Sunday, July 3, 2011

चौपाई:-नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरन्तर हनुमत बीरा।। (25) Hanuman Chalisa

चौपाई:-नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरन्तर हनुमत बीरा।।  (25)


अर्थ : वीर हनुमानजी! आपका निरंतर जप करने से सब रोग नष्ट हो जाते हैं और सब कष्ट दूर हो जाते हैं।
गूढार्थ : तुलसीदासजी लिखते हैं कि हनुमानजी का जप करने से रोग, भय विकार इत्यादि का नाश हो जाता है । रोग, भय विकार इन तीनों से जीवन त्रस्त बनता है । इसलिए इन तीनों से मुक्ति चाहिए । रोग मुक्ति यह शारीरिक मुक्ति का लक्षण है, भय और विकार मुक्ति मानसिक मुक्ति के लक्षण हैं । व्यावहारिक जीवन में पारिवारिक लोगों के लिए मुक्ति यानी दु:ख दैन्य व दारिद्रय से मुक्ति । प्रत्येक व्यक्ति परेशान हैं । उसकी परेशानी कौनसी है? दु:ख कुछ आये हुए है और कुछ आनेवाले है । उनकी विवंचना-भ्रम यही व्यक्ति का दु:ख है । इस दु:ख से मुक्ति चाहिए इसलिए भक्ति की किसी भी अवस्था में नितांत आवश्यकता है । दु:ख से मुक्ति का अर्थ दु:ख आयेंगे ही नहीं ऐसा नही है । दु:ख आयेगा पर दु:ख दु:ख लगेगा नहीं ।  दु:ख आना अलग बात है और दु:ख लगना अलग बात है । जीवन का दृष्टिकोण (Outlook) बदलेगा तो  दु:ख आयेगा पर लगेगा नहीं ।  दु:ख, दैन्य, दारिद्र, रोग को निकालना पडेगा।

जैसे शारीरिक आरोग्य चाहिए वैसे ही मानसिक आरोग्य भी आवश्यक है । प्रतिकूल परिस्थितिमें पदच्युत और ध्येयच्युत नहीं बनना चाहिए । अनुकूलता में परीक्षा नहीं है । प्रतिकूलता में परीक्षा है ।

हम ऐसी परीक्षा में असफल रहते हैं एक व्यक्ति ने बारह महिने ठण्डे पानी से नहाने का नियम किया । एक वर्ष के बाद उससे पूछा, तुमने उस नियम का योग्य पालन किया? उसने कहा हाँ! परन्तु जाडे के दो महिने छोडकर मैने नियम का पालन किया तो उसको क्या अस्सी प्रतिशत अंक मिलेंगे? नही एक भी अंक नहीं मिलेगा । कारण जाडे के दिन परीक्षा के दिन थे । उसी समय मे वह गरमपानी से स्नान करता था, ठंडे पानी से नहीं नहाता था । विपत्ति मे ही परीक्षा होती है अत: प्रतिकूल परिस्थिति मे ही मानसिक आरोग्य संभालना है । प्रतिकूल परिस्थिति में खडा रहने के लिए मन को शक्तिशाली बनाने के लिए आरोग्य संभालना चाहिए। प्रतिकूल परिस्थिति तो आयेगी ही, परन्तु ‘ बाहर के प्रवाह से मेरा ‘स्व’ मलिन नहीं बनेगा’ ऐसा ‘स्व‘ का  प्रवाह होना चाहिए ।

भक्ति यानी भगवानपर एकाध फूल चढाना ही प्रर्याप्त नहीं है । स्तोत्र गाने से भक्ति पूर्ण नहीं होती । अन्तबाहर्य बदलने के लिए भक्ति है भगवान की खुशामद करने के लिए भक्ति नहीं है । तेजस्वी विचारों चिंतन से बौद्धिक आरोग्य प्राप्त होता है । व्यक्ति का चिंतन और उसकी विचारधारा (Way of thinking) उसके बौद्धिक आरोग्य का मापदण्ड है । बुद्धि को आरोग्यदायक खाद्य देना चाहिए । इसीलिए तुलसीदासजी लिखते हैं उसके लिए हनुमानजी का जप करना चाहिए, ‘नासै रोग हरै सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत बीरा’ जिससे स्वस्थ आरोग्य प्राप्त होगा।

हनुमानजी का जप करने से मानसिक आरोग्य तथा शारीरिक आरोग्य प्राप्त होता है । तुलसीदास का आग्रह जप करने के लिए है वह केवल शारीरिक रोग दूर करने के लिए नहीं साथ ही साथ मानसिक विकारों को दूर करने के लिए भी है । मनुष्य के अन्त:करण में भगवत्प्रेम बढना चाहिए और जब भगवत्प्रेम बढेगा तो धीरे धीरे सब प्रकार के रोगों और व्याधियों से उसे मुक्ति मिलेगी ।

तुलसीदासजी इस चौपाई द्वारा जप का महात्म्य हमें समझाने का प्रयास कर रहे हैं । जप यह अत्याधिक आवश्यक बात है । ‘जप’ का अर्थ  ‘पुकारना’ होता है वैसे ‘चिन्तन करना’ भी होता है जप का अर्थ ‘चिन्तन करना’ ऐसा होगा तो हम दिन-रात चिन्तन करते ही रहते हैं ।  किसी का जप वित्त के लिए, किसी का स्त्री के लिए तो किसी का सगे-सम्बन्धी के लिए जप चलता है । इसप्रकार चिंतन चलता ही रहता है । हम चिन्तन नहीं करते, ऐसा नहीं है । चिन्तन किसका करना यह विचार करने जैसा है । हम वित्त या स्त्री का चिन्तन करते हैं, परन्तु जो समझदार है, जानने की ईच्छा रखते है, वे मन को दो प्रश्न पूछते है, ‘इस जगतमे मेरा कौन है?’ यह प्रथम प्रश्न है और ‘इस जगत मे मेरा क्या है?’ यह दूसरा प्रश्न है । इस दोनों प्रश्नो का उत्तर मिलने पर जीवन की रेखा निश्चित होती है । ‘मेरा कौन?’ ‘मित्र मेरे है?’ यह निश्चित रुपसे जानना चाहिए । निर्धन बनने पर हमारे साथ कोई भी मित्रता नहीं रखता । हमारे पास पैसा हो तो अनेक जन हमारे मित्र बनने के लिए आयेंगे । पैसा समाप्त होने के बाद कोई हमारा नही है ।
नीतिशास्त्रकार कहते है-----
विरला जानन्ति गुणान् विरला: कुर्वन्ति निर्धने स्नेहम् ।
विरला: परकार्यता: परदु:खेनापि दु:खिता विरला: ।।
दूसरे के गुणों को जाननेवाले विरल हैं ।  निर्धनपर प्रेम विरल ही करते हैं, दूसरे के दु:ख में  दु:खी होनेवाले विरल हैं ।

जब तक हमारे पास धन रहता है । तब तक अनेक मित्र होते हैं । धन चले जाने के बाद सभी मित्र भी चले जाते हैं । शूद्रक ने मृच्छकटिक नाटक लिखा है । उसमें बहुत सुन्दर चित्रण किया है । जब तक विरोध नहीं आता तब तक पुत्र मेरा है । जब तक कुछ मिलता है । तब तक प्रेम रहता है । 

जब मिलना बंद होता है तब प्रेम नष्ट हो जाता है । जब पति मर जाता है तब पत्नी रोती है । वह कहती है, तुम चले गये, अब मेरा क्या होगा? तुम्हारा (पतिका) क्या होगा इसकी वह चिन्ता नहीं करती ।

इस जगत में मेरा कौन है? भगवान राम मुझे किसी भी हालत में नहीं छोडते । प्रभु रामचंद्र का स्मरण करना चाहिए । भक्त श्रेष्ठ श्री हनुमानजी का स्मरण करना चाहिए । रात को पेट में दर्द होने लगा तो पत्नी दवा देती है, गरम पानी की थैली सेंकने के लिए देती है, परन्तु बारह बजे वह भी सो जाती है, तब भी हमको नींद नहीं आती । हम इधर उधर करवटें बदलते रहते हैं उस समय केवल ‘राम’ ही हमारे पास होते हैं जब कुष्ठ रोग होता है तब पत्नी भी छोड कर चली जाती है, मगर राम नहीं छोडते । मेरा कौन? मेरे राम है ।

मेरा क्या? यह दूसरा प्रश्न है । इस जगत मे मेरे साथ क्या आनेवाला है? मेरा बंगला बहुत सुन्दर है, परन्तु क्या उसे मै अपने साथ ले जा सकूंगा? मेरा बैंक बैलन्स बहुत बडा है, परन्तु मुझे उसे यहीं छोडकर जाना पडेगा। फिर मेरे साथ क्या आयेगा? वेदान्त समझाता है -----
धनानि भूमौ पशवच गोष्ठे, भार्या गृहद्वारि जन: स्मशाने ।
देहचितायांं परलोक मार्गे कर्मानुगो गच्छति जीव एक: ।।
धन भूमि में, पशु गोष्ठ में, पत्नी घर के दरवाजे तक, सगे सम्बन्धी स्मशान तक आते है । देह को चिता पर रखने के बाद साथ कौन आता है? कर्मानुगो गच्छति जीव एक:-

उसके साथ उसके कर्म जाते हैं । मेरे साथ क्या आता है? कर्म! मेरा कौन है? राम! मैं यदि राम के लिए कर्म करुँगा तो मेरे कर्म में सुगंध आयेगी । लोगों के लिए कर्म किया तो मनुष्य लोकमान्य बनता है, राजा के लिए कर्म किया हो तो राजमान्य बनता है, परन्तु वह प्रभुमान्य नहीं बनता जो प्रभु का काम करता है वह प्रभुमान्य बनता हैं ।  मुझे किसका बनना है यह निश्चित करना चाहिए । जो आज लोगों को अच्छा लगता है वह कल बुरा-अप्रिय भी लगेगा। लोग जिसके गलेमें आज फूलोंकी माला पहनाते हैं, कल वे जूतों की भी माला पहनायेंगे । लोगों का क्या विश्वास! लोक-प्रीति चंचल है । लोगों के पीछे जानेवाला मनुष्य समाप्त हो जाता है वह जीवन से ऊब जाता है । उसके जीवन में निराशा छा जाती है । जगत् में जो निराश नहीं है, ऐसे एक भगवान ही है । वे सुख में अथवा  दु:ख में समवृत्तिवान् हैं ।

‘भगवान का काम’ इसी को हम जीवन का ध्येय मानते है । हमारी भारतीय संस्.ति ध्येय पूजक है । राम, लक्ष्मण, सीता, भरत सब ध्येयनिष्ठ दिखायी देते हैं । तीन-तीन राज्य रामचंद्र भगवान ने छोड दिये। राज्य के लिए झगडे हमने देखें है, परन्तु ‘राज्य ही नहीं चाहिए’ इसके लिए झगडा केवल रामायण में ही है। राम कहते है, भरत!  मुझे राज्य नहीं चाहिए, भरत कहता है, राम! यह राज्य तुम्हारा है, तुम्ही लो! ऐसा झगडा आपको केवल रामायण में ही देखने को मिलेगा। मनुष्य को किसी तत्व के पीछे पागल बनना चाहिए। हम पागल नहीं है समझदार हैं । प्रत्येक बात में हम सयाने हैं । शास्त्रकार कहते हैं कि जीवन में एकाध ऐसा तत्व रखो कि जिसके पीछे तुम पागल बन सकोगे! जो ध्येय के पीछे पागल नहीं है, उसके जीवन में स्वाद नहीं है । राम, लक्ष्मण, भरत, सीता, हनुमान, भीष्म, अर्जुन, नचिकेता, ध्रुव, प्रल्हाद-ऐसे पागलों का तो भारतीय संस्.ति में काफिला है । मनुष्य के जीवन में एकाध तत्व ऐसा होना चाहिए कि जिसके लिए वह पागल बन सकेगा, जिसके लिए सर्वस्व का त्याग करने को तैयार हो जायेगा । मनुष्य को अपने मन को पागल बनने की शिक्षा देना चाहिए उसके लिए जीवन में उच्च ध्येय होना चाहिए ।

प्रथम ध्येय का जप और बाद में राम का जप! ऐसे जप के पीछे शक्ति निर्माण होती हैं ।  नाम जप से शक्ति मिलती है । ध्येय किसको कहते है? जिसका ध्यान हो सकता है उसको ध्येय कहते हैं । जीवन में ध्येय  का जप हो तो नाम-जप को मूल्य है । आज हम केवल नाम जप करते हैं । हम एकादशी या नवरात्री में जप करते है, परन्तु उसके पीछे कोई ध्येय नहीं होता । अत: उसका मूल्य कितना? जिस जप के पीछे कोई ध्येय नहीं है, उस जप में शक्ति नहीं होती है ।  हम भगवान को पुकारते है । भगवान पूछते हैं, ‘तू मुझे क्याें पुकारता है? मैने तो तुझे बहुत कुछ दिया है, तू सँभलकर चल!’ उसमें एकाध मनुष्य ऐसा कह सकता है, भगवान! मुझे आपका काम करना है । मै काम करता हूँ, परन्तु शक्ति कम पडती है इसलिए मैं आपको पुकारता हूँ।’ मनुष्य के जीवन में प्रथम ध्येय जप होना चाहिए । उसके साथ नाम जप हो तो उसका मूल्य बढता है । जिसके जीवन में ध्येय नहीं उसका जीवन फीका है । नीरस है । बिना नमक की दाल कैसी लगती है? वैसा एकाध व्यक्ति खाता है, पीता है, सोता है, फॅक्ट्री चलाता है, सब करता है, परन्तु जीवन में ध्येय नहीं होता । इसलिए उसका जीवन फीका होता है ।

प्रत्येक नवयुवक को ध्येय मिलना चाहिए । शिक्षा देनेवाले शिक्षा देते है, परन्तु ध्येय नहीं देते । यही आज की समस्या है । मनु महाराज स्पष्ट भाषा में कहते है कि मनुष्य का केवल विद्या स्नातक होना पर्याप्त नहीं है, व्रत-स्नातक भी होना चाहिए। वेदविद्याव्रतस्नातान्् होना चाहिए । आज कौनसी वीद्यापीठ (Univercity) अथवा महाविद्यालय व्रत देने को तैयार है? व्रत देने की पद्धति गलत है या व्रत लेने को कोई तैयार नहीं है? शिक्षण संस्थाओं की जो पद्धति है उससे जीवन में कुछ नहीं मिलता । कोई ध्येय नहीं उठाता है और बिना ध्येय का जीवन बेकार है ।
टेनिसन का एक काव्य है । एक गाँव का सैनिक युद्ध में मर गया । उसका शव गांव में लाया गया। पूरा गांव इकठ्ठा हुआ। सर्वत्र शोक का वातावरण छा गया । सैनिक की पत्नी वहाँ आती है और अपने पति की लाश देखती है । वह एकदम अवाक् बनती है । वह रोती भी नहीं है और हंसती भी नहीं है ! Home they brought her warrior dead- नामक काव्य में, इस स्थिति में उसको देखकर कवि कहता है, She must weep or she will die।’ उसको रोना चाहिए । वह नहीं रोएगी तो मर जायेगी । ऐसी स्थितिमें क्या करना? उसके जीवन में अंधकार छा गया है । कवि की यह नायिका पुराने जमाने की है, इसलिए उसकी यह अवस्था हुई है । आज की नायिका होती तो कहती कि, ‘एक मर गया तो दूसरा लाऊँगी, उसमे क्या है? परन्तु वह नायिका पुराने जमाने की थी । उसकी आँखों के सामने अंधकार छा गया । उसको लगता था कि अब मेरे जीवन का कोई अर्थ ही नहीं है । वह अवाक्् बनकर बैठी थी । इतनेमें एक वयोवृद्ध व्यक्ति हाथों मे उस स्त्री का बच्चा लेकर उसके सामने आता है । बच्चे को देखते ही उस स्त्री की आँखों में चमक आ गयी । वह लपककर अपने बच्चे को गोदमे लेती है । अंधकार दूर हो गया, उसके जीवन को ध्येय मिल गया उसने कहा ‘Oh sweet’ child ! I shall live for thee’ बेटा! मै तेरे लिए जिऊँगी! उसको पता चला कि किसके लिए जीना है । जीवन को ध्येय मिलते ही जीवन में स्वाद आता है।
जिसका अपने जीवन में ध्येय नहीं है, वह अपनी संतान को क्या ध्येय देगा? जो अपनी संतान को ध्येय नहीं देता वह बाप ही नहीं है । कोई कहेगा हम ध्येय देते है परन्तु लडके ध्येय लेते ही नहीं तो क्या करना? अरे! तेरा लडका स्कूल में जाने को तैयार नहीं था, उस समय वह रोता था। फिर भी उसका हाथ पकडकर, खींचकर घसीटकर तू उसको स्कूल ले जाता था । तो फिर जीवन की पाठशाला में तू उसको क्यों नही ले जाता?

जीवन की पाठशाला में पिता असफल होता है । माँ बाप का शासन दुबला (Weak parental control) है । पिता को पुत्र को कुछ देना ही नहीं है, कुछ टिकाना ही नहीं है । उसके अपने जीवन में ही कोई ध्येय नहीं है, परंपरा नहीं है, तो वह अपने लडकों को क्या देगा? उसको एक ही बात मालूम है- सुबह से शाम तक पैसा ही पैसा! वह कहाँ से मिलेगा वही देखता है । उससे वह ऊब जाता है (यद्यपि पैसे से कोई ऊबता नहीं) तब क्लबमें जाना शुरु करता है । वहाँ जाने के बाद वहाँ भी पैसों के लिए ही खेल खेलता है। आजतक खेल खेलने के लिए थे अब खेल भी पैसा कमाने के लिए हैं शास्त्र मे लिखा है -‘मात्ृमान् पितृमान् आचार्यवान् वेद-’ जिसको माँ-बाप मिले हैं, जो मातृमान, पितृमान्् हैं उसी को तत्वज्ञान समझता है । माँ-बाप तो सभी के होते हैं । बिना माँ-बाप के बालक जन्मेगा ही कैसा? फिर ऐसा क्यों लिखा है? ऐसा पिता होना चाहिए कि जो ध्येय देता है ।

नांव मे बैठकर, पैर गीले हुए बिना, सागर पार किया जा सकता है वैसा नाम-जप से बिना तकलीफ के भवसागर पार कर सकते हैं । सोच समझकर नाम-जप करना चाहिए । लोग पूछते है, ‘नाम लेने मे क्या है? नाम में शक्ति है । ‘इमली’ कहने पर मुँहमें पानी भर आता है । शब्द में शक्ति है, परन्तु उसके लिए शब्द का अर्थ मालूम होना चाहिए । तुमको कृष्ण जगत में क्यों आये थे  इसका पता ही नहीं है। .ष्ण के नाम का पता ही नहीं है । कृष्ण का चरित्र समझ पडा तो मनुष्य उसके पीछे पागल बनेगा। लोगों को ऐसा लगता है कि, उसकी अपेक्षा हम घर में बैठकर हुक्का पीते हुए राम नाम का जप करेंगे तो हमें इच्छित फल मिल जायेगा। मनुष्य को नाम-जप समझकर करना चाहिए।

जप का इतना महत्व क्यों है? जप से विकार कम कर सकते हैं । मानव देह में ‘जीव’ और ‘शिव’ दोनों है । उनके बीच विकार का पर्दा है ।  यह विकार का पर्दा हटाना चाहिए । विषय विकारों को किस प्रकार हटायेंगे? विकारों को हटाने के लिए जप का उपयोग करना चाहिए ।  उसके स्थान पर आज विकार बढाने के लिए जप का उपयोग किया जाता है । विकार बढाने के लिए नही, अपितु विकार कम करने के लिए जप करना चाहिए।

विकारों को हटाने का मार्ग कौनसा है? तत्त्वज्ञानी विकारों को हटाने का मार्ग दिखाते हैं । वे कहते हैं कि विकार सभ्य है । तुम उनका स्वीकार नहीं करोंगे, तिरस्कार नहीं करोगे तो विकार अपने आप चले जाऐंगे । हम विकारों का सत्कार करते है अथवा धिक्कार । तिरस्कार करते हैं, इसलिए विकार आकर हमको चिपककर बैठते है । तत्त्वज्ञानी कहते हैं कि विकार आनेपर उनको मत दबाओ, उनका समर्थन अथवा निन्दा मत करो और उनके स्थान पर दूसरे विकार भी मत लाओ। विकारों को दृष्टि से दृष्टि मिलाकर देखो तो विकार अपने आप चले जायेंगे । ( No Suppression, No Justification, without condemnation and without substitution, You see at face to face, It will subside )। विकार सभ्य है कारण वे ईशनिर्मित हैं । तुम उनका सत्कार करोगे तो आकर बैठ जायेंगे और तिरस्कार करोगे तो अड्डा जमाकर बैठ जायेंगे उनकी ओर आमने-सामने देखोगे तो वे विलीन हो जायेंगे ।

विकार कम करने का यह बौद्धिक रास्ता है । मानो हमें गुस्सा आया, गुस्सा आते ही हम उसे दबा देते हैं गुस्से को जितना दबायेंगे उतना वह ज्यादा मजबूत बनेगा । यह एक कठीन समस्या है। हमारे जैसे सामान्य लोगों में विकार आकर वास्तव्य करते हैं, और हमें उनका पता ही नहीं चलता । विकार का निर्मिति के क्षण का पता चला तो ही उपरोक्त मार्ग का स्वीकार कर सकते हैं । जब तक विकार हमारे हृदय  पर काबू पा नहीं लेते तब तक उनका पता ही नहीं चलाता । तुम्हारे घर के दरवाजे तक एकाध मनुष्य आता है तब उसका स्वागत मत करो, उसका तिरस्कार भी मत करो, केवल उसकी ओर दृष्टि से देखते रहो तो वापस लौट जायेगा। उसको गालीयाँ देनेपर वह वहाँ से नहीं खिसकेगा। विकारो की ओर ( face to face ) देखो तो वे चले जायेंगे । यह मार्ग बहुत कठीन है । हमारे शास्त्रकारों ने विकारों को हटाने का दूसरा मार्ग दिखाया है वह है नाम-जप प्रारंभ करो।

जप विकार मुक्ति के लिए होता है । तुम्हारे हाथ में नाम जप की माला आ गयी कि विकार चले जाएंगे । उनको लगेगा, ‘अब अपनी सत्ता चली गयी है । इसका कारण अब यहाँ राम की सत्ता आ गयी है। जहाँ राम की सत्ता आती है वहाँ काम की सत्ता नहीं चलती । काम सत्ता प्रिय है । जहाँ सत्ता नहीं होगी वहाँ काम नहीं रहता । तुम हाथ में माला लोगे तो विकारों को पता चल जायेगा कि अब यहाँ अपनी सत्ता नहीं चलेगी । हमने भले ही सोच-समझकर हाथ में माला नहीं ली होगी, परन्तु काम समझदार है । इसलिए वह चला जायेगा।
हम हाथ में माला लेकर फेरते है और बीचमें ही टेलिफोन आया तो बाजार भाव की चर्चा करते हैं, माला तो फिरती रहती है । माला हाथ में क्यों ली है, वह जिसने माला हाथमें ली है उसको मालूम रहता है। परन्तु तुम्हारे हाथ में माला देखकर विकार समझदार होने से चले जाते हैं । भगवान का नाम प्रेम से लेना चाहिए । हाथ में माला आने पर नाम का महत्व बढ जाता है ।

जप के भी प्रकार है । जिस प्रकार वाचिक जप है, वैसा मानसिक जप भी है । जानकार लोगों ने समझदार माला बनायी है । ध्येयशूण्य जप का कोई भी मूल्य नही है । राम नाम में शक्ति है । काम के लिए राम का नाम पुकारेगे तो इसमें कोई अर्थ नहीं है । माला में एक सौ आठ मणके होते हैं । वे सताईस नक्षत्र  चार दिशा  एक सौ आठ होते है । हमारे शास्त्र के अनुसार मनुष्य प्रतिदिन इक्कीस हजार छ सौ श्वासोच्छवास करता है । उनमें से आधे यानी दस हजार आठ सौ श्वास स्वार्थ के लिए, और शेष दस हजार आठ सौ श्वास परमार्थ के लिए रखने चाहिए। उसके लिए कहा है ----
श्वास श्वास हरिनाम जपो वृथा श्वास न खोय ।
ना जाने इस श्वास का आना होय न होय ।।
परमार्थ के लिए दस हजार आठ सौ श्वास होने चाहिए, परन्तु शास्त्रकारोंने लिखा है कि तुम उपांशु जप करोगे तब उसका शतांश भी चलेगा । 10800/100 इसलिए एक सौ आठ मणके माला में होते हैं ।
शतपथ ब्राम्हण में कहा है कि एक संवत्सर में 10800 मुहूर्त होते हैं ओर पुरुष की आयु सौ वर्ष की है। उससे भाग देने पर एक सौ आठ की संख्या प्राप्त होती है । जप बोलने की बात नहीं है, करने की बात है।
भगवान का नाम लेना है प्रेम से लेना है । उसके लिए हृदय में भावावेश जरुरी है । हम नाम जप करें तब भगवान को भी गुलगुली होनी चाहिए और  हमें भी । यह नाम जप का अन्तिम रुप है । प्रेम से भगवान का नाम लेना है । महाराष्ट्रके संत कहते है: गोड तुझे रुप गोड तुझे नांव-तेरा रुप, तेरा नाम सब कुछ मीठा है। नाम में कल्याण भरा है । नाममें मेरा कल्याण है, तेरे विचारों में मेरा कल्याण है ।

जप करना हो या चिन्तन करना हो तो प्रथम ध्येय जप होना चािहए । ध्येय जप करने के बाद ईशजप को महत्व है । अत: जीवन में ध्येय होना चाहिए । ध्येयपूर्ति के प्रयत्नों के बाद शक्ति चाहिए ऐसी माँग की तो उस माँग को भी प्रतिष्ठा है । प्रयत्न करने के बाद की गयी माँग भी प्रतिष्ठित होती है ।

आज हम असहाय बन गये हैं और भगवान के पास क्षुद्र बाताें की माँग कर रहे हैं । इसके कारण हमको भिखारी माना जाता है । भक्त नहीं माना जाता जीवन में ध्येय होना चाहिए । ध्येय रहित जीवन बिना नमक की (अलोनी) दाल जैसा है । ध्येयपूर्ति के लिए हमारी शक्ति कम साबीत होती है । इसलिए शक्ति की माँग के लिए जप करना चाहिए । ऐसे जप का महत्व अधिक है ।

जप का अर्थ ‘चिन्तन’ होता है । जीवन में किन बातों का चिन्तन करना चाहिए? ध्येय और भगवान का चिन्तन करना चाहिए । विकारो को हटाने के लिए जप करना चाहिए और वह जप समझ कर करना चाहिए। ‘तज्जपस्तदर्थभावनम्’ ऐसा योग सूत्र है । अर्थ भावना से भाव प्रज्वलित होता है और भाव से हृदय आद्र बनना चाहिए ।  भावभीना हृदय होगा तो उसमे गोविंदाकारता स्थिति होती है । भक्तिरसायन में मधुसूदन सरस्वती ने कहा है----
दु्रते चित्ते प्रविष्टाया गोविंदाकारता स्थिरा ।
सा भक्तिरित्यभिहिता विशेषस्त्वधुनोच्यते ।।
जप समझकर और प्रेमभाव से करना चाहिए । भीति से जप नहीं होना चाहिए । भवभीने हृदय से जप करनेवाले की मनोवृत्ति और जीवन उत्तरोत्तर बदलते जाते हैं, वह सुधरता जायेगा । जैसा जैसा जीवन बदलता जाएगा, वैसे वैसे जप में माधूर्य आएगा । शब्दमें माधूर्य नहीं है, शब्द बोलने वाले के हृदय का माधुर्य उसमें आता है। जप प्रेमपूर्वक होना चाहिए । प्रारंभ मे भगवद्भीति की मनोवृत्ति (God fearing mentality) चल सकती है, परन्तु अन्त में उसका भगवद््प्रीति (God loving mentality) में परिवर्तन होना चाहिए।

प्रेम (oil paint) जैसा होना चाहिए । भावनात्मक प्रेम भिन्न और बौद्धिक प्रेम भिन्न है । स्पिनोझा का भगवान के प्रति बौद्धिक प्रेम ( Intellectual love towards  God ) का आग्रह है । एक बार ऐसा बौद्धिक प्रेम हो गया कि वह कभी कम नहीं होता । यदि कम हुआ तो वह प्रेम नहीं, मोह है । प्रेम किसी िदन कम नहीं होता, वह उत्तरोत्तर बढता जाता है । वृद्धिगंत होते रहना प्रेम का स्वभाव है । बौद्धिक प्रेम से भगवान का स्मरण करना चाहिए।

माला हमेशा गोमुखी में रखकर फेरनी होती है । इसका कारण मैने कितनी बार भगवान का स्मरण किया वह किसी को दिखाने का कारण ही नहीं है । प्रेम हमेशा गुप्त रखना पडता है । जो प्रकट किया जाता वह प्रेम नहीं है । पुराने जमाने की नव-परिणिता कुछ दिन ससुराल में रहकर फिर अपने पीहर आती है । वह अकेली बैठकर चावल साफ करते समय अपने पति का स्मरण भी करती है । ‘अब ये बैंक में गये होंगे’- याद करते हुए अंगुली से चांवल में अपने पति का नाम लिखती है, ‘मीठालाल!’ इतने में उसका भाई आता दिखायी देता है, वह झट से अपने पति का नाम पोछ डालती है ।  इसका कारण उसको लगता है कि मैं अपने पति का प्रेम से स्मरण करती हूँ इसका किसीको पता नहीं चलना चाहिये । मेरा प्रेम-भाव गुप्त रहना चाहिए । इसीप्रकार भक्त को लगता है कि मै प्रेम से भगवान का स्मरण कर रहा हूँ इसका किसी को पता नहीं चलना चाहिए । सच्चा भक्त चित्त एकाग्र कब करता है? गीता उसका वर्णन करती है--
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने: ।।
                                             (गीता 2-69)
सेवा-पूजा किसी को दिखाने के लिए नहीं होती । इसलिए भक्त भगवान का जप गोमुखी में माला रखकर करता है । भगवान का नाम प्रेम से लो । नाम जप से डर चला जायेगा । मोह भी चला जायेगा। ‘भगवान मेरे साथ है’ इस समझ से भय चला जायेगा । उसी प्रकार मोह भी निकल जायेगा। इन सब बातों के लिए जीवन में जप की आवश्यकता है । इसीलिए तुलसीदासजीने लिखा है । यदि प्रेम से, भाव से हनुमानजी का जप करते हैं तो उससे सभी प्रकार के रोग और पीडा का नाश हो जाता है ‘नासै रोग हरै सब, पीरा जपत निरंतर हनुमत बीरा’ परन्तु जप समझकर करना चाहिए उसके लिये चित्तेकाग्रता करनी चाहिए इसके बारे में हमें गोस्वामीजी आगे की चौपाई में समझाते है ।

No comments:

Post a Comment