Monday, July 4, 2011


चौपाई:-जै जै जै हनुमान गोसाईं । कृपा करहु गुरु देव की नाईं ।।  (37)
अर्थ : हे स्वामी हनुमानजी ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो, ।  आप मुझ पर कृपालु श्री गुरुजी के समान कृपा कीजिए ।
गूढार्थ : तुलसीदासजी लिखते हैं, हे हनुमानजी आपकी जय हो ऐसा तीन बार उन्होने लिखा है, इसके पीछे गहरा अर्थ छुपा हुआ है । हम जब आपस में एक दूसरे से मिलते हैं तब, ‘जय रामजी की’ या ‘जय श्रीकृष्ण’ कहते हैं ।  इन में से कोई भी बोलो मगर भगवान की जय होनी चाहिए ।  यह सुनकर मेरे मन में एक प्रश्न खडा होता है, जबकि यह प्रश्न बोलने वाले के मन में खडा नहीं होता है बोलनेवाला जोर से बोलता है ‘जय रामजी की’ परन्तु जय कहाँ होती है? युद्ध में दोनाें में से एक की जय होती है, परन्तु यहाँ युद्ध किसके साथ है? राम के साथ या .ष्ण के साथ या हनुमानजी के साथ? इस बातका कभी किसी ने विचार नहीं किया है ।  लोग कहते हैं कि आसुरी संपत्ति की लडाई है, परन्तु भगवान की लडाई किसके साथ है? भगवान  का युद्ध मेरे ही साथ है ।  शरीर में दो जन है- जीव और शिव ।  भगवान कहते है: ‘यह शरीर मेरा है और मेरे लिए है’ और जीव कहता है, ‘यह शरीर मेरा है और मेरे लिए है’ ऐसी लडाई चल रही है ।  उसमें भगवान! आपकी जय होनी चाहिए ।  जिसके जीवन में भगवान की जय होती है उसे हम सन्त कहते हैं ।  सन्त कहते है कि, ‘यह देह भगवान का है, भगवान के लिए है’ भगवान को भी देह के उपर अपना हक्क सिद्ध करने के लिए दलीले देनी पडती है। ‘क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारतं ’। फिर भी हम समझते हैं कि देह हमारा है, हमारे लिए है, हम जैसा उपयोग करना चाहे वैसा उपयोग करेंगे ।

हमारे जीवन में भगवान की जय नहीं है, पराजय है ।  एक दिन ऐसा आना चाहिए जब कृष्ण की जय हो, रामजी की जय हो, हनुमानजी की जय हो ।  ‘मेरा  शरीर भगवान के लिए है’ यह बात अन्दर की वृत्ति पर निर्भर है ।  यह शरीर मेरा नहीं है, उसका है, उसके लिए है ।  हनुमानजी का शरीर भगवान राम के लिए था इसलिए उनके जीवन में भगवान  की जय हुई इसीलिए तुलसदासजी लिखते हैं, ‘जय जय जय हनुमान गोसाई।’ महापुरुष कहते हैं हमारी पहली मुलाकात भगवान के साथ होनी चाहिए (our first appointment must be with god) और बचा हुआ समय अपने लिये रहना चाहिए ।  हम ठीक इसके विपरीत करते हैं । हमारी भगवान के साथ मुलाकात अन्त में होती है ।  इतना ही वृत्ति मे अंतर है । यह वृत्ति जीवन में जिसने स्थिर की, उसके जीवन में अनन्यता आती है ।
कृष्ण के साथ हमारी लडाई चालू है ।  मैं कहता हूँ जगत मेरा है, मेरे लिए है, ‘और .ष्ण कहता है, ‘जगत मेरा है और मेरे लिए है’ अन्दर ऐसी लडाई चालू है ।  उसमें भगवान की जय होनी चाहिए । लोग ‘जय श्री.ष्ण’ बोलते हैं मगर उन्हे उसका अर्थ मालूम नहीं है ।  कितने ही लोग कहते हैं कि ‘हमारे धरम में ऐसा है  इसलिए हम ऐसा कहते हैं ।  भगवान ! शरीर तुम्हारा है और तुम्हारे लिए हैं । ऐसी वृत्ति तैयार होनी चाहिए, तभी जय श्री.ष्ण बोलने का अर्थ है ।

भगवान कहते हैं इस व्यक्ति को मैने इतनी अच्छी बुद्धि दी, किन्तु ‘मै कौन हूँ?’ इस एक बातको यह समझ नहीं सका । भगवान ने कहा था, ‘तू एक पाठ रटकर आ ।  उसके बाद मैं तुझे दूसरा  पाठ पढाऊँगा ।  वह पंक्ति थी-इस जन्म में ‘मैं मनुष्य हूँ’ ;  दूसरे जन्म में ‘मैं दैवी मनुष्य हूँ’  तीसरे जन्म में ‘मै देव का मनुष्य हूँ’ और चौथे जन्म में ‘मै देव हूँ’ बस समाप्त हो गया ।  इतना पाठ पक्का हुआ कि पर्याप्त है ।  फिर क्या चाहिए? गीता में भगवान ने कहा है: ‘बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते’ ‘बहूनां’ अर्थात् एक वचन, द्विवचन और बहुवचन । ‘बहुवचन’ अर्थात् कम से कम तीन, इसीलिए तुलसीदाजी ने तीन बार हनुमाजी की जय कहा है, अर्थात् हमको कमसे कम तीन जन्म लेने पडेंगे इन तीन बातों को जीवन में उतारने के लिए और उसके बाद ही भगवान की पूर्णत: जय होगी ।
भगवान ने छगनलाल को पाठ दिया, ‘मैं मनुष्य हूँ’ और उसे कहा,  ‘जा, यह पाठ ठीक से याद कर आ ।’  छगनलाल यहाँ आया और इस पाठ को रटने लगा ।  पर आठ नौ वर्ष के बाद ‘मै मनुष्य हूँ’ के बदले   ‘ मैं हूँ ’ ऐसा रटने लगा । बीचमें ‘मनुष्य’ (शब्द) ही वह खा गया । अब, जो मनुष्य ही नहीं रहा उसे मुक्ति कैसे मिलेगी ? माँ की गोद में जाकर बैठने पर उसे ‘मैं मनुष्य हूँ’ ऐसा पाठ माँ से मिला, परन्तु ‘मै हूँ’ इतना ही उसके ध्यान में रहा, इसका माँ को दु:ख होता है । मनुष्य को इतना भी ज्ञान नहीं है कि ‘मै कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, किसलिए आया हूँ, मेरा रहने का स्थान कहाँ है?’

रामकृष्ण परमहंस की एक बात है ।  उन्हे एक दिन एक भाई मिला ।  बंबई शहर का कोई व्यापारी रहा होगा ।  उसे मुफ्तमें भगवान चाहिये थे ।  ‘बेटा, तेरा भला हो जायेगा।’ ऐसा कहकर कोई उसे भगवान मिला दे तो उसे चाहिये था ।  वह भाई राम.ष्ण परमहंस के पास गया और बोला, ‘आपके पास भगवान आते है । आप रोज उन्हे मिलते है, उनके साथ बातें करते हैं, तो अब ऐसा कीजिए कि भगवान जब आपके पास आएंगे तब उन्हे मेरा पता दीजिये, जिससे से वे मेरे यहाँ भी आयेंगे ।  आप भगवान को कहेंगे तो आपका कहना बेकार नहीं जाएगा, वे जरुर मेरे यहाँ आयेंगे ।

रामकृष्ण परमहंस ने कहा, ‘ऐसा? तो ठीक है ।  मैं तुम्हारा पता भगवान को जरुर दे दूँगा ।  यह सुनकर वह भाई खुश हो गया ।  इतने में रामकृष्ण परमहंस ने कहा, पर तुम्हारा पता तो मुझे दो ।  वह बेचारा अपने घर का पता बताने लगा कि, 24, चौरंगी................’

तब रामकृष्ण ने कहा, ‘यह तो तुम्हारे घर का पता है, तुम्हारा नहीं है ।  तुम्हारा पता कहाँ है? तुम्हारा ही पता मुझे ज्ञात नही है ।  जिस दिन तुम्हारा पता तुम्हे मिलेगा उस दिन मैं भगवान को तुम्हारे यहाँ भेज दूँगा ।  तुम गलत पता मुझे दे रहे है, तब मैं भगवान को कैसे भेजूँ? मैं जरुर भगवान को भेज दूँगा, इसमें मेरा क्या जाता है? दो शब्द कहने से किसी का भला होता हो तो मैं क्यों नहीं कहूँगा? पर भगवान को तुम्हारा कौनसा पता दूँ? तुम्हारा पता हीं नहीं है । मूल बात यह है कि, जीव इतना बुद्धिशाली है कि विश्व की समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न करता है, परन्तु उसको अपना स्वयं का पता ही ज्ञात नही हैं ।

ज्ञान एक ही है वह है ‘तत्त्वमसि’ का ज्ञान । ‘तत्त्वमसि’ काफी बडा तथा कठीन शब्द है ।  इसलिए हमारे आचार्यों ने इसकी अलग अलग व्याख्या की है ।  इस शब्द को तोडकर अलग अलग रास्ते दिखाए हैं ।  इस महावाक्य का प्रकाश मनुष्य की बुद्धि में पडे इसलिए इन महान आचार्यों ने उसके तीनों अथों‍र् पर भाष्य लिखे हैं । मै कौन हूँ, किसका हूँ, किसके लिए हूँ, किसके कारण हूँ इन बातों की स्मृति हमें नहीं है ।  आचार्याें का कहना है, कि वास्तव में तत्वमसि के अलग अलग अर्थ होते हैं ।  उन्होने इस शब्द को तोडकर अलग अलग रास्ते दिखाए,  परन्तु सबकी मंजील एक ही है ।  सब का अर्थ एक ही है ।  मगर उन आचार्यों के अनुयायी पूर्वाग्रह पकडे बैठे हैं और कहने लगे हैं कि यही आचार्योंका कहना है ।

एक छोटा बालक स्कूल जाता है तो पहले दिन उसे पढाया जाता है 4 + 4 = 8, और दूसरे दिन पढया जाता है 5 + 3  = 8 और तीसरे दिन पढाया जाता है 6 + 2  = 8 अब वह बालक परेशान हो जाता ह,ै वह कहता है हमारे मास्तर बराबर नहीं पढाते एक दिन एक बात कहते हैं तथा दूसरे दिन दूसरी बात कहते हैं इसलिए मुझे स्कूल नहीं जाना है ।  यही बात उन आचार्यों के अनुयायीयों की है सब का अर्थ एक ही है परन्तु समझाने का ढंग अलग अलग है, परन्तु वे आपस में बिना समझे झगडते रहते हैं।

माधवाचार्य कहते है, ‘तेन त्वम् असि’ उसके कारण तू है, ‘वल्ल्भाचार्य, रामानुजाचार्य कहते हैं, ‘तस्य त्वम् आसि’ उसका (भगवान का) तू है’ ।  शंकराचार्य कहते हैं ‘तत् त्वम् असि’- मैं भगवान के कारण हूँ, मेरा उठना, रहना, सोना सब उनके (भगवान के) कारण हैं, परन्तु यह स्मृति चली गयी है ।  पीत्वां मोहमयी प्रमादमदिरां उन्मत्तभूतं जगत्.......। मैं कौन हूँ, किसके कारण मैं खडा हूँ, मेरी बुद्धि किसके कारण चलती है इसका विचार करने का समय भी लोगो के पास नहीं है । उनको ये सब बेकार की बाते लगती है ।  उनकी बुद्धि-(मेधा) का विवाह प्रसिद्धि, कीर्ति, वैभव, भौतिक सुख के साथ हुआ है ।  इन बातों के पीछे वे पागल बने हुए हैं । मेधा का विवाह धर्म के साथ हो तभी सच्ची बातों की स्मृति रहेगी ।

जीवन में रहा अंधेरा कौन पहले निकालता है? क्या सूर्य निकालता है? पहले उष:काल आता है फिर सूर्योदय होता है । उष:काल होने के बाद महापुरुष पधारते हैं ।  इस तरह उसे ‘तेन त्वम् असि’ तेरे कारण मै हूँ, ऐसा लगा ।  अत: माधवाचार्य कहते हैं तेरे कारण मै हूँ यही वृत्ति प्रकाश है । अध्यात्म में तुम्हारा होने की वृत्ति का प्रकाश-न सुर्य का, न चंद्र का, न अग्नि का है बल्कि इस वृत्ति का प्रकाश महावाक्य के बोध से होता है ।

वर्षा होने से धरती पर हरियाली उगती है मगर पत्थर वैसे ही रहते हैं ।  वर्षा तो दोनो जगह होती है, मगर पत्थर पर कुछ नहीं उगता । इसी तरह इन महापुरुषों का जो महावाक्य-बोध है कि ‘तेन त्वम् असि’ उसके कारण मैं हूँ, यह वाक्य यदि जीवन में आए तो अंधेरा खत्म होकर सुबह होगी ।  मेरे पास जो कुछ भी है वह तुम्हारे कारण है ।  मेरे पास पैसे, कीर्ति, मान- सन्मान जो भी है वह सब तुम्हारे कारण है । मनुष्य को इसका पता तो है मगर प्रकाश नहीं पडा है ।
मेरी आँखे उसके कारण देख सकती है ।  मेरा शरीर उसके कारण चल रहा है ।  मुझे उसके कारण पैसे मिलते हैं ।  इस सीढी पर हमें आना है ।  हम स्वयं कमाते हैं, अथवा हमें भाग्य से मिला है? सभी में भगवान हैं यह ज्ञान तो हुआ, परन्तु मुझमें भगवान है यह मुझे मालूम नहीं पडता ।  इसलिए ज्ञान अलग बात है और समझ  अलग बात है ।  मेरा सब कुछ उसके कारण है ; यह बोलने की बात नहीं बल्कि समझने की बात है ।  इसलिए हमारे पुराने वाड़मय में दो शब्द  है, ज्ञान और बोध । ‘उसके कारण तू है’ यह बोध होना चाहिए ।

‘मैं भगवान के कारण हँू’ यह भावना दृढ होनी चाहिए ।  यह बात काफी कठीन है ।  हमारा अहं बीच में आता है ।  लडका उत्तीर्ण हुआ तो हम कहते हैं कि काफी मेहनत करता था, यदि वह अनुत्तीर्ण हुआ तो हम कहते हैं कि भगवान से देखा नहीं गया, भाग्य उल्टा था इसलिए वह अनुत्तीर्ण हुआ ।  हमारा यह रोज का व्यवहार है ।  अत: हमें अपना व्यवहार जाँचने की जरुरत है ।

‘मै भगवान के कारण हूँ, यह वृत्ति जीवन में बढनी चाहिए । आज भक्ति  केवल कृति में आकर बैठी है ।  भगवान के भजन गाने, भगवान को हार पहनाना, भगवान को नैवेद्य धरना केवल इसी को हम भक्ति समझ बैठे हैं ।  यह भक्ति नहीं है ऐसा  मैं नही कहता हूँ, परन्तु भक्ति केवल कृति नहीं एक वृत्ति है । यह वृत्ति बदलती न हो तो कृति का कोई अर्थ नहीं है, अत: ‘तेन त्वम असि’ उसके कारण तू है यह पहली सीढी है ।
हम ‘तेन त्वम असि’ ऐसा कहेंगे, कदाचित् आरती गायेंगे या रटेंगे मगर हमारे जीवन में उसका प्रकाश नहीं है ।  इसीलिए अंधेरा खत्म नहीं होता ।  महावाक्य के बोध से बुद्धि में प्रकाश आता है ।  हम तो बिना समझे चर्चा करने लगते हैं, कोई कहता है हम शंकराचार्य के मत के हैं और कोई कहता है हम तो रामानुजाचार्य के मत के हैं ।  जिन्होने शंकराचार्य को पहचाना नहीं तथा रामनुजाचार्य को जाना नहीं वे बिना समझे ऐसी चर्चा करते रहते हैं ।

तुम्हारे कारण मैं हूँ, मेरी प्रत्येक बात तुम्हारे कारण है ।  पत्नी तुम्हारे कारण है, बच्चे तुम्हारे कारण, माँ-बाप तुम्हारे कारण, कृति भी तुम्हारे कारण है ।  तुम ही मेरा वैभव हो । भगवान! तुम्हारा होना बहुत बडी बात है, इसलिए तुम्हारे कारण मैं हूँ यह पहली बात हैं ।

उसके बाद ‘तस्य त्वम् असि’ उसका तू है यह दूसरी बात है ।  मैं उसका हूँ, मैं उसका गुलाम हूँ, मैं उसका नौकर हूँ, मुझे मजदूरी चाहिए मगर उसी के पास से चाहिए ।  दूसरे किसी के पास भिख नहीं माँगूगा, लाचारी नहीं करुँगा ।  इन अलग अलग अवस्थाओंमे अलग अलग प्रकाश है ।

‘तस्य त्वम् असि’ इस प्रकाश में भगवान के साथ संबंध रखना है, उसका मैं कौन हूँ, मैं उसका कोई हूँ ।  मैं उसका गुलाम हूँ, नौकर हूँ, उसी तरह मैं उसका पुत्र हूँ ।  ‘तस्य त्वम् असि’ अलग अलग प्रकाश है ।  मैं भगवान का हूँ इतना कहकर नहीं चलता भगवान के साथ बाप का सम्बध रखना है ।  मेरे पास रही निपुणता (Efficiency) भगवान के लिए है, ऐसी समझ आनी चाहिए ।  हम सब अभ्यासक हैं ।  छोटा बच्चा पूरा लु किसीको जल्दी नहीं देता ।  ‘थोडा तू खा और थोडा दे’ ऐसा कहे तो वह तुरन्त तैयार हो जाता है ।  इसी तरह हमें कठीन न लगे इसलिए शास्त्रकारोंने कहा कि तुम्हारी निपुणता भले तेरे लिए इस्तेमाल कर परन्तु उसका थोडा सा भाग भगवान के कार्य में इस्तेमाल करो ।  हम ऐसे भक्त है कि अपना जीवन का अमूल्य भाग बाजार में अपने काम काज मे इस्तेमाल करते हैं और बचा हुआ भाग भगवान के काम में इस्तेमाल करते हैं ।

‘स्वकर्मणा तमभ्यच्‍र्य’ अपने कर्म से भगवान की पूजा अर्चना करें, तो जितना फल किसी यज्ञ करनेवाले, भजन करनेवाले को मिलता है उतना ही फल इनको भी मिलेगा ।

‘तस्य त्वम् असि’ के बाद ‘तत्त्वमसि’ इस महावाक्य के बोध से प्रकाश पडता है ।  प्रकाश के बटन दबाने से यह प्रकाश नहीं आता है ।  इस महावाक्य के बोध से मैं उसे दुरुस्त कर सकता हूँ, मैं फिटींग करुँगा, बल्ब लगाऊँगा, यह सब मेरी साधना है ।  मगर अन्दर प्रवाह कौन रखेगा? प्रकाश अन्दर आने के लिए बटन कौन दबायेगा’ किसे पता है बटन कहाँ है? हम अंधेरे में है ।  अत: यह सब करेंगे तो प्रकाश आयेगा ।

तेजस्वी आदमी क्या है? तेजस्वी आदमी अर्थात जलानेवाला आदमी नहीं ।  कितने ही लोग गुरु महाराज की छबी बनाते हैं और उसके पीछे तेज का गोला बनाते हैं ।  तेजस्वी यानी प्रकाश ।  यह प्रकाश महाकाव्य का बोध है ।  इस महाकाव्य का बोध सद्गुरु की .पा से जिनके जीवन में होता है उसके जीवन में भगवान की जय होती है ।  इसीलिए इन तीन बातों को जीवन में लाने के लिए तुलसीदासजी ने तीन बार जय शब्द का प्रयोग किया है और लिखा है, ‘जय जय जय हनुमान गोसाई, कृपा करहु गुरु देव  की नाई’।

केवल बोलने से ही तुम उसका नहीं होते हो, ‘उसके कारण तुम हो’, ‘उसके तुम हो’ और ‘वही तुम हो’ ये जो ‘तत्त्वमसि’ के अर्थ हैं उन्हे जीवन में लाने के लिए सत्संग सत्शास्त्र स्वाध्याय करना है ।  रोज ऐसी वृत्ति  तुम्हारी होती जाएगी तो अन्दर परिवर्तन होता जाएगा और फिर तुम्हारे मन, बुद्धि, जीवन इत्यादि बदलते जाएंगे और फिर तुम्हारे जीवन में हनुमानजी की जय होगी ऐसा तुलसीदासजी का कहने का अभिप्राय है ।

रीर के अन्दर जीव और शिव की जो लडाई चल रही है, उसमें भगवान की जय हो अर्थात मेरी पराजय हो ।  जब तक अन्दर लडाई चल रही है, तब तक अस्वस्थता और अशांति रहनेवाली है शांति अपेक्षित हो तो लडाई बंद होनी चाहिए ।  इसके लिए जीव को शिव की शरणागति स्वीकारनी होगी । इसके लिए जीवन में इन तीनो आचार्यों के तत्त्वो को लाना पडेगा ।

9 comments:

  1. hamen koi bhi kam karne ke piche pachtawa nahin hona chahie ham koi bhi kam Karen tahe Dil se Karen ki he Bhagwan acche Tum Ho bure Tum Ho Jo bhi ho sab kuchh Tum Ho kyunki main kuchh nahin hun jo bhi ho sab kuchh Tum Ho hawa tum ho Bhoomi Tum Ho Agni Tum Ho jal Tum Ho Aakash Tum Ho jab sab kuchh Tum Ho Kan Kan mein Tum Ho to main kya hun main kuchh bhi nahin

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  2. Wow.. Thank you for Sharing Valuable information here. ..
    Hanuman Chalisa is the Powerful Mantra .. .
    श्री हनुमान चालीसा
    Read Bajaran Baan Regularly ...
    बजरंग बाण

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    Thank you for sharing

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