Saturday, July 2, 2011

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं । अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं ।।   (13)
अर्थ : श्रीराम ने आपको यह कहकर हृदय से लगा लिया कि तुम्हारा यश हजार-मुखसे सराहनीय है ।
गुढार्थ : जिसने जगत में आकर .त.त्यता का अनुभव किया, जिसने जगत की कीमत बढायी, वह श्रेष्ठ भक्त है । कृष्ण और राम, इन दोनों अवतारों ने इस सृष्टि में आकर इसकी महत्ता बढायी। उसी प्रकार श्री हनुमानजी ने भक्ति की महत्ता बढाई, इसीलिए ऐसे भगवान के परम भक्त के यश की सारा संसार प्रशंसा करता है । इतना ही नहीं स्वयं परमात्मा उन्हे अपने हृदय से लगाते हैं यह भक्ति का अंतिम फल है । यह आदर्श हनुमानजी हमारे सामने रखते हैं । इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है ।
‘‘सहस बदन तुम्हारे जस गावैं । अस कहि श्रीपति कंठ लगावै।’’
हनुमानजी सीता की खोज करके वापस आते हैं तो राम कहते हैं ‘हनुमान! तुम्हारे मेरे उपर अगणित उपकार है -‘‘तुझे क्या दूँ? इस जगत में कौनसी चीज तुझे देने जैसी है? कोई भी नहीं । इसीलिए मै तुझे आलिंगन ही देता हूँ । हनुमान! तेरा उपकार कहो तो उपकार, प्रेम कहो तो प्रेम इतना अधिक है कि उसके लिए अपना एक-एक प्राण निकाल कर दूँगा तो भी कम पडेगा कयोंकि तेरा प्रेम पंचप्राण की अपेक्षा अधिक विशेष है । दूसरा क्या देकर तेरे प्रेम का मूल्य चुकांऊ? यह तो तेरे प्रेम की अवगणना ही कहलायेगी । तेरे प्रेम का मूल्यांकन करना तो मेरे लिए संभव ही नहीं है । उपकार के बदले मे प्रत्युपकार किया जाता है । संकट मे सहायता करनेवाले को संकट में मदद पहुँचायी जाती है । परन्तु हमारे उपर उपकार अथवा हमारे उपर संकट में जिसने सहायता की, उसपर संकट आए ऐसी अमंगल कल्पना करना असंभव है । जिसपर प्रेम है वह संकट में फँस जाए यह कल्पना ही असह्य है । और हनुमान संकट मे क्यों आये? इसीलिए भगवान रामने उन्हे कुछ न देते हुए और प्रत्युपकार की भी इच्छा न रखते हुए केवल आलिंगन प्रदान किया है । इस बातसे भगवान राम के अंत:करण में उनको क्या स्थान प्राप्त था यह पता चलता है ।

‘‘उत्तरकाण्ड रामने इन्हे ‘पुरुषोत्तम’ की पद्वी से विभूषित किया है। हजारो वर्षों से जिनकी सेवा-पूजा चल रही है ऐसे दो ही राजा हुए हैं, जिन्हे आसेतु-हिमालय पर्वत की प्रजाने अपने हृदय सिंहासन पर भक्ति पूर्वक बिठाया है । दूसरे राजा तो कब के कलच़़क्र में फंसकर समाप्त हो चुके है। यह दो है: राम और कृष्ण ये दो ही राजा ऐसे हैं जिन्होने लोंगोके हृदय पर सामा्रज्य स्थापित किया है। उनमें से रामने हनुमान को पदवी प्रदान की है। ऐसा भाग्य अलौकिक है । राम कहते हैं कि हनुमान ने ऐसा दुष्कर कार्य किया है कि जिसे लोग मनसे भी नही कर सकते हैं वाल्मीकि रामायण मे लिखा है-
यो हि भृत्यो नियुक्त: सन् भत्‍र्रा कर्मणि दुष्करे ।
कुर्यात्  तदनुरागेण  तमाहु:  पुरुषोत्तमम् ।।
ऐसा कहकर उन्हे पुरुषोत्तम की पद्वी देते हैं । धन्य है वे हनुमान जिन्होने वानर होते हुए भी प्रभु के स्वमुख से पुरुषोत्तम की पद्वी प्राप्त करके उनके बराबर का स्थान प्राप्त किया है ।
जिन्होने प्रभु  को जीवन अर्पण करके सार्थकता का अनुभव किया और जो लोग विश्वंभर पर उपकार करने जगत में आये, वे महान हैं । यह भक्ति की अंतिम स्थिति हैं ।

हनुमानजी की तरह जो ‘नरोत्तम’ बन गये हैं उनको नमस्कार है । ‘नरोत्तम’ कौन है ? क्या जिसने पैसा कमाया है वह? वह तो पैसा यहीं छोडकर जायेगा । जिसने विद्या कमायी है, क्या वह ‘नरोत्तम’ कौन है? प्रभु को जिसने जीत लिया है वह ‘नरोत्तम’ है । संसार में आकर जिन्होने प्रभु को जीत लिया है उनको नमस्कार है । प्रभु को जीतनेवाले ये भक्त कितने महान होंगे । उन्होने निष्काम भगवान को सकाम बना दिया । हम भी तो भगवान के पास जाते हैं, परन्तु हमे मिलने की भगवान को उत्सुकता कहाँ है? दोनों को उत्सुकता न हो तो उसे मिलन नहीं कहा जाता । दोनो को उत्सुकता न हो तो एकपक्षीय मिलन को आलिंगन नहीं कहते ।
महाप्रभुवल्लभाचार्यजी को मिलने के लिए भगवान को भी उतनी ही उत्सुकता थी । आलिंगन में जिस प्रकार मिलने की वासना जैसे भक्त को होनी चाहिए वैसे ही भगवान को भी वासना होनी चाहिए तभी आलिंगन होता है । दोनों को जब वासना होती है तभी आलिंगन कहा जाता है वल्लभाचार्य को मिलने की मधुरापति को उतनी ही उत्सुकता थी उसी प्रकार हनुमानजी को आलिंगन देने की भगवान श्रीराम को उतनी ही उत्सुकता थी।

भगवान निष्काम है । निष्काम भगवान में भी जो कामना खडी करते हैं, वे ‘नरोत्तम’ हैं । कोई कहेगा रहने दो भगवान ! आपकी निष्काम बने रहने की प्रतिज्ञा आपको सकाम किसने बनाया? इन महापुरुषोंने आपको सकाम बनाया । इतना ही नही, बल्कि आपको लगा कि इन लोगों को अपने पास लूँ आलिंगन दूँ । जिसके सम्बन्ध में भगवान को ऐसा लगा उन नरोत्तमाें के यश की सारा संसार प्रशंसा करता है तथा नमस्कार करता है यह विजिगीषुत्व है । श्री हनुमानजी ऐसे ही नरोत्तम है, इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है ‘‘सहस बदन तुम्हरो जस गावै, अस कहि श्रीपति कंठ लगावै।’’

यदि हमें भी प्रभु का आलिंगन चाहिए तो श्री हनुमानजी की तरह भक्ति करनी होगी तथा उनकी भांति ज्ञान, कर्म और भक्ति का जीवन में समन्वय लाना होगा ।

ज्ञानी कर्मयोगी भक्त को भगवान प्रत्यक्ष मिलने दौडते है, जिसप्रकार भक्त पुंडलिक को मिलने भगवान स्वत: दौडकर उनके द्वारपर आये । संत एकनाथ के यहाँ तो जगत् की चिद्घन शक्ति सगुण-साकार होकर घरका काम करती और स्वयं भोजन बनाकर खिलाती थी, वे कितने भग्यशाली होंगे? संत एकनाथ ने भगवान का अनुपम कार्य कर उनपर जो ऋण चढाया था उससे उऋण होने के लिये ही भगवानने उनकी चाकरी की।

इस भारत वसुन्धरा में अनेक प्रभु भक्त हुये हैं, परन्तु हनुमानजी भक्त सम्राट हैं । भगवान राम ने स्वयं उन्हे अपने कंठ से लगाया है ऐसा तुलसीदासजीने लिखा है । जो ज्ञानी कर्मयोगी भक्त होते हैं उनका ध्यान भगवान के कंठ की ओर होता है वे सतत् भगवान के मुख तथा कंठ की और निहारते है । उनका ध्यान भगवान के चरणों की ओर नहीं होता है ं कर्मयोगीयोंका जीवन जब निरुत्साह से भर जाता है, जीवन तथा कर्म जब बोझ प्रतीत होते हैं, थकावट महसूस होती है तब हमें किसलिए काम करना है? सब आराम कर रहे है तो मैं भी क्यों न आराम करुँ? ऐसे समय में भगवान के मुखारविन्दसे कर्मयोगीयों को मार्गदर्शन तथा जीवन को प्रेरणा प्राप्त होती है । तथा वह प्रभु कार्य के लिये तत्पर होता है । इसलिए कर्मयोगीयोंका ध्यान भगवान के कंठ की ओर होता है । थके हुए, निराश बने हुए जीवों को भगवान ने गीता मे अनेकों आश्वासन दिये है -
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शवच्छांतिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति ।।
सर्वधर्मान्परित्यज्य   मामेकं  शरणं  व्रज ।
अहं त्वां सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ।।
परित्राणाय साधूनाम विनाशाय च दुष्कृताम ।
धर्म संस्थापनार्थाय   संभवामि   युगेयुगे ।।
भगवान के वचनोंपर, उनके दिये हुए आश्वासनोंपर विश्वास रखकर जो कर्मयोगी भक्त भगवान के कार्य के लिए तत्पर रहते हैं ऐसे भक्तोंको प्रभु बाहें फैलाकर उन्हे कंठ से लगाते हैं । भगवान उद्धारक भी हैं। भगवानने गीता मे कहा है ‘तेषामहं समुद्धर्ता मृत्यु संसार सागरात’’ जब सर्वत्र अशान्ति फैल जाती है । पाप, अत्याचार और अनाचार का जहाँ तांडव नृत्य चलता है, अधमता, नीचता जब अमर्यादित बढ जाती है उस समय अनाचार के साथ सतत् संघर्ष करनेवाले कर्मयोगी भक्त का हाथ पकडकर भगवान उसका उद्धार करते हैं ।
सचमुच! भगवान जब हनुमानजी, वाल्मीकि, तुलसीदासजी, शंकराचार्य, वल्लभाचार्य, रामानुजाचार्य जैसे भक्त, संत और आचार्य को आप देखते हैं तो कहते है, ‘तुमने ही सच्चा जीवन जीया है । बाकी सब केंचुएकी तरह जीते हैं’ फिर ऐसे लाडले बेटोंको आलिंगन देने भगवान हमेशा आतुर रहते हैं । उन्हे देखकर भगवान ने कहा होगा‘ तुम्हे खा जाता हूँ’ इसी को मुक्ति कहते है, अन्यथा मुक्ति कैसी? मुक्ति याने स्वयं खलास होना, नाश पाना । हम कहाँसे खलास होनेवाले है? किसीने कहा ‘पिघल जाओ।’ फिर भी हम नहीं पिघलते । हमारा ‘अहम’ पिघलता ही नहीं यह विशेष है । ‘अहम्’ को तो खाना पडता है और उसे भगवान ही खाते हैं ।

जीव जब विचार करता है तो उसे लगता है कि मेरा जीवन भगवान को रुचने वाला होना चाहिए । जब प्रात: हम ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ करते हैं तो लगता है हनुमान जी तथा संतो का जीवन कितना दिव्य भव्य और पावन रहा होगा ! और उनके जैसा होने का मन करता है ।

वाल्मीकि एक पतित मानव के रुपमें समाज में तिरस्.त थे । किन्तु उन्होने भव्य परम्पराका अनुकरण कर स्वयं को ही परिवर्तित नहीं किया अपितु जगत को भी मार्गदर्शन दिया है । इतना ही नहीं उन्होने अवतार लेकर आनेवाले भगवान (राम) को भी दो शब्द सिखाने की हिम्मत दिखाई है । वाल्मीकि अत्यंत पतित थे, वह कभी पावन होंगे या नही यह शंका थी परन्तु उनका जीवन इतना दिव्य भव्य और पावन हुआ कि उनके जीवन को निकट से देखने की इच्छा होती है । उनका वर्णन है--
कूजन्तं   राम  रामेति   मधुरं   मधुराक्षरम् ।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकि कोकिलम्् ।।
वाल्मीकि के जीवन को देखकर लगता है कि उनके जैसा जीवन बनाऊँ। वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य, पतंजलि किसे पता कि पहिलेसे महान रहे होंगे, परन्तु वाल्मीकि लुटेरे थे, पतित थे इसमे संशय नहीं है । पतित वाल्मीकि पावन हो गये । वाल्मीकि ने अपना जीवन ऐसा भव्य और दिव्य बनाया है कि उसके कारण ‘वाल्मीकि’ शब्दमें शक्ति आ गई है । वाल्मीकि आदि सभी महापुरुषोंका जीवन ऎसा है जो भगवान को रुचता है । इसीलिए उनका सा जीवन जीने का मोह होता है । ऐसे महापुरुषोंको जगत में भेजकर भगवान भी धन्यता अनुभव करते हैं ।

हनुमानजी तो भक्त हैं ही परन्तु वाल्मीकि तो पतित होते हुए भी अपने आपको उन्होने परिवर्तित कर भगवान के लाडले हुए तो हम भी प्रभु के लाडले क्यों नहीं हो सकते? हमे अनमोल ऐसा मानव जन्म मिला है तो जीवन में कमसे कम एक तो काम ऐसा करना चाहिए जो भगवान को अच्छा लगे तथा धीरे-धीरे प्रभुप्रेम बढाते हुए कर्म करते जायेंगे तो अवश्य हम भी इन महापुरुषोंकी तरह प्रभु के लाडले बन सकते हैं । इन महापुरुषेांका आदर्श सामने रखते हुए हमे भी अपने जीवन को बदलने का प्रयास करना चाहिए ।

मनुष्य को विचारों और दृष्टिमे परिवर्तन लाकर उनमें खुमारी निर्माण करनी चाहिए। लोग सुगंधी द्रव्य लगाते हैं उसे (Intimate) कहते हैं, परन्तु अंदर भी सुगंध (Intimate) है उसके साथ आत्मीयता (Intimacy) होनी चाहिए । दृष्टिकोण, संकल्प कौनसा लेना इसकी समझ और उसके लिए दृढ मनोबल इन तीनों के संगम से शुचिता आती है ।

भिन्न-भिन्न संगम हैं । जीवन मे ज्ञान, भक्ति और कर्म का संगम होना चाहिए केवल भक्ति हो तो मनुष्य दुर्बल बनता है । वह रोता है, भगवान । सबका कल्याण करो । मै स्वयं अपना कल्याण नहीं कर सकता तो दूसरों का क्या करुँगा? जिस प्रकार केवल भक्त दुर्बल होता है वैसा ही केवल ज्ञानी भी शुष्क होता है । केवलाद्वैत और शुद्धाद्वैत यह सब सुनते हैं और सुनाते भी हैं । केवल सुनना और सुनाना प्रयाप्त नहीं है । भगवान की भक्ति (सही अर्थोंमे) करनी चाहिए, इतना ही नहीं, उसका प्रारंभ भी करना चाहिए । केवल बोलना प्रयाप्त नहीं है ।

हमारे महाराष्ट्र में रामदास स्वामी हो गये । उनका ‘दासबोध’ ग्रंथ है । उसे पवित्र समझकर लोग प्रतिदिन पढते है । ‘‘प्रभाते मनी राम चिन्तित जावा’’।

‘प्रात:काल मन से प्रभु राम का चिन्तन करो’ यह पठन रोज कितने ही लोग करते हैं । परन्तु उसका अर्थ समझकर राम का चिन्तन नहीं करते । केवल ज्ञानी शुष्क है । कुछ लोग बोलते हैं हम स्वाध्याय करते हैं । बस्स! इतना प्रर्याप्त नहीं है । स्वाध्याय के साथ प्रभु का काम भी करना चाहिए। गीता में लिखा है कि बिना कर्म के ज्ञान शुष्क है और भक्ति पंगु है । उसी प्रकार केवल कर्मकाण्ड शुष्क है । कर्म के बिना नहीं चलेगा, भक्ति के बिना ज्ञान नहीं होगा, ज्ञान भक्ति के मिश्रण के बाद कर्म शुरु होता है ।

कितने ही लोगों को केवल सुनने की आदत होती है । वे स्थान स्थान में जाकर कथा सुना करते है । ऐसी पचीस-पचास कथायें वे सुनते हैं परन्तु उनमें कोई परिवर्तन नहीं होता । पत्थर के समान रह जाते है । गीता मे कहा है - कर्मजान् विद्धि तान् सर्वान् -। ‘जिसके जीवन में ज्ञान भक्ति और कर्म का संगम है उसके जीवन में शुचिता आती है । ऐसे संगम के बिना शुचिता संभव नहीं है ।

भगवान के साथ का हमारा संगम भी पवित्र होना चाहिए तभी प्रभु आलिंगन देते हैं । हम सेठ के साथ सम्बन्ध रखते हैं । क्यों? रात्रि मे बारह बजे आवश्यकता पडने पर वह काम आये इसलिए । यह व्यवहारिकता है । जहाँ व्यवहारिकता प्रविष्ट होती है वहाँ शुचिता नहीं टिकती । कुछ लोग गुण्डों के साथ सम्बन्ध रखते हैं कारण गुण्डे को  है । लगता है कि गुण्डा कभी काम आयेगा । उसके साथ सम्बन्ध रखने से कम से कम वह नहीं मारेगा ।
भगवान के साथ सम्बन्ध है, उसमे शुचिता होनी चाहिए ।  प्रभु के साथ भय से संबन्ध होता है । अंग्रेजी मे कहते हैं Fear of god is beginning of Wisdom ।  भगवान का भय Wisdom का प्रारंभ है । भगवान को नमस्कार नहीं करेंगे और वे शनि महाराज को भेजेंगे तो? सब समाप्त हो जाएगा । ऐसा समझकर नास्तिक भी भगवान को नमस्कार करता है । भगवान के साथ भय से सम्बन्ध नहीं होना चाहिए।

भगवान से भय रखने का कोई कारण नही है । जिसने मुझे सुलाया है वही मुझे जगाता है । उसका भय लगने का क्या कारण है? यदि उसका डर है तो मैं सो भी कैसे सकता हूँ? जगानेवाला जगाता है इसीलिए मैं सो सकता हूँ।  वह यदि मुझे नहीं जगायेगा तो? ऐसा भय होगा तो नींद ही नहीं आयेगी ।
कितने ही लोगों का भगवान के साथ स्वार्थ का सम्बन्ध होता है । उसमें शुचिता तो होती ही नहीं, मगर दुर्गंध आती है । भगवान के साथ भाव से सम्बन्ध रख्ेेोंगे तो उसमे शुचिता आयेगी ।

भगवान के साथ भाव सम्बन्ध होना चाहिए । भाव से ज्ञान निर्माण होता है और ज्ञानसे भाव खडा होता है । भगवान के प्रति बौद्धिक प्रेम () निर्माण होना चाहिए । डॉक्टर दिन रात शरीर की चीर फाड करके, शरीर रचना का कौशल्य देखकर ही डॉक्टर बना है । तो फिर उसका भगवान के प्रति कितना भाव बढना चाहिए । भाव संबंध में शुचिता है ।
उसके बाद उससे उच्च स्तर पर मनुष्य और भगवान के सम्बन्ध में आशिकता होती है । ‘मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्’ कहनेवाले वल्ल्भाचार्य को भगवान की आशिकता लगी आपके लिए आपके विश्व के प्रति मुझे आसक्ति है । क्यो? आपने विश्व निर्माण किया है, विश्व आपका है , इसलिए मुझे उसके प्रति आसक्ति है । ऐसे महान भक्त को भगवान आलिंगन देते हैं । जिस प्रकार भगवान रामने हनुमानजी को आलिंगन दिया।

भक्त की चित्त-एकाग्रता बढनेपर आधा घण्टा या एक घण्टा टिकती है । उस मानसिक स्थितीमें भक्त भावविभोर बनता है और वहाँ रास प्रारंभ होता है । वह भौतिक नहीं वह अशरीरी है, उसे गूढ प्रेम () कहते हैं । उसमें भगवानके आलिंगन की आसक्ति निर्माण होती है ।

भगवान ! आपके आलिंगन की अपेक्षा है, दूसरी कोई अपेक्षा नहीं । भगवान मैने बहुत देखा, बहुत किया, मेरी दृष्टि भी बदल गयी, आपकी .पा भी मुझे मिलती गयी, आपका भाव मिलता गया। मैने आपका प्रेम पहचाना है, अब मुझे आलिंगन की अपेक्षा है । यह भी श्रेष्ठ परन्तु अपेक्षा ही है न? आलिंगन में आसक्ति होनी चाहिए तभी आलिंगन में आनन्द है । केवल समीप आ गये यानी आलिंगन हुआ ऐसा नहीं कहा जाता । भगवान को आलिंगन देने की अपेक्षा में आसक्ति होनी चाहिए, तभी उसमे आनंद आता है। आलिंगन देनेवाला व लेनेवाला दोनों में आसक्ति होती है इसलिए उसमे आनंद है ।   एकपक्षीय आसक्ति किसी काम की नहीं होती । भगवान के आलिंगन की माँग करते समय भक्त में जितनी आसक्ति होती है उतनी ही आसक्ति भगवान में भी होनी चाहिए।

भगवान के साथ हमारा संबंध है इसमे शंका नही है । यह सम्बन्ध उत्तरोत्तर वृद्धिगंत करना चाहिए । भीतिसंबंध, स्वार्थसंबंध, प्रीतिसंबंध, आसक्तिसंबंध और दिव्य (Divine) आसक्ति सम्बन्ध ऐसी उत्तरोतर श्रेणियाँ हेै।

भगवान! हम आपके साथ भाव संबंध रखने की इच्छा रखते हैं । इसलिए आपका काम करने के लिए गाँव-गाँव में जाने की अपेक्षा रखते हैं । किसीको हमारे अधीन करने के लिए नहीं। कोई भले ही अपशब्द कहे, हमे उसकी चिन्ता नहीं ।

कुछ लोग कहते हैं, ये लोग (स्वाध्यायी) श्लोक सिखाते हैं । श्लोक सिखाने से क्या होता है? उसकी अपेक्षा भूखों को रोटी दी तो? हम कहते हैं, तुम्हारी रोटी में स्वाद हमारे श्लोक ही निर्माण करेंगे । ऐसा दृढ विश्वास रखकर हम भाव-प्रीति से भगवान का काम करते हैं । भगवान! हम आपके साथ सम्बन्ध रखना चाहते हैं ।

भगवान ऐसे है कि तुम जो उनसे माँगोंगे, वह वे तुम्हे देंगे ही ऐसा नहीं है । दूसरी बात यह है कि उन्होने मुझे इतना सब दिया है, उसमे से कौनसी वस्तु मैने उनसे माँगी थी? कुछ भी न माँगते हुए भी उन्होने सब दिया है । बिना माँगे जो देते है और माँगने पर देंगे ही ऐसा भरोसा नही है, उसका नाम भगवान!

डॉक्टर की पत्नी भगवान से कहती है, दीवाली तक मुझे हीरे के कर्णाभूषण मिलने चाहिए । भगवान यदि उसकी प्रार्थना सुनेंगे और उसे हीरे के आभूषण देने हों तो कितने ही लोगों को भगवान को बीमार बनाना पडेगा? उसके बिना डॉक्टर को पैसे कैसे मिलेंगे? इसप्रकार हमारा स्वार्थ कदाचित्् शुद्ध होगा । हम किसी का बुरा नहीं चाहते होंगे, परन्तु हमारे स्वार्थ में दूसरों का बुरा होता है । इसका हमें पता नहीं चलता। भगवान को वह मालूम रहता है, इसीलिए हम जो माँगते हैं वह भगवान देंगे ही ऐसा नहीं है ।

भगवान! हम स्वार्थ संबंध से आपके पास आते है । भाव-संबंध से आते है । संबंध रखनेवाले हम हैं। गीता-रामायण पढनेवाला भगवान के साथ संबंध रखता है । ‘‘पितेव पुत्रस्य सखेव सख्यु:’’...फिर भगवान कितने ही जन्म देते रहे तो भी चलेगा । भाव-संबंध रखनेवाला शुचि है और ऐसा शुचिपूर्ण जीवन जिनका है उनको भगवान आलिंगन देते हैं । मनुष्य को हनुमानजी से प्रेरणा लेकर ऐसा जीवन बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।

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