Sunday, July 3, 2011


चौपाई:- अंत काल रघुबर पुर जाई । जहां जन्म हरि भक्त कहाई ।।  (34)
अर्थ :अन्त समय श्री रघुनाथजी के धाम को जाते हैं और फिर भी मृत्यलोक में जन्म लेंगे तो भक्ति करेंगे और श्रीराम भक्त कहलायेंगे ।
गूढार्थ : तुलसीदासजी इस चौपाई द्वारा मृत्यु का सिद्धान्त समझाते हैं ।  हमारा अन्तकाल होता ही नहीं है, प्रयाणकाल होता है ।  हम मरेंगे तो दूसरा जन्म लेंगे । अन्तकाल का अर्थ यह है कि अब दूसरा जन्म लेना नहीं है । इसलिए गीता में दो भिन्न भिन्न शब्द प्रयुक्त किये है । अन्तकाल और प्रयाणकाल। ‘प्रयाणकाले मनसा चलेन।’ अन्तकाल उसीका होता है जिसको फिर से जन्म न हो ।  ‘यद्गत्वा न निर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।’ वह वहाँसे वापीस नहीं आता ।
जीवन मे मृत्यु है । मृत्यु होनी ही चाहिए। मृत्यु में काव्य खडा करनेवाला, मृत्यु का काव्य बतानेवाला गुरु है । मृत्यु है इसलिए जीवन है । मृत्यु को भगवान ने ही बनाया है । एक बार मैं क्रिकेट मैच देखने गया था ।  मैच देखते देखते मैं पूरी जानकारी हासिल कर रहा था, इतने में विकेट के पीछे खडे आदमी के बारे मे पूछा कि यह कौन है? मेरे पूछने पर उसने कहा, ‘यह विकेट कीपर है।’ मैना पूछा, ‘विकेट कीपर का कौनसा काम है? उसने कहा, जब बैट्समन क्रीज ( Crease ) छोडकर बाहर निकल जाय तो यह विकेट तोड देता है, और बैट्समन आऊट होता है।  मुझे आश्चर्य हुआ मैने पूछा जो विकेट तोडता है ( Break  करता है) उसे विकेटकीपर क्यों कहते हैं? उसे तो विकेट ब्रेकर कहना चाहिए। उसने कहा, ‘मुझे मत पूछो।’ मै स्वयं सोचने लगा मुझे लगा यह खेल ब्रिटिश लोगों का बनाया हुआ है, और बहुत अच्छा है ।  विकेट गिरनेवाली है इसलिए जीवन में आनन्द है ।  जीवनमें चैतन्य है, प्राण है वह विकेट गिरती है इसलिए है ।  समझो कि विकेट को सीमेंट से पक्का बना दिया जाय तो वह गिरेगी ही नहीं और विकेट गिरेगी ही नहीं तो खेल ही समाप्त हो जायेगा ।  फिर खेल कैसा? इसी प्रकार जीवन में मनुष्य की विकेट गिरती है  (वह मरता है) इसीलिए जीवन में आनंद है, स्वाद है ।  जीवन का आनंद इसी को कहते हैं    विकेट कीपर का महत्व, खेल का आनंद उसने संभाला है ।  इसीलिए उसे विकेट कीपर कहते हैं। ऐसा ही भगवान भी करते हैं।

मृत्यु यह जीवन में अटल घटना है ।  संशोधन करके अथवा औषधियों का सेवन करके मनुष्य रोग का प्रतिकार करने की शक्ति बढा सकता है, अथवा मृत्यु को किंचित टाल सकता है, परन्तुु मृत्यु यह निश्चित घटना है ।  वैसे तो प्राणायाम से भी आयु अल्प मात्रामें बढायी जा सकती है । ‘प्राणायाम द्वारा अमुक एक संख्यामें वासोच्छ्वास रोको’ इसका अर्थ जीवन की अविधि में जितने वास लेने है उनकी समय मर्यादा में वृद्धि हो सकती है, परिणाम स्वरुप उतनी मात्रा में अधिक आयु प्राप्त होती है, परन्तु आज नहीं तो कल जगत को छोडना ही होता है ।

तुम मृत्यु से छुटकारा पाओगे ऐसा कोई भी शास्त्र कभी भी नहीं कहता है ।जन्म से तुम छूट सकते हो यह शास्त्रीय बात है ।  जन्म से छूट गये यानी मृत्यु से निसर्गत: ही छूट गये । हममें स्थित वासना बंद हुई, शुद्ध हुई तो फिर से जन्म नहीं मिलेगा ऐसा होना संभव है,  तर्कयुक्त ( Logical ) है। शास्त्रीय             ( Scientific ) भी है ।  परन्तु जिसने जन्म लिया उसे जाना ही पडेगा यह सृष्टि का िनयम है ।  कृष्ण भगवान को भी यह नियम लागू होता है, फिर भले ही ‘उन्होने देहोत्सर्ग किया’ ऐसा कहो ।  ये महान लोग स्वयं देह को छोडते है, और हमारे जैसे लोगों को देह छोडकर चला जाता है, परन्तु सभी को अन्त में जगत्् से जाना तो पडता ही हैं।

जन्म को या तो रोक सकते है, बदल सकते हैं अथवा दैवी बना सकते हैं, ‘जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई’।  सामने दीख रही वस्तु ( Object ) का बुद्धिपर परिणाम होता है और उसके परिणाम स्वरुप यदि चाह-अनचाह ( Likes and dislikes ) हमने अपनी बुद्धि में निर्माण नहीं होने दिये तो पुनर्जन्म (Rebirth ) नहीं मिलेगा ।  इस रीति के भगवान का रुप पहिचानो । यह यदि पहचानेंगे तो मृत्युपाश तोड सकेंगे ।  मृत्यु का रुप मंगलकारी बनेगा । कबीर कहता है वैसा-
कर ले श््ंगार चतुर अलबेली साजन के घर जाना होगा ।
मिट्टी ओढावन मिट्टी बिछावन मिट्टी में मिल जाना होगा ।।
नहा ले धो ले शीश गुँथाले फिर वहाँ से नहीं आना होगा ।
कर ले शृंगार चतुर अलबेली साजन के घर जाना होगा ।।
मृत्यु यानी पति से मिलने जाना’ अर्थात जितनी उत्सुकता से स्त्री अपने पति से मिलने जाती है उतनी उत्सुकता रखना ।

सभी को मृत्यु का डर है और मृत्यु का डर सभी के पीछे लगा है । जगत में किसी को मृत्यु की अपेक्षा नही है ।  फिर भी मृत्यु किसी को छोडती नही है ।  भगवान श्री.ष्ण इस जगत में जन्मे, मगर उन्हे भी जाना पडा ।  हम, ‘भगवान निजधाम गये’ अथवा ‘भगवान ने लीला की’ ऐसा बोलते हैं ।  यह बात अलग है । जीवन में अमरत्व प्राप्त करना है ।  मृत्यु सभी को भयानक लगती है ।  ‘अब तो मृत्यु आएगी तो अच्छा’’ ऐसा बोलनेवाले भी ऊपर से ही बोलते हैं ।  इस सृष्टि से निराशा आनेपर लोग कहते हैं  ‘हमें भगवान अब क्यों उठाते नही?’ मगर वे ऐसा ऊपर ऊपर से बोलते हैं ।

भक्तजनों की भगवान के पास यही माँग है- विना दैन्येन जीवनं अनायासेन मरणम्’ जीवन दैन्यरहित होना चाहिए और मृत्यु अनायास आनी चाहिए ।  गीता में भगवान ने कहा है: प्रयाणकाले मनसा चलेन प्रयाणकाल में अचल मन से जाना चाहिए ।  जगत तो सभी को छोडना है, मगर जाते समय मन अचल रहना चािहए ।
मनुष्य को इहलेाक की मूर्खतापूर्ण आकांक्षा है ।  एक रुमाल यदि बस में भूल गये तो सारा दिन मन बैचेन रहता है ।  तो सब कुछ जगत में छोडकर जाते समय किती बैचेनी आती होगी? भगवान ने सृष्टि ऐसी बनायी है कि सभी को सब कुछ छोडकर जाना पडता है ।  उसकी योग्य रोकथाम होनी चाहिए अथवा मृत्यु की भयानकता कम की जानी चािहए ।
मृत्यु में भयानकता लगती है इसका कारण क्या है? मृत्यु होने पर जहाँ जाना है वह स्थान मालूम नहीं है ।  दूसरा वहाँ मेरा क्या होगा वह मुझे मालूम नहीं, क्योंकि मैने कुछ नहीं किया है ।  परदेश में किसीसे रिश्ता हुआ हो, मगर परदेशी चलन की व्यवस्था होने पर ही परदेश जाया जा सकता है ।  उसके सिवा परदेश नहीं जाया जा सकता ।  तो फिर परलोक से रिश्ता जोडा न हो, वहाँ के चलन की व्यवस्था न की हो तो कैसे परलोक जाओगे? पति-पत्नी साथ ही मर जांए तो भी परलोक में जाने के उनके मार्ग अलग होते हैं ।  रघुवंश में कहा है:
रुदता कुत एव सा पुनर्थवता नानुमृतापि लभ्यते ।
परलोकजुषां स्वकर्मभिर्गतयो भिन्नपथा हि देिहनाम् ।।(रघुवंश 8-85)
(रोकर भी तु उसे पुन: कहाँ से प्राप्त कर सकेगा? उसके पीछे मरकर भी तू उसे नहीं पा सकेगा क्योंकि मरे हुए प्राणियो की गति अपने अपने कर्मों के अनुसार भिन्न होती है।)

एक ही घर के दो आदमी साथ ही मर जाएं तो भी वे एक ही मार्ग से नहीं जाते ।  वे उत्क्रांतिवाद के नियम ़( Law of evolution) के अनुसार अपने अपने मार्ग से जाते है ।  मरने के बाद मेरा क्या होगा इसका क्या होगा इसका विचार आते ही मन बैचेन हो जाता है    जहाँ जाना है, वहाँ रिश्ता न जोडा हो तो हमारे खाने की व्यवस्था कौन करेगा ?  मुंबई से दिल्ली जाने में आनन्द कब आता है? दिल्ली स्टेशन पर अपने लोग लेने आए, रहने-खाने की अच्छी व्यवस्था हाें तो आदमी दिल्ली आनंद से जाता है ।  जिसकी ऐसी व्यवस्था नहीं होती वह दिल्ली जाते समय डरता है, मृत्यु की भी ऐसी ही भयानक समस्या है ।

मृत्यु निश्चित रुपसे भयानक लगती है, फिर मरनेवाला चाहे भक्त, ज्ञानी या अज्ञानी हो ।   मृत्यु भयानक है इसमें शंका नही है ।  मृत्यु की शीतलता काव्य में दिखाई देती है ।मगर वास्तव मे मृत्यु शीतल नही है ।  अत: कवि मृत्यु को रुपक देता है ।  मृत्यु की सबसे अधिक भयानकता यह है कि वहाँ मरनेवाले का क्या होगा! दुसरी बात यह है कि पौराणिकोंने नरक का वर्णन कुछ ज्यादा ही किया है ।  लोगों को ऐसा लगता है कि हम नरक में जाएंगे और वहाँ यमराज हमें भजिया की तरह तलेगा तो?  तीसरी बात, मृत्यु की अमांगलिकता की सतत पुनरुक्ति ( Hammering )   होती है ।  जैसे कोई मरा हो तो उसे छुआ नहीं जाता, क्योंकि मुर्दा अमांगलिक माना जाता है, उसके कारण मृत्यु भयानक लगती है ।

केवल गीता ही मृत्यु का अनुदर्शन करने को कहती है । गीता कहती है कि मृत्यु अमांगलिक नही है । सुबह उठने पर बिस्तर में ही मृत्यु का स्मरण करना चाहिए, मगर हम वैसा नहीं करते। गीता कहती है: ‘जन्ममृत्युजराव्यधि दु:ख दोषानुदर्शनम्’-जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि वगैरह का अनुदर्शन करना चाहिए ।  व्यावहारिक लोगों ने मृत्यु को अमांगलिक ठहराया है । शास्त्रकार मृत्यु को अमांगलिक नही ठहराते । आप बाहर जाने के लिए निकले हैं तभी सामने कोई मुर्दा दिखाई दे तो शकुन माना जाता है ।

कितने  ही लोग डर के कारण ऐसा मानते हैं कि मृत्यु का विचार ही नहीं करना चाहिए। मृत्यु में ऐसा क्या है? उसमें स्वयं अपनी ही विस्मृति है ।  उसके कारण मृत्यु का डर सताता है । वित्त, विद्या या कीर्ति के वैभव से  कोई बडा वैभव होगा तो वह ‘मै हूं’ का वैभव है    मृत्यु  में ‘मैं हू’ यही चला जाता है।  एकाध आदमी को रात में स्वप्न आता है कि उसे सिंह फाडकर खाता है ।  उसे पसीना छूट जाता है इतने में उसकी आंखे खुल जाती है ।  आँख खुलते ही उसे किसी चीज का आनन्द होता होगा तो वह ‘मै हूं’ का होता हैै ।  वह आनन्द सबसे बडा है । मृत्यु में वह आनंद चला जाता है ।  इसलिए मृत्यु भयानक लगती है । मृत्यु की भयानकता खत्म करने के लिए जहाँ जाना है वहाँ सम्बन्ध होना चाहिए ।  दूसरे में, वहाँ सारी व्यवस्था होनी चाहिए । ‘अनायासेन मरणम्’ मरण अनायास होना चाहिए, उसके लिए रास्ता दिखाओ ।

मृत्यु ही एक ऐसी घटना है जिसका विचार करने से जीवन का सच्चा अर्थ मालूम पडता है । तुम्हे जीवन समझना हो तो मृत्यु को समझना होगा ।  तुम जब तक मृत्यु को समझ नहीं पाते तब तक जीवन को भी समझ नहीं पाओंगे ।  मृत्यु अति आवश्यक बात है ।  मगर वह किसी को नहीे चाहिए इसलिए सभी को उससे नफरत है ।  प्रयाणकाले मनसाचलेन - अचल अन्त:करण से मनुष्य को प्रयाण करना है ।

मन की चंचलता भीति और भोग से आती है ।  जहाँ भोग ज्यादा होते हैं वहाँ चंचलता प्रभावी होती है ।  मनुष्य को भोगांक्षा होती है, जिसे मोटर, बंगला, पत्नी वगैरह छोडकर जाना पडता होगा उसकी स्थिति कैसी होगी? जो स्थिति से गुजरे हैं वे अपनी स्थिति कहने के लिए आते नहीं, यह दु:ख की बात है ।  यह बात सच है कि इन सब को छोडकर जाना कठीन है ।

मरते समय चंचलता रहती है और गीता कहती है अचलेन मनसा-मन अचल होना चाहिए । एक बार एक वृद्धा अंतिम साँसे ले रही थी तब उसको हेमगर्भ (सुवर्ण) की एक मात्रा दी गई, ताकि उसे यदि कुछ अंतिम कहना हो तो कह सके ।  होशमें आने पर उसने देखा कि दीपक की बत्ती अधिक बढी हुइ है इसलिए  उसने कहा बत्ती तनिक कम कर दो।’  ‘बत्ती अधिक बडी होने से तेल अधिक जल रहा है’ यह बात उसके ध्यान में आयी ।  अर्थात् इस बात में उसका मन अचल था ।  प्रयाण काल में मूर्खों का भी मन अचल होता है परन्तु देह त्याग करते समय जो भगवान का और भगवद्कार्य का चिंतन करता रहता है, वही अचल मनवाला है, ऐसा गीताकार का कहना है । गीता कहती है कि मन अचल रहना चाहिए, परन्तु वह किस प्रकार अचल रहना चाहिए? तो भक्त्यायुक्त: भक्ति से युक्त अचल होना चाहिए, मूर्खता या अज्ञानता से नहीं ।  तू भक्त्यायुक्त: भक्तिपूर्वक तप करता होगा, प्रभुका कार्य करता होगा और प्रभु के निमित्त घिसता होगा तो मन अचल होगा ।

किसी भी स्थिति और समय में जो भगवान को नहीं छोडता और जो भक्ति रस से आद्‍र्र हो गया है, जिसने जीवन का रस नहीं खोया है, उनका अन्तकाल होता है ।  वाल्मीकि, याज्ञवल्क्य और वशिष्ठ जैसोंका अन्तकाल और शंकरलाल, रामलाल, गोविंदभाई आदि सर्व साधारण मनुष्योंका प्रयाणकाल कहलाता है ।  जो अन्तकाल में गया वह वापस आनेवाला नहीं है ।यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।’

मृत्यु की भयानकता निकालनी है ।  इतना ही नहीं, मृत्यु को जीतना है । मृत्यु को आमने सामने ( Face to face ) देखना है, और उसका रुप बदलना है ।  इस बात को हम मानवी जीवन में ही कर सकते है ।  ‘अतिमृत्युमेति नान्य: पन्था: विद्यतेनाय’ अन्त मे, मानव का मन तथा बुद्धि ही मृत्यु का करनेवाले हैं ।  उन्हे मृत्यु का डर नहीं लगना चाहिए ।

मृत्यु के सामने मन तथा बुद्धि को ले जाना है ।  उनकी छाती में हिम्मत खडी करनी चाहिए ।  हमारे शास्त्रकारोंने कहा है कि मन और बुद्धि को रोज पंचामृत से स्नान कराना चाहिए । हम भगवान को पंचामृत से स्नान कराते है । मगर पंचामृत तैयार करती है घरवाली तथा स्नान कराता है पुरोहित महाराज और सेठ तो गद्दी पर बैठा रहता है ।

ज्ञान, ऐश्वर्य, बल, धैर्य तथा तेज ये पाँच मिलकर पंचामृत होता है । इस पंचामृत से मन तथा बुद्धि को स्नान करायेंगे तो मन बुद्धि में हिम्मत आएगी। मृत्यु को जीतने का कौनसा मार्ग है? तो कहते हैं : ‘तमेव विदित्वा’ उसे (परमेश्वर को) जानना चाहिए, परन्तु उसे कौन जान सकता है? जिसने इसे अग्नि के रुप में देखा, जिसने इसे जल में देखा, वही इसे जान सकता है ।  वही अविद्या को जलानेवाला है ।  यह बात दृढ होनी चाहिए ।  भगवान ने गीता में कहा है:
दैवी हेषां गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।।(गीता 7-14)
(इस दैवी त्रिगुणोंयुक्त मेरी माया को दु:ख से अवश्य पार किया जा सकता है ।  जो मेरी शरण में आते हैं वे माया पार करते हैं)

एकाध कुत्ता जब काटने आता है तब उसके साथ झगडना बुद्धि शून्य आदमी का काम है । बुद्धिशाली आदमी कुत्ते के मालिक को हाक मारता है ।  वह आकर कुत्ते को मना करे तो कुत्ता काटता नहीे । इसीतरह माया मुझे तकलीफ देती हो तो मुझे उसके साथ झगडना नहीे है ।  तमेव विदित्वा जिसकी माया है उसे बुलाओ यदि वह माया से कह देगा तो माया तकलीफ नहीे देगी । अविद्या तकलीफ देती हो तो उसके मालिक को हाक मारो वही अविद्या का नाश करेगा ।

अन्त:करण के विशुद्ध बननेपर भगवान उसमे बसते है ।   हमारे अन्तकरण मेे (हृदय मेे) भगवान हैे ।  मगर परिपूर्ण रुप से नहीे है ।  क्यों? सलिले संनिविष्ठ: शुद्ध अन्त:करण में भगवान बसते हैं ।  उसके लिए अन्त:करण की शुद्धि आवश्यक है ।  प्रथम अन्त:करण शुद्ध होना चाहिए, उसे तेजस्वी बनाना चाहिए और दैवी बनाना चाहिए ।

भगवान को जानना है, मगर उसे कौन दिखायेगा? इसके लिए दो विचार प्रभावी हैं ।  एक कोई मुझे भगवान दिखाएगा और दूसरा मेरा भाग्य खुलेगा तब भगवान मेरे पास आयेंगे । मुझे कोई भगवान दिखाएगा ऐसा समझकर भगवान दिखानेवाले के पीछे लोग भागते हैं । ‘फलाना भगवान दिखाता है’ समाधि लगता है’ ऐसा कितने ही लोग कहते हैं । उनसे कहना चाहिए कि समाधि तुझे लगानी है, उसे नहीं ।  ये लोग मूर्ख होते हैं वे सुनते नहीं ।  सट्टे में पैसे कमानेवला आदमी व्यापार नहीं कर सकता, इसका कारण उसे पैसे जल्दी चाहिए । उसे धीमे धीमे पैसे मिलना अच्छा नहीं लगता ।  हम भी सट्टेवाले की वृत्ति के हो गये हैं ।  हमें गीता की प्रगमनशील विचार धारा (Progressive idealism) मान्य नहीं है ।  हम भगवान दिखानेवाले को ढूढ रहे हैं ।  परन्तु हम यह विचार नहीं करते कि क्या भगवान प्रदर्शन की वस्तु है? ‘मुझे कोई भगवान दिखाएगा’ ऐसा मनानेवाला एक वर्ग है ।  दूसरा एक वर्ग है जो ऐसा मानता है कि मेरा भाग्य खुलेगा तब भगवान मुझे दर्शन देंगे ।  इन दोनो विचारो से मानवी जीवन खोखला बन गया है ।  जिसका जीवन खोखला है वह भगवान के पास नहीं जा सकता ।  कृष्ण भगवानने गीता गायी है ।  गीता ही एक ऐसा ग्रंथ है जो आदमी को कमजोर नहीं बनाता । 

भगवान को माननेवाले काफी लोग हैं मगर गीताने एक बात बहुत अच्छी तरह से कही है कि भगवान तुम्हारे लिए काम नहीं करते बल्कि तुम्हारे साथ काम करते हैं (He does not work for you, He works with you )   सभी को लगता है कि भगवान मेरे लिए कुछ करें मगर गीता कहती है कि तुम कुछ करोगे तो वह आएगा ।  वह तुम्हारे साथ काम करता है यह पक्तिं रेखंकित करने जैसी है ।  इसमें गीता के सारे तत्वज्ञान का पता चलता है ।

इसका अर्थ ऐसा नहीं कि भगवान की मदद के बिना तुम आगे बढ सकते हो ।  वह तुम्हारे साथ काम करता है ।  (He works with you) इसलिए उसे अगर सक्रिय (Active) करना होगा तो तुम्हे भी सक्रिय बनना पडेगा ।  ‘ऋते श्रान्तस्य न सख्याय देवा:’ मेहनत किये बिना भगवान सख्य नहीं रखता ।

अन्तकरण: शुद्ध बनना बहुत बडी बात है ।  भगवान को पहचानने का प्रयत्न करना है । हम पुराण पढते हैं मगर गीता नहीं पढते ।  इसका कारण गीता प्रत्येक को साधना करने को कहती है । पुराण कहते हैं कि मरते समय ‘नारायण’ बोलोगे तो यमदूत की जगह विष्णुदूत आयेंगे पूराणें में मुक्ति सहज मिलती है, ऐसा समझकर लोग पुराण पढते हैं ।

मृत्यु रुपी संसार समुद्र में अमरत्व की प्राप्ती कैसे हो सकती है? इस विषय में ऋषि हमें समझाते हैं सृष्टिमें जन्मे सभी मरणशील हैं ।  यहाँ की हवा ही ऐसी है कि स्वयं भगवान भी यहाँ आएं तो उनको भी जाना पडेगा ।  जो भी नियम है उनका पालन स्वयं भगवान भी करते हेै । ऐसे मरणशील संसार मेे अमरत्व की प्राप्ती कैसे हो सकती है ।

ऋषि तो आत्मविश्वास से कहते हैं कि यही एकमेव रास्ता है । तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति-उसे जानकर अमृतत्व की प्राप्ती हो सकती है । उसे जानना चाहिए ऐसा पहले कहते हैं ।  यह रीढ की ही है ।  इसलिए परिश्रम करके पहले तुम्हे भगवान को जानना पडेगा । जिसे जानने के बाद व्यक्ति को अमृतत्व मिलता है वह ब्रम्ह है ।  ब्रम्ह जानने के बाद व्यक्ति अमर बन जाता है ।  वास्तव में आत्मा तो अमर है ही, गीता के दूसरे अध्याय में भी भगवानने  आत्मा को अमर कहा है:
अच्छेद्योयमदाहोयमक्लेद्योशोष्य एव च ।
नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोयं सनातन: ।।
                       (गीता 2-24)
(आत्मा शास्त्रों से नहीं छेदा जा सकता, अग्नि से जलाया नहीं जा सकता, पानी से भिगाया नहीं जा सकता, पवन से सुखाया नहीं जा सकता, क्योंकि यह आत्मा नित्य, सर्वत्रव्याप्त, स्थिर अचल और सनातन है)
आत्मा अमर है, मगर देह के संपर्क से वह मरणशील लगता है । शरीर से हम पृथक््  हैं इसके अनुभव की कल्पना ज्ञान से आती है, तब आत्मा मरणशील है यह विचार मन से निकल जाता है ।  ज्ञान के अलग अलग परिणाम होते हैं ।  शरीर से पृथक् अस्ति, जायते, वर्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यते- होना, जन्मलेना, बढना, जवान होना, वृद्धत्व आना और मृत्यु, देह के ये छ: विकार हैं ।

जो अनात्मा हैं उसे ये षड्भाव लागू होते हैं ।  हमारे शरीर पर ये षड्भाव लागू होते हैं । इन षड्भाव युक्त शरीर से मैं पृथक्् हूँ ऐसा यदि आदमी को लगा तो यह बडी बात है । यज्ज्ञात्वा मृतमनुते- यहाँ दो बातें समझायी है ।  पहली बात यह है कि मैं शरीर से पृथक हूँ ऐसा मनुष्य को लगे और दूसरी बात मनुष्य में रहा मृत्यु का डर निकल जाए ।  अमृतमनुते यानी उसकी मृत्यु आएगी परन्तु मृत्यु का डर नहीं रहेगा ।  गीता में कहा है: ‘जातस्य हि धु्रवो मृत्युर्धुवं जन्म मृतस्य च’ ।  एकाध अत्यंन्त प्रभावशाली आदमी के मरने पर उसे हम मरा नहीं कहते बल्कि उस दिन को हम ‘पुण्यतिथि’ कहते है’ ।  हमारे यहाँ भी  .ष्ण जयंती के समान ही मान्य नेताओंकी जयन्ती मनाते हैं। कृष्ण और राम की जयन्ति होती है किन्तु उनका मृत्यु दिन नहीं होता और उनका किसी के साथ विलय (Merging) भी नहीं है , क्योंकि वे भगवान का स्वतंत्‍र्य रुप लेकर आये थे ।

तुकाराम महाराज, ज्ञानेश्वर महाराज जैसे सन्तों की पुण्यतिथि होती है, जिस दिन यह शरीर छोडकर इन पुण्यात्माओं का चैतन्य प्रभु में विलीन हो गया वह उनकी पुण्यतिथी कहलाती है । उनका मरण नहीं है।  जो मरते हैं उसका पुनर्जन्म होता है, परन्तु जो मरा नहीं , विलीन हो गया उसको पुनर्जन्म नहीं है । इसलिए हमारे देश में सन्तो की जयन्ती नहीं मनाते हम केवल राम और .ष्ण की जयन्ती मनाते हैं ।  लोगों को उसमे का सात्विक रहस्य-भेद मालूम न होने से वे कहते हैं कि राम की जयन्ति मनाते हो तो हमारे नेताओं की क्यों नही?
जीवन के अन्दर दो प्रवाह है ।  एक भोग का प्रवाह है दूसरा दैवी जीवन का प्रवाह है । भोग का प्रवाह व्यावहारिक जीवन का प्रवाह है ।   खाना-पीना, स्त्री, वित्त, लडके, लडकियाँ, जवांई वगैरह सब व्यावहारिक जीवन में आता है ।

दूसरा एक दैवी जीवन है ।  दैवी जीवन में मनुष्य को किसी के लिए आदर होता है । करुणा, शुचित्व ये सारी बातें दैवी जीवन में आती है ।  मनुष्य को शुचिता अच्छी लगनी चाहिए तथा उसे उठाना चाहिए ।  मनुष्य को स्वच्छ जीवन जीने की आसक्ति लगनी चाहिए । कृतज्ञता भी दैवी जीवन में आती है ।

व्यावहारिक जीवन यजज्ञात्वा भगवद्तत्व को जाने बिना भी हो सकता है ।  मगर दैवी जीवन यज्ज्ञात्वा के बिना नहीं हो सकता है ।  अमृतमनुते उसे जानकर मनुष्य अमृत बन जाता है । ये सभी महत्वपूर्ण बाते हैं ।  यह केवल गीता का ही कहना नहीं है बल्कि उपनिषद्, महात्माओं और संतो का भी यही कहना है ।  इसीलिए तुलसीदासजी कहते हैं, ‘अन्तकाल रघुवर पुर जाई जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई।’

अमरत्व, अजरत्व और अभयत्व- इन तीन बातों से दैवी जीवन बनता है । भगवद्तत्व जानने के बाद ही ये तीन बातें आयी है ।  अमरत्व अर्थात् मरने का डर समाप्त हो जाएगा ईशाभिलाषा अविनाशी रहेगी ।  श्रद्धा का दीपक पल पल मे बुझ जाता है ।  शुरुआत मे दो चार बार आदमी भगवान  का काम करता है फिर उसकी श्रद्धा के दीपक को कोई फूँक मारे तो दीपक बुझ जाता है । कौन फूँक मारेगा कहा नहीं जा सकता ।  पडोसी, मित्र अथवा घरवाली भी फूंक मारे तो भी श्रद्धा का दीपक बुझ जाता है । हमें अपनी श्रद्धा का दीपक सँभालना है ।

यहाँ दैवी जीवन प्रवाह की मांग है ।  जो अन्दर है उसीको उद्दिपित करना है, पुष्ट करना है, और उसे मोड देना है । दूसरी बात आदर ( Reverence ) है ।  किसके प्रति कितना आदर और कैसा आदर रखना चाहिए इसका विचार करना चाहिए ।

किसी को अभिनेता के प्रति आदर होता है, किसी को क्रिकेट के खिलाडी के प्रति आदर होता है । तुम्हारे आदर का स्थान जितना छोटा होगा उतना ही तुम छोटे रहोगे ।  जितना तुम्हारे आदर का स्थान उच्च होगा उतने ही तुम उच्च होंगे ।  आदर, .तज्ञता, शुचिता, प्रेम वगैरह से अन्दर के जीवन प्रवाह को पुष्ट करना चाहिए, प्रभावी करना चाहिए और उसे मोड देना चाहिए ।

साधक की ईशाभिलाषा अविनाशी होती है हमें भगवान प्राप्त करने की इच्छा होती है । श्रावण मास की शुरुवात में सभी को भगवान की इच्छा होती है ।  सभी बिल्वपत्र चढाते हैं, उपवास करते हैं, रोज नहाकर शंकर के मंदिर में दर्शन करने जाते हैं, परन्तु उनकी ईशाभिलाषा अविनाशी नहीं है बल्कि विनाशी है।  वह अधिक समय तक नहीं टिकती ।  जो अभिलाषा किसी भी परिस्थितिमें किसी भी वृत्ति में टिकी रहती है और बढती है तो वह अविनाषी है ।

ईशभिलाषा सुख में रहती है, दु:ख में रहती है, बचपन में रहती है, यौवन में रहती है, बुढापे में रहती है, संपत्ति आए या विपत्ति आए तो भी ईशाभिलाषा अविचल रहती है, उसे अविनाशी ईशाभिलाषा कहते हैं ।  इस प्रकार की ईशाभिलाषा जिसके जीवन में रहती है उसके लिए तुलसीदासजी लिखते हैं कि वह भगवान के धाम जाता है, ‘अन्तकाल रघुवर पुर जाई, जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई ।’  इसलिए हमें ऐसी ईशाभिलाषा को जीवनमें लाने का प्रयत्न करना चाहिए ।

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