Saturday, July 2, 2011

सनकादिक ब्रम्हादि मुनीसा । नारद सारद सहित अहीसा ।।  (14)
अर्थ : श्रीसनक, श्रीसनातन, श्रीसनन्दन, श्रीसनत्कुमार आदि मुनि, ब्रम्हा आदि देवता, नारदजी, सरस्वतीजी, शेषनागजी आदि आपके यशको पूरी तरह वर्णन नहीं कर सकते ।
गुढार्थ : तुलसीदासजी यहाँपर यह कहना चाहते हैं कि श्री हनुमानजी की प्रशंसा केवल भगवान रामने ही नहीं की अपितु सृष्टि के सर्जक ब्रम्हाजी तथा ब्रम्हाजी द्वारा उत्पन्न मानसपुत्र सनकादिक मुनि (श्रीसनक,श्रीसनातन,श्रीसनन्दन, एवं श्री सनत्कुमार), भगवान के मन के अवतार श्री नारदजी तथा आदिशक्ति माता सरस्वतीजी इत्यादि सभी हनुमानजी के गुणोंका गुणगान करते हैं । वे कहते हैं कि हम भी श्री हनुमानजी के गुणोंका तथा यश का वर्णन पूरी तरह से नहीं कर सकते, भक्ति की ऐसी परमोच्च स्थिति हनुमानजीने अपने कतृ‍र्त्व से प्राप्त की।

भागवत में भक्ति तथा नारद के समागम की कथाएं कही गयी है । नारद कहते हैं, ‘मै अनेक तीर्थ क्षेत्रों मे गया । वहाँ इतनी दुर्गंध आती थी कि पुछो मत! वहाँ मै तपस्वियों से मिला । वे सभी लाचार बने हुए थे ऐसा लगा । उनमे पंडित भी थे । परन्तु वे सब ‘ते सर्वे धनवद्धानां द्वारि तिष्ठति किंकरा:’ धनवानों के सामने लाचार बने हैं ऐसा लगा। कोई संन्तोषी नही, कोई समाधानी नहीं । सब अगतिक लाचार बने हैं । क्यो? यह प्रश्न ही नहीं खडा होता । मूर्तिपूजा क्यों? भक्ति क्यों? क्या भक्ति भगवान की खुशामद है? जिसने इस सृष्टि का निर्माण किया वह क्या खुशामद करने से प्रसन्न होगा? ऐसा कोई प्रश्न ही उनके दिमाग में निर्माण नहीं होता ।

भागवत कहता है कि उसके बाद नारदजी यमुना के किनारे पर आये । वहाँ उन्होने एक भिन्न ही चित्र देखा । एक स्त्री रुदन कर रही थी । उसके पास दो वृद्ध पुरुष बैठे हुए थे । वह रुदन करनेवाली स्त्री भक्ति थी और उसके समीप जो दो पुरुष बैठे थे वे ज्ञान और वैराग्य थे । उनको देखकर नारद को दु:ख हुआ।
नारदने उनसे पूछा, ‘तुम कौन हो?’
स्त्रीने कहा ‘ मै भक्ति हूँ।’
इसमें भक्ति की व्यथा है। लोग कहते हैं कि लोगों मे से भक्ति चली गयी है । परन्तु यह वैसी बात नहीं है । भागवत यह ग्रंथ हजारो वर्ष पुराना है । उस समय की यह बात है । आज भी भक्ति चलती है, तो क्या उस समय नहीं रही होगी? आज भी मुंबई मे एक गणेश का मन्दिर है, वहाँ गणेशजी का दर्शन करना होगा तो कमसे कम चार घण्टे कतार मे खडा रहना पडता है । क्या यह भक्ति नही है? भक्ति कम नही हुई है।

भक्तिमे तो बाढ आयी है । परन्तु बाढ का पानी पीने के उपयोग में नहीं आता, उससे तृप्ति नहीं मिलती, फेंक देना पडता है। उस जमानेे में बाढ नहीं थी, तो भक्ति क्यों रो रही थी? भक्ति ने जब शीशे में अपना मुँह देखा तब उसे क्या दीख पडा? मुँह अगतिकता, लाचारी, दीनता, क्षुद्रता, दुर्बलता, असहायता, भयभीति से भरा हुआ था । वह देखकर भक्ति को लगा कि क्या यही मेरा असली रुप है? क्या उसमें मनुष्य को खडा करने की शक्ति है? यह देखकर भक्ति रोने लगी । मुझे लगा कि यह मेरा रुप नहीं है । लोग स्तोत्र बोलते भी होंगे । कथा भी सुनते होंगे, परन्तु यह रुप भक्ति का नहीं है । उस जमाने में भी बहुत भक्ति चलती थी । परन्तु चलने वाली भक्ति ऐसी थी । इसलिए वह रोने लगी । उसे लगा कि मुझमे (भक्ति मे) पहली बात होनी चाहिए ‘प्रेम’ और दूसरी बात चाहिए ‘भाव’ यहाँ तो प्रेम का पता नही और भाव का दर्शन नहीं है । यह देखकर वह रोने लगी।

वही बात ज्ञान की थी । ज्ञान में रुखापन आ गया था । ज्ञान को लगा कि यह मेरा रुप नहीं है । लोगोंने मेरा भिन्न ही रुप बना दिया है । ज्ञानी वही है जो भीतर से आद्‍र्र है । जो भीतर आद्‍र्र नहीं वह ज्ञानी नहीं है । आज ज्ञानमें रुखापन आ गया है वैसे ही वैराग्य मे तिरस्कार आ गया है । सृष्टि के सर्जन का तिरस्कार करके जो वैराग्य आता है वह वैराग्य उन्नति की चोटीपर नहीं ले जा सकता । विरक्ति तिरस्कार से नही , प्रेम से आनी चाहिए । सृष्टि में कोई अर्थ नहीं है छोड दो ऐसा कुछ लोग आग्रह धरते हैं । सृष्टि में कोई अर्थ न होगा तो इस सृष्टि को बनाने वालेमें भी कोई अर्थ नहीं है । नहीं तो बनाने वालेने इस सृष्टि को क्यों बनाया? सृष्टिका तिरस्कार करके उसे छोड देना, इसी को लोग वैराग्य कहते हैं।

एक युवती प्रतिदिन नींबु का शरबत पीती थी । सर्दी-जुकाम हो जाता तब घर के लोग उसे शरबत पीना छोड देने को कहते, परन्तु उससे नींबू शरबत पीये बिना रहा नही जाता । कुछ समय बाद उसका विवाह हुआ और एकाध वर्ष में उसे बच्चा हुआ । वह प्रतिदिन नींबू का शरबत पीया करती थी, परन्तु अब उसके बालक को सर्दी हो गयी । वैद्य ने कहा, ‘बच्चे को सर्दी हो गयी है, अब तुझे शरबत नहीं पीना चाहिए । अत: उस युवती का शरबत पीना छूट गया । क्यो? बालक के प्रति प्रेम के कारण! नींबू का शरबत खराब है, ऐसा कहकर तिरस्कार से जो विरक्ति आती है वह असली, सच्ची विरक्ति नहीं है । उसमे मनुष्य को उन्नत बनाने की शक्ति नहीं होती । अत: ऐसी विरक्ति तिरस्कार से भरी हुयी है ।

ज्ञान रुखेपन से भरा हुआ, विरक्ति तिरस्कार से भरी हुयी है । ज्ञान रुखेपन से भरा हुआ, विरक्ति तिरस्कार से भरी हुई और भक्तिमें प्रेम तथा भाव का पता नही, यह देखकर भक्ति रोती थी । उसे लगता था कि मेरी ओर किसीका ध्यान नहीं है । भक्ति क्यो? कैसी होनी चाहिए इसका कोई विचार ही नहीे करता है । अगतिकता, लाचारी, क्षुद्रता, वहम, दीनता, भयभीति इनमेे से पैदा हुई भक्ति का यह रुप मेरा नहीं है । जब शीशे में देखने लगी तो लगा कि कितना भयंकर रुप बना दिया है इन भक्तों ने मेरा । यह रुप मुझे नहीं चाहिए, इसलिए वह रोती थी।

नारदजी उसके पास गये । नारदजी तो बडे नटखट थे। अत: उन्होने नाटक किया। वहाँ से वे बद्री-आश्रम चले गये । वहाँ विशाल राजा का राज्य चलता था । इसीलिए उस स्थान को बदरी विशाल कहते हैं । नारदने विचार किया कि बदरीविशाल मे अनेक ज्ञानी, तपस्वी है, उनसे पूछेंगे । वास्तव मे नारदजी को किसी को पूछने की आवश्यकता नहीं थी । फिर भी इस महापुरुष ने ऐसा नाटक किया।

ऋषियोंने नारद से पूछा,‘ भक्ति किसलिए? ज्ञान क्या है? ज्ञान में क्या होना चाहिए? यह कोई समझता नहीं है।’ ऋषियोंने एक मार्ग दिखाया है ‘तस्मात् स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्’ दूसरा मार्ग नहीं है । समाज के अंतिम व्यक्ति तक ज्ञान नहीं पहूँचता है तो क्या करना चाहिए? तब ऋषियोंने कहा, ‘यज्ञ करो’ हम भागवत सुनते हैं तब इतना ही सुनते हैं कि ऋषियोंने यज्ञ करने को कहा । अत: नारद ने यज्ञ किया । कौनसा यज्ञ किया? यज्ञ के विविध प्रकार भगवान ने गीता में कहे हैं: ‘द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञायोगयज्ञास्तथापरे.......... स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च............’ के अनुसार उन्होने कृतिभक्ति करने की सुरुवात की और ज्ञानयज्ञ करने लगे । ज्ञानयज्ञ में भक्ति का स्वरुप बदलने की शक्ति है। ज्ञान में आद्रता आनी चाहिए वह कृति भक्ति से आती है । उसीप्रकार प्रेम से जो विरक्ति आनी चाहिए वह आती है, तिरस्कार से आयी हुई विरक्ति नहीं चाहिए । तिरस्कार से आयी हुई विरक्तिमें संकुचितता पैदा हो जाती है । इसलिए नारदने ज्ञानयज्ञ श्ुारु किये । इसका अर्थ यह है कि भक्ति के असली सिद्धांत लेकर वे भागवतों के पास जाने लगे।

धर्म क्या है? धर्म किसे कहते हैं । आज हम कर्मकाण्ड को ही धर्म कहते हैं। ऐसे कर्मकाण्डी की दृष्टि परलोक की ओर रहती है । भक्ति में दो बाते आती है । कर्मकाण्ड और नीति । नीति समाजाधिष्ठित होती है और कर्मकाण्ड परलोकाधिष्ठित हेाता है । मानव विकास के लिए जो धर्म है वह प्रभु के प्रति प्रीति निर्माण करनेवाला होना चाहिए।
धर्म के भी दो रुप है । उनमें से एक है कर्मकाण्डात्मक । आज जो कर्म करेंगे उसका फल अगले जन्म में मिलेगा ।  यह परलोकाधिष्ठित धर्म है । दूसरा रुप है समाजाधिष्ठित धर्म, यह नीतिप्रधान धर्म है । समाज को टिकाना है । समाज के साथ रहना है । किसीका अनिष्ट नहीं करना है यह समाजाधिष्ठित धर्म है । समाजाधिष्ठित अथवा परलोकाधिष्ठित धर्म बौद्धिक दृष्टि से टिक नहीं सकता । इसलिए भागवत मे भक्ति प्रधान धर्म समझाया है । जो प्रभुप्रीति निर्माण करनेवाला है तथा जो प्रभु प्रीति पर खडा है वही धर्म है । धर्म से क्या मिलेगा इसका ज्ञान होने पर मनुष्य इन्द्रियतृप्ति के पीछे नहीं दौडता ।

हनुमानजी के जीवन में ज्ञान-भक्ति और कर्म का अद्भूत समन्वय दिखायी देता है इसीलिए सनकादिक मुनीयाेंने तथा देवर्षी नारदने भी हनुमानजी की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है ।

हम अनेक कारणोंसे भगवान की ओर मुडते है । भगवान को न मानते हों, पर धन्धे मे घाटा हो गया तो हमे लगता है कि जगत मे भगवान जैसा कुछ होना चाहिए और हम भगवान की ओर मुडने लगते हैं । परन्तु जो बिना किसी कारण स्वभावत: भगवान की ओर मुडने लगते है वे ‘सततं योगी’ कहलाते हैं । वे कहते हैं यह मेरा स्वभाव है और ‘स्वभावो दुरतिक्रम:’ स्वभाव का उल्लंघन नहीं किया जा सकता । जो किसी कारणवश भगवान की ओर मुडता है, वह कारण के न रहने पर ढीला पड जाता है मानलो कोई मुक्ति या पुण्य के लिए भगवान से जुड गया हो, पर जब उसे यह पता चलेगा कि पुण्य या मुक्ति भगवान से मिलने वाली नहीं है ।  तुकाराम महाराज कहते है, मुक्ति की पोटली भगवान के पास नही है, जो खोलकर तुम्हे दें दें । मुक्ति के लिए साधना करनी पडती है, तो उसका भगवान के साथ योग ढीला पड जायेगा ।

हनुमानजी सततं योगी थे उनके तो रोम-रोम मे राम बसे हुए थे इसीलिए ब्रम्हादिक मुनीयोंने भी उनकी प्रशंसा की है । हमे भी हनुमानजी का आदर्श सामने रखते हुए जीवन को ज्ञान-भक्ति और कर्ममय बनाना चाहिए तो ही हम सच्चे अर्थ में हनुमानजी के भक्त कहलाने के अधिकारी होंगे ।

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