Monday, July 4, 2011

चौपाई:- जो शत बार पाठ कर कोई । छूटहि बंदि महा सुख होई ।।  (38)
अर्थ : जो कोई इस हनुमान चालीसा का पाठ करेगा वह सब बन्धनों से छूट जायेगा और उसे परमानन्द मिलेगा ।
गूढार्थ : तुलसीदासजी ने लिखा है कि जो सौ बार हनुमान चालीसा का पाठ करेगा उसे सब बंधनो से मुक्ति मिलेगी तथा सुख की प्राप्ति  होगी । यहाँ पर तुलसदासजी ने जो ‘शत बार’ शब्द का प्रयोग किया है, ‘शत बार’ यानी बार-बार ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ करना चाहिए यह अभिप्रेरित है । गोस्वामी तुलसीदासजी का अभिप्राय यह है कि हनुमान चालीसा में भक्त श्रेष्ठ हनुमानजी का जो चरित्र चित्रण है उसका स्वाध्याय बार बार करना चाहिए । केवल पाठ करने से क्या होगा? पाठ करने से अवश्य वाणी पवित्र होगी, किन्तु स्वाध्याय करने से जीवन का दृष्टिकोण बदलेगा और फिर सब बंधनों से मुक्ति मिलेगी । जो ग्रंथ पढना है उसके प्रति आत्मीयता और आदर होना चाहिए तभी संस्कार होंगे ।  हनुमान चालीसा पढते समय हनुमानजी कैसे हैं? हनुमानजी के विविध गुणों को जानकर-पहचानकर सभी बंधनों से मुक्त हो सकते हो ।  तुमको जो पाश (बंधन) लगे हुए हैं उनसे मुक्त हो सकते हो ।

व्यावहारिक जीवन में पारिवारिक लोगों के लिए मुक्ति यानी दु:ख, दैन्य व दारिद्रय से मुक्ति । प्रत्येक व्यक्ति परेशान है । उसकी परेशानी कौनसी है? दु:ख! कुछ दु:ख आये हुए हैं और कुछ आनेवाले हैं । उनकी विवंचना-भ्रम यही व्यक्ति का दु:ख है।  इस दु:ख से मुक्ति चाहिए ।  इसलिए भक्ति की किसी भी अवस्था में नितांत आवश्यकता है ।  दु:ख से मुक्ति का अर्थ दु:ख आयेंगे ही नहीं ऐसा नहीं है । दु:ख लगेगा ही नही । दु:ख आना अलग बात है दु:ख लगना अलग बात है । जीवन का दृष्टिकोण (Out look) बदलेगा तो दु:ख आयेगा पर लगेगा नही ।दु:ख, दैन्य और दारिद्रय को निकालना पडेगा । उसके लिए स्वाध्याय करना चाहिए ऐसा गोस्वामीजी का अभिप्राय है ।

गीता, रामायण और हनुुमान चालीसा क्या है किसलिए है इसे समझने के लिए बार बार इन ग्रंथोंका पठन, श्रवण, मनन तथा स्वाध्याय करना चाहिए ।  प्रतिदिन बुद्धि पर स्वाध्याय रुपी हथौडे की चोट पडनी चाहिए तभी बुद्धि शुद्ध रहती है । शरीर को शुद्ध-स्वच्छ रखने के लिए जिस प्रकार आजीवन स्नान आवश्यक है उसी प्रकार बुद्धि को भी ‘स्वाध्याय सरिता में बार बार स्नान कराना आवश्यक है ।  विचार समझने के बाद भी बार बार स्वाध्याय करना चाहिए नहीं तो जिस प्रकार खाली पडे हुए लोहे पर जंग चढ जाती है और यदि जंग निकालना हो तो उसे मिट्टीके तेल में भिगोये रखना पडता है । इसी प्रकार बुद्धि को स्वाध्याय के तेजस्वी विचारों में सतत भिगोना पडता है । स्वाध्याय में हमें अपने मनको पहचानना सीखना है । स्वाध्याय अर्थात् मन और बुद्धि की गढाई करना । हम किसी दिन मन का विचार ही नहीं करते है ।  मनके अध्ययन द्वारा अपने विकारों को पहचानना और पहचानकर उनको हटाते जाने का नाम ही ‘अध्यात्म’ है । इसीलिए तुलसीदासजी ने ‘शत बार’ यानी बार बार शब्द का प्रयोग किया है ।  विचार और आचार इन दोनों का प्रतीक वाणी है ।  केवल पठन ही पयाप्त नही है शुभ आचरण भी होना चाहिए ।

यह शरीर भगवान का है ।  इस शरीररुपी क्षेत्र में क्या बोना है यह हमें निश्चित करना है । मनुष्य सचमुच बडा चालाक है ।  उसको पहचानना कठीन है । ज्ञानेश्वरी, गीता, रामायण आदि के सामने सिर झुकायेगा, परन्तु उनके अनुसार आचरण नही करेगा ।  शुभ आचरण अपेक्षित है ।

गुजराती भाषा में प्रथम पाठ और फिर पूजा करने को कहते हैं । ‘पाठ पूजा’ शब्द गुजाराती भाषा में रुढ बन गया है । प्रथम पाठ- स्वाध्याय का महत्व है । आज घर-घर में हनुमान चालीसा का पाठ होते ही है । परन्तु पाठ यानी स्वाध्याय! हम पाठ करते हैं परन्तु स्वाध्याय नही करते ।  पाठ के साथ-साथ अच्छा साहित्य लेकर उसका स्वाध्याय करना चाहिए । वह प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है ।  भक्ति का अर्थ यह है कि उसका मन और बुद्धि पर परिणाम होना चाहिए। मन और बुद्धि पर परिणाम होने के लिए अच्छा साहित्य पढना चाहिए ।
‘हनुमान चालीसा’ पढकर भी यदि मनुष्य मे निर्भयता, .तज्ञता, भावमयता, .तिप्रवणता, अस्मिता आदि गुण नही आये तो उसने ‘हनुमान चालीसा’ पढा है ऐसा कैसे कहा जाएगा? तात्पर्य यह केवल पाठ पढने से प्रकाश नहीं आता ।  बुद्धि कामनाग्रस्त होगी तो उस बुद्धि में प्रकाश नहीं पडता है ।  कामना रहित बुद्धि में प्रकाश आता है । ‘नही चाहिए’ का सुख यानी पाश (बंधन) से मुक्त होने का सुख!

आज हम मानते हैं कि भक्ति से मन बदलेगा, परन्तु भक्ति का अर्थ क्या है? जप करना, उपवास करना अथवा नवरात्रि में रात भर गरबा खेलने जाना इतना ही अर्थ हम समझते हैं ।  भक्ति का परिणाम मन पर होना चािहए, जीवन के दृष्टिकोण पर होना चाहिए । जीवन, वित्त, व्यक्ति, घर-गृहस्थी, कीर्ति इनकी ओर देखने के दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता है । यह दृष्टिकोण बदलने का नाम भक्ति है । हमने तिलक लगाया है या नही यह स्वतंत्र बात है ।  तिलक लगाना ही चाहिए यह बुद्धि की पूजा है, परन्तु दृष्टिकोण बदला है या नही, अथवा बदलने जीवन के दृष्टिकोण पर होना चाहिए । जीवन, वित्त, व्यक्ति, घर-गृहस्थी, कीर्ति इनकी ओर देखने के दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता है । यह दृष्टिकोण बदलने का नाम भक्ति है । हमने तिलक लगाया है या नही यह स्वतंत्र बात है ।  तिलक लगाना ही चाहिए यह बुद्धि की पूजा है, परन्तु दृष्टिकोण बदला है या नही, अथवा बदलने की कुछ कोशीश चल रही है यह भक्ति में प्रथम बात है । जीवन का दृष्टिकोण बदलना चाहिए ।  सद्विचार से आचार बदलता है और आचार से जीवन बदलता है । जिस प्रकार शरीर से वस्त्र बडा होना चाहिए वैसे आचार से विचार बडे होने चाहिए ।

विचारों का बहुत बडा प्रभाव पडता है ।  इसलिए कुविचार के आनेपर मन के अध:पतन में देर नही लगती और सुविचार स्थिर रहे तो मन की उध्‍र्वगति में समय नही लगता । विचार में इतनी शक्ति है । इसलिये अच्छे विचार आये कि प्रगति होगी ही, इसमे संदेह नही है ।  विचार यह बडी शक्ति है ।

मनुष्य को प्रामाणिक विचारों तथा प्रामाणिक वाणीका बनना चाहिये । ऋषि कहते हैं ‘वाच:सत्यम्’ अर्थात् भगवान! मै प्रामाणिक वाणी का बनूँ, सत्य बोलने वाला बनूँ ।  सचमुच! तुम सत्य विचार करो और सत्य बोलो, तो तुम कह नही सकोगे कि तुम अपनी शक्ति से चलते हो ।  तुम खाते है सच, तुम बोलते है यह भी सच, परन्तु तुम ठीक से विचार करोगे तो तुम्हे लगेगा कि तुम्हे कोई तो भी चलाता है, खिलाता है और तुमसे कोई  बुलवाता है ।  इसलिए ऋषि जगज्जननी को कहते है, माँ! मेरी विचार संपदा पर तुम्हारा सच्चा और प्रामाणिक छत्र रहने दो और मेरे विचार सच्चे और प्रामाणिक रहने दो ।

विचारों से मनुष्य बदलता है और विचार शब्दों से व्यक्त होते है ।  शब्द में ऐसी शक्ति है । ‘अस्य शब्दस्य अयमेव अर्थ: इति ईश्वरेच्छा संकेत: शक्ति:’ हमारे वैयाकरणी लोग ‘स्फोट’ को ब्रम्ह मानते है ।

एक राजा था ।  उसके दरबार में एक कवि आया करता था और राजा को कविता सुनाता था ।  उस कवि का छोटा भाई भी कवि था ।  एक दिन कवि को बाहर गाँव जाना पडा ।  उसने अपने छोटे भाई को राजदरबार में जाने को कहा । जब छोटा भाई दरबार में गया तो राजा ने पूछा‘ आज कौन लडका आया है?’ राजा को कहा गया कि यह अपने कवि का छोटा भाई है और यह भी कवि है ।  राजाने कहा ऐसा? तो फिर उसे जो कविता सुनानी हो वह सुनायें।’
कवि ने कहा,‘राजा साहब! मैं कविता सुनाऊँगा परन्तु आपको हाथ धोकर बैठना होगा ।’
राजाने कहा,‘क्यो? मैं हाथ क्यों धोऊँ ?  कविने कहा, ‘आप नाराज नही होंगे तो कहता हूँ ।’
राजाने कहा, ‘कहो ।’
कवि बोला, ‘महाराज! ‘आपने आज तक केवल शृंगार सुना है और शृंगार की जुगाली की है ।  अत: आपके हाथ से बिना शृंगार के दूसरा कुछ हुआ नही है ।  ऐसा, केवल शंृंगार में डूबा हुआ हाथ आपके जैसे महान व्यक्ति की मूँछों पर गया तो मुझसे सहन नही होगा ।  इसलिए आप हाथ धोकर बैठें ।
राजाने पुछा, ‘तेरी कविता मे ऐसा क्या है कि मेरा हाथ मूँछोंपर जायेगा?’
कविने कहा, ‘मै गाने लगूँगा तब आपका हाथ मूछोपर जायेगा ही ।  अत: आपका हाथ स्वच्छ होना चाहिए ।
राजाने कहा, ‘तेरी कविता में ऐसा भी क्या है और यदि मेरा हाथ मूँछोंपर नही गया तो?’ ‘मेरी गर्दन उडा देना’ कविने कहा ।
ऐसा स्वीकृत होने पर राजा ने हाथ धोये । उसको लगा कि इस घमण्डी पण्डित का घमण्ड उतारना चाहिए ।  ऐसा निश्चय करके राजाने अपने हाथ पीछे रखे, जिससे भूल से भी हाथ मूँछोंपर न जाएँ ।  उसके बाद कविने प्रारंभ किया । कविने वीररस प्रकट करनेवाले काव्यों का गायन किया । राजा राजपूत था ।  पाँच मिनट में ही वह कवि के काव्य में तल्लीन हो गया और यकायक राजा का हाथ मूँछपर गया ।  राजा को इसका भान ही न रहा ।  वह कविपर खुश हुआ और उसको इनाम दिया । कहने का तात्पर्य यह है कि शब्द में शक्ति है, वाणी में सामथ्‍र्य है ।  परन्तु आज किसी को वाड़मय अच्छा नही लगता । ‘भाषा चाहिये’ ऐसा नही लगता ।  आज का मनुष्य यंत्रशक्ति की धुन में शीघ्र गति से गया तो मुझे लगता है कि विश्वविद्यालयों ़(Universities) मे वाड़मय शाखा के व्यक्ति मिलेंगे ही नही, क्योंकि (Arts faculty) किसी को भी नही चाहिए ।  सबको रुपये, पैसे चाहिये ।  वाड़मय की शाखा अर्थात केवल गीता, रामायण ही नही ।  समाज को -राष्ट्र को अच्छे अर्थशास्त्री और राजनीतिज्ञ चाहिये या नही? उनको कहाँसे लायेंगे? एस.एस.सी. में लडको को 45 प्रतिशत अंक मिले होंगे तो भी पिता उसको सायन्स की शाखा में भेजना चाहता है ।  ऐसे पिता को कुछ अक्ल है? लडके को सभी विषय भाषा विभाग के हो फिर भी उसको सायन्स की ओर ही जाना चाहिये । ऐसे गतानुगतिक होने के कारण पागल के समान प्रवाह-पतित बनकर बहते जा रहे है ।  वाड़मय शाखा को जला डालोगे तो मनुष्य जल जायेगा ।

भाषा यह बहुत बडी समृद्धी है, शक्ति है ।  मनुष्य भाषा से सुधरता है और विचारों से बदलता है ।  कानून से मनुष्य न सुधरता है न बदलता है । कानुन से मनुष्य को कैसे सुधारेंगे? कानून द्वारा शब्द का उल्टा सुलटा अर्थ किया जा सकता है ।  इसमे क्या है?  कानून बनाया और उसकी स्याही सूखती है, न सूखती है इतने में उसको तोडने के सभी रास्ते बन जाते हैं ।  शेक्सपियर के ‘मर्चन्ट ऑफ व्हेनिस’ नाटक में पोर्शिया कानून का आधार लेकर कहती है कि मेरे मुवक्किलका माँस रक्त की एक भी बूँद गिराये बिना ले सकते है, क्योंकि दस्तावेज में रक्त देने की बात नही लिखी है ।  कानून में शब्द का ही अर्थ निकालकर सब व्यवहार चलता है । अत: कानून से मनुष्य नही सुधरेगा ।  सुधार करना हो तो बचपन से ही मनुष्य पर प्रामाणिक व सच्चे विचारों के संस्कार करने चाहिये ।

तुलसीदासजी ने जो लिखा है, ‘जो शत बार पाठ कर जोई’ यानी बार बार सद्विचारोंका स्वाध्याय करना चाहिए । ‘शतबार’ यानी बार-बार ।  हम व्यवहार में भी बोलते है कि मैने तुझे सौ बार कहा फिर भी तू मेरा कहा नही मानता । यहाँ पर हम सौ बार शब्द का जो प्रयोग करते हैं उसका अर्थ बार-बार ही होता है, उसी प्रकार तुलसीदासजी ने जो ‘शतबार’ शब्द प्रयोग किया है हमें उसको उसी अनुरुप लेना चाहिए ।
‘हनुमान चालीसा’ मे छुपे हुए गूढ अर्थ को समझनेका प्रयत्न करना चाहिए ।  हनुमत चरित्र पर बार बार चिन्तन करना चाहिए ।  तथा उसके अनुरुप जीवन को बदलने का प्रयत्न करना चाहिए ।  तो ही हमे सब बंधनों से मुक्ति मिलकर परम आनन्द की प्राप्ति होगी ।  इसीलिए तुलसदासजीने लिखा है, ‘जो शत बार पाठ कर कोई, छुटहि बंदि महा सुख होई।’

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