूर्य के पास निर्लेपता है । कितनी ही बार बादल छा जाते है, धूल उडती है, उससे ढँक जाने पर भी सूर्य निर्लेप रहता है । ऐसी निर्लेपता सूर्य के पास से लेनी हैं । हमें जगत् में विचरना है, अत: कचरा आने ही वाला है, उससे निर्लेप रहने की शिक्षा सूर्य से लेनी हैं । सूर्य से उपकारिता भी लेनी है । उपकार करते रहना चाहिए । परन्तु उसमें सातत्य टिकाना चाहिए। सूर्य से निष्काम कर्म योग का सातत्य लेना हैं ।
सूर्योपासक बने बिना जीवन विकास नही होता । इसलिए हनुमानजी ने सूर्य भगवान को गुरु मानकर उनसे शिक्षा ग्रहण की थी । हनुमानजी ने सूर्य को गुरु माना है ।

हम यदि हनुमानजी के उपासक हैं तो हमे सूर्योपासना करनी चाहिए । सूर्य की प्‍र्रकाशपूजा ही ज्ञानपूजा है । ज्ञान का परिणाम प्रकाश है । अत: ज्ञानपूजा आवश्यक है । हनूमानजी तेजोमय है । तो फिर निस्तेज मनुष्य, बुझे हुए कोयले जैसा मनुष्य उनके पास जा ही कैसे सकता है? हनुमानजी की उपासना से हमें तेजस्वीता और शौर्य को जीवन में लाना होगा । यही बात समझाने के लिये तुलसीदासजी ने हनुमानजी के शौर्य और तेजस्विता का वर्णन करते हुए लिखा है ‘जुग सहस्त्र जोजन पर भानू । लील्यो तांहि मधुर फल जानू।’

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